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४३४ भगवती सूक-श. २.उ. १ आर्य स्क्वन्दक-गुणरत्न संवत्सर तप (वस्त्र रहित) होकर शीत. सहन करना । इसी तरह दूसरे मास में निरन्तर बेले बेले पारणा करना, दिन में उत्कटुक आसन से बैठ कर सूर्य के सामने मुख करके आतापना भूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अप्रावृत होकर वीरासन से बैठ कर शीत सहन करना । इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले तेले पारणा करना। इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौले चौले (चार चार उपवास से)पारणा करना । पांचवें मास में पचौले पचौले (पांच पांच उपवास से) पारना करना । छठे मास में निरन्तर छह छह उपवास करना । सातवें मास में निरन्तर सात सात उपवास करना, आठवें मास में निरन्तर आठ आठ उपवास करना । नौवें मास में निरन्तर नौ नौ उपवास करना। दसवें मास में निरन्तर दस वस उपवास करना। . ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारह ग्यारह उपवास करना । बारहवें मास में में निरन्तर बारह बारह उपवास करना । तेरहवें मास में निरन्तर तेरह तेरह . उपवास करना । चौदहवें मास में निरन्तर चौदह चौदह उपवास करना । पन्द्रहवें मास में पन्द्रह पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह सोलह उपवास करना । इन सभी में दिन में उत्कटक आसन से बैठ कर सूर्य के सामने मुंह करके आतापना भूमि में आतापना लेना, रात्रि के समय अप्रावृत (वस्त्र रहित)होकर वीरासन से बैठ कर शीत सहन करना।
स्कन्दक मुनि ने उपर्युक्त विधि के अनुसार गुणरत्न संवत्सर नामक तप की सूत्रानुसार कल्पानुसार यावत् आराधना की। इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण, अर्द्धमासनमण आदि विविध प्रकार के तप , से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
. विवेचन-'गुणरयणसंवच्छर' इस शब्द की संस्कृत छाया ो तरह से बनती है;गुणरचनसंवत्सर, अथवा गुणरत्नसंवत्सर, इनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार किया गया है
'गुणानां निर्जराविशेषाणां रचनं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मितपसि तद गुण- . 'रचनं संवत्सरम् ।" 'गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः, गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तत् । गुणरत्न संवत्सरं तपः।"
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