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भगवती सूत्र-श. २ उ. १० आकाश के भेद
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आदि द्रव्य हैं, वह क्षेत्र लोकाकाश कहलाता है और जिस क्षेत्र में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य नहीं है, वह क्षेत्र अलोकाकाश कहलाता है ।
लोकाकाश रूप अधिकरण में सब जीव, जीवों के देश अर्थात् बुद्धिकल्पित जीव के दो तीन आदि विभाग और जीव के प्रदेश अर्थात् जीवदेश के बुद्धिकल्पित ऐसे सूक्ष्म विभाग जिनके फिर दो विभाग न हो सकें वे विभाग, तथा अजीव, अजीवों के देश और अजीवों के प्रदेश रहते हैं।
शंका-'लोकाकाश में जीव और अजीव रहते हैं'-ऐसा कहने से ही जीव के देश और प्रदेश तथा अजीव के देश और प्रदेश, लोकाकाश में रहते हैं-यह बात जानी जा सकती है, क्योंकि जीव के देश और प्रदेश, जीव से भिन्न नहीं हैं, तथा अजीव के देश और प्रदेश, अजीव से भिन्न नहीं हैं, अपितु जोव, जीव के देश और प्रदेश, ये सब एक ही हैं। इसी तरह अजीव, अजीव के देश और प्रदेश ये सब एक ही हैं, तो फिर यहाँ जीव के देश और प्रदेश तथा अजीव के देश और प्रदेश अलग क्यों कहे ? इसका क्या कारण है ? .
. समाधान-यद्यपि जीव कहने से ही जीव के देश और प्रदेशों का ग्रहण हो जाता हैं। इसी तरह अजीव कहने से ही अजीव के देश और प्रदेशों का ग्रहण हो जाता है, तथापि यहां जीव के देश और प्रदेशों का अलग कथन किया गया है, इसका कारण है और वह यह है कि कितनेक मतावलम्बियों की यह मान्यता है कि-जीवादि पदार्थ अवयव रहित है । उनकी इस मान्यता का खण्डन करने के लिए तथा 'जीवादि पदार्थ सावयव हैं'-इस बात को सूचित करने के लिए 'जीव के देश, जीव के प्रदेश' इत्यादि पृथक् रूप से कथन किया गया है।
- अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी । पुद्गल रूपी-मूर्त है और धर्मास्तिकायादि अरूपी-अमूर्त हैं । रूपी के चार भेद हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल। परमाणुओं के समूह को 'स्कन्ध' कहते हैं । स्कन्ध के दो तीन आदि भागों को 'स्कन्धदेश' कहते हैं । स्कन्धदेश के ऐसे सूक्ष्म अंश जिनके फिर विभाग न हो सके उनको 'स्कन्ध प्रदेश' कहते हैं। जो स्कन्धभाव को प्राप्त नहीं हैं, ऐसे सूक्ष्म अंशों को 'परमाणु' कहते हैं। लोकाकाश में रूपी द्रव्य की अपेक्षा से अजीव, अजीवदेश और अजीवप्रदेश भी हैं, यह बात अर्थतः समझी जा सकती है, क्योंकि अजीव का ग्रहण करने से अणु और स्कन्ध का ग्रहण भी हो जाता है।
दूसरी जगह अरूपी अजीव के दस भेद कहे गये हैं। जैसे कि-धर्मास्तिकाय, धर्मा
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