Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पावयण गं सच्चं Catजा परं वंदे अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जोधपुर ज्वमिज्ज विगणाय इसयय श्री अ.भा.सुध यियंतं सब 14 जैन संस्कृति । कृति रक्षक संघ - - - सस्कृति सुधर्मज सुधर्म जैग संस्कृति शाखा कार्यालय 'सुधर्म जैन संस्कृति नेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राजस्थान) भारतीय सुधर्म जैन, जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय संधर्मज: (01462) 251216, 257699, 250328 28 संस्कृति रक्षक संघ आद 4 अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल संघ अति अखिल भार रक्षक संघ अनि KDXOXOKDOXKOXXCC अखिल भात तिरक्षक संघ अनि अखिल भार तिरक्षक संघ अध ननस्कृतिरक्षकसंध आखलभारतीयासुधागासरला अखिलभार ति रक्षक संघ अCिon अधज.संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कार अखिल भार तिरक्षक संघ अ सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति अखिल भार तिरक्षक संघ अर्ज समर्मजन संस्कृति रक्षक संघ भारतीय सधर्म जैन संकलित अखिल भा ति रक्षक संघ अनि ती अखिल भार ति रक्षक संघ अध का सं लरतीय। अखिलभा ति रक्षक संघ अEिRI का सलरतीयम अखिलभा ति रक्षक संघ अ. 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रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भा तिरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभा ते रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्ष आवरण सौजन्य तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभा ते रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभा तिरक्षक संघ अखिल भारतीय ते रक्षक संघ अखिल भारतीय । रक्षक संघ अखिल भ निरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभ Poखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक.संघ. अखिलभ अखिल भारतीय धर्म जैन संस्कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भ - विद्या बाल मंडली सोसायटी, मेरठ Jain Education Interational तरक्षकसघioगादा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************ *************** ******************* श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का १२ वाँ रत्न गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत. भगवती सूत्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र ) सम्पादक पं. श्री घेवरचन्दजी बांठियाँ “वीरपुत्र " (वर्तमान पं. श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा - नेहरू गेट बाहर, ब्यावर - ३०५६०१ T (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ ************************************ ********************************************** For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान 1 १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 0 2626145 २. शाखा - अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 2251216 ३. महाराष्ट्र शाखा - माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. कर्नाटक शाखा - श्री सुधर्म जैन पौषध शाला भवन, ३८ अप्पुराव रोड़ छठा मेन रोड़ . चामराजपेट, बैंगलोर-१८0 25928439. . ५.श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं0 2217, बम्बई-2 ६. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० __ स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक)3252097 ७. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 8 23233521 ८. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 85461234 ६. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा १०. प्रकाश पुस्तक मंदिर, रायजी मोंढा की गली, पुरानी धानमंडी, भीलवाड़ा 327788 ११. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर १२. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १३. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 225357775 १४. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2360950 सम्पूर्ण सेट मूल्य : ४००-०० | पाँचवीं आवृत्ति वीर संवत् २५३४ १००० विक्रम संवत् २०६४ जनवरी २००८ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर 2 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रस्तावना * . जैन वाङमय में भगवतीसूत्र का स्थान महत्वपूर्ण है । अंग साहित्य में आचारांग का स्थान सर्व प्रथम है । यह सर्व-संवर की आराधना की दृष्टि से है, किंतु तत्त्वज्ञान एवं गंभीर अध्ययन की दृष्टि से भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र अपना विशेष स्थान रखते हैं। इनमें भी प्रज्ञापना सूत्र मात्र द्रव्यानुयोग का ही प्रतिपादक है, किन्तु भगवतीसूत्र तो चारों अनुयोग को धारण करनेवाला है । इसमें विविध विषयों का प्रतिपादन हुआ है । हम जब भगवतीसूत्र का अध्ययन करते हैं, तो स्पष्ट दिखाई देता है कि पहले इसकी सामग्री बहुत विशाल थी। इस सूत्रराज में ऐसी भी सामग्री विद्यमान थी जो अब उपलब्ध नहीं है और बहुतसा भाग संकुचित करके वहाँ प्रतापना आदि सूत्रों का निर्देश किया गया है। इस सूत्र में इतनी सामग्री है कि जिससे यह पांचवां अंग, अन्य किसी भी अंग और उपांग से विशाल है और अपने में सर्वाधिक वस्तु लिये हुए है। इसका प्रारंभ ही "चलमाणे चलिए" रूप एक विशिष्ठ आत्म शुद्धिकर तत्त्व से हुआ है । कहा जाता है कि भगवतीसूत्र में ३६००० प्रश्नोत्तर हैं । इस सूत्रराज का एक नाम 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' भी है। इसमें सभी ज्ञेय पदार्थों के विषय में अपेक्षापूर्वक कथन किया गया है । इसको 'जयकुंजर'-देवाधिष्टित विजयवंत गजराज, की उपमा से टीकाकार ने सुशोभित किया है । जैनधर्म को विशेषरूप से समझने एवं तत्त्वज्ञान का तलस्पर्शी अध्ययन करने के लिए भगवतीसूत्र एक विशाल श्रुतभण्डार है। ज्यों ज्यों इसका स्वाध्याय, चिन्तन एवं परिशीलन किया जाय, त्यों त्यों नये नये अमूल्य रत्ल मिलते रहते हैं। भगवतीसूत्र के प्रकाशन की योजना संस्कृति रक्षक संघ की एक विशिष्ट योजना है। इसके अनुवाद का काम समाज के अनुभवी विद्वान् श्रीयुत पंडित घेवरचंद्रजी वांठिया वीरपुत्र (वर्तमान में श्रीवीरपुत्रजी महाराज) न्याय व्याकरण तीर्थ, सिद्धांतशास्त्री ने किया। आपने शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन से सम्पन्न करके एसा सरल बना दिया है कि जिससे समझने में सरलता हो । श्रीमभयदेवमूरिजी की टीका की सहायता से विवेचन लिखा गया है । पंडितजी ने इस सम्पादन को बहुश्रुत पंडितरत्न श्रमणश्रेष्ठ मुनिराज श्रीसमर्थमलजी महाराज साहब को सनवाड़ और बालेसर के चातुर्मास में सुनाया । मुनिराजश्री ने जहां अर्थ में विषमता प्रतीत हुई, वहां संशोधन करवाया । ये संशोधन वास्तव में आवश्यक और For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उचित थे। इनसे सैद्धांतिक मतभेद दूर होकर वास्तविकता स्पष्ट होती है । जैसे (१) श. १ उ. १ के आत्मारंभादि विषय में टीकाकार, प्रमत्त-संयती में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या नहीं मानते हैं, किंतु यह मान्यता सिद्धांत के अनुकूल नहीं होने से टिप्पण में (पृ. ९१) इसका खुलासा करके प्रमत्तसंयत में छहों लेश्या का सद्भाव बतलाया है। प्रमाण में भगवती सूत्र श. ८ उ. २ का निर्देश किया है। वहां कृष्ण लेश्यावाले जीवों में, सइन्द्रिय जीवों की तरह चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से बताया है । कृष्ण लेश्यावाले जिन जीवों में मनःपर्यवज्ञान पर्यन्त तीन या चार ज्ञान होंगे, वे संयतीही होंगे। क्योंकि मनःपर्यवज्ञान संयत में ही होता। प्रज्ञापनासूत्र पद १७ उ. ३ का मूलपाठ भी यही बतलाता है । यथा "कण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसुवा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा । दोसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयनाणे होज्जा, तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा, चउसु होमाणे आभिणिबोहियसुय-ओहि मणपज्जवनाणेसु होज्जा । एवं जाव पम्हलेसे।" इसमें भी कृष्णादि लेश्या में मनःपर्यवज्ञान स्वीकार किया है, जो संयती में ही होता है। (२) श. १ उ. २ में आयु के वेदन सम्बन्धी उत्तर ६८ में टीकाकारश्री ने वृद्धों की धारणा का उल्लेख करते हुए श्री कृष्णवासुदेव का उदाहरण देकर बताया कि-'पहले उन्होंने सातवीं पृथ्वी का आयुष्य बांधा था, किन्तु बाद में तीसरी का बांधा।' इस कथन को पृ. ११४ में सिद्धांत से विपरीत बताकर लिखा है कि यह बात स्वयं टीकाकारश्री के अपने पूर्व विधान से ही विपरीत जाती है । टीकाकार ने प्रथम उद्देशक में असंवृत अनगार के सम्बन्ध में 'आउय वज्जाओ' शब्द (उत्तर ५७) पर टीका करते हुए लिखा है कि'आयुकर्म एक भव में एक बार ही बँधता है । अतएव एक भव में दो बार आयु का बन्ध बताना उचित नहीं है । इस विषय में इस पुस्तक के पृ. ११३ के अंतिम पेरे में दिया हुआ विवेचन निर्विवाद एवं सूत्राशय के अनुरूप है। सभी संसारी जीवों के ऐसा ही होता है। (३) श. १ उ. २ में तिर्यचों का उपपात उत्कृष्ट सहस्रार कल्प में बताया, वहां टीकाकार श्री. देशविरत तिर्यंच को ही इसका अधिकारी बतलाते हैं । इस विषय में पृ. १५७ के टिप्पण में बताया कि बिना देश विरति के भी संज्ञीतियंच, सहस्रार तक जा सकता है। For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विषय में भगवती श. २४ उ. २० और उ. २४ का हवाला दिया है । (४) श. १ उ. ५ में पृथ्वीकाय के विषय में टीकाकार ने सास्वादन सम्यक्त्व का निर्देश किया, किंतु पृ. २५२ में इस बात को सिद्धांत के विरुद्ध प्रमाणित की गई है । इस प्रकार इस संस्करण में बहुश्रुत मुनिराजश्री के संशोधन से विशेषता आगई है । टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी में कितनी सरलता एवं निरभिमानता थी, यह उनके निम्न उद्गारों से जानी जा सकती है। उन्होंने प्रथम शतक की टीका पूर्ण करते हुए लिखा है कि " इति गुरुगमभंगेः सागरस्याऽहमस्य स्फुटमुपचितजाड्यः पञ्चमांगस्य सद्यः । प्रथमशतपदार्थावर्तगर्त व्यतीतो विवरणवरपोतौ प्राप्य सद्धीवराणाम् ।" अर्थात् — भगवती सूत्र सागर के समान गंभीर है एवं इसका प्रथम शतक सागर की खाड़ी के समान है और इसमें वर्णित पदार्थ समुद्र में भँवर के समान है । मेरी बुद्धि में बहुत बड़ी जड़ता है। मेरे लिए इससे पार होना कठिन है। मुझ में ऐसी शक्ति कहाँ है। कि मैं इससे पार पा सकूं। फिर भी गुरुगम और पूर्वाचार्यों के विवरण ( चूर्णि और अवचूरि) रूपी नोका का अवलंबन लेकर मैंने यह प्रयास किया है । उपरोक्त उद्गारों में आचार्यश्री की सरलता एवं निरभिमानता प्रकट होती है । टीकाकार के सामने उलझनें भी बहुत थीं । उन्होंने अपनी कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए स्थानांग सूत्र की टीका के अंत में लिखा है कि सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदृहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ १ ॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २ ॥ क्षूणानि संभवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धांतानुगतो योऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ॥ ३ ॥ शोध्यं चैतज्जिने भक्तैर्मामवद्भिर्दयापरः । - संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ॥ ४ ॥ आदि अर्थात् - सत्सम्प्रदाय (परम्परा) की हीनता से, सतर्क के वियोग से, सभी स्वपर शास्त्रों का अवलोकन नहीं होने एवं स्मृति में नहीं रहने से, वाचना की अनेकता से, पुस्तकों For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अशुद्धियाँ होने से, सूत्रों के अति गंभीर होने से और मतभेद होने के कारण इस टीका में त्रुटियों का रहजाना संभव है । इसलिए विवेकवान् पुरुषों से निवेदन है कि वे इस सूत्र के उसी अर्थ को माने जो सिद्धांत के अनुरूप हो । सिद्धांत विरुद्ध अर्थ को नहीं माने । दया में तत्पर ऐसे जिनेश्वर के भक्त पुरुष, संसार के घोर कारणभूत ऐसे अपसिद्धांतउत्सूत्र प्ररूपणा से रक्षा करते हुए इस व्याख्या की शुद्धि करें । आदि वास्तव में सूत्रकार की अपेक्षा समझकर विवेचन करना सरल नहीं है । यदि सूत्रकार की अपेक्षा छोड़कर मात्र शब्दों पर ही आधार रखकर व्याख्या की जाय, तो अनर्थ होने की संभावना है । गीतार्थ परम्परा नहीं रहने से भी अर्थ में विषमता आ सकती है। . गुरुपरम्परा अर्थात् पुरानी धारणा भी सिद्धांत की अपेक्षा समझने में सहायक होती है। वास्तव में अर्थ और व्याख्या वही निर्दोष होती है जो मूल के आशय के विपरीत नहीं जावे। वर्तमान में मूल एवं निग्रंथ प्रवचन के आशय की उपेक्षा करके लोकानुसारी अर्थ करने की रुचि विशेष दिखाई देती है। यह चिंता का विषय है। बहुश्रुत मुनिराजश्री वही अर्थ बतलाते हैं. जो मूल के आशय और सिद्धांत के अन्य स्थलों पर आये हुए प्रसंगों के अनुकूल हो। भगवती सूत्र का अनुक्रम से आद्योपान्त अध्ययन के करके विशेष लाभ लेना तो अत्युत्तम है ही। किंतु इतना उद्योग सभी जिज्ञासु नहीं कर सकते । ऐसे साधारण बन्धुओं को नीचे लिखे कुछ विशिष्ट स्थलों को अवश्य हो देखना चाहिए और उन भावों को हृदय में उतारकर लाभान्वित होना चाहिये । यदि वे पहले इतना करके अपनी रुचि बढ़ाकर फिर प्रारंभ से अध्ययन करेंगे, तो उनकी प्रज्ञा में निर्मलता की वृद्धि होगी और वे आगे गति करते जावेंगे। उपादेयश्च संवरः इस सूत्र के पृ. ९४ में प्रश्न ५६ व ५७ के उत्तर में गणधर महाराज के प्रश्न करने पर भ. महावीर देव ने स्पष्ट फरमाया है कि जो मनुष्य, साधु कहाकर भी असंवृत है -- आश्रव का सेवन करता है, वह मुक्त तो नहीं होता, किन्तु कर्मबन्धन बढ़ाकर संसार परिभ्रमण बढ़ा लेता है । इससे समझना चाहिये कि जबतक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि आश्रव मौजूद है, तबतक संसार परिभ्रमण चालू ही रहता है, भले ही वेश साधु का हो । इसके बाद सूत्र ५८ व ५९ पृ. ९८ में स्पष्ट कहा है कि संवरवान अनगार ही For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तात्पर्य यह है कि आश्रव संसार मार्ग है और संवर मोक्षमार्ग है । आश्रव त्यागने योग्य है और संवर आदरने योग्य है । हम सभी यथा शक्ति संवर का सेवन करें और संवरवान् का आदर सत्कार करें, इसी में हमारा आत्महित है । यह आत्म कल्याण का राज मार्ग है । त्रिकाल सत्य है। कांक्षामोहनीय कर्म प्रथम शतक का तीसरा उद्देशक 'कांक्षा-मोहनीय कर्म' के विषय को स्पष्ट करता है । कांक्षामोहनीय कर्म, मिथ्यात्व में ले जाता है। जिनधर्म से गिराकर अधर्म में धकेलता है । जीव में दर्शन-मोहनीय के उदय से शंका कांक्षादि उत्पन्न होते हैं । यदि शंका का समाधान हो जाय, तब तो ठीक ही है, अन्यथा सूत्र ११९ में बताये अनुसार-"तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पंवेइयं"-वही सत्य और सन्देह रहित है जो जिनेश्वर भगवान् ने निरूपण किया है, इस प्रकार सोचकर आत्मा को मिथ्यात्व में गिरने से बचाना ही श्रेयस्कर है। आत्मार्थियों के लिए यह भाव, आत्मा में दृढीभूत करना अत्यावश्यक है । इसीसे पतन रुकता है और आत्मा मिथ्यात्व से बची रहती है। आत्म कृत कर्म .: श. १ उ. ६ सूत्र २०६ से बताया है कि अपने कर्मों का कर्ता ज़ीव खुद ही है । आत्मा स्वयं ही कर्मबन्ध करती है, दूसरी कोई भी शक्ति, जीव को कर्म के बन्धन में नहीं बांध सकती। ईश्वरवादी सुख दुःख का सर्जक ईश्वर को मानते हैं, यह बात उक्त सिद्धांत से खंडित हो जाती है । एकान्त निश्चयवादी, आत्मा को कर्म का कर्ता नहीं मानते, किंतु उनकी एकान्त प्ररूपणा भी ठीक नहीं है । शुद्धस्वरूप-परम पारिणामिक भाव की अपेक्षा आत्मा शुद्ध एवं निविकार है। वह पाप या पुण्य की कोई भी क्रिया नहीं करती। किंतु जहां तक परम पारिणामिक भाव प्रकट नहीं हो और अनादि सपर्यवसित औदयिक भाव रहे, तबतक वह अशुद्ध दशा में है । जीव, स्वयं क्रिया करता है। सुख दुःख का अनुभव करता है । उसे भूख प्यास और रोगादि की वेदना होती है। भोजन और पानी मिलने पर तृप्ति का अनुभव करता है । रोग होने पर दुःख का, आपत्ति आने पर भय का और इष्ट वियोग होने पर शोक का अनुभव करता है । स्वयं एकान्त निश्चयवादी भी शारीरिक कष्ट और थाक से बचने For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए वाहन का उपयोग करते हैं । रोग होने पर औषधी लेते हैं, खाते पीते और सोते हैं। "मुझे लघु-शंका और बड़ी-शंका की बाधा हुई है"-यह सोचकर स्थंडिल जाते हैं । विष या क्लोरोफार्म के प्रभाव से बेहोश हो जाते हैं और आग में या तेजाब में उंगली देने से डरते हैं । इस प्रकार उदयभाव का प्रभाव स्पष्ट ही उन खुद पर होता है । इस प्रत्यक्ष बात को भुलाकर एकान्तवाद को ही पकड़े रहना मिथ्यात्व है । यह बात इस सूत्र से सिद्ध हो रही है। जीव पुद्गल सम्बन्ध सूत्र २२६ से यह बात विशेष रूप से स्पष्ट हो गई कि जीव पुदगल से सम्बन्धित है। ये दोनों स्वतन्त्र द्रव्य होते हुए भी विभावदशा के चलते परस्पर जुड़े हुए हैं । संयोग वियोग शब्द का व्यवहार भी इसी संयोग सम्बन्ध के कारण होता है । जो लोग, जीव पुद्गल की परस्पर आबद्ध ऐसी भूतकालीन अवस्था जानते हुए और वर्तमान में आंखों से देखते हुए भी एकान्तवाद के गृहीत पक्ष के कारण नहीं मानते, वे कदाग्रही हैं । चार गति चौबीस दण्डक, जीवयोनियें, जन्म-मरण आदि विविधताएँ जीव और पुद्गल के संयोग सम्बन्ध से ही होती है । यदि यह संयोग सम्बन्ध नहीं हो, तो जीव, केवल सिद्ध रूप ही हो और पुद्गल केवल परमाणु रूप ही हो । इस सूत्र से एकान्तवाद का निरसन हो जाता है। .. आधाकर्म भोगने का फल श. १ उ. ९ सूत्र ३०३ से आधाकर्म आहार भोगने वाले साधु को आत्मधर्म से निरपेक्ष एवं षट्काय जीवों का हिंसक बताया है और सूत्र ३०५ से निर्दोष आहार भोगने वाले को आत्मधर्मी और षट्काय जीवों का रक्षक बताया है । यह विधान साधु के लिए है, किंतु आधाकर्म आहार का दाता भी पापकर्म से नहीं बचता । उसके लिए भ. श. ५. उ. ६ में लिखा है कि-श्रमणनिग्रंथों को सदोष आहार देने वाला अल्प आयु का बन्ध करता है-जिससे बालपन अथवा युवावस्था में ही मरना पड़े और निर्दोष एवं पथ्यकर आहार देनेवाला शुभ-दीर्घायु प्राप्त करता है। वह अपने कर्मों की निर्जरा करता है (श. ८ उ. ६) यह बात हम उपासकों को विशेष रूप से समझने और ध्यान में रखने की है। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य स्कन्दक का धर्मवाद श. २ उ. १ पृ. ३९० से आर्य स्कन्दक का धर्मवाद और उसके परिणाम को बताने वाला अधिकार प्रारंभ हुआ है। परिव्राजकाचार्य स्कन्दक को पिंगल नाम के निग्रंथ ने कुछ प्रश्न पूछे । उन प्रश्नों का उत्तर श्री स्कन्दकजी के पास नहीं था। उनके लिए वे प्रश्न नये ही थे। श्री स्कन्दकजी विद्वान् थे । वे वेद विशारद एवं वैदिक धर्म के प्रवर्तक थे । उनका हृदय सरल और गुण ग्राहक था। उन्हें उत्तर नहीं आया, तो वे मौन रह गए । किंतु अंटसंट उत्तर देकर प्रश्न कार को टाला या दबाया नहीं। वे सत्य उत्तर देना चाहते थे। जिस विषय में उनकी जानकारी एवं विश्वास हो, वे वही उत्तर देना चाहते थे। उनके हृदय में सत्य के लिए स्थान था, पक्ष के लिए नहीं । वे सत्य समझने के लिए भ. महावीर की शरण में आने से भी नहीं हिचकिचाये। उनके सामने पक्ष-प्रतिष्ठा बाधक नहीं बनी। म. महावीर से समाधान पाकर उनकी आत्मा की दिशा ही बदल गई और वे सच्चे साधक बनकर आत्म कल्याण में जुट गए । पिंगल निग्रंथ का वाद, श्रीस्कन्दकजी के लिए उद्धारक बन गया । कषाय भावना से रहित वाद, हितकारक होता है और कषाय भावना से प्रेरित वाद, अहितकर होता है, वितण्डावाद होता है वहां । ऐसे वाद में सत्य की परवाह नहीं होती । पक्ष का भूत ही उसके सिर पर सवार रहता है । आर्य स्कन्दकजी का यह चरित्र वितंडावाद से बचाने की प्रेरणा देता है । तुंगिका के श्रावक श. २ उ. ५ में तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन, हम उपासकों के लिए मनन करने और शिक्षा लेने योग्य है। उनकी भौतिक ऋद्धि की ओर नहीं ललचा कर उनकी धर्मश्रद्धा, धार्मिक दृढ़ता और निग्रंथ प्रवचन में अनुरागता की ओर ध्यान देना चाहिए। उनकी आत्मा में धर्म प्रेम इतना समा गया था कि कोई देव, दानव भी उन्हें विचलित नहीं कर सकता था। वे आनन्द कामदेव और अरहन्नक जैसे सुश्रावक थे। उन्होंने संयम और तप के फल के विषय में प्रश्न किये । प्रश्न महत्वपूर्ण थे । उनके उत्तर भी महत्वपूर्ण और समझने योग्य हैं। संयम का फल अनाश्रव-संवर और तप का फल निर्जरा है। संयम और तप, बन्धन कारक नहीं होते । संयम से बन्ध की रोक होती है और तप बन्धन काटता है। किंतु संयम पालते हुए और तप करते हुए देवायु का बन्ध क्यों होता है ? यह प्रश्न तत्त्व For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रहस्य को स्पष्ट करता है। उत्तर में विविधता होते हुए भी बाधकता नहीं है । पूर्वतप.. आदि चार उत्तर, संक्षेप में सरागता और सर्मिता में गभित होजाते हैं और विशेष संक्षेप. करने पर सरागता, समिता में तथा समिता, सरागता मे मिलकर एक ही उत्तर बन जाता है। प्रत्येक उत्तर अपने में अन्य तीन उत्तरों को भी गौणरूप लिये हुए है। इन्हीं के . कारण आयु का बन्ध, गति और जन्म आदि होते हैं । ___.. भगवती सूत्र, ज्ञान का विशाल भंडार है । इसका स्वाध्याय भी गंभीरता से करना चाहिये । समझ में नहीं आवे, उस बात को अनुभवी महात्माओं से समझनी चाहिए और कुतर्क से सदैव बचकर रहना चाहिए। इस संस्करण के सम्पादन में पं. बेचरदासजी दोशी द्वारा सम्पादित श्रीभगवतीसूत्र प्रथमखंड तथा आगमोदय समिति वाली प्रति का सहारा लिया है । प्रूफ संशोधन में पहले की तरह इस बार भी विशेष त्रुटियां रहीं, जिसका शुद्धिपत्र दिया जारहा है। श्रीयुत पं. घेवरचंदजी बांठियां ने, उदारमना श्रीमान सेठ किसनलालजी पृथ्वीराजजी मालू के सहयोग से भगवतीसूत्र का सम्पादन किया और बहुश्रुत मुनिश्रेष्ठ श्रीसमर्थमलजी महाराज को सुनाकर संशोधन करवाया, इसके लिये समाज आपका व श्रीमान् सेठ किसनलालजी पृथ्वीराजजी मालू खीचन निवासी का आभारी रहेगा। सैलाना (मः प्र.) वि. सं. २०२१ सन् १९६४ । रतनलाल डोशी SONILO For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन जैन आगम साहित्य एक ऐसा रत्नाकर है, जिसमें विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक रत्न भरे पड़े हैं। जो साधक इस रत्नाकर में जितनी गहरी डुबकी लगाता है, उसे उतने ही अमूल्य आध्यात्मिक रत्न प्राप्त हो सकते हैं। आवश्यकता है हंस बन कर इसमें अवगाहन करने की। वर्तमान में हमारे जैन आगम साहित्य जगत में जो बत्तीस आगम उपलब्ध हैं, उसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र पांचवाँ अंग सूत्र है। यह सूत्र तत्त्व ज्ञान की गंभीरता, विषय की विविधता एवं विशालता की दृष्टि से अपनी अलग ही पहिचान रखता है। समवायांग सूत्र एवं नंदी सूत्र में इस सूत्रराज में ३६००० प्रश्नोत्तर होने का अधिकार मिलता है। विविधता की दृष्टि से विश्वविधा जगत की कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसकी प्रस्तुत आगम में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष चर्चा न की गई हो। इस आगम की शैली अन्य आगमों से भिन्न है। इसमें प्रश्नोत्तरों के माध्यम से जैन तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन, विवेचन इतना विस्तृत किया गया है कि पाठक सहज ही विशाल तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। समवायांग सूत्र में बतलाया गया है कि अनेक देवताओं राजाओं, राजऋषियों ने भगवान् से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे। उन सभी प्रश्नों का भगवान् ने सविस्तार उत्तर दिया है। इस आगम में मात्र स्वमत का ही निरूपण नहीं किया गया, अपितु अन्य मत का भी निरूपण हुआ है। इसके अलावा इस आगम के प्रति जन मानस में अपार श्रद्धा रही है। श्रद्धा के कारण ही व्याख्याप्रज्ञप्ति के पूर्व 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त हुआ। शताधिक वर्षों से तो "भगवती" विशेषण न रह कर व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का अपर नाम हो गया है। आज व्यवहार में यह आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा भगवती सूत्र के नाम से ज्यादा प्रचलित है। तत्त्वों की व्याख्या, सूक्ष्मता, ऐतिहासिक घटनाओं, विभिन्न व्यक्तियों का वर्णन आदि का विवेचन इतना विस्तृत किया गया है कि इसे प्राचीन जैन ज्ञान का विश्वकोष कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। भगवती सूत्र के प्रकाशन की योजना श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ की एक विशिष्ट योजना थी। इसके प्रथम भाग का प्रकाशन विक्रम संवत २०२१ में हआ और अन्तिम सातवाँ भाग वि.सं. २०२६ में सम्पूर्ण हुआ। यानी पूरे आठ वर्ष इस भगवती सूत्र की प्रथम आवृत्ति प्रकाशित होने में लगे। इस सूत्र के अनुवाद का आधार, अनुवादक विद्वान् का नाम तदुपरान्त इसके सुनने वाले पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव एवं सैद्धान्तिक धारणा, संशोधन आदि के कारण इस सूत्रराज ने जो प्रामाणिकता एवं प्रसिद्धि हासिल की इसका विस्तृत विवेचन समाज के जाने-माने विद्वान् एवं सम्यग्दर्शन के आद्य सम्पादक श्रीमान् रतनलालजी सा. डोशी ने इस सूत्र के प्रथम भाग में सविस्तार से दे दिया है। साथ ही प्रथम भाग में आई विषय सामग्री के साथ समाज में परम्परागत चली आ रही सैद्धान्तिक धारणा में किये गये संशोधन का आगमिक प्रमाण के साथ स्पष्टीकरण भी किया। अतएव पाठक बन्धुओं को प्रस्तुत सूत्र के इस प्रथम भाग की प्रस्तावना का अवश्य अवलोकन करना चाहिये। जून १६६३ में जब कार्यालय सैलाना से ब्यावर स्थानान्तरित हुआ, उस समय भगवती, प्रश्नव्याकरण, उपासकदशा सूत्र तो बड़े आगम बत्तीसी साईज में थे तथा नंदी सूत्र, उत्तराध्यपन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, अंतगडदशा सूत्र छोटी साईज में उपलब्ध थे। इसके अलावा समवायांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग और विपाक सूत्र के हस्तलिखित कापियों के बंडल मिले, जो समाज के जाने माने विद्वान् पंडित श्रीमान् घेवरचन्द्रजी बांठिया “वीरपुत्र" न्याय-व्याकरण तीर्थ, सिद्धान्त शास्त्री द्वारा बीकानेर में रहते हुए अनुवादित किये गये थे। उन बंडलों को देखकर मेरे मन में भावना बनी क्यों नहीं इनको व्यवस्थित कर इनका For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] प्रकाशन संघ की ओर से किया जाय। इसके लिए आर्थिक पीठ बल की आवश्यकता थी। मैंने संघ के तात्कालिन अध्यक्ष और वर्तमान संघ के संरक्षक तत्त्वज्ञ सुश्रावक रत्न श्रीमान् जशवंतलालभाई शाह, बम्बई से सम्पर्क किया तो आपश्री ने उन सभी आगमों को अपने आर्थिक सहयोग से छपवाने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। परिणाम स्वरूप ये आगम प्रकाशित हुए । इसके प्रकाशन के बाद मेरे मन में भावना बनी कि जब इतने आगम संघ की ओर से प्रकाशित हो चुके हैं, तो शेष आगम ओर प्रकाशित कर सम्पूर्ण आगम बत्तीसी ही क्यों न पूरी प्रकाशित कर दी जाय। आर्थिक सहयोग के लिए पुनः शाह साहब से निवेदन किया तो आपने फिर उदारता के साथ सम्पूर्ण आगम बत्तीसी का अपनी ओर से प्रकाशन कराने की स्वीकृति प्रदान कर दी। इस प्रकार आपश्री के आर्थिक संबल और प्रोत्साहन के कारण ही यह आगम बत्तीसी पूर्ण हो पाई । आपश्री की संम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए हमेशा उदार भावना रही है। धर्म प्राण समाज रत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलाल भाई शाह एवं श्राविका रत्न श्रीमती मंगला बहन शाह, बम्बई की सम्यक्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा जितने भी आगम प्रकाशन हों वे अर्द्ध मूल्य में ही बिक्री के लिए पाठकों को उपलब्ध हों। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग प्रदान करने की आज्ञा प्रदान की है। तदनुसार प्रस्तुत आग पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है, संघ एवं पाठक वर्ग आपके इस सहयोग के लिए आभारी हैं। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ । इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। जो अन्य संस्थानों के प्रकाशनों की अपेक्षा अल्प है। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अर्न्तगत इसकी यह पांचवीं आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है । आपके अर्थ सहयोग के कारण इस आवृत्ति के मूल्य में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गयी है। संघ आपका आभारी है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है कि वे इस पांचवीं आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें । ब्यावर (राज.) दिनांक : १-१-२००८ भाग १ संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका शतक-१ ११४ ११८ पणन विषय __ पृष्ठ : विषय उद्देशक १ उद्देशक २ १ मंगलाचरण १ २२ स्वकृत कर्म वेदना २ प्रथम शतक उद्देशक परिचय -५ | २३ नैरयिक सम्बन्धी विचार ३ वीर स्तुति २४ नैरयिकों के समर्म आदि ४ इन्द्रभूतिजी की महानता . १३ प्रश्नोत्तर ५ गौतमस्वामी की जिज्ञासा १७ २५ नैरयिकों के समवेदना आदि १२१ ६ प्रथम उद्देशक प्रारंभ-चलमाणे २६ असुरकुमारादि में समाहारादि १.२७ चलिए २७ पृथ्वीकायिक में आहारादि १३१ ७ नारक जीवों की स्थिति आदि का २८ बेइन्द्रियादि जीवों का वर्णन १३४ . वर्णन २९ मनुष्य के आरंभिकी आदि क्रिया १३७ ८ भेद चयादि सूत्र ३० देवों का वर्णन ९ काल चलितादि सूत्र १४१ ३१ लेश्या १४२ १० असुरकुमार देवों का वर्णन . ५७ ३२ संसार संस्थान काल ११ नागकुमार देवों का वर्णन ६२ ३३ अंतक्रिया १२ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन ६६ ३४ उपपात १३ बेइन्द्रिय जीवों का वर्णन ७३ ३५ असंज्ञी जीवों का १४ तेइन्द्रियादि जीवों का वर्णन १५ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य का उद्देशक वर्णन | ३६ कांक्षामोहनीय १६.वाणव्यन रादि का वर्णन ८१ ३७ कांक्षामोहनीय वेदन १७ आत्मारंभ परारंभ | ३८ अस्तित्व और नास्तित्व ... १८ ज्ञानादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तर ९२ | ३९ कांक्षामोहनीय के बन्धनादि १९ असंवृत्त अनगार. २० संवृत्त अनगार उद्देशक ४ २१ असंयतजीव की गति १०१।४० कर्म प्रकृतियां २०३ १४५ १५१ ७७ ६३ १७८ For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ विषय ४१ उपस्थान- परलोक की क्रिया ४२ अपक्रमण - पतन ४३ कर्मक्षय से मोक्ष ४४ पुद्गल का नित्यत्व ४५ छद्मस्थादि की मुक्ति उद्देशक ५ ४६ नरकावास ४७ असुरकुमारों के आवास ४८ पृथ्वी कायादि के आवास ४९ स्थिति स्थान २२२ २२३ २२५ २२७ ५० अवगाहना स्थान २३५ ५१ नारकों के शरीर २३७ २४१ ५२ नैरयिकों की लेश्या दृष्टि आदि ५३ असुरकुमारों के स्थिति स्थान आदि २४७ ५४ पृथ्वी कायिक के स्थिति स्थानादि २४९ ५५ बेइन्द्रियादि के स्थिति स्थानादि २५२ ५६ मनुष्य के स्थिति स्थानादि २५५ ५७ वाण व्यन्तरादि के स्थिति स्थानादि २५६ उद्देशक ६ ५८ सूर्य के उदयास्त दृश्य की दूरी ५९ लोकान्त स्पर्शना आदि ६० क्रिया विचार ६१ आर्य रोह के प्रश्न ६२ लोक स्थिति ६३ जीव पुद्गल सम्बन्ध ६४ स्नेहकाय पृष्ठ २०५ २०७ २१० २१४ २१६ २५८ २६१ २६४ २६९ २७६ २८० २८२ विषय उद्देशक ७ ६५ नारक जीवों का आहार ६६ विग्रह गति ६७ गर्भ विचार ६८ गर्भगत जीव के अंगादि ६९ गर्भस्थ जीव की नरकादि गति ७० गर्भ में जीव की स्थिति उद्देशक ९ ७५ जीवादि का गुरुत्व लघुत्व ७६ निर्बंधों के लिए प्रशस्त उद्देशक ८ ७१ बाल पंडितादि का आयुष्य ३११ ७२ मृग घातकादि को लगनेवाली क्रिया ३१६ ७३ हार जीत का कारण ७४ वीर्य विचार ७९ अप्रत्याख्यान क्रिया ८० आधाकर्म भोगने का फल पृष्ठ ८५ एषणीय आहार का फल ८२ स्थिर अस्थिरादि प्रकरण २५६ २९२ २९६ ३०२ ३०४ ३०८ ३३० ३३९ ७७ अन्यमत और आयुष्य का बन्ध ३४१ ७८ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर ३४४ ३५३ ३५४ ३५८ ३६० For Personal & Private Use Only ३२५ ३२६ उद्देशक १० ८३ परमाणु के विभाग और भाषा अभाषा ३६२ ८४ पथिक और साम्परायिकी क्रिया ३७१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक विषय उद्देशक १ ८५ उपपात विरह ८६ जीवों का श्वासोच्छ्वास .. ८७ वायुकाय का श्वासोच्छ्वास ८८ मतादी अनगार ८९ आर्य स्कन्दक पृष्ठ विषय पृष्ठ . ९५ तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोत्तर ४६८ ६६ राजगृह का गरम पानी का कुण्ड ४९५ ३७४ ३७७ उद्देशक ६ ३८५ ९७ भाषा विषयक मान्यता ४९९ . ३२ १९० उद्देशक २ ९० समुद्घात वर्णन उद्देशक ७ ९८ देवों के प्रकार : - उद्देशक ३ . ९१ पृथ्विया . .. उद्देशक ४ ९२ इन्द्रियाँ उद्देशक ५ उद्देशक ८ ९९ चमरचंचा राजधानी ___४५४ उद्देशक ९ |१०० समय क्षेत्र ४५७ | उद्देशक १० | १०१ पंचास्तिकाय वर्णन ५१२ १०२ जीव का स्वरूप | १०३ आकाश के भेद ४६२ | १०४ धर्मास्तिकाय बादि को स्पर्शना' ५२७ _ ५१० ९३ परिचारणा ९४ गर्भ विचार ५२२ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. ११ ३ १५ १७ २० ६ २३ २ ४१ २७ ४५ ९ ४७ १० ४८ १५ ८५ १० ८९ १५ ९१ ७ ९१ ९ ९३ २६ ९९ १५ १२४ १५ १३५ २ १४१ १६ १५६ १५६ १५६ १५७ १६३ १७५ १७५ पंक्ति अशुद्ध अर्तात् करने ५ ७ 10. ~ ~ A N २२ १८ १५ २३ & शुद्धि-पत्र & * स्वानी कमों नया नरयिक (सूक्ष्म) कर्मद्रव्य गंणा आयारंभा पद्यलेश्या प्रसादी पद्यलेश्या मो पसगाओ नारकियों पंचिदियतिरिक्खिजोणिया वाणव्यवतर उत्पन्न में करले कान्दर्पित कसता कक्षा भोहनीय इताना तकता शुद्ध अर्थात् करने के स्वामी कर्मों गया नैरयिक (सूक्ष्म) कर्मद्रव्यवर्गणा अणारंभा पद्म लेश्या प्रमादी पद्म लेश्या भी बहुपसगाओ नारकियों को पंचिदियतिरिक्खजोणिया For Personal & Private Use Only वाणव्यन्तर में उत्पन्न करने कन्दर्पक सकता कांक्षामोहनीय इतना सकता Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पु. १७६ ५ पादार्थों २२१ १० जाना २२५ २० २२८ १८ पंक्ति अशुद्ध २३१ २६ २३५ १४ २४१ ७ २४३. २२ २५४ ε २५६ ८ २७६ २८४ २९१ ५. ३१६ ૧૪ ३२५ ११ ३३९ १६ ३४६ ४ ३८६ ५ ४११ ४१८ .५०५ ५०६ ६ ४१८. १४ ४३६ २५ ४४९ १९ १३ ४५८ ५०३ २ ܘܢ अत्य भंते १२-१३ वत्थमाडोवेइ वत्थिमाडोवेत्ता १३ नष्ट ही विषय कायुकुमारो मायोवउत्तेय २२ १६ कहलता पग्गु कोसिया क्योिं पृथ्वी करना किरिवाहि वदाई अगुघुरुलघु पार्श्वनार्थ हव्वामागच्छइ वृक्ष गिरकर वियवे इय संयममात्रा म्रियतेइतिअमरः कहि अंगुल से सात सौ तरह 'उज्जोए ' शुद्ध पदार्थों जाता वायुकुमारों मायोवउत्ते य For Personal & Private Use Only कहलाता तप्पाको सिया क्योंकि पृथ्वी कहना अत्थमंत . बत्थिमा डोवेइ बत्थिमाडोवेत्ता नष्ट हो विषय किरियाहि बढाई अगुरुलघु पार्श्वनाथ हव्वमागच्छइ वृक्ष से गिर कर विजय- वेणइय संयमयात्रा म्रियते इति अमर: कहि अंगुल के छह सो _तरफ 'सउज्जीए ' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय १. बड़ा तारा टूटे तो २. दिशा दाह * ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो - ४. अकाल में बिजली चमके तो ५. बिजली कड़के तो ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो ८६. काली और सफेद धुंअर १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित होऔदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे१५. श्मशान भूमि १६. चन्द्र ग्रहण १७. सूर्य ग्रहण अस्वाध्याय तब तक सौ हाथ से कम दूर हो, तो । खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर ( चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये ।) खंड ग्रहण में १२ प्रहर ́ पूर्ण हो तो १६ प्रहर १६. युद्ध स्थान के निकट २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, काल मर्यादा एक प्रहर जब तक रहे दो प्रहर एक प्रहर आठ प्रहर प्रहर रात्रि तक जब तक दिखाई दे जब तक रहे जब तक रहे (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न हो जब तक युद्ध चले ये तियंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो । मनुष्य की हड्डी यदि जली या घुली न हो, तो १२ वर्ष तक। २६-३२. प्रातः, मध्याह, संध्या और अर्द्ध रात्रि इन चार सन्धिकालों में जब तक पड़ा रहे ( सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता । ) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५- २८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा दिन रात १- १ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा दाह है। For Personal & Private Use Only . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोत्पुण समणस्स भगवओ महावीरस्त गणधर भगवान् सुधर्मस्वामी प्रणीत श्री भगवती सूत्र मंगलाचरण ____णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । णमो बंभीए लिवीए । णमो सुयस्स। शब्दार्ष-गमो अरहताणं-अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो, गमो सिद्धार्ग-सिद्ध भगवान् को नमस्कार हो, णमो आयरियाणं-आचार्य महाराज को नमस्कार हो, णमो उवमायागं-उपाध्यायजी महाराज को नमस्कार हो, गमो लोए सव्वसाहणं-लोक में सब साधुजी महाराज को नमस्कार हो, गमो बंभीए लिबीए-ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो, णमो सुयस्स-श्रुत को नमस्कार हो । भावार्थ-अरिहन्त भगवान् को नमस्कार हो, सिद्ध भगवान् को नमस्कार हो, आचार्यजी महाराज को नमस्कार हो, उपाध्यायजी महाराज को नमस्कार हो, लोक में सब साधुजी महाराज को नमस्कार हो। बाह्मी लिपि को नमस्कार हो। श्रुत को नमस्कार हो। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - मंगलाचरण - विवेचन - जो इन्द्रों द्वारा रचित अशोकवृक्षादि अष्ट महाप्रातिहार्य रूप पूजा, वन्दन, नमस्कार एवं सत्कार के योग्य हैं और जो सिद्धिगमन के योग्य हैं, उनको अर्हत् कहते हैं । ‘अरहन्त' शब्द का रूपान्तर और पाठान्तर ये शब्द हैं - अरहोऽन्त, अरथान्त, अरहन्त, अरिहन्त, अरूहन्त । २ सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने के कारण जिमसे कोई भेद छिपा हुआ नहीं है, जिनके ज्ञान के लिए पर्वत गुफा आदि कोई भी बाधक - रुकावट करने वाले नहीं हैं, उन्हें 'अरहोऽन्त' कहते हैं । . जिनके किसी भी प्रकार का परिग्रह रूप रथ नहीं है तथा वृद्धावस्थादि अन्त नहीं है, उन्हें 'अरथान्त' कहते हैं । वीतराग हो जाने के कारण जिनकी किसी भी पदार्थ में किञ्चित्मात्र भी आसक्ति नहीं है, उनको 'अरहन्त' कहते हैं । कर्म रूपी अरि-शत्रुओं का हनन - विनाश करने वालों को 'अरिहन्त +' कहते हैं । कर्म रूपी बीज के क्षीण हो जाने से जिनकी फिर उत्पत्ति अर्थात् जन्म नहीं होता, उनको 'अरूहन्त' कहते हैं । इनको मेरा नमस्कार हो । सिद्धः-परम विशुद्ध शुक्लध्यान रूपी अग्नि से जिन्होंने समस्त कर्मों को भस्मीभूत कर दिया है, जो पुनरागमन रहित ऐसी निर्वृत्तिपुरी (मुक्ति) में पहुंच गये हैं, जिनके समस्त कार्य सम्पन्न हो जाने से जो कृतकृत्य हो चुके हैं, जो मंगल रूप हैं, अविनाशी हैं, ऐसे सिद्ध भगवान् को नमस्कार हो । + अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिभूयं होइ सयलजीवाणं । तं कम्ममार हन्ता, अरिहंता तेण बुच्वंति ॥ अर्थ-आठ प्रकार के कर्म सभी जीवों के लिए शत्रु रूप हैं। उन कर्मशत्रुओं का जो विनाश करते हैं । उनको 'अरिहन्त' कहते हैं । आवश्यक आदि सूत्रों में एवं णमोत्थूणं आदि के पाठों में मूल में ही " णमो अरिहंताणं” ऐसा पाठ मिलता है । • दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा बग्धे, न रोहति भवांकुरः ॥ अर्थ- जिस प्रकार बीज के सर्वथा जल जाने पर अंकुर पैदा नहीं होता है, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने पर भव रूपी अंकुर पैदा नहीं होता है, अर्थात् जन्मान्तर नहीं होता है। + मातं सितं येन पुराण-कर्म, यो वा गतो निर्वृत्तिसोधमूर्ध्नि ! ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ॥ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवती सूत्र-नमस्कार मंत्र आचार्य-सूत्र और अर्थ के ज्ञाता, गच्छ के नायक, गच्छ के लिए आधारभूत, उत्तम लक्षणों वाले, गण के ताप से विमुक्त अर्थात् गण की सारण वारण और धारण रूप व्यवस्था की चिन्ता से न घबराने वाले, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार, इन पांच प्रकार के आचार का दृढ़ता से पालन करने वाले और पालन कराने वाले आचार्य होते हैं । ऐसे आचार्य महाराज को नमस्कार हो। - उपाध्याय -जिनके समीप रह कर जैनागमों का अध्ययन किया जाय, जिनकी सहायता से जैनागमों का स्मरण किया जाय, जिनकी सेवा में रहने से श्रुतज्ञान का लाभ हो,. सद्गुरु परम्परा से प्राप्त जिन वचनों का अध्ययन करवा कर जो भव्य जीवों को विनय में प्रवृत्ति कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं । ऐसे उपाध्यायजी महाराज को नमस्कार हो। साधु+-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के द्वारा मोक्ष को साधने वाले तथा सब प्राणियों में समभाव रखने वाले साधु कहलाते हैं। उन सब साधुजी महाराज को नमस्कार हो । यहाँ 'सर्व' शब्द से सामायिक आदि पाँच चारित्रों में से किसी भी चारित्र का पालन करने वाले, भरतादि किसी भी क्षेत्र में विदयमान, तिर्छा लोकादि किसी भी लोक में विदधमान और स्त्रीलिंगादि तथा स्वलिंगादि किसी भी लिंग में विदयमान, भाव चारित्र सम्पन्न, छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती सभी साधु साध्वियों का ग्रहण किया गया है, जो जिनाज्ञा अनुसार ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाले हैं। . णमो लोए सव्वसाहूणे-में जो 'सव्व-सर्व' शब्द ग्रहण किया गया है वह पहले के चार पदों के साथ अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय, इन चारों पदों के साथ भी लगा लेना चाहिए। सुतत्यविऊ लक्खगजुत्तो, गच्छस्स मेढिभूओ य। गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्यं वाएइ आयरिओ॥. पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पमासंता। आयारं दंसंता, आयरिया तेण बुच्चंति ॥ •बारसंगो जिणक्खाओ, समाओ कहिओ बूहे। तं उवइसंति जम्हा, उबजमाया तेण.वुच्चंति ।। + निब्वाणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो। समा य सम्बस्नु, सम्हा ते भाव साहुमो॥ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भगवतीसूत्र - मंगलाचरण उपरोक्त पांच पदों को 'पंच परमेष्ठी' कहते हैं । 'शंका- 'यथाप्राधान्य' न्याय के अनुसार सब से पहले 'सिद्ध भगवान्' को नमस्कार करना चाहिए । इसके बाद क्रमशः अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधुजी को नमस्कार करना चाहिए | क्योंकि सिद्ध भगवान् के आठों कर्म क्षय हो चुके हैं । अतएव वे कृतकृत्य हैं । अरिहन्त भगवान् के अभी चार अघाती कर्म शेष हैं । फिर उन्हें पहले नमस्कार कैसे किया गया ? समाधान - यद्यपि अरिहन्त भगवान् की अपेक्षा सिद्ध भगवान् प्रधान हैं, तथापि अरिहन्त भगवान् के उपदेश से सिद्ध भगवान् की पहचान होती है, तथा तीर्थङ्कर भगवान् तीर्थ (साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका रूप चार तीर्थ) के प्रवर्तक होने से अत्यन्त उपकारी हैं । इसलिए सिद्ध भगवान् से पहले अरिहन्त भगवान् को नमस्कार किया गया है । शंका- यदि आसन उपकारी को प्रथम नमस्कार किया जाना चाहिए; तब तो सर्व प्रथम आचार्य को नमस्कार करना चाहिए, क्योंकि किसी समय अरिहन्तों की पहचान भी आचार्य द्वारा कराई जाती है । इसलिए आचार्य अत्यन्त आसन्न उपकारी हैं । समाधान- अरिहन्त भगवान् के द्वारा उपदिष्ट आगमों द्वारा ही आचार्य उपदेश देते हैं । स्वतन्त्र उपदेश द्वारा अर्थ ज्ञापन की शक्ति आचार्य में नहीं है । अतः वास्तविक रूप से अरिहन्त भगवान् ही अर्थों के ज्ञापक हैं। आचार्य तो अरिहन्त भगवान् की सभा के सभासद (सभ्य) हैं। इसलिए सर्व प्रथम अरिहन्त भगवान् को ही नमस्कार करना उचित है। ब्राह्मी लिपि - भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) द्वारा अपनी पुत्री ब्राह्मी को दिया हुआ लिपि का बोध - ' ब्राह्मी लिपि' कहलाता है । ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करने का अर्थ है - इस लिपि का बोध देने वाले भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार करना । इस लिपि के द्वारा श्रुत को लिपिबद्ध करके चिरकाल तक स्थायी रखा जा सकता है । विस्मृति से बचाया जा सकता है और स्वपर हित साधा जा सकता है । श्रुत को नमस्कार - श्रुत शब्द का अर्थ यहाँ द्वादशांगी रूप अर्हत् प्रवचन है। क्योंकि यह श्रुतज्ञान ही ऐसा है जो व्यवहार में आता है । दिया लिया जाता है और लिपिबद्ध ● टिप्पण - कुछ लोग 'अरिहन्त' आदि पदों का विपरीत अर्थ करते हैं, अर्थात् सावदध प्रवृत्ति करने वालों का समावेश इन पदों में करते हैं, परन्तु वह अर्थ जैनागमों के अनुकूल नहीं है। अतः जो अर्थ ऊपर विवेचन में दिया गया है, वही ठीक हैं। + ऐसा प्रतीत होता है कि वीर संवत् ९८० में जब देवद्ध गणि क्षमाश्रमण द्वारा सूत्र लिपिबद्ध For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--शतक १ परिचय किया जाता है । जिनधर्म अनादि काल से चला आ रहा है । इसमें श्रुतज्ञान का योग ही विशेष रूप से उपकारी रहा है। इसीलिए यहाँ पञ्च परमेष्ठी के साथ साथ जिनवाणी रूप श्रुतज्ञान को अर्थात् श्रुतज्ञान के धारक मुनियों को भी नमस्कार किया है। श्रुतज्ञान की आराधना की परम्परा निर्बाध रूप से चलती रहे, यह भावना इसके मूल में रही प्रथम शतक-उद्देशक परिचय रायगिह चलण दुक्खे, कंखपओसे य पगइ पुढवीओ। जावंते गैरइए, बाले गुरुए य चलणाओ॥ शब्दार्थ-रायगिह चलण-राजगृह नगर में चलन, दुक्खे-दुःख । कंखपओसे-कांक्षाप्रदोष । पगइ-प्रकृति । पुढवीओ-पृथ्वियों । जावंते-यावन्त-जितने । गेरइए-नैरयिक । बाले-बाल । गुरुए -गुरुक। य-और चलणाओ-चलनादि । भावार्थ-इस संग्रह गाथा में प्रथम शतक में आये हुए विषयों की सूची दी गई है। प्रथम शतक में दस उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक का प्रारम्भ उपरोक्त .गाथा में कहे हुए शब्दों से हुआ है। अर्थात् प्रथम उद्देशक का प्रारम्भ 'चलमाणे चलिए' से हुआ है। दूसरे उद्देशक में 'दुःख' विषयक प्रश्न है। इसी प्रकार आगे के उद्देशकों में क्रमशः कांक्षामोहनीयादि विषयक पृच्छा की गई है। . किये गये उस समय यह आदिमंगल रूप मंगलाचरण जुड़ गया हो । अत: उसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार भावलिपि ही होना चाहिए, क्योंकि गणधर भगवान् स्वयं श्रुतकेवली थे । अत: उन्हें श्रुत को नमस्कार करने की क्या बावश्यकता थी? दूसरी बात यह है कि श्रुत प्रवर्तन में उन्होंने लिपि का सहारा लिया ही नहीं था, फिर उन्हें लिपि और लिपिदाता को नमस्कार करने की आवश्यकता ही क्या थी? कितनीक. प्रतियों में 'णमो सुयस्स' यह पद नहीं है । संग्रह गाथा को देखते हुए भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि भगक्ती सूत्र का प्रारम्भ 'राजगृह नगर' इस पद से हुआ है, जैसा कि संग्रह गाथा में कहा गया है 'रायगिह चलण दुक्खे' इत्यादि । तथा आगे कहा है-'सेणं कालेणं तेणं समएर्ण रायगिहे गामं गयरे होत्या' इत्यादि। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शतक ९ उद्देशक १ प्रथम उद्देशक - तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम णयरे होत्था, वण्णओ। तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए गुणसिलए णामं चेहए होत्था । सेणिए राया, चिल्लणा देवी ॥४॥ शब्दार्थ-तेणं कालेणं-उस काल तेणं समएणं-उस समय में रायगिहे णाम-राजगृह नाम का, जयरे-नगर होत्या-था। वण्णओ-उसका वर्णन कर देना चाहिए। तस्स + उस रायगिहस्स गयरस्स-राजगृह नगर के बहिया-बाहर, उत्तरपुरथिमे दिसीमाए-उत्तर पूर्व . के दिशा भाग में अर्थात् ईशान कोण में गुणसिलए-गुणशिलक णाम-नाम का चेइए-चैत्यव्यन्तरायतन, होत्या-था। सेणिए राया-श्रेणिक राजा था। चिल्लणा देवी-चेलना नाम की रानी थी। भावार्थ-उस काल अर्थात् इस अवपिणी काल के चौथे आरे में, उस समय अर्थात् जिस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते थे उस । समय में राजगृह नाम का एक नगर था। वह नगर • धन धान्यादि समृद्धि से समृद्ध था। उसके ईशान कोण में 'गुणशिलक' नामक चैत्य था अर्थात् व्यन्तर जाति के देव का स्थान था। राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था, उसकी रानी का नाम चेलना था। शंका-राजगृह नगर तो अभी भी विदयमान है, फिर उसके लिए 'था' ऐसा भूतकालिक प्रयोग क्यों किया ? के समाधान-राजगृह नगर का वर्णन करने वाले ग्रन्थ में जिस विभूति एवं समृद्धि का वर्णन किया गया है, उन विभूतियों एवं समृद्धियों से युक्त तो वह उसी समय था, परंतु +'ण' यह अव्यय है, वाक्यालङ्कार में आता है । 'ण' का स्वतन्त्र अर्थ कुछ नहीं है, केवल बाक्य की शोभा बढ़ाने के लिए प्रयुक्त होता है । - उवगई सूत्र में चम्पा नगरी का जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन 'राजगृह' नगर का बानना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १ उ. १-वीर स्तुति जिस समय में सुधर्मा स्वामी वाचना दे रहे थे उस समय में वह वैसा नहीं था। यह अवसर्पिणी काल होने के कारण नगर के कितनेक उत्तम पदार्थों की हानि हो जाने से, राजगृह नगर जैसा भगवान् महावीर स्वामी के समय था, वैसा उस समय नहीं था। इस अपेक्षा से 'राजगृह नगर था'-ऐसा भूतकालिक प्रयोग किया गया है। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगणाहे लोगहिए लोगपईवे लोगपज्जोयगरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणदए बोहिदए धम्मदए धम्मदेसए धम्मणायगे धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरणाणदंसणधरे वियट्टछउमे जिणे जाणए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयए सव्वण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वाबाहमप्पुणरावित्तियं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं ॥५॥ परिसा णिग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया ॥६॥ शब्दार्थ-तेणं कालेणं-उस काल तेणं समएणं-उस समय समणे-श्रमण भगवं-भगवान् महावीरे-महावीर आइगरे-आदिकर-श्रुत की आदि करने वाले, तित्ययरे-तीर्थङ्कर -प्रवचन तथा चतुर्विध संघ रूप तीर्थ को करने वाले, सहसंबुद्ध-सहसंबुद्ध-स्वयं तत्त्वों के ज्ञाता, पुरिसुत्तमे-पुरुषों में उत्तम पुरिससोहे-पुरुषसिंह-पुरुषों में सिंह के समान, पुरिसपरपुंडरीए-पुरुषवर पुण्डरीक-पुरुषों में उत्तम कमल समान, पुरिसवरगंधहत्थी-पुरुषवरगन्धहस्ती-पुरुषों में उत्तम गन्धहस्ती के समान, लोगुतमे लोकोत्तम, लोगणाहे-लोकनाथ, लोगहिए-लोकहितकर, लोगपईवे-लोक प्रदीप-लोक में दीपक के समान, लोगपज्जोयगरे -लोकप्रदयोतकर-लोक में प्रदयोत करने वाले, अभयदए-अभयदाता, चक्खुदए-चक्षुदाता -ज्ञान रूप नेत्रों के देने वाले, मग्गवए-मार्गदाता-मोक्ष रूप मार्ग के देने वाले, सरणदए-शरणदाता-बाधारहितस्थान अर्थात् निर्वाण के देने वाले, बोहिबए-बोधिदाता-समकित For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र-श. १ वीरस्तुति के देने वाले, धम्मदए-धर्मदाता, धम्मदेसए-धर्मदेशक-धर्मोपदेश के देने वाले, धम्मणायगे -धर्मनायक, धम्मसारही-धर्म सारथि-धर्म रूप रथ के सारथि, धम्मवर चाउरंतचक्कवट्टी -धर्मवर चातुरन्तचक्रवर्ती-धर्म के विषय में उत्तम चातुरन्त चक्रवर्ती के समान, अप्पडिहयवरणाण-दसणधरे-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधर-अप्रतिहत उत्तम ज्ञान और दर्शन के धारण करने वाले, वियदृछउमे-छद्मस्थपने से निवृत्त, जिणे-जिन-रागद्वेष के जीतने वाले, जाणए -ज्ञायक-सकल तत्त्वों के जानने वाले, बुद्ध-बुद्ध, बोहए-बोधक-तत्त्वों का बोध कराने वाले; मुत्ते-मुक्त-बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि से मुक्त, मोयए-मोचक-ग्रन्थि से मुक्त कराने वाले, सव्वण्णू-सर्वज्ञ, सव्वदरिसी-सर्वदर्शी, इन गुगों से युक्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, सिवं-शिव अयलं-अचल, अरुंअं-अरुज रोग-रहित, अगंतं-अनन्त अक्खयं-अक्षय अव्वाबाहं -अव्याबाध-बाधा-पीडा रहित, अप्पुणरावित्तियं-पुनरावृत्ति रहित, सिद्धिगइनामधेयंसिद्धिगति नामक ठाणं-स्थान को संपाविउकामे-प्राप्त करने की इच्छा वाले, विचरते थे। जाव समोसरणं-यावत् समवसरण तक का वर्णन जान लेना चाहिए । परिसा-परिषद् णिग्गया-वन्दन और धर्मश्रवण के लिए निकली। धम्मो कहिओ-भगवान् ने धर्म कहा। . परिसा पडिगया-परिषद् वापिस चली गई। ___भावार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे । वे भगवान् कैसे थे ? इसके लिए कहा है-वे आदिकर, तीर्थङ्कर, स्वयंसंबद्ध, पुरुषोत्तम पुरुषसिंह, पुरुषवर पुण्डरीक, पुरुषवर गन्धहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रदयोतकर, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथि धर्मवर-चातुरन्त-चक्रवर्ती, अप्रतिहत ज्ञान दर्शन के धारक,छमस्थता से निवृत्त,जिन, ज्ञायक, बुद्ध, बोधक, मुक्त, मोचक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी थे। वे शिव, अचल, रोग रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमन रहित, सिद्धि गति को प्राप्त करने की इच्छा वाले थे। वे राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में पधारे। नगर निवासी जनसमुदाय भगवान् को वन्दना नमस्कार करने के लिए और धर्मश्रवण के लिए निकला। भगवान् ने धर्म कथा कही । धर्मश्रवण कर वह जनसमुदाय वापिस चला गया। ९. विवेचन-भगवान् महावीर स्वामी के लिए जो विशेषण दिये गये हैं उनमें सर्व प्रथम श्रमण' विशेषण दिया गया है । 'श्रमु तपसि खेदे च' इस तप और खेद अर्थ वाली For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ वीर स्तुति 'श्रम' धातु से 'श्रमण' शब्द बना है 'श्राम्यति तपस्थतीति श्रमणः' जिसका अर्थ यह होता है कि जो तपस्या करें और जगज्जीवों के खेद को जाने, वह 'श्रमण' कहलाता है। किन्तु सावद्य प्रवृत्ति करने वाला और सावद्य प्रवृत्ति का उपदेश देने वाला 'श्रमण' नहीं है । अथवा - 'समणे' शब्द की संस्कृत छाया 'समन:' भी होती है। जिसका अर्थ यह है कि - जिसका मन शुभ हो, जो समस्त प्राणियों पर समभाव रखे उसे 'समन' कहते हैं। जो ऐश्वर्यादि युक्त हो अर्थात् पूज्य हो उसे भगवान् कहते हैं । रागद्वेषादि आन्तरिक शत्रु दुर्जेय हैं। उनका निराकरण करने से जो महान् वीर-पराकमी है, वह महावीर कहलाता है । भगवान् का यह गुणनिष्पन्न नाम देवों द्वारा दिया गया था । आचारादि श्रुतधर्म के प्रणेता होने के कारण भगवान् 'आदिकर' हैं, जिसके द्वारा संसार समुद्र तिरा जाय उसे 'तीर्थ' कहते हैं, ऐसे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, इस चतुविध संघ रूप भाव तीर्थ के कर्त्ता होने से वे 'तीर्थङ्कर' हैं। किसी के उपदेश के बिना ही वे स्वयमेव हेय ज्ञेय उपादेय रूप बोध को प्राप्त होते हैं, अतः वे सहसंबुद्ध या स्वयंसंबुद्ध होते हैं । समस्त पुरुषों में वे रूपादि अतिशयों से सर्वोत्तम होते हैं, इसलिए वे पुरुषोत्तम हैं । जिस प्रकार लोक में सिंह उत्कृष्ट शौर्य सम्पन्न माना जाता है, उसी प्रकार-शूरवीरता, की अपेक्षा भगवान् पुरुषों में सिंह के समान हैं। जैसे कमलों में सफेद, हजार पांखुडी वाला पुण्डरीक कमल प्रधान होता है, वैसे ही भगवान् पुरुषों में पुण्डरीक कमल समान प्रधान होते हैं । भगवान् पूर्णरूप से मल रहित तथा समस्त शुभ भावों से युक्त होने के कारण कमल की तरह श्वेत हैं, अतएव वे पुरुषवर पुण्डरीक हैं। जैसे गन्धहस्ती की गन्ध से सब हाथी दूर भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिस जिस देश में तीर्थङ्कर भगवान् विहार करते हैं, वहाँ (धान्य आदि को हानि पहुँचाने वाले चूहों आदि जीवों की अधिकता ), परचक्र : ( दूसरे राजा का भय ), दुर्भिक्ष (दुष्काल), डमर ( लूट पाट) आदि उपद्रव और मिरगी आदि रोग शान्त हो जाते हैं, अतएव भगवान् 'पुरुषवर गन्ध हस्ती हैं। इस प्रकार 'पुरुष - सिंह, पुरुषवर पुण्डरीक और पुरुषवर गन्धहस्ती, इन तीन उपमाओं से भगवान् पुरुषों में उत्तम ( पुरुषोत्तम) हैं । भगवान् लोकनाथ हैं अर्थात् संज्ञी भव्य जीव रूप लोक के नाथ+ • जैसा कि कल्पसूत्र में कहा गया है-"अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं, तिलमे, परिमाणं पालए धीमं मरइरइसहे, दविए, वीरियसंपण्णे देवेहि से णामं कए समणे भगवं महावीरे ।” : + 'योग क्षेमकृन्नाथः, अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः, प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमः ।" जो योगक्षेम करता है, उसे 'नाच' कहते हैं । अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति होना योग कहलाता है और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना क्षेत्र For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. १ वीर स्तुति ... हैं। भगवान् लोक प्रदीप हैं। अर्थात् तिर्यञ्च, नर और अमर रूप विशिष्ट लोक के आन्तरिक अन्धकार को दूर कर प्रकृष्ट प्रकाश के करने वाले होने से वे प्रदीप के समान हैं। भगवान् ‘लोक प्रद्योतकर' हैं अर्थात् जैसे सूर्य समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार भगवान् सकल वस्तु समूह रूप लोकालोक को केवलज्ञान रूप प्रकाश से प्रकाशित करने वाले हैं, अतएव वे 'लोकप्रद्योतकर' हैं। भगवान् - 'अभयदय' हैं, अर्थात् जो जीव भगवान् को परीषह उपसर्ग देकर, उनके प्राणों का विनाश करने में उद्यत होते हैं ऐसे जीवों को भी भगवान् अपनी तरफ से कुछ भी भय नहीं देते हैं, बल्कि. उन्हें अभयदान देते हैं, अतः भगवान् - अभयदय .(अभय दाता) हैं। अथवा अनुकम्पा को 'अभया' कहते हैं । संसार के समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करने वाले. होने से भगवान्, 'अभयदय' हैं । भगवान् चक्षुर्दय' हैं अर्थात् शुभाशुभ पदार्थों के विभाग को दिखलाने वाला श्रुतज्ञान ही वास्तविक चक्षु है । ऐसे श्रुतज्ञान रूपी चक्षु के देने वाले होने से भगवान् चक्षुर्दय (चक्षुदाता) हैं। भगवान् ‘मार्गदय' हैं । जैसे जंगल में जाते हुए. मनुष्यों का धन चोर लूट ले और उनकी आंखों पर पट्टी बांध दे, जिससे मार्ग न दिखने से वे महादुखी होते हैं। उनकी ऐसी दयनीय दशा देखकर कोई . दयालु पुरुष उनकी आंखों पर की पट्टी खोल. कर उन्हें इष्ट मार्ग.बता दे, तो वह जिस प्रकार लोक में उपकारी गिना जाता है, उसी प्रकार.रागादि.शत्रुओं.द्वारा जिनका धर्म रूपी धव लूटा गया है. और कुवासनाओं से जिनके नेत्र ढके.गये हैं, ऐसे जीवों के नेत्रों पर से कुवासना रूपी पट्टी को हटा कर एवं श्रुतज्ञान रूपी चक्षु देकर निर्वास रूप इष्ट मार्ग को बताने वाले भगवान् हैं, अतएव मोक्षमार्गदाता होने के कारण वे महान् उपकारी हैं। भगवान् शरणदय' हैं अर्थात् नाना प्रकार के दुःखों से सन्तप्त प्राणियों को निरुपदव स्थान-मोक्ष में पहुंचाने वाले होने के कारण भगवान् वास्तविक 'शरणदाता' हैं । भगवान् बोधि अर्थात् सम्यक्त्व के दाता हैं। भगवान् धर्मदाता' हैं. अर्थात् दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण कर सद्गति में पहुंचाने वाले श्रुत. चारित रूपी धर्म के दाता हैं। भगवान् कहलाता है। तीर भगवान् संज्ञी भव्य जीवों को अप्राप्त सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कराते हैं और प्राप्त सम्यग्दर्शनादि की परिपालना (रमा) कराते हैं। अतः वे योगक्षेमकारी होने से लोकनाथ' हैं। ........... चक्षुष्मन्तस्त एवेह, ये श्रुतज्ञानचक्षुषा। ---- सम्यक् सदैव पश्यन्ति, भावान् हेयेतरान् नराः। . अईही पुरुष वास्तविक या कहलाते हैं जो श्रुतमान रूपी गांव से हेय उपादेवादि महालेको मनाली प्रकार देखते हैं। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १-वीर स्तुति का शरणदातापना, बोधिंदातापनी और धर्मदातापना, धर्मदेशना द्वा ही होता है, अतः यह विशेषण दिया गया है कि भगवान् धर्मदेशक' है अर्थात् वे श्रुतं चारित्र रूपी धर्म का उपदेशं देने वाले हैं। भगवान् ‘धर्मनायक' हैं अत् िधर्म के नेता हैं । भगवान् ‘धर्मसारथि है अर्थात् धर्म रूप रथ के प्रवर्तक होने से सारथि के समान हैं। जिस प्रकार सारंथि रथ की और रथ में बैठने वाले की तथा रथ को खींचने वाले घोडे की रक्षा करता है, उसी प्रकार भगवान् चारित्र धर्म रूपी रथ के अंगभूत संयम, आत्मा और प्रवचन की रक्षा का उपदेश देने वाले होने से 'धर्म-सारथि' हैं। भगवान 'धर्मवर चातुरन्तंचक्रवर्ती' हैं । तीन तरफ समुद्र और चौथीं तरफं हिमवान पर्वत, ये चार भरत क्षेत्र रूपी पृथ्वी के अन्त हैं। इन चार अन्त वाली पृथ्वी का जो स्वामी होता है, वह 'चातुरन्त चक्रवर्ती' कहलाता है। वर-श्रेष्ठ चातुरन्त चक्रवर्ती, जो हो, वह 'वरचातुरन्त चक्रवर्ती है। जैसे वरचातुरन्त चक्रवर्ती अन्य राजाओं की अपेक्षा अतिशय सम्पन्न और विशेष प्रभावशाली होता है । इसी प्रकार भगवान् तथाकथित अन्य बुद्ध, कपिल आदि धर्मनेताओं की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, अतिशय सम्पन्न एवं प्रभावशाली हैं । अथवा दान, शील, तप, भाव द्वारा नरकादि चार गति का अन्त करने वाले एवं राग द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले धर्मचक्र से प्रवृत्ति करने का जिनका स्वभाव है उन्हें 'धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती' कहते हैं । अतः भगवान् ‘धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती' हैं। - उपर्युक्त सारे विशेषण निर्मल एवं श्रेष्ठ ज्ञान के होने पर ही घटित हो सकते हैं। अतः भगवान् का ज्ञान कसा निर्मल है यह बताने के लिए कहां गया है-'अप्रतिहत वर ज्ञानदर्शन धर'। भगवान् का ज्ञान भीत पर्वत आदि से व्यवहित (पीछे रहे हुए) पदार्थों को जानने .वाला, विसंवाद रहित और क्षायिक होने से श्रेष्ठ है। विशेष बोध और सामान्य बोध रूपी केवल ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले होने से भगवान् ‘अप्रतिहतवर ज्ञान दर्शन के धारक' हैं। भगवान् छद्मस्थपने में सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं। राग-द्वेष रूप आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने के कारण भगवान् 'जिन' हैं। वे छद्मस्थ जीवों को राग द्वेष जीतने का उपाय बतलाते हैं, अतः वे 'ज्ञायक हैं। वे 'बुद्ध' है अर्थात जीवादि तत्त्वों के जानने वाले हैं। वे 'बोधक' हैं अर्थात् दूसरे प्राणियों को वे जीवादि तत्त्वों का बोध कराते हैं। वे 'मुक्त' हैं अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह रूप ग्रन्थि-बन्धन से रहित हैं। वे 'मोचक' है अर्थात् दूसरे प्राणियों को परिग्रह रूप ग्रन्थिबन्धन से मुक्त कराने वाले हैं। समस्त वस्तुओं को विशेष रूप से और सामान्य रूप से जानने वाले होने से भगवान सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र तक ? वीरस्तुति देहमुक्त होने के पश्चात् जिस स्थान पर जाकर भगवान् विराजमान होते हैं, वह स्थान कैसा है ? यह बात बताने के लिए सूत्रकार उस स्थान के विशेषण देते हैं - सब प्रकार की बाधाओं से रहित होने के कारण वह स्थान 'शिव' है । वहाँ स्वाभाविक और प्रयोगजन्य किसी भी प्रकार का हलन चलन न होने के कारण वह स्थान 'अचल' है । रोग के कारणभूत एवं आधारभूत शरीर और मन का वहां अभाव होने से वह स्थान 'अरुज' अर्थात् रोग रहित है । अनन्त पदार्थ विषयक ज्ञान स्वरूप होने से वह 'अनन्त' है क्षय रहित होने के कारण वह 'अक्षय' है । सर्व प्रकार की बाधा पीड़ा रहित होने के कारण 'अव्याबाध' हैं । कर्मों का सर्वथा क्षय करके वहां जाने वाले जीव फिर संसार में नहीं आते हैं इसलिए वह स्थान 'अपुनरावृत्ति' वाला है। ऐसे उत्तम नाम वाले 'सिद्धिगति' स्थान में जाने वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के बाहर 'गुणशिलक' उद्यान में पधारे । 1 १२ शंका- मूलपाठ में 'संपाविउकामें शब्द आया है जिसकी संस्कृत छाया होती है'संप्राप्तु कामः' अर्थात् मोक्ष जाने की इच्छा वाले । यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि भगवान् तो राग-द्वेष रहित 'वीतरागी' होते हैं, तो उन्हें 'इच्छा' कैसे हो सकती है ? 1 समाधान- यहाँ पर जो 'काम' शब्द आया है वह 'औपचारिक' है। किसी जीवादि पदार्थ में तद्नुकूल क्रिया देख कर उस बात का कथन करना 'उपचार' कहलाता है । जैसे तीर्थंकर भगवान् में दूसरे पुरुषों की अपेक्षा सिंहादि की तरह अतिशय शौर्यादि होने के कारण उन्हें 'पुरुष सिंह' कहा गया है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर भगवान् की समस्त क्रियाएं मोक्ष के अनुकूल हैं एवं उन्हें मोक्ष में पहुंचाने वाली हैं, इसलिए यहाँ 'काम' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ यह है कि भगवान् मोक्ष में जाने वाले हैं । भगवान् में किसी प्रकार की इच्छा और अभिलाषा नहीं होती । जैसा कि कहा है " मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः " अर्थात्-मुनियों में उत्तम तीर्थङ्कर भगवान् और अन्य केवली संसार और मोक्ष दोनों में नि:स्पृह ( अभिलाषा रहित) होते हैं । 'जाव समोसरणं' शब्द से भगवान् के शरीर का शिखनख ( शिखा - चोटी से लेकर पैर के नखों तक के सारे) वर्णन से लेकर समवसरण तक का वर्णन जैसा उनवाई ( औपपातिक) सूत्र में किया गया है वैसा ही सारा वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-इन्द्रभूतिजी की महानता १३ - जब भगवान् के पधारने की खबर राजगृह नगर निवासियों को मिली तब राजा, राजकुमार, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि तथा सामान्य जनता सभी भगवान् को वन्दनार्थ गई। भगवान् ने श्रेणिक राजा, चेलना देवी आदि उस महामानव मेदिनी के समक्ष सर्व भाषानुगामिनी वाणी के द्वारा धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर एवं हृदय में धारण कर जनता अत्यन्त हर्षित एव सन्तुष्ट होती हुई वापिस अपने स्थान पर चली गई। इन्द्रभूतिजी को महानता तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमसगुत्ते णं सतुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिमहणारायसंघयणे कणयपुलयणिहसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूटसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से चोदसपुव्वी चरणाणोवगए सव्वक्खरसण्णिवाई समणरस भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । .. . शब्दार्थ-तेणं कालेणं-उस काल तेणं समएणं-उस समय में समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के जेठे-ज्येष्ठ-सब से बड़े अंतेवासी-शिष्य इंदभूई णाम अणगारे-इन्द्रभूति नाम के अनगार थ । गोयमसगुत्ते-उनका गौतम गोत्र था । सत्तुस्सेहे-उनका शरीर सात हाथ ऊंचा था। समचउरंससंठाणसंठिए-समचतुरस्र संस्थान था। वज्जरिसहणारायसंघयणे-वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन था। कणयपुलयणिहसपम्हगोरे-कसौटी पर खींची हुई मोने की रेखा के समान तथा कमल की केशर के समान For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १-इन्द्रभूतिजी की महानता गौर वर्ण वाले थे। उग्गतवे-उग्र तपस्वी दित्ततवे-दिप्त तपस्वी तत्ततवे-तप्त तपस्वी महातवे-महा तपस्वी ओराले-उदार घोरे-घोर घोरगुणे-घोर गुण वाले घोरतवस्सी-घोर तपस्वी घोरबंभचेरवासी-घोर ब्रह्मचर्यवासो, उच्छूढसरीरे-शरीर संस्कार के त्यागी संखित्तविउल तेयलेस्से-दूरगामी होने से विपुल ऐसी तेजो लेश्या को शरीर में संक्षिप्त करके रखने वाले, चोहसपुथ्वी-चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चउणाणोवगए -चार ज्ञान को प्राप्त सव्वक्खरसण्णिवाई-सर्वाक्षरसन्निपाती थे। वे समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अदूरसामंते-न अति दूर न अतिसमीप उड्डंजाणू-ऊर्ध्वजानु अहोसिरे-अधःशिर-नीचे की तरफ मस्तक झुकाये हुए झाणकोट्ठोवगए-ध्यान रूप कोष्ठक में प्रविष्ट संजमेणं-संयम से और तवसा-तप से अप्पाणं-अपनी आत्मा को भावेमाणे-भावित करते हुए विहरइ-विचरते थे। भावार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अर्थात् सब से बडे प्रथम शिष्य इन्द्रभूति अनगार थे। उनका गोत्र गौतम था। उनका शरीर सात हाथ ऊंचा था। उनका संस्थान समचतुरस्त्र-समचौरस था। उनका संहनन-वज्र-ऋषभ-नाराच था। कसौटी पर खींची हुई सोने की रेखा के समान तथा कमल की केशर के समान वे गौर वर्ण थे। वे उग्र तपस्वी दिप्त तपस्वी, तप्त तपस्वी, महातपस्वी, उदार, कर्मशत्रुओं के लिए घोर, घोर गण वाले, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले, अतएव शरीरसंस्कार के त्यागी थे । दूर-दूर तक फैलने वाली विपुल तेजोलेश्या को उन्होंने अपने शरीर में संक्षिप्त कर रखी थी। वे चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय, इन चार ज्ञान के धारक थे और सर्वाक्षर सन्निपाती थे। वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के न बहुत दूर और न बहुत नजदीक, उर्ध्वजानु और अधः शिर होकर अर्थात् दोनों घुटनों को खडे करके एवं शिर को कुछ नीचे की तरफ झुकाकर ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट हो कर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। . विवेचन-इन्द्रभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य थे, अतएव वे सब शिष्यों में बड़े थे। इसलिए उन्हे 'ज्येष्ठ अन्तेवासी' कहा गया है। उनका गोत्र निन्दित नहीं था अपितु बहुत उत्तम था। अतएव कहा गया है कि 'गोयमसगुत्ते' । अर्थात् उनका For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १-इन्द्रभूतिजी की महानता गौतम' गोत्र था। उस समय के मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई प्रायः सात हाथ की होती थी। अतएव उनका शरीर भी सात हाथ ऊँचा था । उनका संस्थान ‘समचतुरस्र'• था। इन्द्रभूति अनगार मजबूत एवं दृढ़ वज्रऋषभनाराच संहनन वाले थे। उनके शरीर का वर्ग कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान एवं पिघले हुए सोने की बिन्दु के समान गौर था। यह इन्द्रभूति अनगार के शरीर का वर्णन हुआ। उनके आन्तरिक आत्मगुणों का वर्गन करते हुए शास्त्रकार ने 'उग्गतवे दित्ततवे' आदि विशेषण दिये हैं । जिनका अर्थ यह है-साधारण मनुष्य जिस तप का चिन्तन करने में भी असमर्थ होता है, वैसे तप का आचरण करने में वे 'उग्र तपस्वी' थे। कर्मरूपी गहन वन को जलाकर भस्म करने में समर्थ होने के कारण जाज्वल्यमान अग्नि के समान दीप्त थे। धर्मध्यानादि युक्त तप के करने वाले होने से वे 'दीप्त तपस्वी' थे। कर्मों को सन्तप्त करने के कारण वे 'तप्त तपस्वी' थे। उनके तप में किसी भी प्रकार की सांसारिक इच्छारूपी दोष न होने से वे 'महातपस्वी' थे । अल्प शक्ति वाले पार्श्वस्थ पुरुष जिस तप का नाम सुनते ही कांप उठते हैं ऐसे भयङ्कर तप को करने के कारण वे 'ओराल' अर्थात् भीम थे, अथवा वे उदार यानी प्रधान थे। घोर परीषह एवं उपसर्ग आने पर भी वे अडोल रहते थे, इसलिए वे घोर थे । अथवा वे घोर अर्थात शरीर निरपेक्ष थे। अन्य पुरुषों द्वारा जिन गणों का आचरण होना कठिन था ऐसे मूलगुणादि युक्त होने से 'धोर गुणी' थे । घोर तपस्या करने कारण वे 'घोर तपस्वी' थे । अल्प शक्ति वाले प्राणियों के द्वारा जिसका आचरण होना कठिन है ऐसे दुश्चर ब्रह्मचर्य के पालक होने से वे 'घोर ब्रह्मचर्यवासी' थे । शरीर का संस्कार छोड़ देने के कारण एवं शरीर के प्रति सर्वथा निर्ममत्व होने के कारण शरीर को त्यक्तवत् कर रखा था, इसलिए वे 'उच्छूढशरीर-उज्झित शरीर' थे। जो तेजोलेश्या (तेजो ज्वाला) तप द्वारा •प्रश्न-समचतुरन सस्थान किसे कहते हैं? .... उत्तर-अवयव रचना रूप शरीर की आकृति को संस्थान' कहते हैं । सम अर्थात् नाभि से ऊपर और नीचे पुरुष के सम्पूर्ण लमगों सहित बराबर अवयव हों, ऐसे उत्तम संस्थान को समचतुरन सस्थान कहते हैं। अपवा शरीर-शास्त्र में कहे अनुसार चारों तरफ से जिसमें शरीर के अवयव बराबर हों, उसे समचतुरन संस्थान कहते हैं अपना पर्यशासन से बैठे हुए पुरुष के दोनों घुटनों के बीच का अन्तर, बासन और कलाट के ऊपरी भाग.का अन्तर, वाहिने कन्धे से बाएं घुटने का मन्दर और बाएं कन्धे से दाहिने का अन्तर, ये चारों अन्तर बराबर हों, उसे समचतुरन संस्थान For Personal & Private Use Only | Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र .-इन्द्र भतिजी की महानता । एवं लब्धि विशेष द्वारा उत्पन्न हुई थी, जो कि अनेक योजन प्रमाण क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों को भस्म करने में समर्थ होने से विपुल थी। ऐसी विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में लौन होने से संक्षिप्त कर रखी थी। चौदह पूर्वो की रचना करने के कारण वे चौदह पूर्वधारी थे अर्थात् वे उन्हीं के द्वारा रचे हुए थे । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान, इन चार ज्ञान के धारक थे। वे सर्वाक्षरसन्निपाती थे अर्थात् समस्त अक्षरों के संयोगों से बनने वाले समस्त पदों को एवं समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने वाले थे। प्रश्न-वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन किसे कहते हैं ? उत्तर-जिससे शरीर के पुद्गल मजबूत किये जायं उसको अर्थात् कीलिकादि रूप हड्डियों की रचना विशेष को संहनन करते हैं । जिस संहनन में दो हड्डियों के मर्कट बन्धं पर पट्टा बंधा हो और ऊपर से वज्र की कील ठोकी हुई हो ऐसे दृढ़ संहनन को 'वज्र-ऋषभ-नाराच' संहनन कहते हैं। - तोर्थ का प्रवर्तन करते समय तीर्थङ्कर भगवान् जिस अर्थ का गणधरों को पहले पहल उपदेश देते हैं अथवा गणधर पहले पहल जिस अर्थ को सूत्र रूप में गूंथते हैं, उन्हें पूर्व कहा जाता है । पूर्व चौदह ये हैं (१) उत्पादपूर्व-इस पूर्व में सभी द्रव्य और सभी पर्यायों के उत्पाद को लेकर प्ररूपणा की गई है। उत्पादं पूर्व में एक करोड़ पद हैं। (२) अग्रायणीयपूर्व-इसमें सभी द्रव्य, सभी पर्याय और सभी जीवों के परिमाण का वर्णन है। इसमें ९६ लाख पद हैं। . (३) वीर्यप्रवाद पूर्व-इसमें सकर्मक और अकर्मक जीवों के तथा अजीवों के बीर्य (शक्ति) का वर्णन है। इसमें सत्तर लाख पद हैं। (1) अस्तिनास्ति प्रवाद--संसार में धर्मास्तिकाय आदि जो वस्तुएं विद्यमान हैं तथा आकाशकसम आदि जो अविद्यमान हैं, उन सबका वर्ण अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व में है। इसमें साठ लाख पद हैं। (५) ज्ञान प्रवाद पूर्व-इसमें मतिज्ञान आदि ज्ञान के पांच भेदों का वर्णन है । इसमें एक कम एक करोड़ पद है। . (६) सत्य प्रवाद पूर्व-इसमें सत्य एवं संयम का भेद निरूपण पूर्वक विस्तृत वर्णन है । इसमें एक करोड़ छह पद हैं। (७) आत्म प्रवाद पूर्व-इसमें अनेक नयों और मतों की अपेक्षा आत्मा का प्रतिपादन किया गया है। इसमें छब्बीस करोड़ पद हैं। (८) कर्म प्रवाद पूर्व-इसमें आठ कर्मों का निरूपण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश आदि भेदों द्वारा विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । इसमें एक करोड़ अस्सी लाख पद है। (९) प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व-इसमें प्रत्याख्यानों का भेद प्रभेद पूर्वक वर्णन है। इसमें चौरासी लाख पद हैं। . For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १ - गौतम स्वामी की जिज्ञासा इन्द्रभूति अनगार ऐसे उत्तम गुणों के धारक थे । वे ऊर्ध्व जानु ( दोनों घुटनों को ऊँचा रखकर) और अधः शिर ( शिर को किञ्चित् नीचे की तरफ झुकाये हुए) तथा ध्यान कोष्ठोपगत ( जिस प्रकार कोठे में डाला हुआ धान्य इधर उधर नहीं बिखरता है, उसी प्रकार धर्मध्यान और शुक्लध्यान के द्वारा जिनकी अन्तःकरण वृत्ति और इन्द्रियाँ इधर उधर विचलित नहीं होती थीं) होकर संवर रूप संयम और अनशनादि तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । गौतम स्वामी को जिज्ञासा तणं से भगवं गोयमें जांयसड़ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले (१०) विद्यानुप्रवाद पूर्व - इसमें विविध प्रकार की विद्या तथा सिद्धियों का वर्णन है। इसमें एक करोड़ दस लाख पद हैं। (११) अवन्ध्य पूर्व - इसमें ज्ञान, तप, संयम आदि शुभ फल वाले तथा प्रमाद आदि अशुभ फल बाले अवन्ध्य अर्थात् निष्फल न जाने वाले कार्यों का वर्णन है । इसमें छब्बीस करोड़ पद हैं। (१२) प्राणायुत्रवाद पूर्व -- इसमें दस प्राण और आयु आदि का भेद प्रभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन है। इसमें एक करोड़ छप्पन लाख पद हैं। १७ (१३) क्रिया विशाल पूर्व - इसमें कायिकी, आधिकरणिकी आदि क्रियाओं का तथा संयम में उपकारक क्रियाओं का वर्णन है। इसमें नौ करोड़ पद हैं। (१४) लोकबिन्दुसार पूर्व — जैसे बिन्दु अक्षर के मस्तक पर होती है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान रूप लोक में सर्वाक्षरसन्निपात परिनिष्ठित होने से जो सर्वोत्तम शिरोभूत है, वह लोक बिन्दुसार है । इसमें साढे बारह करोड़ पद हैं। पूर्वो के अध्याय विशेषों को 'वस्तु' कहते हैं और वस्तुओं के अवान्तर अध्यायों को 'चूलिकावस्तु' कहते हैं । I उत्पाद पूर्व में दस वस्तु और चार चूलिकावस्तु हैं अप्रायणीय पूर्व में चौदह वस्तु और बारह. चूलिकावस्तु हैं । वीर्यप्रवाद पूर्व में आठ वस्तु और आठ चूलिकावस्तु हैं। अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व में अठारह वस्तु और दस चूलिकावस्तु हैं । ज्ञानप्रवाद पूर्व में बारह वस्तु हैं । सत्यप्रवाद पूर्व में दो वस्तु हैं। आत्मप्रवाद पूर्व में सोलह वस्तु हैं । कर्मप्रवाद पूर्व में तीस वस्तु हैं । प्रत्याख्यान पूर्व में बीस वस्तु हैं। विद्यानुप्रवाद पूर्व में पन्द्रह बस्तु हैं । अवन्ध्यपूर्व में बारह वस्तु हैं । प्राणायु पूर्व में तेरह वस्तु हैं । क्रियाविशाल पूर्व में तीन वस्तु हैं। लोकबिन्दुसार पूर्व में पच्चीस वस्तु हैं। चौथे से आगे के पूर्वी में चूलिकrवस्तु नहीं है । (नन्दी सूत्र तथा समवायांग सूत्र ) For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मतीसूत्र-श. १ गौतम स्वामी जिज्ञासा उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले संजायसढे संजार संसए संजायकोऊहल्ले समुप्पण्णसढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उठाए उठेइ उट्ठाए उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे गाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी। शब्दार्थ-तएणं-तब जायसड्डे-जातश्रद्ध-पंदा हुई श्रद्धा वाले जायसंसए-जातसंशय जायकोऊहल्ले-जात कुतूहल उप्पण्णसड्ढे-उत्पन्न श्रद्धावाले उप्पणसंसए-उत्पन्न संशय वाले उप्पण्णकोहल्ले-उत्पन्न कुतूहल वाले संजायसड़े-संजात श्रद्धा वाले संजायसंसएसंजात संशय वाले संजायकोऊहल्ले-संजात कुतूहलवाले समुप्पणसड्ढे-सनुत्पन्न श्रद्धावाले समुप्पण्णसंसए-समुत्पन्न संशय वाले समुप्पण्णकोऊहल्ले-समुत्पन्न कुतूहल वाले से-वे भगवं गोयमे-भगवान् गौतम स्वामी उढाए उठेंह-उत्थान द्वारा खडे हुए उट्ठाए उद्वित्ता-उत्थान द्वारा खडे होकर जेणेव-जहां पर समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी है तेणेव-वहाँ पर उवागच्छइ-आये उवागच्छित्ता-आकर समर्ग भगवं महावीरं-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तिक्खुत्तो-तीन बार आयाहिणपयाहिण-दक्षिण की तरफ से प्रदक्षिणा की और बंबइ णमंसइ-वंदना नमस्कार किया वंदित्ता णमंसित्ता-वंदना नमस्कार करके पच्चासम्णे-बहुत नजदीक नहीं और गाइडूरे-बहुत दूर भी नहीं किन्तु यथोचित स्थान पर रहकर सुस्सूसमाणे-शुश्रूषा करते हुए भगवान् के वचनों को सुनने की इच्छा करते हुए णमंसमाणे-नमस्कार करते हुए अभिमुहे भगवान् के सन्मुख विणएग-विनयपूर्वक पंजलिउडे-दोनों हाथ जोड़ कर पंज्जुवासमाणे-पर्युपासना करते हुए एवं-इस प्रकार बयासी-बोले। भावार्य-जिनको श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ है ऐसे गौतम स्वामी अपने स्थान से उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आए For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र श. १ -- गौतम स्वामी की जिज्ञासा और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया । भगवान् के न अति नजदीक न अति दूर किन्तु यथोचित स्थान पर रह कर भगवान् के सन्मुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोले । विवेचन - मूल पाठ में 'जायसड्ढे जायसंसए' आदि बारह पद हैं। जिनका अर्थ इस प्रकार है-—जायसड्ढे' अर्थात्-गौतम स्वामी को श्रद्धा - अर्थ तत्त्व जानने की इच्छा पैदा हुई । 'जायसंसए' उन्हे संशय पैदा हुआ कि भगवान् ने 'चलमाणे चलिए' अर्थात् 'चलते हुए कोचलि -चला हुआ' कहा है तो वर्तमान कालिक प्रयोग भूतकालिक कैसे कहा गया है ? इसका मैं निर्णय करूँ । इस प्रकार निर्णय करने की बुद्धि रूप संशय पैदा हुआ । जायकोऊहल्ले' उन्हें कुतूहल उत्पन्न हुआ कि भगवान् इसका समाधान किस प्रकार फरमावेंगे ? ‘उप्पप्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले' ये तीन पद पहले के तीन पदों के साथ हेतुहेतुमद्भाव–कार्यकारण भाव बतलाने के लिए दिये गये हैं। उन्हें श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ, इसी कारण से उनकी श्रद्धा, संशय और कुतूहल में प्रवृत्ति हुई । उत्पत्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । इसलिए 'उप्पण्णसड्डे' आदि तीन पद कारण 'हैं और 'जायसड्ढे' आदि ये तीन पद इनके कार्य हैं । १९ ‘संजायसड्ढे, समुप्पण्णमड्ढे' आदि छह पदों में पूर्वोक्त छह पदों की अपेक्षा 'सम्' पसर्ग अधिक लगा है । यहाँ 'सम्' उपसर्ग का अर्थ 'प्रकर्षता' है। जिसका अर्थ यह हुआ उन्हें प्रकर्ष रूप से - विशेष रूप से श्रद्धा संशय और कुतूहल पैदा हुए -- उत्पन्न हुए । किन्हीं आचार्यों ने इन बारह पदों की व्याख्या इस प्रकार की है- 'जायसड्ढे जायस जायको हल्ले' ये तीन पद अवग्रह / की अपेक्षा हैं। इसी प्रकार आगे के तीन-तीन पद ईहा, अवाय और धारणा की अपेक्षा से है । + (१) अवग्रह - विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूत सत्तामात्र गोचरदर्शनाज्जातमाद्यमवान्तर सामान्या कारविशिष्ट वस्तुग्रहणमवग्रहः ।' 'अर्थात् - विषय (पदार्थ) और विषयी (चक्षु आदि) का यथोचित देश में सम्बन्ध होने पर सत्ता मात्र को जानने वाला दर्शन उत्पन्न होता हैं। इसके अनन्तर सबसे पहले मनुष्यत्व आदि अवन्तिर सामान्य से युक्त वस्तु को जानने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है । (२) ईहा - ' अवगृहीतार्थं विशेषाकांक्षणमीहा' । अर्थ - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को 'ईहा' कहते हैं। 'यह मनुष्य है' ऐसा अवग्रह ज्ञान से जान पाया था। इससे भी अधिक 'यह दक्षिणी है या पूर्वी' इस प्रकारे विशेष को जानने की इच्छा होना ' हा ' ज्ञान कहलाता है। ईहा ज्ञान 'यह दक्षिणी होना चाहिए' यहाँ तक पहुँच जाता है। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२० भगवती सूत्र शतक १-गौतम स्वामी की जिज्ञासा किन्हीं आचार्यों का मत है कि 'जायसड्ढे जायसंसए आदि बारह ही पद एकार्थक हैं किन्तु विवक्षित अर्थ की प्रकर्षता बतलाने के लिए इन पदों का प्रयोग किया है । शास्त्रकार स्तुति परायण होने के कारण इन पदों का बारम्बार प्रयोग होने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं है । इन विशेषणों से युक्त गौतम स्वामी अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवान् महावीर स्वानी के पास आये और भगवान् की दाहिनी तरफ से तीन बार प्रदक्षिणा करके भगवान् को वन्दना' नमस्कार' किया । वन्दना नमस्कार करके भगवान् की अवग्रह भूमि को छोड़कर, न अति समीप और न अति दूर रहकर भगवान् के वचनों को सुनने की इच्छा से भगवान् के सम्मुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले। . (३) अवाय-हितविशेषनिर्णयोऽवायः' । अर्थ-ईहा द्वारा जाने हुए पदार्थ में विशेष का निर्णय हो जाना 'अवाय' है । 'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए,' इतनामान ईहा द्वारा हो चुका था। उसमें विशेष का निश्चय होजाना 'अवाय' है। यह मनुष्य दक्षिणी ही है। (४) धारणा-'सएव दृढतभावस्थापन्नो धारणा' । अर्थ-अवाय ज्ञान जब अत्यन्त दृढ़ होजाता है तब वही अवाय 'धारणा' कहलाता है । धारणा का अर्थ संस्कार है । हृदयपटक पर यह शान इस प्रकार अङ्कित हो जाता है कि कालान्तर में भी वह जागृत हो सकता है । इसी ज्ञान से 'स्मरण होता है। जैसा कि कहा है-'वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन्, यत्पदमसकृद ते तत् पुनरुक्तं न दोषाय' । अर्थात् हर्ष, भय आदि से आक्षिप्त (अस्वस्थ) मन वाला होकर बोलता हमा तया स्तुति करता हआ और निन्दा करता हा पुरुष समान वाले पदों को यदि अनेक बार बोल देता है, तो भी वह पुनरुक्ति दोष का भागी नहीं होता है। प्राचीन धारणा में चन्दक की दाहिनी तरफ से प्रदक्षिणा करने की धारणा है और टीका में वंदनीय की दाहिनी तरफ से प्रदक्षिणा करना लिखा है। -'बन्द' का अर्थ है-वचनों द्वारा स्तुति करता है। -'णमंसई' का अर्थ है-काया द्वारा प्रणाम करता है। -अवग्रह भूमि'-गुरु महाराज के चारों तरफ शरीर प्रमाण (साढ़े तीन हाप प्रमाण) भूमि अवग्रह भूमि कहलाती है । गुरु महाराज की आज्ञा बिना शिष्य को उसमें प्रवेश नहीं करना चाहिए। *गुरु महाराज के पास धर्म श्रवण किस प्रकार करना चाहिए ? इसके लिए कहा है .णिद्दा-विगहा परिवज्जिएहि, गुहि पंजलिउहि । भत्तिबहुमाणपुटवं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥ अर्थ-निद्रा और विकया का त्याग करके, मन, वचन, काया को गुप्त (नियन्त्रित) रख कर, मजलिपुट करके अर्थात् दोनों हाथ जोड़ कर ललाट पर स्थापित करके भक्ति और बहुमान पूर्वक उपयुक्त (दत्तचित्त) होकर गुरु महाराज के पास प्रवण करना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र - श. १. उ. १ चलमाणे चलिए प्रश्न प्रथम उद्देशक प्रारम्भ श्री गौतम स्वामीजी महाराज भगवान् महावीर स्वामी से पूछते हैं १ प्रश्न - से णूणं भंते ! चलमाणे चलिए ? उदीरिज्जमाणे उदीरिए ? वेइज्जमाणे वेइए ? पहिज्जमाणे पहीणे ? छिज्जमाणे छिष्णे ? भिजमाणे भिण्णे ? डज्झमाणे दड्ढे ? मिज्जमाणे मडे ? णिज्जरिजमाणे णिज्जिणे ? १ उत्तर - हंता, गोयमा ! चलमाणे चलिए, जाव णिज्जरिज्जमाणे णिजिणे । शब्दार्थ - भंते - हे भगवन् ! चलमाणे चलिए- क्या चलते हुए को चला कहा जा सकता है? इसी तरह, उदीरिज्जमाणे - जिसकी उदीरणा की जा रही है वह, उदीरिए - उदीरित, बेइज्जमाने - वेदा जाता हुआ, वेइए-वेदित, पहिज्जमाणे - प्रहीयमान- गिरता हुआ, पहीणे- गिरा, छिज्जमाणे- छिदता हुआ, छिण्णे-छिदा, मिज्जमाणे- भिदता हुआ, भिण्णेभिदा, उज्झमाणे - जलता हुआ, बड्ढे जला, मिज्जमाणे मरता हुआ, मडे-मरा, णिज्जरिज्जमाणे- निर्जरता हुआ, णिज्जिणे - निर्जरा । क्या इस तरह कहा जा सकता है ? हंता - हां, गोयमा - गौतम ! चलमाणे- चलता हुआ, चलिए - चला, जाव-यावत्, णिज्जरिज्जमाणे-निर्जरता हुआ, णिज्जिणे - निर्जरा। इस प्रकार कहा जा सकता है । २१ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जो चल रहा है वह चला, जो उबीरा जा रहा है वह उदीरा गया, जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया, जो गिर रहा है वह गिरा, जो छिद रहा है वह छिदा, जो भिद रहा है वह भिदा, जो जल रहा है वह जला, जो मर रहा है वह मरा और जो निर्जरा रहा है वह निर्जरा, क्या इस प्रकार कहा जा सकता है ? उत्तर - हां, गौतम ! जो चल रहा है वह चला यावत् जो निर्जर रहा है वह निर्जरा, इस प्रकार कहा जा सकता है । For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ भगवतीसूत्र - श. १ उ. १ चलमाणे चलिए आदि प्रश्न विवेचन - प्रारम्भ में ' से गूणं' ये दो शब्द हैं । 'से' का अर्थ 'अथ' है जो वाक्य का प्रारम्भ करने के लिए आता है। 'गूगं' ( नूनं ) शब्द का अर्थ 'निश्चय' है । 'भंते / शब्द का अर्थ 'भगवन्' है । यह गुरु महाराज के आमन्त्रण का सूचक है। अतः 'भंते' इस आमन्त्रण से गौतमस्वामी ने अपने गुरु भगवान् महावीर स्वामी को सम्बोधित करके 'चलमाणे चलिए' आदि नौ प्रश्न किये हैं । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि गौतमस्वामी ने सब से पहले 'चलभाणे चलिए यही प्रश्न क्यों किया ? कोई दूसरा प्रश्न पहले क्यों नहीं किया ? इसका समाधान यह है कि-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहे गये हैं । इन सब में 'मोक्ष' पुरुषार्थ ही सर्व प्रधान है। इस मोक्ष रूपी साध्य के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये अव्यभिचारी ( निश्चित ) साधन हैं । अर्थात् मोक्ष रूपी साध्य इन्हीं साधनों से प्राप्त हो सकता है, दूसरे साधनों से नहीं । तथा सम्यग्दर्शनादि साधनों से मोक्ष रूपी साध्य की ही प्राप्ति होती है, अन्य की नहीं । इस प्रकार के अव्यभिचारी साध्य साधनों वाले शास्त्र में ही विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति होती है । मोक्ष का विपक्ष ( मोक्ष विरुद्ध पक्ष ) 'बन्ध' है। आत्मा के साथ कर्मों का एकमेक होजाना बन्ध है । जैसे दूध और पानी आपस में मिलकर एकमेक हो जाते हैं उसी प्रकार कर्म-प्रदेशों का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बन्ध है । बन्ध से छुटकारा पाना - बन्ध का सर्वथा + 'अंते' शब्द की संस्कृत छाया 'भदन्त, भजन्त, भान्त, भ्राजन्त, प्रान्त, भगान्त, भवान्त भगवत्' होती है । जिनका क्रमश: संक्षिप्त अर्थ यह है-भदन्त - कल्याणकारी, सुखकारी। भजन्त-सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का सेवन करने वाले । भान्त-तपादि गुणों की दीप्ति से चमकने वाले । भ्राजन्ततपादि गुणों की दीप्ति से युक्त । प्रान्त मिथ्यात्वादि बन्धनों से रहित । भयान्त- सांसारिक भय - त्रास से रहित । भवान्त — नरकादि समस्त भवों का अन्त करने वाले । भगवत् - ऐश्वर्यादि सम्पन्न । 'धग' शब्द से 'वतु' प्रत्यय रूम कर 'भगवत्' शब्द बना है। शास्त्रों में 'भग' शब्द के ये अर्थ दिये हैं ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याय प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगना ॥ अर्थात् - सम्पूर्ण ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न, ये छह 'भग' शब्द के अर्थ हैं। तीर्थंकर देव चौंतीस अतिशय रूपी बाहरी ऐश्वर्य से और केवलज्ञान केवलदर्शन रूपी आन्तरिक अतिशय रूपी ऐश्वर्य से, इस प्रकार समग्र ऐश्वर्यं से सम्पन्न होने के कारण 'भगवान्' कहे जाते हैं । 'भंते' शब्द का अर्थ 'भगवन्' यह जैनागमों में प्रचलित हैं। अतः यहां 'भगवन्' शब्द का ही प्रयोग किया जायगा । 'भदन्त' आदि शब्द बौद्धादि साहित्य में प्रचलित है। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १.उ. चलमाणे चलिए आदि प्रश्न क्षय हो जाना 'मोक्ष' हैं। इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मों के बन्धन को काटना अनिवार्य हैं । उन कमों के क्षय के लिए 'चलमाणे चलिए' यह क्रम बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी ने यहां जो 'चलमाणे चलिए' से लगाकर 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए' तक नौ प्रश्न किये हैं, उनमें कर्म-बन्ध के नाश का क्रम बतलाया गया है । यह क्रम 'चलमाणे' से आरम्भ होता है और 'णिज्जरिए तक रहता है । इस अन्तिम क्रम के पश्चात् कर्मबन्ध नहीं रहता । कर्मबन्ध के नाश होने में पहला क्रम 'चलमाणे चलिए' ही है। इसी कारण से यह प्रश्न सबसे पहले किया गया है । (१) कर्मों के अबाधा काल की स्थिति पूर्ण होने पर कर्म अपना फल देने के लिए उदयावलिका में आते हैं । इस प्रकार कर्म का फल देने के लिए सामने आना 'चलित' कहलाता है । २३ कर्मों का चलनकाल उदयावलिका है । उसमें असंख्यात समय होते हैं । उन असंख्यात समय की आदि भी है, मध्य भी है और अन्त भी है । कर्म पुद्गल अनन्त हैं और उनके उदयावलिका में आने का क्रम है। इस प्रकार क्रम से चलते चलते कर्म पुद्गलों को 'उदयावलिका में आने में असंख्यात समय लग जाते हैं। इसलिए पहले समय में कर्म पुगलों का जो दल चला है उसे 'चला' कहना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि जो कर्मपुद्गल 'चल रहे हैं' वे वर्तमान काल में हैं, उन्हें 'चले' ऐसा भूतकाल में कैसे कहा जा सकता है ? इस शङ्का का समाधान यह है कि जैसे कपडा बुनने के लिए पहला एक तन्तु (तार) डाला गया, इससे 'कपडा बुना' ऐसा लोक व्यवहार में कहा जाता है। यह व्यवहार निराधार नहीं है, क्योंकि वस्त्र को बुनना - वस्त्र की उत्पत्ति एक क्रिया है। सो यदि पहला तार • डालने रूपी क्रिया निरर्थक मानी जायगी, तो अन्तिम तार डालने तक की क्रिया भी निर-..: बन सकेगी। किन्तु यह बात 1 र्थक हो जायगी । वैसी दशा में 'कपड़े की उत्पत्ति' ही नहीं प्रत्यक्ष से विरुद्ध है । अन्तिम तन्तु में जो शक्ति है वही शक्ति प्रथम तन्तु में भी हैं। इसलिए जैसे अन्तिम तन्तु से कपडे को 'बना हुआ' माना जाता है उसी प्रकार प्रथम तन्तु से भी कपड़े को बना हुआ मानना पडेगा, क्योंकि वह अन्तिम भी प्रथम आदि की अपेक्षा - ही है । इसलिए यदि प्रथम आदि तन्तु से कपडे को बुना हुआ नहीं माना अन्तिम तन्तु से भी कपडा बुना हुआ नहीं माना जा सकेगा । वैसी दशा में लोक महार भी बाधित हो जायगा । तो 1 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र - श. १ उ. १ चलमाणे चलिए प्रश्न जैसे वस्त्र के विषय में तन्तु के लिए कहा गया है वैसा ही 'समय' की अपेक्षा भी जान लेना चाहिए | समय के स्थूलरूप से तीन विभाग किये जा सकते हैं - प्रारंभकाल, मध्यकाल और अन्तिमकाल । जैसे प्रारंभकाल में एक तन्तु डालने से कपडा उत्पन्न हुआ, उसी प्रकार मध्यकाल में और अन्तिम काल में भी उत्पन्न हुआ है । तात्पर्य यह है कि जैसे एक तन्तु डालने से वस्त्र की उत्पत्ति मानना युक्तिसंगत है, उसी प्रकार कर्मों की उदयावलिका असंख्यात समय की होने से पहले समय में जो कर्म दलिक उदयावलिका में आने के लिए चले हैं, उनकी अपेक्षा उन्हें चला कहा जाता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो जो कर्म दलिक उदयावलिका में आने के लिए चले हैं • 'उant 'aoafter' निरर्थक हो जायगी और यदि प्रथम समय में कर्मों का चलना नहीं माना जायगा, तो फिर दूसरे तीसरे आदि समयों में भी उनका चलना नहीं माना जा सकेगा। क्योंकि पहले समय में और पिछले समय में कोई अन्तर नहीं है । जैसे पहले समय में कुछ ही कर्मदलिक चलते हैं, सब नहीं, उसी प्रकार अन्तिम समय में भी कुछ ही कदलिक चलते हैं, सब नहीं । क्योंकि बहुत से कर्मदलिक तो पहले ही चल चुके हैं और, जो थोडे से बाकी बचे हैं वे ही अन्तिम समय में चलते हैं। इस प्रकार सब समय समान हैं, किसी में कोई विशेषता नहीं हैं । अतः प्रथम समय में यदि 'कर्मचले' ऐसा न माना जाय, तो फिर किसी भी समय में उनका चलना न माना जा सकेगा। इसलिए जिस प्रकार अन्तिम समय में 'कर्मचले' ऐसा माना जाता है, उसी प्रकार प्रथम समय में भी 'कमंचले ' ऐसा मानना चाहिए । कर्मों की स्थिति परिमित है, चाहे वह अन्तर्मुहूर्त की हो या सत्तर कोटाकोड़ी सागरोपम की हो, लेकिन है परिमित ही । परिमित स्थिति वाले कर्म यदि उदय में नहीं आवेंगे, तो उनका परिमितपना मिट जायगा और सारी व्यवस्था भंग हो जायगी । कर्म स्थिति की मर्यादा हैं और उस मर्यादा के अनुसार कर्म उदयावलिका में आते ही हैं । उदयावलिका में आने के लिए सभी कर्म एक साथ नहीं चलते हैं । प्रत्येक समय में उनका कुछ अंश ही चलता है । प्रथम समय में जो कर्माश चला है यदि उसकी अपेक्षा कर्म को 'चला' न माना जायगा तो प्रथम समय की क्रिया और वह समय व्यर्थ हो जायगा । अतः 'चलमान' कर्म को 'चलित' मानना ही उचित है। जो कर्मदल प्रारम्भ में उदयावलिका के लिए 'चला' हैं, वह बाद में फिर नहीं चलता है । अतएव 'इस समय यह कर्मासे चला है. और इस समय यह कर्माश चला है' ऐसा मानने से ही कर्मों के चलने का क्रम रह सकता For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शं. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न है । इसलिए प्रथम समय में जो कर्मदल 'चला' है, उसकी अपेक्षा 'चला' मानना युक्ति संगत है । (२) 'जो उदीरा जा रहा है' वह 'उदीर्ण' हुआ, ऐसा कहना चाहिए । कर्म दो प्रकार से उदय में आते हैं । कोई कर्म अपने अबाधा काल की स्थिति पूर्ण होने पर स्वभावतः उदय में आता है और कोई कर्म 'उदीरणा' के द्वारा उदय में लाया जाता है । कालान्तर में उदय में आने योग्य कर्म को जीव अपने अध्यवसाय विशेष से स्थिति का परिपाक होने से पूर्व ही उदयावलिका में खींच लाता है । इस प्रकार नियत समय से पहले ही प्रयत्न विशेष से किसी कर्म को उदयावलिका में खींच लाना 'उदीरणा' है। कर्म की उदीरणा में भी असंख्यात समय लगता है, 'परन्तु जब पहले समय में उदीरणा होने लगी, तो 'उदीर्ण हुआ' कहना चाहिए। जैसे कि - 'चलमाणे चलिए' में युक्तिपूर्वक सिद्ध किया जा चुका है । (३) 'जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया'। ऐसा मानना चाहिए। कर्मों का अनुभव करने को 'वेदन' कहते हैं । वेदन दो प्रकार से होता है-अबाधा काल की स्थिति पूर्ण होने पर उदय में आये हुए कर्म को वेदना और उदीरणा द्वारा खींच कर उदय में लाये हुए कर्म को वेदना । 'वेदन' भी असंख्यात समय का होता है। प्रथम समय में वेदे जाते हुए कर्म को 'वेदा गया' कहना चाहिए और इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। युक्ति पूर्ववत् है । ( ४ ) ' जो गिरता है वह गिरा' ऐसा मानना चाहिए । आत्म- प्रदेशों के साथ सम्बद्ध हुए कर्मों को हटाना अर्थात् आत्म-प्रदेशों से पृथक् करना 'प्रहाण' कहलाता है । आत्मप्रदेशों से कर्मों को दूर करने में भी असंख्य समय लगते हैं । परन्तु पहले समय में जो कर्म हटे हैं- गिरे हैं- उनके लिए 'गिरा' यह कहना चाहिए और इसी प्रकार आगे भी जानना युक्ति पूर्ववत् है । (५) जो छेदा जा रहा है वह छिदा' ऐसा कहना चाहिए। कर्म की दीर्घकाल की स्थिति को अल्पकाल की स्थिति में कर लेना 'छेदन' कहलाता है । यद्यपि कर्म वही है। किन्तु उसकी स्थिति को कम कर लेना 'छेदन' है । यह छेदन 'अपवर्तना करण' के द्वारा होता है । इसमें भी असंख्यात समय लगते हैं किन्तु प्रथम समय में जो स्थितिछेद हो रहा 'है उसे 'छिदा' ऐसा कहना चाहिए और इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। युक्ति पूर्ववत् है । (६) 'जो भेदा जा रहा है वह भेदा गया' ऐसा कहना चाहिए। शुभ कर्म या अशुभ कर्म के तीव्र रस को अपवर्तना करण द्वारा मन्दरस करना और मन्दरस को उद्वर्तना करण For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न द्वारा तीव्ररस करना 'भेदन' कहलाता है। कर्म भेदन की इस क्रिया में भी असंख्यात समय लगते हैं । प्रथम समय में जो भिद्यमान हो रहा है उसे 'भेदा गया' कहना चाहिए। ... ... (७) 'जो जलता है वह जला' ऐसा कहना चाहिए । कर्म रूपी काष्ठ को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर नष्ट करना 'दग्व' कर देना कहलाता है। जैसे अग्नि से जलकर लकड़ी राख रूप में परिणत हो जाती है उसी प्रकार आत्मा के साथ जो कर्म परमाणु लगे हुए हैं उन्हें ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर फिर पुद्गल रूप बना देना अर्थात् उन्हें अकर्म रूप में पहुंचा देना 'दग्व' करना कहा जाता है। ध्यान रूपी अग्नि से भस्म किये हुए कर्म फिर भोगने नहीं पड़ते । ध्यान रूप अग्नि से भस्म किये हुए कर्म, कर्म ही नहीं रहते, किन्तु अकर्म रूप पुद्गल बन जाते हैं। ध्यान रूमी अग्नि से कर्म को अकर्म रूप में परिणत करने में (दग्ध करने में) अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इतने ही समय में ध्यान के प्रभाव से कर्म भस्म हो जाते हैं । इस अन्तर्मुहूर्त काल में भी असंख्यात समय होते हैं । इन असंख्यात समयों में से पहले समय में जब कर्म दग्ध होने लगते हैं, तब उन्हें 'दग्ध हुए' कहना चाहिए। .. (८) 'जो मर रहा है वह मरा' ऐसा कहना चाहिए। आयु कर्म से रहित हो जाना 'मरण' कहलाता है। मरने का अर्थ आत्मा का नाश हो जाना नहीं है । आत्मा आयु कर्म के साथ रह कर चेष्टा करता है। जब आत्मा आयु कर्म से रहित हो जाती है, आयु कर्म उसके साथ नहीं रहता है, तब चेष्टा बन्द हो जाती है और आत्मा की मुक्ति हो जाती है । इस प्रकार आयुकर्म के पुद्गों का नाश हो जाना 'मरणं' है। यद्यपि आयुकर्म के पुद्गलों का नाश असंख्यात समय में होता है, फिर भी उन असंख्यात समयों में से प्रथम समय में भी मरा कहा जा सकता है। शास्त्र का कथन है कि प्रत्येक प्राणी का 'आवीचिक+' मरण हो रहा है। 'आवीचिक मरण' के द्वारा प्रत्येक प्राणी प्रति समय मृत्यु को प्राप्त होता जाता है । इस प्रकार यद्यपि मरने में असंख्यात समय लगते हैं, तथापि जो मरने लगा है उसे 'मरा' कहना चाहिए। ___+वीचि का अर्थ तरंग है, उसके समान जो मरण हो अर्थात् जैसे समुद्र में एक तरंग के बाद दूसरी तरंग अविलम्ब आया करती है उसी तरह एक एक क्षण में आयुष्य का नाश हुआ करता है, उसे 'आवी. चिक' मरण कहते हैं। जैसे किसी जीव ने अगले जन्म की ५० वर्ष की आय बांधी। जब वह वर्तमान शरीर को छोड़कर अगला भव धारण करने के लिए जाता है तभी से उसकी ५० वर्ष की आयु में से प्रति क्षण आयु घटती जाती है। इस प्रकार प्रतिक्षण होने वाले मरण को 'बावीषिक' मरण कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.१२. १ चलमाणे आदिप्रश्न २७ (९) 'जो निर्जीर्यमाण होने लगा है उसको निर्जीर्ण हुआ' कहना चाहिए । कमो का आत्मा से अपुनर्भाव रूप से पृथक् हो जाना 'निर्जरा' है । यह 'निर्जरा' शब्द का सामान्य अर्थ है, किन्तु यहाँ 'निर्जरा' का अर्थ मोक्ष प्राप्ति रूप है । मोक्ष प्राप्त करने वाले महापुरुष कर्मों की निर्जरा करते हैं, उनके निर्जीर्ग कर्म फिर कभी उनके कर्म रूप से उत्पन्न नहीं होते। उन्हें फिर कभी कर्मों को भोगना नहीं पड़ता । इस प्रकार कर्मों का आत्यन्तिक क्षीण होना यहां पर 'निर्जरा' कही गई है। निर्जरा भी असंख्यात समयों में होती है। किन्तु जब कर्म निर्जीर्ण होने लगा, उसे 'निर्जीर्ण हुआ' ऐसा कहना चाहिए । पहले कपड़े का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि 'जो कार्य हो रहा है उसे हुआ' कहा जा सकता है । इसी युक्ति से 'चलमाणे चलिए' से लगा कर 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए' तक.नौ प्रश्नों के उत्तर में होती हुई क्रिया को हुआ' कहा गया है। ____ गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से ये प्रश्न किये । इस पर यह तर्क किया जा सकता है कि-गौतम स्वामी तो स्वयं द्वादशांगी के रचने वाले हैं। यह भगवती सूत्र भी द्वादशांगी के अन्तर्गत है, फिर उन्होंने इसके प्रारम्भ में ये प्रश्न कैसे किये ? क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण श्रुत का विषय ज्ञात था । वे संशयातीत थे, वे सर्वाक्षर-सन्निपाती थे। अतएव वे सर्वज्ञ तुल्य थे। जैसाकि कहा है .. संखाइए उ भवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा । ण य गं अणाइसेसी, वियाणइ एस छउमत्थो ।" अर्थ-दूसरे के पूछने पर ऐसा छमस्थ संख्यातीत भवों को कह सकता है, क्योंकि वह अनतिशेषी नहीं है अर्थात् अतिशय ज्ञानवान् होता है । इसलिए वह जानता है । .. इस शंका का समाधान यह है कि गौतम स्वामी के जितने गुण वर्णन किये, वे अब उनमें विद्यमान हैं, वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं और संशयातीत भी हैं तयापि वे छद्मस्थ हैं । छद्मस्थ होने के कारण उनके ज्ञान में कुछ कमी रहती है । वह छद्मस्थ ही कैसा जिसके ज्ञान में कुछ कमी न हो ? अतः छद्मस्थ के लिए कुछ भी अनाभोग-अपूर्णता न रहे, ऐसी बात नहीं हो सकती । जैसाकि कहा है "नहि नामाऽनाभोगः, छमस्यस्येह कस्यचिन्नास्ति । . यस्माद् ज्ञानावरणं, ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥" अर्थ-'किसी भी छद्मस्थ को किसी प्रकार का अनाभोग (अपूर्णता) न हो,' यह For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न बात नहीं हो सकती अर्थात् उनमें कुछ न कुछ अनाभोग (अपूर्णता) रहता ही है । क्योंकि ज्ञान को ढकने का स्वभाव वाला ज्ञानावरण कर्म उनके मौजूद है। जितने अंश में उसने ज्ञान को ढक रखा है उतने अंश में उसमें अपूर्णता रहती है। इसलिए गौतम स्वामी ने ये प्रश्न किये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अथवा-कदाचित् गौतम स्वामी इन प्रश्नों का उत्तर जानते भी हो तथापि अपने ज्ञान में अविसंवाद लाने के लिए, निश्चयता लाने के लिए तथा अपने द्वारा जाने हुए विषय पर भी भगवान् द्वारा अधिक प्रकाश डलवाने के लिए गौतम स्वामी ने ये प्रश्न किये हैं। अथवा-अनजान लोगों को बोध कराने के लिए तथा शिष्यों को अपने वचन में प्रतीति कराने के लिए अथवा सूत्र रचना के कल्प संपादन के लिए गौतम स्वामी ने ये प्रश्न किये हैं। क्योंकि सूत्र रचना का क्रम गुरु शिष्य के प्रश्नोत्तर से ही होता है। उपर्युक्त कारणों में से किसी भी कारण से प्रेरित होकर गौतम स्वामी ने प्रश्न पूछे हैं। गौतम स्वामी के इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान् ने 'हंता' शब्द का प्रयोग किया है। 'हंता' शब्द का अर्थ आमन्त्रण अर्थात् संबोधन करना है । और स्वीकार रूप 'हाँ' अर्थ भी है। .. पाठ का संकोच करने के लिए 'जाव-यावत्' शब्द का प्रयोग होता है । 'चलमाणे चलिए' यह प्रश्न का प्रथम पद कह कर 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए' यह अन्तिम पद कहा गया है । इनके बीच के सब पदों का ग्रहण 'जाव-यावत्' शब्द से हुआ है । 'जाव' शब्द का अर्थ है ‘से लगा कर' अर्थात् 'वहां से लेकर वहाँ तक' । यह 'जाव-यावत्' शब्द का अर्थ है। " २ प्रश्न-एए णं भंते ! णव पया किं एगट्ठा गाणाघोसा ? णाणावंजणा ? उदाहु णाणट्ठा ? णाणाघोसा ? णाणा वंजणा ? ___२ उत्तर-गोयमा ! चलमाणे चलिए, · उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेइज्जमाणे वेइए, पहिज्जमाणे पहीणे, एए णं चत्तारि पया एगट्ठा, णाणाघोसा, णाणावंजणा, उप्पण्णपक्खस्स । छिज्जमाणे छिण्णे, भिज्जमाणे भिण्णे, दटमाणे दड्ढे, मिज्जमाणे मडे For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न णिज्जरिज्जमाणे णिजिणे, एए णं पंच पया णाणट्टा, णाणाघोसा णाणावंजणा, विगयपक्खस्स । शब्दार्थ-भंते-हे भगवन् ! एए-ये, णव-नौ, पया-पद, कि- क्या, एगट्ठा- एक अर्थ वाले हैं, ? णाणाघोसा - नानाघोष वाले हैं ? णाणावंजणा - नाना व्यञ्जन वाले हैं ? उदाहु - अथवा, णाणट्ठा - नाना अर्थ वाले हैं ? णाणाघोसा-नाना घोष वाले हैं ? णाणावंजणा - नाना व्यञ्जन वाले हैं ? २९ गोयमा - हे गौतम! चलमाणे चलिए -चलमान चलित, उदीरिज्जमाणे उदीरिएउदीर्यमाण उदीरित, बेइज्जमाणे बेइए-वेद्यमान वेदित, पहिज्जमाणे पहिये - प्रहीयमाण प्रहीण, एए ये चत्तारि चार, पया-पद, उप्पण्णपक्खस्स - उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से, एगट्ठा - एकार्थक हैं, गाण्राघोसा - नाना घोष वाले हैं, णाणावंजणा-नाना व्यञ्जन वाले हैं । छिज्जमाने छिण्णे-छिद्यमान छिन्न, भिज्जमाणे भिण्णे-भिद्यमान भिन्न, दडमाणे दड्ढेदह्यमान दग्ध, मिज्जमाणे मंडे - म्रियमाण मृत, णिज्जरिज्जमाणे णिज्जिणे - निर्जीर्यमाण निर्जीर्ग, एए-ये, पंच-पांच, पया-पद, विगयपक्खस्स - विगत पक्ष की अपेक्षा, गाणट्ठा - नाना अर्थ वाले, गाणाघोसा-नाना घोषवाले और णाणावंजणा-नाना व्यञ्जन वाले हैं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ये नौ पद क्या एक अर्थ वाले, नाना प्रकार के घोष वाले और नाना प्रकार के व्यञ्जन वाले हैं ? अथवा नाना अर्थ वाले, नानाघोष वाले और विविध प्रकार के व्यञ्जन वाले हैं ? उत्तर- हे गौतम ! चलमान चलित, उदीर्यमाण उदीरित, वेद्यमान वेदित प्रहीयमाण प्रहीण, ये चार पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक हैं, नाना घोष वाले हैं और नाना व्यञ्जन वाले हैं । छिद्यमान छिन्न भिद्यमान भिन्न दह्यमान दग्ध, त्रियमाण मृत और निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण, ये पांच पद विगत पक्ष की अपेक्षा नाना अर्थ वाले, नाना घोषवाले और नाना व्यञ्जन वाले हैं । विवेचन - पहले 'चलमाणे चलिए' इत्यादि नौ पद कहे गये हैं, उनके विषय में अब • गौतम स्वामी का पूछना यह हैं कि इन पदों में घोष और व्यञ्जन तो अलग अलग हैं, किन्तु x '' यह अव्यय है और वाक्यालङ्कार में आता है । इसका स्वतन्त्र अलग कोई अर्थ नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० क्या इनका अर्थ भी भिन्न-भिन्न है, या एक ही है, अर्थात् ये पद एकार्थक हैं या भिन्नार्थक ? एकार्थक पद दो प्रकार के होते हैं- प्रथम तो एक ही विषय को प्रतिपादन करने वाले शब्द एकार्थक कहलाते हैं। दूसरा - जिन पदों का अर्थ (तात्पर्य ) एक हो वे भी एकार्थक कहलाते हैं । घोष तीन प्रकार के होते हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । जो उच्च स्वर से बोला जाय उसे 'उदात्त' कहते हैं। जो नीचे स्वर से बोला जाय उसे 'अनुदात्त' कहते हैं । जो न तो विशेष ऊँचे स्वर से बोला जाय और न विशेष नीचे स्वर से बोला जाय, किन्तु मध्यम स्वर से बोला जाय उसे 'स्वरित' कहते हैं । शास्त्रकार ने एकार्थक और नानार्थक की एक चौभंगी बतलाई है । वह इस प्रकार है- भगवतीसूत्र - श. १ उ. १ चलमाणं आदि प्रश्न (१) समानार्थक समान व्यञ्जन । (२) समानार्थक भिन्न व्यञ्जन । (३) भिन्नार्थक समान व्यञ्जन । (४) भिन्नार्थक भिन्न व्यञ्जन । कई पद समान अर्थ वाले और समान व्यञ्जन (अक्षर) वाले एवं समान घोष बाले होते हैं । जैसे क्षीर, क्षीर। इन दोनों पदों का अर्थ 'दूध' है और दोनों पदों में अक्षरों की भी समानता है । अतः यह 'समानार्थक समान व्यञ्जन' नामक पहला भंग है । कई पद समान अर्थ वाले और भिन्न व्यञ्जन वाले होते हैं । जैसे-क्षीर, पयः । इन दोनों पदों का अर्थ 'दूध' है, किन्तु इनके व्यञ्जन (अक्षर) भिन्न-भिन्न हैं । अतएव घोष भी भिन्न-भिन्न हैं । यह दूसरा भंग हुआ । कई पद ऐसे होते हैं कि उनका अर्थ तो भिन्न-भिन्न होता है, किन्तु व्यञ्जन समान होते हैं । जैसे अर्क-क्षीर (आक का दूध) और गोक्षीर (गाय का दूध) । इन पदों में क्षीर शब्द समान व्यञ्जन वाला है, किन्तु उसका अर्थ भिन्न-भिन्न है । अतः यह तीसरा भंग हुआ । कई पद ऐसे होते हैं कि जिनका अर्थ भी भिन्न होता है और व्यञ्जन भी भिन्न होता हं । घट (घड़ा) पट ( कपड़ा ) लकुट ( लकड़ी) आदि । इन शब्दों का अर्थ भी भिन्न है और व्यञ्जन भी भिन्न हैं । यह चौथा भंग हुआ । गौतम स्वामी ने प्रश्न करते हुए - यहाँ चौभंगी के दूसरे और चौथे भंग को ग्रहण किया है । पहले और तीसरे भंग का इन नौ पदों में समावेश नहीं होता है, क्योंकि इन नौ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न पदों के व्यञ्जन भिन्न-भिन्न हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया है कि 'चलमाणे चलिए' आदि चार पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा एकार्थक हैं, एवं नाना वर्ग वाले व नानाघोष वाले हैं। आगे के पांच पद भिन्नार्थक, भिन्न घोष और भिन्न व्यञ्जन वाले हैं । 'चलमाणे चलिए' आदि चार पदों का अर्थ उत्पाद पर्याय की अपेक्षा एक है, क्योंकि क्रमयुक्त होते हुए भी ये चारों एक सरीखे काल वाले होते हैं । एक ही अन्तर्मुहूर्त में चलन क्रिया, उदीरणा क्रिया, वेदनाक्रिया और प्रहीण क्रिया भी हो जाती है । इन चारों स्थिति एक ही अन्तर्मुहुर्त है । इस प्रकार तुल्य काल की अपेक्षा से भी ये चार पद एकार्थक हैं । अथवा ये चारों पद एक ही कार्य को उत्पन्न करते हैं, अर्थात् केवलज्ञान को प्रकट करते हैं । इसलिए एक कार्य के कर्त्ता होने से वे एकार्थक कहे जाते हैं । ३१ इन नौ पदों में कर्म का विचार किया गया है और कर्म का नाश होने पर दो फल उत्पन्न होते हैं-पहला केवलज्ञान और दूसरा मोक्ष प्राप्ति । पहले के चार पद मिलकर केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं । ये चारों पद आत्मप्रदेशों से कर्मों को हटा देते हैं । कर्मों के हट जाने से क्षय हो जाने से केवलज्ञान प्रकट होता है । केवलज्ञान की उत्पत्ति पक्ष को लेकर ही इन चारों पदों को एकार्थक बतलाया गया है। इनमें पहला पद 'चलमाणे चलिए ' है । वह केवलज्ञान की प्राप्ति में यह काम करता है कि इससे कर्म उदय में आने के लिए चलित होते हैं । कर्म का उदय दो प्रकार से होता है -स्थिति परिपाक से और उदीरणा से । स्थिति परिपाक होने पर कर्म जो अपना फल देता हैं वह उदय कहलाता है । और अध्यवसाय विशेष से या तपस्या आदि क्रियाओं के द्वारा जो कर्म-स्थिति परिपाक से पहले ही उदय में लाये जाते हैं, उसे उदीरणा कहते हैं । दोनों ही जगह उदय तो समान ही है, - किन्तु एक जगह स्थिति का परिपाक होता है और दूसरी जगह नहीं । उपरोक्त दोनों प्रकार से उदय में आये हुए कर्मों के अनुभव को 'वेदन' कहते हैं । जिस कर्म के फल का अनुभव हो गया वह कर्म नष्ट हो जाता है, अर्थात् आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाता है । इसे कर्म का 'प्रहीण' होना कहते हैं । इस प्रकार ये चारों पद कर्मों को आत्म प्रदेशों से हटा देते हैं, तब केवलज्ञान प्रकट होता है । केवलज्ञान के इस उत्पन्न पक्ष को ग्रहण करके ही इन चारों पदों को एकार्थंक कहा है। किन्हीं आचार्यों का अभिप्राय इस प्रकार है कि ये चारों पद स्थिति बन्ध आदि विशे For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न षता से रहित होने से अर्थात् सामान्य कर्म के आश्रित होने से एकार्थक हैं और केवलज्ञान की उत्पत्ति के साधक हैं । एक अन्तर्मुहूर्त में ही ये केवलज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार करते हैं । अतएव इन्हें एकार्थक कहा गया है। इन पहले के चार पदों को एकार्यक कह देने से पिछले पांच पद अनेकार्थ (नानार्थ) हैं, यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है । फिर भी अल्पबुद्धि वालों को भी तत्त्व अच्छी तरह समझ में आजाय, इस अपेक्षा से पिछले पांच पद अनेकार्थ हैं, यह बात अलग कही गई है। . छिन्जमागे छिपणे' आदि पांच पद विगत पक्ष की अपेक्षा से अनेकार्थक हैं । 'छिज्जमागे छिण्णे' यह पद कर्मों की स्थिति की अपेक्षा से है। केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने के बाद तेरहवें गुणस्यानवर्ती सयोगी केवली, जव अयोगी केवली होने वाले होते है अर्थात् मन, वचन, काया के योगों को रोक कर अयोगी अवस्था में पहुंचने के उन्मुख होते हैं, तब वेदनीय कर्म, नामकर्म और गोत्रकर्म की जो प्रकृति शेष रहती है उसकी लम्बे काल की स्थिति को अपवर्तन करण द्वारा अन्तर्मुहूर्त की स्थिति बना डालते हैं अर्थात् लम्बी स्थिति को छोटी कर लेते हैं । यह कर्मों का छेदन' करना कहलाता है । कर्मों की स्थिति को कम करने के साथ ही वे कर्मों के रस को भी कम कर डालते हैं । कर्मों के रस को कम करना ‘भेदन' कहलाता है । तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली स्थितिघात के साथ रसघात भी करते हैं। - यद्यपि कर्म-स्थिति और कर्म-रस का नाश एक ही साथ होता है, तथापि स्थिति के खण्ड अलग हैं और रस के खण्ड अलग हैं । स्थिति के खण्डों से रस के खण्ड अनन्तगुणा हैं। इस कारण 'छिज्जमाण' और 'भिज्जमाण' पदों का अर्थ अलग-अलग है। 'छिज्जमाण' यह पद स्थिति खण्ड की अपेक्षा है और 'भिज्जमाण' यह पद रसखण्ड की अपेक्षा है । तीसरा पद 'इज्झमाणे दड्डे' है। यह प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से है । कर्म के प्रदेशों का घात होना कर्म का 'दाह' कहलाता है । अनन्तानन्त कर्म प्रदेशों को अकर्म रूप में परिणत कर देना कर्म का 'दाह' करना कहलाता है । __प्रदेशों का अर्थ है 'कर्म का दल' । पांच ह्रस्व अक्षर उच्चारण काल जितने परि- . माण वाली और असंख्यात समय युक्त गुणश्रेणी की रचना द्वारा कर्म प्रदेश का क्षय किया नाता है । यद्यपि यह गुणश्रेणी पांच ह्रस्व अक्षर उच्चारण काल के बराबर काल वाली है, किन्तु इतने से काल में ही असंख्यात समय हो जाते हैं । तेरहवें गुणस्थान से इस गुणश्रेगी की रचना होती है । इस गुणश्रेणी द्वारा पूर्व रचित और प्रथम समय से प्रारम्भ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न करके यावत् अन्तिम समय पर्यन्त प्रतिसमय क्रम से असंख्यात गुणवृद्ध कर्म पुद्गलों के दहन को 'दाह' कहते हैं । यह 'दाह' शैलेशी अवस्था में होने वाले शुक्ल-ध्यान के चतुर्थ पाद (चौथा पाया) समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाती नामक ध्यानाग्नि द्वारा होता है । पहले समय में जितने कर्म पुद्गल दग्ध होते हैं उससे असंख्यातगुणा दूसरे समय में दग्ध होते हैं । इस प्रकार तीसरे समय में दूसरे समय की अपेक्षा असंख्यातगुणा कर्मों को दग्ध किया जाता है । इस प्रकार दग्ध करने का क्रम बढ़ता जाता है । इसका कारण यह है कि ज्यों ज्यों कर्म पुद्गल दग्ध होते जाते हैं त्यों त्यों ध्यानाग्नि अधिकाधिक प्रज्वलित होती जाती है और वह अधिकाधिक कर्म पुद्गलों को दग्ध करती है। ____इस प्रकार भिद्यमान और दह्यमान पदों का अर्थ अलग अलग है। - चौथा पद है 'मिज्जमाणे मडे' । इस पद से आयुकर्म के क्षय का निरूपण किया गया है । यद्यपि प्रत्येक. संसारी प्राणी जन्म मरण करता है तथापि यहाँ पर वह अन्तिम मरण लिया गया है जो मोक्ष प्राप्त करने से पहले होता है । पहले बंधे हुए आयु कर्म का क्षय हो जाय और नया आयुकर्म न बंधे यही मोक्ष का कारण है। 'आयुकर्म के पुद्- गलों का क्षय करना मरण है, इस अपेक्षा से इस पद का अर्थ अन्य पदों से भिन्न है। पांचवां पद है 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जिणे' अपने समस्त कर्मों को अकर्म रूप में परिणत कर देना ही यहां 'निर्जरा' शब्द का अर्थ लिया गया है। यह स्थिति संसारी जीव ने कमी प्रप्त नहीं की है। उसने कभी कुछ कर्मपुद्गलों की निर्जरा की और कभी कुछ की, परन्तु समस्त कर्मों की निर्जरा कभी नहीं की । इसलिए यह स्थिति आत्मा के लिए अपूर्व है । अतएवं इस पद का अर्थ अन्य पदों से भिन्न है । इस प्रकार अन्त के ये पांचों पद भिन्न भिन्न अर्थ वाले हैं। 'चलमाणे चलिए' आदि चार पदों से केवलज्ञान की उत्पत्ति रूप एक ही कार्य होता है। अतः वे एकार्थक कहे गये हैं। 'छिज्जमाणे छिण्णे' आदि अन्त के पांच पद 'विगत पक्ष की अपेक्षा से भिन्न अर्थ वाले कहे गये हैं । 'विगत' का अर्थ है 'विनाश' । वस्तू की एक पर्याय का नाश होकर दूसरी पर्याय का उत्पन्न होना 'विनाश' है अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था होना 'विनाश' कहलाता है । एकान्त नाश किसी भी वस्तु का नहीं हो सकता । इस प्रकार वस्तु विनाश की अपेक्षा से पांच पदों को भिन्नार्थक माना गया है। प्रश्न यह था कि इस शास्त्र के प्रारम्भ में 'चलमाणे चलिए' इत्यादि प्रश्न क्यों किये गये ? इस प्रश्न का उत्तर इस व्याख्या से हो गया कि केवलज्ञान की उत्पत्ति और For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन समस्त कर्मों के क्षय रूप मोक्ष का क्रम बतलाने के लिए इन नौ पदों की चर्चा की गई है। केवलज्ञान और मोक्ष दोनों ही परम मांगलिक हैं । अतः प्रारम्भ में इनकी चर्चा करना संगत ही है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी स्वरचित सम्मति तर्क ग्रंथ में इन नौ पदों के इसी अर्थ की पुष्टि की है। किसी आचार्य का अभिप्राय है कि ये नौ पद सिर्फ कर्म के विषय में ही सीमित नहीं हैं अपितु ये वस्तु मात्र के लिए लागू होते हैं। पहले के चार पद उत्पत्ति के सूचक हैं और अन्त के पाँच पद विनाश के सूचक हैं। इन्हें प्रत्येक विषय पर घटाया जा सकता है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु उत्पाद और विनाश से युक्त है। नारक जीवों की स्थिति आदि का वर्णन३ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? ३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दस. वाससहस्साई, उनकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ४ प्रश्न-परइया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा ? पाणमंति वा ? उससंति वा ? णीससंति वा ? ४ उत्तर-जहा उसासपए। ५ प्रश्न-गेरइया णं भंते ? आहारट्ठी ? ५ उत्तर-जहा पण्णवणाए पढमए आहारुद्देसए तहा भाणि यव्वं । गाहाठिई उस्सासाऽऽहारे किं वाऽऽहारेंति सव्वओ वा वि । कइभागं सव्वाणि व, कीस व भुजो परिणमंति ? For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन शब्दार्थ- मंते - हे भगवन् ! णेरइयाणं-नैरयिकों की, ठिई-स्थिति, केवइयं कालं - कितने काल की, पण्णत्ता - कही गई है अर्थात् उनका आयुष्य कितना होता है ? चाहिए । गोमा - हे गौतम! जहणणं - जघन्य से दस वाससहस्साइं दस हजार वर्ष की और, उक्को सेणं - उत्कृष्ट, तेत्तीस - तेतीस, साग रोवमाइं- सागरोपम की, ठिई- स्थिति, पण्णत्ता - कही गई है। भंते - हे भगवन् ! णेरड्या - नैरयिक, केवइकालस्स - कितने काल में, आणमंतिश्वास लेते हैं ? और कितने काल में, पाणमंति - श्वास छोड़ते हैं अर्थात् कितने काल में ऊससंति - उच्छ्वास लेते हैं और कितने काल में, णीससंति - निःश्वास छोड़ते हैं ? हे गौतम! जहा ऊसासपए - जिस प्रकार उच्छ्वास पद में कहा है वैसा जान लेना ३५ भंते-हे भगवन् ! क्या, णेरड्या - नैरयिक, आहारट्ठी - आहारार्थी-आहार के अभिलाषी होते हैं ? हे गौतम! जहा - जिस प्रकार, पण्णवणाए- प्रज्ञापना सूत्र के, पढमए आहारुद्देसएआहार पद के प्रथम उद्देशक में कहा है, तहा - उसी तरह से, भाणियध्वं - कह देना चाहिए । गाथा का शब्दार्थ इस प्रकार है - ठिई-नैरयिकों की स्थिति, उस्सास - उच्छ्वास, आहारे - आहार विषयक कथन, किंवा क्या, आहारति वे आहार करते हैं ? सव्वओ afa -क्या वे सर्व आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं ? कड़भागं - कौनसे भाग का आहार करते हैं ? व अथवा सञ्चाणि-पत्र आहारक द्रव्यों का आहार करते हैं ? और, कीसआहारक द्रव्यों को किस रूप में, भुज्जो - बारम्बार परिणमंति-परिणमाते हैं ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है । प्रश्न - हे भगवन् ! नैरधिक कितने काल में श्वास लेते हैं और कितने काल में श्वास छोड़ते हैं ? कितने काल में उच्छ्वास लेते हैं और कितने काल में नि:श्वास छोड़ते हैं । उत्तर - हे गौतम! पन्नवणा सूत्र के उच्छ्वास पद के अनुसार समझना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव आहारार्थी हैं ? उत्तर-हे गौतम ! पन्नवणा सूत्र के अट्ठाईसवें आहार पद के पहले उद्देशे .. की तरह जानना चाहिए। ___गाथा का अर्थ-नरयिक जीवों की स्थिति, उच्छ्वासों तथा आहार संबंधी कथन करना चाहिए । नरयिक क्या आहार करते हैं ? क्या वे समस्त प्रदेशों से आहार करते हैं ? वे कितने भाग का आहार करते हैं ? क्या वे समस्त आहारक द्रव्यों का आहार करते हैं ? और वे आहार के द्रव्यों को किस रूप में परिणमाते हैं ? - विवेचन-संसार में अनन्तानन्त प्राणी हैं । जगत्जीवों को उन सबका स्वरूप समझाने के लिए उनका वर्गीकरण (विभाग) करना आवश्यक है । वर्गीकरण किये बिना संसारी जीवों को उन सब का स्वरूप समझ में आना कठिन है । वर्गीकरण करने से उनका स्वरूप सुगमता से समझ में आ सकता है । इसलिए शास्त्रकारों ने संसार के समस्त प्राणियों का चौबीस विभागों में वर्गीकरण किया है । इन चौबीस विभागों को चोवीस दण्डक कहते हैं। वै इस प्रकार हैं नेरइया असुराई पुढवाई बेइंदियादओ चेव। पंचिदिय तिरिय नरा, वितर जोइसिय वेमाणी ॥ अर्थ-सात नरकों का एक दण्डक, असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युतकुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार, इन दस भवनपतियों के दस दण्डक, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय, इन पांच स्थावर के पांच दण्डक, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, इन तीन विकलेन्द्रियों के तीन दण्डक, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय का एक दण्डक, मनुष्य का एक दण्डक, वाणव्यन्तर देवों का एक दण्डक, ज्योतिषी देवों का एक दण्डक और वैमानिक देवों का एक दण्डक । क्रमशः ये चौवीस दण्डक हैं। इन चौवीस दण्डकों में से पहले प्रथम दण्डक नरयिक + जीवों के विषय में कथन + निरय-निर-निर्गत: अय: इष्टफलरूप कर्म यस्मात् स निरयः । निरये भव: नरयिकः।। अर्थ-रयिक शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ यह है कि जिनके पास से अच्छे फल देने वाले शुभ कर्म चले जो शभ-कर्मों से रहित है ऐसे स्थान को 'निरय' कहते हैं। 'निरय' में पैदा होने वाला 'मैरपिक' बहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन किया जाता हैं । श्री गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया है कि हे भगवन् ! नरक योनि के जीवों की स्थिति • कितनी है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया कि-स्थिति दो प्रकार की होती है-जघन्य और उत्कृष्ट । कम से कम को जघन्य कहते है और अधिक से अधिक को उत्कृष्ट कहते हैं। जहाँ जघन्य और उत्कृष्ट होता है वहाँ मध्यम तो होता ही है यह तो स्वतः सिद्ध है। जो जीव अशुभ कर्म बांधकर नरक योनि में जाते हैं, वे वहाँ कम से कम दस हजार वर्ष तक अवश्य रहते हैं । कोई भी नैरयिक जीव दस हजार वर्ष से पहले नरक से लौटकर नहीं आ सकता। इसी प्रकार जीव नरक में अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम • तक रहता है। कोई भी जीव तेतीस सागरोपम से अधिक समय तक नरक में नहीं रह सकता है। - इसके पश्चात् गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया है कि-हे भगवन् ! क्या नरक के जीव श्वासोच्छ्वास लेते हैं ? भगवान् ने इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' में दिया है । तब गौतम स्वामी ने पूछा कि-नरक के जीव कितने समय में श्वासोच्छ्वास लेते हैं ? इसका उत्तर यह . • स्थिति-आयुकर्म के पुद्गलों के रहने की मर्यादा को स्थिति कहते हैं अर्थात् आयु को स्थिति कहते हैं। • सागरोपम किसे कहते हैं ? यह जान लेना आवश्यक है । यह संख्या लोकोत्तर है । अंकों द्वारा प्रकट नहीं कों जा सकती। अत: उसे समझाने का उपाय उपमा है । उपमा द्वारा ही इसे बताया गया है। इसीलिए इसे 'उपमा संख्या' कहते हैं । और इसी कारण 'सागर' शब्द न कहकर 'सागरोपम' शब्द का व्यवहार किया है । जीवों के आयुष्य परिमाण में सूक्ष्म अद्धापल्योपम और सागरोपम काम में आते हैं। उसका स्वरूप इस प्रकार है कल्पना कीजिये-उत्सेधांगुल से चार कोस लम्बा और चार कोस चौड़ा तथा चार कोस गहरा डा) एक गोल कुंआ हो । देवकुरु, उत्तरकुरु के युगलिया के एक दिन से लेकर सात दिन के बढ़े हए बाल (केश) लिये जावें । यगलिया के बाल अपने बालों से ४.९६ गने सूक्ष्म होते हैं। उन बालों के असंख्य खण्ड किये जावें, जो चर्म चक्षुओं.से दिखाई दिये जाने वाले टुकड़ों से असंख्य गुने छोटे हों अथवा सूर्य की किरणों में जो रज दिखाई देती है उससे असंख्य गुने छोटे हों। ऐसे टुकड़े करके उस कुंए में ठसाठस भर दिये जावें। सौ सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक एक टुकड़ा निकाला जाय । इस प्रकार निकालते निकालते जब वह कुंआ खाली हो जाय तब एक सूक्ष्म अद्धापल्योपम होता है । जब ऐसे दस कोगकोटी कुएँ खाली हो जाय तब एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम होता है । एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने से जो गुणनफल आता है, वह कोडाकोरी कहलाता है । ऐसे तेतीस सागरोपम की (अर्थात् १३. कोडाकोटी पल्पोपम की) नरक की उत्कृष्ट स्थिति है। यह आत्मा ऐसी स्थिति में अनेक बार रह आया है। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३८ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन दिया गया कि पन्नवणा सूत्र के उच्छ्वास पद नामक सातवें पद में जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही यहाँ भी जान लेना चाहिए। . इस प्रश्नोत्तर में 'आणमंति पाणमंति' शब्द आये हैं। इनका क्रमशः अर्थ है-श्वास लेना और श्वास छोड़ना । शरीर के भीतर हवा खींचने को 'आणमन' (श्वास लेना) कहते हैं और हवा को शरीर से बाहर निकालने को 'प्राणमन' (श्वास छोड़ना) कहते हैं । इन दोनों पदों को स्पष्ट करने के लिए इसी प्रश्नोत्तर में 'ऊससंति णीससंति' पद दिये हैं। जो अर्थ 'आणमंति पाणमंति' का है, वही अर्थ 'ऊससंति णीससंति' का है। . किसी किसी आचार्य के मत से श्वासोच्छ्वास दो प्रकार के होते हैं-आध्यात्मिक (आन्तरिक) श्वासोच्छ्वास और बाह्य श्वासोच्छ्वास । आध्यात्मिक (आन्तरिक)श्वासोच्छ्वास को 'आणमन' और 'प्राणमन' कहते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास को उच्छ्वास और निःश्वास कहते हैं। . पन्नवणा सूत्र में कहा गया है कि नरयिक जीव निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं। क्योंकि वे अत्यन्त दुःखी हैं । जो अत्यन्त दुःखी होता है, वह निरन्तर श्वास लेता है और छोड़ता है। गौतम स्वामी ने नैरयिक जीवों के आहार के विषय में प्रश्न किया । जिसका उत्तर भगवान् ने यह दिया कि-नैरयिक जीव आहारार्थी हैं। उनका आहार दो प्रकार का है-आभोगनिवर्तित और अनाभोग निवर्तित । “मैं आहार करता हूँ" इस प्रकार इच्छापूर्वक जो आहार लिया जाता है, वह 'आभोग निवर्तित' कहलाता है। 'मैं आहार करूँ,' इस प्रकार की इच्छा के बिना ही जो आहार होता है, वह 'अनाभोग निवर्तित' कहलाता है। जैसे वर्षाकाल में मत्र अधिक लगता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि शरीर में शीत पुद्गलों का प्रवेश अधिक हुआ है। जिस प्रकार उन शीत पुद्गलों का आहार इच्छा बिना हुआ है, उसी प्रकार नैरयिक जीवों के अनाभोग निवर्तित आहार भी होता है । यह आहार तो निरन्तर-प्रतिक्षण होता रहता है । एक समय भी ऐसा व्यतीत नहीं होता जब यह आहार न होता हो । यह आहार बुद्धिपूर्वक-संकल्प द्वारा नहीं रोका जा सकता है। जो आहार इच्छा पूर्वक होता है, उस आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा कम से कम असंख्यात समय में होती है। यहाँ असंख्यात समय, एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जानना चाहिए, अर्थात् नैरयिक जीवों को अन्तर्मुहूर्त में आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा होती है। इतने समय तक नैरयिक जीवों की भूख मिटी रहती हो, सो बात नहीं है, क्योंकि नरयिक जीवों को कभी तृप्ति होती ही नहीं For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवतीसूत्र-स. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन हैं । वे एक बार जो आहार करते हैं, उससे उनको इतना तीव्र दुःख होता हैं कि जिससे वे अन्तर्मुहूर्त के पहले आहार की इच्छा नहीं करते हैं। ६ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया ? आहारिया आहारिज्जमाणा पोग्गला परिणया ? अणाहारिया आहारिज्जस्समाणा पोग्गला परिणया ? अणाहारिया अणाहारिजस्समाणा पोग्गला परिणया ? ६ उत्तर-गोयमा ! णेरइयाणं पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया। आहारिया आहारिजमाणा पोग्गला परिणया, परिणमंति य। अणाहारिया आहारिजस्समाणा पोग्गला णो परिणया, परिणमिस्संति । अणाहारिया अणाहारिजस्समाणा पोग्गला णो परिणया णो परिणमिस्संति। ७ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! पुव्वाहारिया पोग्गला चिया ? पुच्छा । .... . ७ उत्तर-जहा परिणया तहा चिया वि, एवं उवचिया वि, उदीरिया, वेहया, णिजिण्णा। - गाहा__परिणया चिया य उवचिया, उदीरिया वेहया य णिजिण्णा । एक्केकम्मि पदम्मि, चउन्विहा पोग्गला होति । शब्दार्थ-भंते-हे भगवन् ! क्या, मेरइयाणं-नैरयिक जीवों के, पुब्बाहारिया-पहले For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन आहार किये हुए, पोग्गला-पुद्गल, परिणया-परिणत हुए हैं ? क्या, आहारिया-आहार किये हुए और, आहारिज्जमाणा-आहार किये जाते हुए, पोग्गला-पुद्गल, परिणया-परिणत हुए हैं ? अणाहारिया-अनाहारित-आहार नहीं किये हुए तथा, आहारिज्जस्समाणाआगे जो आहार रूप में ग्रहण किये जावेंगे वे, पोग्गला-पुद्गल, परिणया-परिणत हुए हैं ? मनाहारिया-क्या अनाहारित-जो आहार नहीं किये गये है वे और, अणाहारिजस्समाणाजो आगे भी आहार रूप से ग्रहण नहीं किये जावेंग वे, पोग्गला-पुद्गल, परिणयापरिणत हुए हैं ? . गोयमा-हे गौतम ! (१) गेरइयाण-नैरयिक जीवों के, पुवाहारिया-पहले आहार किये हुए, पोग्गला-पुद्गल, परिणया-परिणत हुए हैं । (२) आहारिया-आहार किये हुए पुद्गल, परिणया-परिणत हुए हैं और माहारिन्नमामा-आहार किये जाते हुए पुद्गल,परिणमंत्रि-परिणत होते हैं । (३) अणाहारिया-अनाहारित-आहार नहीं किये हुए, पोग्गलापुद्गल, जो परिणया-परिणत नहीं हुए हैं, और आहारिजस्समाणा-जो पुद्गल आहार रूप से ग्रहण किये जायेंगे वे, परिणमित्संति-परिणत होंगे। (४) अगाहारिया-अनाहारित -आहार नहीं किये गये वे पुद्गल, गो परिणया-परिणत नहीं हुए हैं, और अणाहारिज्जस्स. मागा-जो पुद्गल आहार नहीं किये जायेंगे वे, जो परिणमिस्संति-परिणत नहीं होंगे। ७ भंते-हे भगवन् ! क्या, रइयाणं-नैरयिक जीवों के, पुब्बाहारिया-पहले आहार किये हुए, पोग्गला-पुद्गल, चिया-चय को प्राप्त हुए हैं ? पुच्छा-इत्यादि रूप से प्रश्न करना चाहिए। जहा-जैसे, परिणया-परिणत का कहा, तहा-वैसे ही, चिया वि-चय का भी कहना चाहिए, एवं-इसी तरह, उवचिया-उपचित, उदीरिया-उदीरित, वेड्या-वेषित और णिज्जिणा-निर्जीर्ण का भी कह देना चाहिए। गाथा का शब्दार्थ इस प्रकार है परिणय-परिणत, चिया-चित, उवचिया-उपचित, उदीरिया-उदीरित, बेहयावेदित, य-और, णिज्जिण्णा-निर्जीर्ण, एक्केकम्मि-इन एक एक, पयम्मि-पद में, चउम्विहाचार चार प्रकार के, पोग्गला-पुद्गल विषयक प्रश्न और उत्तर, होति-होते हैं। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नारकी जीवों के पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए हैं ? क्या आहार किये हुए तथा वर्तमान में आहार किये जाते हुए पुद्गल परिणत हुए हैं ? क्या जो पुद्गल आहार नहीं किये गये हैं वे और जो आगे आहार रूप में ग्रहण किये जावेंगे वे परिणत हुए हैं ? क्या जो For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन पुद्गल आहार रूप से ग्रहण नहीं किये गये हैं और आगे भी आहार रूप से ग्रहण नहीं किये जावेंगे वे पुद्गल परिणत हुए हैं ? .. उत्तर-हे गौतम ! (१) नारकी जीवों के पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए हैं। (२) आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए हैं और आहार किये जाते हुए पुद्गल परिणत होते हैं। (३) अनाहारित अर्थात् जो पुद्गल आहार रूप से ग्रहण नहीं किये गये हैं वे परिणत नहीं हुए हैं और जो पुद्गल आगे आहार रूप से ग्रहण किये जावेंगे वे परिणत होंगे। (४) अनाहारित-जो पुद्गल आहार रूप से ग्रहण नहीं किये गये हैं वे परिणत नहीं हुए हैं और जो पुद्गल आगे आहार रूप से ग्रहण नहीं किये जायेंगे वे परिणत नहीं होंगे। . ७ हे भगवन् ! क्या नारको जीवों के पहले आहार किये हुए पुद्गल चित अर्थात् चय को प्राप्त हुए हैं ? जिस प्रकार 'परिणत' का कहा उसी प्रकार चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण का भी कह देना चाहिए। परिणत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण, इस एक एक पद में पुद्गल विषयक चार चार प्रकार के प्रश्नोत्तर होते हैं। विवेचन-यहाँ नरयिक जीवों के आहार के विषय में चार प्रश्न किये गये हैं । उनका आशय, इस प्रकार है (१) पूर्वकाल में ग्रहण किये हुए या आहार किये पुद्गल क्या शरीर रूप में परिणत हुए है ? (२) क्या भूतकाल में ग्रहण किये हुए और वर्तमान काल में ग्रहण किये जाते हुए पुद्गल शरीर रूप में परिणत हुए है ? . (३) भूतकाल मे जिन पुद्गलों का आहार नहीं किया है, किन्तु भविष्य काल में जिनका आहार किया जायगा, वे पुद्गल क्या शरीर रूप में परिणत हुए हैं ? । (४) भूतकाल में जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण नहीं किया है और भविष्यकाल में भी आहार रूप से ग्रहण नहीं किया जायगा, क्या वे पुद्गल शरीर रूप में परिणत हुए हैं ? पूर्वकाल में जिन पुद्गलों का आहार किया नया हो या संग्रह किया गया हो उन्हें For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन . आहृत या आहारित कहते हैं। संग्रह करना और खाना दोनों ही आहार हैं। 'पुद्गल' शब्द को यहाँ 'पुद्गलस्कन्ध' समझना चाहिए, परमाणु नहीं । 'परिणत' शब्द का अर्थ है-शरीर के साथ एकमेक होकर शरीर रूप में हो जाना । आहार का परिणाम है-शरीर बनना । जो आहार शरीर के साथ एकमेक होकर शरीर रूप बन जाता है वह आहार परिणत हुआ या परिणाम को प्राप्त हुआ कहलाता है। . ____इन चार प्रश्नों के ६३ भंग (भांगे) होते हैं । असंयोगी (एक एक पद से बोले जाने वाले) छह भंग हैं--(१) आहृत (२) आहरियमाण (३) · आहरिष्यमाण (४) अनाहत (५) अनाहरियमाण (६) अनाहरिष्यमाण । इन छह पदों के वेसठ भंग होते हैं। प्रत्येक भंग में एक एक प्रश्न उत्पन्न होता है । अतएव वेसठ भंगों के वेसठ प्रश्न हो जाते हैं-द्विसंयोगी पन्द्रह भंग होते हैं । जैसे कि (१) आहृत आहरियमाण (२) आहृत आहरिष्यमाण (३) आहृत अनाहत (४) आहृत अनाहरियमाण (५) आहृत अनाहरिष्यमाण (६) आरियमाण आहरिष्यमाण (७) आहरियमाण अनाहत (८) आहरियमाम अनाहरियमाण (९) आहरियमाण अनाहरिष्यमाण (१०) आहरिष्यमाण अनाहृत (११) आहरिष्यमाण अनाहरियमाण.(१२) आहरिष्यमाण अनाहरिष्यमाण (१३) अनाहृत अनाट्रियमाण (१४) अनाहृत अनाहरिष्यमाण (१५) अनारयमाण अनाहरिष्यमाण । इस प्रकार विसंयोगी (दो दो पदों को मिलाने से) पन्द्रह भंग होते हैं । त्रिसंयोगी बीस भंग होते हैं । चतुस्संयोगी पन्द्रह भंग होते हैं। पञ्चसंयोगी छह भंग होते हैं । छह . संयोगी एक भंग होता है । इस प्रकार कुल वेसठ भंग होते हैं। उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! जिन पुद्गलों का भूतकाल में आहार किया है वे भूतकाल में ही शरीर रूप में परिणत हो चुके हैं। ग्रहण करने के पश्चात् परिणमन होता है । अतएव पूर्वकाल में आहार किये हुए पुद्गल पूर्व काल में ही परिणत हो गये। ____ इसी प्रश्न के अन्तर्गत दूसरे विकल्प (प्रश्न) में भूतकाल के साथ वर्तमान काल सम्बन्धी प्रश्न किया गया है । उसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि जिन पुद्गलों का आहार हो चुका, वे पुद्गल शरीर रूप से परिणत हो चुके और जिन पुद्गलों का आहार हो रहा है वे परिणत हो रहे हैं। इसी प्रश्न के अन्तर्गत तीसरे विकल्प में भविष्यकाल सम्बन्धी प्रश्न किया गया है For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन ४३ जिसका उत्तर यह दिया गया है कि जिन पुद्गलों का आहार नहीं किया गया वे परिणत नहीं हुए, किन्तु जिन पुद्गलों का आहार किया जायगा वे पुद्गल भविष्य में परिणत होंगे। इसी प्रश्न के अन्तर्गत चौथे विकल्प में यह पूछा गया है कि जिन पुद्गलों का भूतकाल में आहार नहीं किया गया है और आगे भी आहार नहीं किया जायगा, क्या वे पुद्गल शरीर रूप में परिणत हुए हैं ? इसका उत्तर यह है कि-ऐसे पुद्गल परिणत नहीं हुए और नहीं होंगे, जिनका ग्रहण ही नहीं हुआ उनका शरीर रूप में परिणमन भी नहीं होगा। पहले जो वेसठ भंग बतलाये गये हैं, उन सबका समाधान इसी आधार पर समझ लेना चाहिए। . आहार किये हुए पुद्गल जब शरीर के भीतर गये तो उनका चय. उपचय भी अवश्य होगा। इसीलिए गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि जीव ने जिन पुद्गलों का आहार किया, क्या वे पुद्गल चय को प्राप्त हुए ? इस तरह परिणमन के सम्बन्ध में जितने और जैसे प्रश्न किये गये हैं, वे सब प्रश्न चय के सम्बन्ध में भी समझ लेने चाहिए । इन सब प्रश्नों का उत्तर भी परिणमन सम्बन्धी उत्तरों के समान ही समझ लेना चाहिए । जो पुद्गल आहार रूप से ग्रहण किये गये हैं उनका शरीर में एकमेक होकर शरीर को पुष्ट करना चय कहलाता है । चय के भी परिणमन की तरह चार विकल्प (भंग) हैं। इन चारों विकल्पों का उत्तर परिणमन की तरह ही है। परिणमन और चय में भेद है। पहले परिणमन होता है और उसके बाद चय होता है । इसलिए परिणमन और चय ये दोनों पृथक् पृथक् हैं। . चय के पश्चात् उपचय का कथन है । जो चय किया गया उसमें और और पुद्गल इकट्ठे कर देना उपचय कहलाता है । जैसे ईंट पर ईंट चुनी गई यह सामान्य चुनाई कहलाई और फिर उस पर मिट्टी या चूना आदि का लेप किया गया, यह विशेष चुनाई हुई । इसी प्रकार सामान्य रूप से शरीर का पुष्ट होना चय कहलाता है और विशेष रूप से पुष्ट होना उपचय कहलाता है। ' कर्म पुद्गलों का स्वाभाविक रूप से उदय में न आकर, करण विशेष के द्वारा उदय में आना 'उदीरणा'+ कहलाता है अर्थात् प्रयोग के द्वारा कर्म का उदय में आना ‘उदीरणा' है। - + 'जं करणेणाकड्डिय उदए दिज्जड उदीरणा एसा' . (कम्मपयडि चूर्णि) अर्थ-करण विशेष के द्वारा चकर पोकर्म उदक में लाया जाता है वह 'उदीरणा' कहलाती है। - For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ नारकों के भेद चमादि सूत्र कर्म के फल को भोगना 'वेदना' हैं। जिस समय कर्मफल का भोग आरंभ होता है और जिस समय तक भोगना जारी रहता है वह सब काल 'वेदना काल' कहलाता है । कर्मों का एक देश से क्षय होना 'निर्जरा' है। जिस कर्म का फल भोग लिया जाता है वह कर्म क्षीण हो जाता है। उसका क्षीण हो जाना 'निर्जरा' है । चय, उपचय, उदीरणा, वेदना और निर्जरा, इन सबके विषय में 'परिणमन' के समान ही वक्तव्यता है । 'परिणमन' के समान प्रश्न, उत्तर और भंग समझने चाहिए । सिर्फ इतनी विशेषता है कि- परिणत के स्थान पर 'चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण' शब्दों का प्रयोग करना चाहिए । ૪૪ भेद चयादि सूत्र ८ प्रश्न - रइयाणं भंते ! कइविहा पोग्गला भिज्जंति ? ८ उत्तर - गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच्च दुविहा पोग्गला भिज्जंति, तंजहा - अणू चैव बायरा चेव । ९ प्रश्न - रइयाणं भंते ! कइविहा पोग्गला चिज्जंति ? ९ उत्तर - गोयमा ! आहार दव्ववग्गणमहिकिच्च दुविहा पोग्गला चिज्जंति, तंजहा - अणू चेव बायरा चेव । एवं उवचिज्जंति । १० प्रश्न - रइयाणं भंते ! कड़विहा पोग्गला उदीरेंति ? १० उत्तर - गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच्च दुविहे पोग्गले उदीरेंति, तंजहा - अणू चेव बायरा चेव । सेसा वि एवं चैव भाणियव्वा-वेदेति णिज्जरेंति । उव्वट्टिसु उव्वङ्गेति उव्वट्टिस्संति । संकामिंसु, संकामेंति, संकामिस्संति । णिहत्तिंसु णिहत्तेंति णिहत्तिस्संति । णिकायिंसु णिकायिंति णिकायिस्संति । सव्वेसु वि कम्म For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद चयादि सूत्र ४५ दव्ववग्गणमहिकिच्च । गाहा भेदिय चिया उवचिया, उदीरिया वेइया य णिजिण्णा। उव्वट्टण संकामण, णिहत्तण णिकायणे तिविहकालो॥ शब्दार्थ-भंते - हे भगवन् ! गैरइयाणं-नरयिकों के द्वारा, कइविहा-कितने प्रकार के, पोग्गला-पुद्गल, भिज्जंति-भेदे जाते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! कम्मदव्यवग्गणं-कर्म द्रव्य वर्गणा की, अहिकिच्च-अपेक्षा से, दुविहा-दो प्रकार के, पोग्गला-पुद्गल, मिजंति-भेदे जाते हैं । तंगहा-वे इस प्रकार हैं- अजू-अणु-सूक्ष्म, चेव-और, बायरा-बायरा-बादर-स्थूल। - भंते-हे भगवन् ! गेरइयाणं-नरयिक जीव, कइविहा-कितने प्रकार के, पोगलापुद्गलों का, चिज्जंति-चय करते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! आहार दव्ववग्गणं-आहार द्रव्य वर्गणा की, अहिकिच्च-अपेक्षा से, दुविहा-दो प्रकार के, पोग्गला-पुद्गलों का, चिजंति-चय करते हैं । तंजहावे इस प्रकार हैं, अणू-अणु-सूक्ष्म, चेव-और, बायरा बादर-स्थूल, एवं-इस तरह से दो प्रकार के पुद्गलों का, उवचिजंति-उपचय भी करते हैं। भंते-हे भगवन् ! णेरइयाणं-नैरयिक जीव, काविहा-कितने प्रकार के पोग्गला-पुद्गलों की, उदीरेंति - उदीरणा करते हैं ? . गोयमा-हे गौतम ! कम्मदव्यवग्गणं-कर्म द्रव्य वर्गणा की, अहिकिच्च-अपेक्षा .से, दुविहे-दो प्रकार के, पोग्गले-पुद्गलों की, उदीरेंति-उदीरणा करते हैं । तंजहावे इस प्रकार हैं-अणू-अणु, चेव-और, बायरा-बादर । । ____सेसा वि-शेष पद भी, एवं चेव- इसी प्रकार, भाणियव्या-कहने चाहिये, बेतिवेदते हैं, णिज्जरेंति-निर्जरा करते हैं। उर्टिसु-उद्वर्तना अपवर्तना की, उन्वर्टेतिउद्वर्तना अपवर्तना करते हैं। उव्वट्टिस्संति-उद्वर्तना अपवर्तना करेंगे । संकामिसु-संक्रमण किया, संकाति- संक्रमण करते हैं, संकामिस्संति-संक्रमण करेंगे। णिहत्तिसु-निधत्त किया णिहत्तेति-निधत्त करते हैं, णिहत्तिस्संति-निधत्त करेंगे । णिकायिसु-निकाचित किया, णिकायिति-निकाचित करते हैं, किायिस्संति-निकाचित करेंगे। सम्वेसु वि-इन सब पदों में भी, कम्मदब्बवग्गण-कर्म द्रव्य वर्गणा की, अहिकिच्च-अपेक्षा से अणु और बादर पुद् For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ भगवतीसूत्र - श. १ उ. १ नारकों के भेद चयादि सूत्र गलों का कथन करना चाहिये । गाथा का शब्दार्थ - भेदिय - भिदे, चिया-चय को प्राप्त हुए, उबचिया- उपचय को प्राप्त हुए, उदीरिया - उदीरणा को प्राप्त हुए, वेइया-वेदे गये, य-और, णिज्जिण्णा - निर्जीर्ण हुए | उब्वण - उद्वर्तन अपवर्तन, संकामण-संक्रमण, निहत्तण निघत्तन और, णिकायणेनिकाचन, इन चार पदों में, तिविहकालो-भूत, भविष्य और वर्त्तमान ये तीनों का कहने चाहिए । भावार्थ- ८ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों द्वारा कितने प्रकार के पुद्गल भेदे जाते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! कर्म द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गल भेदे जाते हैं । वे इस प्रकार हैं-अणु और बादर । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव कितने प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम! आहार द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा से दो प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं । वे इस प्रकार हैं- अणु और बादर । इसी तरह से दो प्रकार के पुद्गलों का उपचय भी करते हैं ? १० प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव कितने प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? १० उत्तर - हे गौतम ! कर्म-द्रव्य-वर्गणा की अपेक्षा से दो प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं। वे इस प्रकार हैं- अणु और बादर । शेष पद भी इसी प्रकार कहने चाहिए - वेदते हैं और निर्जरा करते हैं । उद्वर्तना अपवर्तना की, उद्वर्तना अपवर्तना करते हैं, उद्वर्तना अपवर्तना करेंगे । संक्रमण किया, संक्रमण करते हैं, संक्रमण करेंगे । निधत्त किया, निधत्त करते हैं, निधत्त करेंगे। निकाचित किया, निकाचित करते हैं, निकाचित करेंगे । इन सब पदों में भी कर्म- द्रव्य-वर्गणा की अपेक्षा से अणु और बादर पुद्गलों का कथन करना चाहिए । गाथा का भावार्थ इस प्रकार है-भिदे, चय को प्राप्त हुए, उपचय को For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद चयादि सूत्र ४७ प्राप्त हुए, उदीरणा को प्राप्त हुए, बेदे गये और निर्जीर्ण हुए। उद्वर्तन अप वर्तन, संक्रमण, निधत्तन और णिकाचन, इन चार पदों में भूत, भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल कहने चाहिए। - विवेचन-नरक के जीव पुद्गल का आहार करते हैं । यह बात बतलाई जा चुकी है । पुद्गल का अधिकार होने से अब पुद्गल का कथन किया जाता है गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों को भेदते हैं ? - इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! कर्म द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा से दो प्रकार के पुद्गलों को नारकी जीव भेदते हैं । वे दो प्रकार के पुद्गल ये हैं-अणु (सूश्म) और बादर (स्थूल) अर्थात् अपनी अपनी वर्गणा की अपेक्षा छोटे और बड़े। सामान्य रूप से पुद्गलों में तीन प्रकार का रस होता है-तीव्र, मध्यम और मन्द । यहाँ भेदने का अर्थ है-इन रसों में परिवर्तन करना । जीव अपने उदवर्तना करण (मध्यवसाय विशेष) द्वारा मन्द रस वाले पुद्गलों को मध्यम या तीव्र रस वाले और मध्यम रस वाले पुद्गलों को तीव्र रस वाले बना डालता है। उसी प्रकार अपवर्तनाकरण (अध्यवसाय विशेष ) द्वारा तीव्र रस वाले पुद्गलों को मध्यम या मन्द रस वाले और मध्यम रस वाले पुद्गलों को मन्द रस वाले बना डालता है। जीव अपने अध्यवसाय द्वारा ऐसा परिवर्तन करने में समर्थ है। ___समान जाति वाले द्रव्य के समूह को वर्गणा' कहते हैं। द्रव्य वर्गणा औदारिक आदि द्रव्य की भी होती है, किन्तु उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है । उन औदारिक आदि द्रव्य वर्गणाओं का ग्रहण न हो, इसीलिए मूल में 'कम्मदव्ववग्गणं' पद दिया है । इस पद से सिर्फ कार्मण द्रव्यों की वर्गणा का ही ग्रहण होता है और औदारिक वर्गणा, तेजस वर्गणा आदि दूसरी वर्गणाओं का निषेध हो जाता है। कर्म द्रव्य वर्गणा का अर्थ है-कार्मण जाति के पुद्गलों का समूह । वास्तव में कार्मण जाति के पुद्गलों में ही यह धर्म है कि वे तीव्र रस से मध्यम और मन्द रस वाले तथा मन्द रस से मध्यम और तीव्र रस वाले हो सकते हैं। इसीलिए यहाँ अन्य वर्गणाओं को छोड़कर कार्मण द्रव्य वर्गणा को ही ग्रहण किया गया है। - यहाँ कर्म द्रव्यों को अणु और बादर बताया गया है, सो इनका अणुत्व (सूक्ष्मता) और बादरत्व (स्थूलता) कर्म द्रव्यों की अपेक्षा ही समझना चाहिए । क्योंकि औदारिक For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद चयादि सूत्र आदि द्रव्यों में कर्म द्रव्य ही सूक्ष्म है । यद्यपि कर्म वर्गणा चतुःस्पर्शी है और वह हमें दिखाई नहीं देती, तथापि ज्ञानीजन उसे देखते हैं और उनमें अणुत्व और बादरत्व का भी भेद देखते हैं। उन दिव्य ज्ञानियों की अपेक्षा ही कर्म द्रव्य को अणु और बादर कहा गया है। .. इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं ? ___ भगवान् फरमाते हैं कि-हे गौतम ! आहार द्रव्य की अपेक्षा अणु और बादर इन दो प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं । यहां अणु का अर्थ 'छोटा' करना चाहिए। आहार के कई पुद्गल छोटे होते हैं और कई मोटे होते हैं । चय की तरह उपचय का भी कथन कर देना चाहिए । शरीर का आश्रय लेकर ही चय और उपचय होता है । आहार द्वारा शरीर का पुष्ट होना चय कहलाता है और विशेष पुष्ट होना उपचय कहलाता है। शरीर का चय, उपचय आहार द्रव्य से ही होता है, दूसरे द्रव्य से नहीं। इसीलिए चय और उपचय के आलापक में 'आहारदव्ववग्गणमहिकिच्च' ऐसा पाठ दिया है अर्थात् आहार द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा से शरीर में चय, उपचय होता है। कर्मद्रव्यकर्गणा की अपेक्षा उदीरणा, वेदना और निर्जरा भी दो ही प्रकार के पुद्गलों की होती हैं-अणु और बादर की। फिर गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! नारकी जीवों ने कितने प्रकार के पुद्गलों का अपवर्तन किया, अपवर्तन करते हैं और अपवर्तन करंगे ? . भगवान् ने उत्तर दिया कि-हे गौतम ! कर्म-द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा से दो प्रकार के कर्मपुद्गलों का अपवर्तन किया, अपवर्तन करते हैं और अपवर्तन करेंगे-अणु और बादर का । अपवर्तन के साथ उपलक्षण से 'उद्वर्तन' का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। - अध्यवसाय विशेष के द्वारा कर्म की स्थिति आदि को कम करना अपवर्तना करण यहाँ अहमदाबाद वाली प्रति में 'उयट्टिसु उयटेंति उयट्टिस्संति' ऐसा पाठ दिया है और 'आगमोदय समिति' द्वारा प्रकाशित प्रति में 'उट्टिसु उव्व ति उवट्टिस्संति' ऐसा पाठ दिया है । हमारी समझ से इन तीनों कालों के रूपों में एक रूपता रहनी चाहिए । अतः ऐसा पाठ ठीक प्रतीत होता है-'उबट्टिसु उन्बट्रेति उव्वट्रिस्संति'। जिसका अर्थ टीकाकार ने किया है-'अपवर्तन किया, अपवर्तन करते हैं, अपवर्तन करेंगे। ऐसा अपवर्तन अर्थ करके उपलक्षण से उद्वर्तन का ग्रहण किया है। ऐसा अर्थ शब्दार्थ और भावार्थ में समझ लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद पवादि सूत्र ४९ हैं । और कर्म की स्थिति आदि की वृद्धि करना 'उद्वर्तना करण' है। ___जिस प्रकार अपवर्तन उद्वर्तन के लिए कहा गया है उसी प्रकार संक्रमण, निधत्त और निकाचित के लिए भी कह देना चाहिए । . मूल प्रकृतियों से अभिन्न उत्तर प्रकृतियों का अध्यवसाय विशेष द्वारा एक का दूसरे रूप में बदल जाना 'संक्रमण' कहलाता है । जैसा कि कहा मूलप्रकृत्यभिन्नाः संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः । न स्वात्माऽमूर्तस्वादध्यवसाय प्रयोगेण ॥ अर्थ-गुणतः अर्थात् गुण की अपेक्षा मूल प्रकृतियों से अभिन्न उत्तर प्रकृतियों को अध्यवसाय विशेष द्वारा संक्रमित किया जाता है, किन्तु आत्मा अमूर्त होने से आत्मा का संक्रमण नहीं होता है। आत्मा की तरह आकाश भी अमूर्तिक है, किन्तु आकाश जड़ है और आत्मा चेतन है । इसलिए आत्मा में अध्यवसाय विशेष की शक्ति है । वह उस शक्ति द्वारा कर्मप्रकृतियों में संक्रमण कर देता है। संक्रमण के विषय में दूसरे आचार्य का मत यह है मोत्तूण आउयं खल, सणमोहं चरित्तमोहं । सेसाणं पगईणं, उत्तरबिहिसंकमो मणिओ॥ अर्थ-आयुकर्म, दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय, इनको छोड़कर शेष प्रकृतियों का उत्तर प्रकृतियों के साथ जो संचार होता है वह 'संक्रमण' कहलाता है । उदाहरणार्थ कल्पना कीजिये-किसी प्राणी के शुभ कर्म उदय में आये । वह सातावेदनीय का अनुभव कर रहा है । इसी समय उसके अशुभकर्मों की कुछ ऐसी परिणति हुई कि उसका सातावेदनीय असातावेदनीय में परिणत होगया। इसी प्रकार असातावेदनीय भोगते हुए शुभ कर्मों की कुछ ऐसी परिणति हुई कि उसका असातावेदनीय सातावेदनीय में परिणत होगया । यह वेदनीय कर्म का 'संक्रमण' कहलाया । इसी प्रकार दूसरी कर्म प्रकृतियों के संक्रमण के विषय में समझ लेना चाहिए । निधत्त-भिन्न भिन्न पुद्गलों को इकट्ठा करके रखना 'निधत्त' करना कहलाता है अर्थात् कर्म पुद्गलों को एक दूसरे पर रच देना, जैसे एक थाली में बिखरी हुई सुइयों को एक के ऊपर दूसरी आदि के क्रम से जमा देना-'निधत्त' करना कहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद चयादि सूत्र .. ___ कर्मों की अवस्था विशेष को 'निधत्त' कहते हैं । 'निधत्त' अवस्था को प्राप्त हुए कर्मों में उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण, ये दो 'करण' ही परिवर्तन कर सकते हैं, दूसरा कोई भी 'करण' उनमें परिवर्तन नहीं कर सकता । तात्पर्य यह है कि निधत्त' अवस्था से पहले तो दूसरे भी 'करण' लग सकते हैं किन्तु निधत्त अवस्था में उद्वर्तना और अपवर्तना, इन दो करणों के सिवाय कोई तीसरा करण नहीं लग सकता । जब कर्म पूर्वोक्त उद्वर्तना और अपवर्तना करण के सिवाय और किसी 'करण' का विषय न हो, उस अवस्था का . नाम 'निधत्त' है। निकाचित-जिन कर्मों को 'निधत्त' किया गया था उन्हें ऐसा मजबूत कर देना कि जिससे वे एक दूसरे से अलग न हो सकें और जिनमें कोई भी 'करण' कुछ भी फेरफार न कर सके, उसे 'निकाचित' करना कहते हैं। उदाहरणार्थ-सूइयों को एक दूसरे के पास इकट्ठा कर देना 'निधत्त' करना कहलाता है । उसके पश्चात् उन सूइयों को अग्नि में तपा कर हथौड़े से ठोक दिया गया और आपस में इस प्रकार मिला दिया गया कि जिससे वे एक दूसरे से अलग न हो सकें । सूइयों के समान कर्मों का इस प्रकार मजबूत हो जाना कि फिर उसमें कोई परिवर्तन न हो सके उसको 'निकाचित' होना कहते हैं । ____तात्पर्य यह है कि 'निकाचित' कर्म वह कहलाता है जिसमें किसी प्रकार का 'संक्रमण' न हो सके । जिस रूप में वह बँधा है उसी रूप में भोगना पड़े, जिसमें अपवर्तनाकरण और उद्वर्तनाकरण भी कुछ न कर सके । एक रोग साध्य होता है और एक असाध्य । असाध्य रोग में औषधि का प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार निधत्त अवस्था तक तो उपाय हो सकता है, परन्तु 'निकाचित' अवस्था में कोई उपाय कारगर नहीं होता। 'निकाचित' कर्म अवश्य भोगने पड़ेगे। _ 'भिज्जति' आदि पदों का संग्रह करने के लिए जो गाथा मूल में कही गई है उसका तात्पर्य यह हैं कि इन सब पदों को इसी प्रकार समझना चाहिए। . ___ उपर्युक्त अठारह सूत्रों में यह बतलाया गया है कि नारकी जीव कितने प्रकार के पुदगलों को भेदते हैं, चय करते हैं, उपचय करते हैं, उदीरणा, वेदना, निर्जरा, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन करते हैं ? इन सूत्रों में से अन्त के चार सूत्रों में (अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन, इन में) भूत, भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल जोड़ देना चाहिए जिससे ये बारह सूत्र हो जायेंगे और प्रारम्भ के छह सूत्र (भेदन, चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, निर्जरा) इनमें मिला देने से ये सब अठारह सूत्र हो जायेंगे। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र ५१ । यहाँ पर शंका की जा सकती है कि जिस प्रकार अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन, निकाचन इन चार पदों के साथ तीनों काल जोड़े गये हैं, उसी प्रकार भेद, चय, उपचय आदि पहले के छह पदों के साथ तीनों काल क्यों नहीं जोड़े गये ? - इसका समाधान यह है कि यद्यपि यह शंका ठीक है. तथापि केवल विवक्षा (कहने. की इच्छा) न होने कारण सूत्र में भेदादि पदों के साथ तीनों काल का निर्देश नहीं किया गया है। काल चलितादि सूत्र . ११ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गेहंति, ते किं तीयकालसमए गेण्हंति ? पडुप्पण्णकालसमए गेहंति ? अणागयकालसमए गेण्डंति ? .. ११ उत्तर-गोयमा ! णो तीयकालसमए गेण्हंति, पडुप्पण्णकालसमए गेहंति, णो अणागयकालसमए गेहंति ? १२ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गहिए उदीत ते किं तीयकालसमयगहिए पोग्गले उदीरेंति ? पडुप्पग्णकालसमयघेप्पमाणे पोग्गले उदीरोंते ? गहणसमयपुरक्खडे पोग्गले उदीत ? . . १२ उत्तर-गोयमा ! तीयकालसमयगहिए पोग्गले उदीरेंति, णो पडुप्पण्णकालसमयघेप्पमाणे पोग्गले उदीति, णो गहणसमय'पुरक्खडे पोग्गले उदीरेंति । एवं वेदेति णिज्जति । . १३ प्रश्न-णेरइया णं भंते !जीवाओ किं चलियं कम्मं बंधति? For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ भगवती सूत्र – श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र अचलिये कम्मं बंधंति ? १३ उत्तर - गोयमा ! णो चलिये कम्मं बंधंति, अचलियं कम्मं बंधंति । १४ प्रश्न - रइया णं भंते! जीवाओ किं चलिये कम्मं उदीति ? अचलियं कम्मं उदीरेंति ? १४ उत्तर - गोयमा ! णो चलिये कम्मं उदीरेंति, अचलियं कम्म उदीरेति । एवं वेदेति, ज्यर्वृति, संका मेंति, हि तेंति, निकायिंति, सव्वेसु अचलियं, णो चलिये । १५ प्रश्न - रइया णं भंते! जीवाओ किं चलिये कम्मं णिज्जरेंति ? अचलियं कम्मं णिज्जरेंति ? १५ उत्तर - गोयमा ! चलियं कम्मं णिज्जरेंति, णो अचलियं कम्मं णिज्जरेंति । गाहाबंधोदय वेदो संकमे तह णिहत्तण णिकाये । अचलियं कम्मं तु भवे, चलियं जीवाओ णिज्जरए || - शब्दार्थ - भंते - हे भगवन् ! णेरइया - नारकी के जीव, जे- जिन, पोलेपुद्गलों को, तेयाकम्मत्ताए– तेजस कार्मण रूप में, गेव्हंति — ग्रहण करते हैं, ते — उनको, किं— क्या, तीयकालसमए - अतीत काल समय में, गेव्हंति - ग्रहण करते हैं, पप्पन्नकाल्यावर — वर्तमान काल समय में, गेव्हंति — ग्रहण करते हैं ? या, अणागयकालसमएभविष्य काल समय में, गेव्हंति - ग्रहण करते हैं ? उत्तर - गोयमा - हे गौतम! तीयकालसमए - अतीत काल समय में, को नेव्हंति - ग्रहण नहीं करते हैं, पडुप्पण्णकालसमए - वर्तमान काल समय में, गेव्हंति - ग्रहण करते हैं, अणागयकालसमए - भविष्य काल समय में, जो गेण्हंति - ग्रहण नहीं करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र भंते - हे भगवन् ! जेरइया-नारक जीव, तेयाकम्मत्ताए-तैजस कार्मण रूप में, गहिए-ग्रहण किये हुए..जे-जिन, पोग्गले-पुद्गलों की, उदोरेंति-उदीरणा करते हैं. ते-सो किं-क्या, तीयकालसमयगहिए-अतीत काल समय में ग्रहण किये हुए, पोग्गले-पुद्गलों की, उदीरेंति-उदीरणा करते हैं ? या, पडुप्पण्णकालसमयघेप्पमाणे-वर्तमान काल समय में ग्रहण किये जाते हुए, पोग्गले-पुद्गलों की, उदीरेंति-उदीरणा करते हैं ? या गहणसमयपुरक्सडेआगामी समय में ग्रहण किये जाने वाले-भविष्पकालीन, पोग्गले-पुद्गलों की उदीरणा करते है? .. गोयमा-हे. गौतम ! तीयकालसमयगहिए-अतीत काल समय में ग्रहण किये हुए, पोग्गलेपुद्गलों की, उदीरेंति-उदीरणा करते हैं, पडुप्पण्णकालसमयघेप्पमाणे-वर्तमान काल समय में ग्रहण किये जाते हुए, पोग्गले-पुद्गलों की, णो उदीरेंति-उदीरणा नहीं करते हैं, गहणसमयपुरक्खडे-आगामी काल में ग्रहण किये जाने वाले, पोग्गले-पुद्गलों को, जो उदीरेंति-उदीरणा नहीं करते हैं, एवं-इसी प्रकार, वेदेति-वेदते हैं और, णिज्जरेंति-निर्जरा करते है। भंते-हे भगवन् ! किं-क्या, पेरइया-नैरयिक जीव, जीवानों-जीव प्रदेश से, चलियं-चलित, कम्म-कर्म को, बंधति-बांधते हैं ? या, अचलियं - अचलित, कम्मकर्म को, बंधंति -बांधते है ? .. गोयमा-हे गौतम ! चलियं-चलित, कम्म-कर्म को, जो बंधति नहीं बांधते हैं किन्तु, अचलियं-अचलित, कम्म-कर्म को, बंधंति-बांधते हैं। भंते-हे भगवन् ! किं-क्या, गेरइया-नैरयिक जीव, जीवाओ-जीव-प्रदेश से, चलियं-चलित, कम्म-कर्म की, उदीरेंति-उदीरणा करते हैं ? या, अचलियं-अचलित, कम्म-कर्म की, उदीरेंति--उदीरणा करते हैं ? __गोयमा-हे गौतम ! नरयिक जीव, चलियं-चलित, कम्म-कर्म की, णो उदीरैति-उदीरणा नहीं करते हैं, किन्तु, अचलियं-अचलित, कम्म-कर्म की, उदीरेंतिउदीरणा करते हैं, एवं इसी प्रकार, वेदेति-वेदन करते हैं, उयटृति-अपवर्तन करते हैं, संकाति-संक्रमण करते हैं, णिहतैति-निधत्त करते हैं, णिकािित-निकाचित करते हैं, सव्वेसु-इन सब पदों में, अचलियं-अचलित कहना चाहिए, जो चलियं-चलित नहीं कहना चाहिए। भंते-भगवन् ! कि क्या, रइया-नरयिक जीव, जीवाओ-जीव-प्रदेश से, चलियं-चलित, कम्म-कर्म की, णिज्जरेंति-निर्जरा करते हैं ? या, अचलियं-अचलित कम्म-कर्म की, णिज्जरेंति-निर्जरा करते हैं ? __ गोयमा-हे गौतम ! चलियं-चलित, कम्म-कर्म की, णिज्जरेंति-निर्जरा करते हैं, For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र -- श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र किन्तु, अचलियं – अचलित, कम्मं - कर्म की, जो णिज्जरेंति - निर्जरा नहीं करते हैं । गाथा का शब्दार्थ - बंध - बन्ध, उदय - उदय, वेद-वेदन, उयट्ट - अपवर्तन, संकमे— संक्रमण, हित्तण-निधत्तन, तह — तथा, णिकाये -निकाचन, इनके विषय में, अचलियं - अचलित, कम्मं कर्म, भवे― होता है और, णिज्जरए - निर्जरा में तुतो, जीवाओ - जीव प्रदेशों से, चलियं - चलित कर्म होता है ५४ भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! नारकी जीव, जिन पुद्गलों को तैजस कार्मण रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन्हें अतीत काल समय में ग्रहण करते हैं ? या वर्तमान काल समय में ग्रहण करते हैं ? या भविष्य काल समय में ग्रहण करते हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम ! अतीत काल समय में ग्रहण नहीं करते, वर्तमान काल समय में ग्रहण करते हैं, भविष्य काल समय में ग्रहण नहीं करते । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! नारकी जीव, तैजस कार्मण रूप में ग्रहण किये हुए जिन पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, सो क्या अतीत काल समय में ग्रहण किये हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? या वर्तमान काल समय में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की उदीरणा करते हैं। या आगे ग्रहण किये जानेवाले भविष्य कालीन पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! अतीत काल समय में ग्रहण किये हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, वर्तमान काल समय में ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते और आगे ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं करते । जिस प्रकार उदीरणा का कहा है, उसी प्रकार वेदना और निर्जरा का भी कह देना चाहिए । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नारकी जीव, जीव- प्रदेश से चलित कर्म : को बांधते हैं या अचलित कर्म को बांधते हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम! चलित कर्म को नहीं बांधते, अचलित कर्म को बांधते है । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नारकी जीव, जीव- प्रदेश से चलित कर्म For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र की उदीरणा करते हैं अथवा अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम ! नारकी जीव चलित कर्म की उदीरणा नहीं करते, किन्तु अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं । इसी प्रकार वेदन करते हैं, अपवर्तन करते हैं, संक्रमण करते हैं; निघत्त करते हैं और निकाचित करते हैं। इन सब पदों में 'अचलित' कहना चाहिए, चलित नहीं । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नारकी जीव, जीव- प्रदेश से चलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? या अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? १५ उत्तर - हे गौतम! नारको जीव, जीब- प्रदेश से चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, किन्तु अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं। गाया का अर्थ-बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निघत्तन और निकाचन के विषय में अचलित कर्म समझना चाहिए और निर्जरा के विषय में चलित कर्म समझना चाहिए। ५५ · विवेचन - यहाँ भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों के साथ 'समय' विशेषण लगाया गया है अर्थात् काल और समय, इन दो पदों का प्रयोग किया गया है। इसका कारण यह है कि 'काल' शब्द के अनेक अर्थ हैं। अकेले 'काल' शब्द का प्रयोग करने से काला (कृष्ण) वर्ण अर्थ भी लिया जा सकता है । किन्तु यहां ऐसा अर्थ इष्ट नहीं है । यह ain प्रकट होने के लिए काल के साथ 'समय' विशेषण लगा दिया गया है । 'काल' शब्द की तरह 'समय' शब्द के भी अनेक अर्थ हैं। वे सब यहाँ इष्ट नहीं हैं, किन्तु काल रूप ‘समय' इष्ट हैं । इसलिए 'समय' के साथ 'काल' विशेषण लगा दिया 'काल' का विशेषण 'समय' और 'समय' का विशेषण 'काल' कह देने से भ्रम नहीं रहता और इष्ट अर्थ सरलता से समझ में आ सकता है । है । इस प्रकार किसी प्रकार का यहाँ अतीत काल के साथ में जो 'समय' शब्द का प्रयोग किया गया है, इसका for यह है कि यहाँ अतीत काल सम्बन्धी उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल न लेकर अतीत काल का छोटे से छोटा अंश लेना है । गौतम स्वामी का प्रश्न है कि नारकी जीव जिन पुद्गलों को तैजस और कार्मण शरीरपने ग्रहण करते हैं। क्या उन्हें अतीत काल में ग्रहण करते हैं ? वर्तमान काल में ग्रहण करते हैं या भविष्यकाल में ग्रहण करते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र भगवान् ने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि हे गौतम ! नारकी जीव अतीत काल में और भविष्य काल में तैजस कार्मण शरीरपने पुद्गलों को ग्रहण नहीं करते हैं, किन्तु वर्तमान काल में ग्रहण करते हैं । इसका कारण स्पष्ट है कि-अतीत काल तो नष्ट हो चुका है और भविष्य काल अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ है । अतः जो भी क्रिया की जाती है वह वर्तमान में ही की जाती है । वर्तमान काल में भी स्वाभिमुख पुद्गलों को ही ग्रहण करते है, सब को नहीं। गौतम स्वामी का दूसरा प्रश्न यह है कि नारकी जीव जिन पुद्गलों को तैजस कार्मण शरीर के रूप में ग्रहण करते हैं, उनकी जो उदीरणा होती है, वह क्या भूतकाल में गृहीत पुद्गलों की होती है या वर्तमान काल में ग्रहण किये जाने वाले और भविष्य काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-हे गौतम ! नारकी जीव अतीत काल में तेजस कार्मण शरीर रूप से ग्रहण किये हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, किन्तु वर्तमान काल में और भविष्य काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते हैं। उदीरणा भूतकाल में बँधे हुए कर्म की ही होती है। वर्तमान काल में कर्म बंध रहा है, उसकी उदीरणा नहीं हो सकती और भविष्यकालीन कर्म अब तक बंधे ही नहीं हैं । अतः उनकी भी उदोरणा नहीं हो सकती। वर्तमानकालीन पुद्गल और भविष्यकालीन पुद्गल अब तक अगृहीत हैं । अगृहीत की उदीरणा नहीं होती । उदीरणा गृहीत की होती है। जिस प्रकार उदीरणा का कथन किया गया है उसी प्रकार वेदन और निर्जरा का भी कथन कर देना चाहिए। क्योंकि अतीत काल में ग्रहण किये हुए कर्मों का ही वेदन और निर्जरा होती है । वर्तमान काल और भविष्य काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों का न वेदन होता है और न निर्जरा होती है। ___तैजस कार्मण शरीर रूप में ग्रहण, उदीरणा, वेदन और निर्जरा-ये चार सूत्र हुए। अब कर्म का अधिकार होने से कर्म सम्बन्धी आठ सूत्र कहे जाते हैं इनमें पहला प्रश्न यह है कि-नारकी जीव चलित कर्म बाँधते हैं, या अचलित कर्म बाँधते हैं ? इसका उत्तर यह है कि-नारक जीव अचलित कर्म बाँधते हैं, चलित कर्म नहीं बाँधते। जीव के प्रदेश से जो कर्म चलायमान हो गये हैं उन्हें चलित कर्म कहते हैं, उन्हें जीव नहीं बांधता, क्योंकि वे ठहरने वाले नहीं हैं । इससे विपरीत कर्म, अचलित कर्म कहलाते हैं, उन्हें जीव बांधता है । जैसा कि कहा है For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असुरकुमार देवों का वर्णन ५७ कृत्स्नर्देशः स्वकदेशस्थं, रागादिपरिणतो योग्यम् । बध्नाति योगहेतोः कर्म स्नेहाक्त इव च मलम् ॥ अर्थात्-जिस प्रकार जिस पुरुष के शरीर पर तेल आदि चिकना पदार्थ लगा हुआ हो वह मैल को संग्रह करता है अर्थात् धूल आदि उसके शरीर पर चिपकते हैं, उसी प्रकार रागादि में परिणत आत्मा मन, वचन, काया रूपी योगों के निमित्त से समस्त आत्मप्रदेशों द्वारा आत्मा के समीप योग्य देश में रहे हए कर्मों को बाँधता है। जिस प्रकार बन्ध का कथन किया-उसी प्रकार उदीरणा, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्त और निकाचन कर्म का भी कथन करना चाहिए अर्थात् उदीरणा, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्त और निकाचन, ये सब अचलित कर्म के होते हैं, चलित के नहीं। . निर्जरा चलित कर्म की होती है, अचलित की नहीं । आत्मप्रदेशों से कर्म पुद्गलों को हटा देना निर्जस कहलाती है। अचलित कर्म आत्मप्रदेशों से हटते नहीं हैं, चलित कर्म ही हटते हैं । इसलिए निर्जरा चलित कर्म की होती है, अचलित कर्म की नहीं। इन आठ प्रश्नों की संग्रह गाथा में भी यही बात कही गई है । बंध, उदीरणा, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्त और निकाचित इन सात प्रश्नों में अचलित कर्म कहना चाहिए और आठवें निर्जरा सम्बन्धी प्रश्न में चलित कर्म कहना चाहिए। असुरकुमार देवों का वर्णन १६ प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? १६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं । १७ प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! केवइयकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ? १७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ५८ . भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ असुरकुमार देवों का वर्णन साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा पाणमंति वा । १८ प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! आहारट्ठी ? १८ उत्तर-हंता, आहारट्ठी। १९ प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजइ ? . १९ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमाराणं दुविहे आहारे पण्णत्ते तंजहा-आभोगणिव्वत्तिए य अणाभोगणिव्वत्तिए य । तत्थ णं जे से अणाभोगणिव्वत्तिए से . अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पजइ, तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से जहण्णेणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्टे समुप्पजइ। ' २० प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! किं आहारं आहारेंति ? २० उत्तर-गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाइं दव्वाइं, खित्तकाल-भाव-पण्णवणागमेणं, सेसं जहा णेरइयाणं जाव । २१ प्रश्न ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति? २१ उत्तर-गोयमा ! सोइंदियत्ताए जाव फार्सिदियत्ताए, सुरूवत्ताए, सुवण्णत्ताए, इट्टत्ताए, इच्छियत्ताए, भिजियत्ताए, उड्ढत्ताए, . णो अहत्ताए, सुहत्ताए, णो दुहत्ताए, भुजो भुजो परिणमंति । २२ प्रश्न-असुरकुमाराणं पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया ? For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ असुरकुमार देवों का वर्णन २२ उत्तर-असुरकुमाराभिलावे णं जहा णेरइयाणं, जाव मो अचलियं कम्मं णिज्जरेंति । शब्दार्थ - भंते - हे भगवन् ! असुरकुमाराणं- असुरकुमारों की, ठिई स्थिति, केवइयंकालं - कितने काल की, पण्णत्ता - कही गई है ? गोयमा - हे गौतम! जहणेणं - जघन्य, दस वाससहस्साई - दस हजार वर्ष की और, उक्कोसेणं-उत्कृष्ट, साइरेगं सागरोवमं- सागरोपम से कुछ अधिक की है । मंते - हे भगवन् ! असुरकुमारा - असुरकुमार, केवइयकालस्स- कितने समय में, आर. मंति- श्वास लेते हैं, वा-और कितने समय में, पाणमंति- निःश्वास छोड़ते हैं ? ५९ गोयमा - हे गौतम ! जहण्णेणं - जघन्य, सत्तण्हं - सात, थोवाणं स्तोक रूप काल से और, उक्कोसेणं-उत्कृष्ट, साइरेगस्स पक्खस्स - एक पक्ष - पखवाड़े से कुछ अधिक काल में श्वास लेते और छोड़ते हैं । भंते - हे भगवन् ! क्या, असुरकुमारा - असुरकुमार, आहारट्ठी - आहार के अभिलाषी होते हैं ? हंता - हाँ गौतम ! आहारट्ठी- आहार के अभिलाषी होते हैं । भंते - हे भगवन् ! असुरकुमाराणं - असुरकुमारों की, केवइयकालस्स- कितने काल आहारट्ठे - आहार की अभिलाषा, समुप्पज्जइ - उत्पन्न होती है ? गोमा - हे गौतम! असुरकुमाराणं - असुरकुमारों का, आहारे आहार, दुबिहे - दो प्रकार का, पण्णत्ते- कहा गया है, आभोगणिव्वत्तिए य- आभोग निर्वर्तित और, अणाभोगव्वित्तिए - अनाभोग निर्वर्तित, तत्थ इन दोनों में से, जे- जो, अणाभोगणिव्वत्तिए - अनाभोग निर्वर्तित अर्थात् बिना इच्छा के होने वाला, आहारट्ठे- आहार है, उसकी अभिलाषा, अविरहिए- विरह रहित, अणुसमयं - निरन्तर समुप्पज्जइ - उत्पन्न होती है और, आभोगव्वित्तिए - आभोग निर्वार्तित आहार की अभिलाषा, जहणेणं - जघन्य, चउत्थभत्तस्स - चतुर्थ भक्त अर्थात् एक अहोरात्र से और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, साइरेगस्स वाससहस्सस्स - एक हजार वर्ष से कुछ अधिक काल से, आहारट्ठे-आहार की अभिलाषा, समुप्पज्जइ - उत्पन्न होती है । भंते-हे भगवन् ! असुरकुमारा - असुरकुमार, कि- किन पुद्गलों का, आहारं आहा For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असुरकुमार देवों का वर्णन रोत-आहार करते है ? - ___गोयमा-हे गौतम ! दवओ-द्रव्य की अपेक्षा, अणंतपएसियाई-अनन्तप्रदेशी, दवाई -द्रव्यों का आहार करते हैं, खेत्त-काल-भाव पण्णवणागमेणं-क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा जैसा पन्नवणा सूत्र के अट्ठाइसवें पद में कहा है, वैसा वर्णन यहाँ भी जान लेना चाहिए । भंते-हे भगवन् ! तेसि-उन असुरकुमारों द्वारा आहार किये हुए, पोग्गला-पुद्गल, कीसत्ताए-किस रूप में, भुज्जो मुज्जो-बारबार, परिणमंति-परिणत होते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! सोइंदियत्ताए-श्रोत्रेन्द्रिय रूप में, जाव फासिदियत्ताए-यावत् स्पर्शनेन्द्रियपने, सुरूवत्ताए-सुरूपपने, सुवण्णत्ताए-सुवर्णपने, इट्ठत्ताए-इष्टपने, इच्छियत्ताए -इच्छियपने, भिज्जियत्ताए-मनोहरपने, उदृत्ताए-ऊर्ध्वपने और, सुहत्ताए-सुखपने, भुज्जो भुज्जो-बारबार, परिणमंति-परिणत होते हैं किन्तु, णो अहत्ताए, जो दुहत्ताए-अधःरूप में और दुःख रूप में नहीं परिणमते हैं। भंते-हे भगवन् ! क्या, असुरकुमाराणं-असुरकुमारों द्वारा, पुव्वाहारिया-पहले आहार किये हुए, पोग्गला-पुद्गल, परिणया-परिणत हुए हैं ? गोयमा-हे गौतम ! असुरकुमाराभिलावणं जहा रइयाणं-असुरकुमार के अभिलाप से अर्थात् नारकी के स्थान पर असुरकुमार शब्द का प्रयोग करके यह सब नारकियों के समान ही समझना चाहिए, जाव-यावत्, अचलियं कम्म-अचलित कर्म की, णो णिज्जरेंति -निर्जरा नहीं करते हैं। . भावार्थ १६-गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! असुरकुमारों की स्थिति कितनी है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की है। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार कितने समय में श्वास लेते हैं और कितने समय में निःश्वास छोड़ते हैं ? । १७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य सात स्तोक रूप काल में और उत्कृष्ट एक पक्ष से कुछ अधिक काल में श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार आहार के अभिलाषी होते हैं ? १८ उत्तर-हाँ, गौतम ! असुरकुमार आहार के अभिलाषी होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. १ उ. १ असुरकुमार देवों का वर्णन १९ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? __ १९ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमारों का आहार दो प्रकार का कहा गया है-आभोग निर्वतित और अनाभोग निर्वतित । अनाभोगनिर्वतित अर्थात् अनिच्छापूर्वक होने वाले आहार की अभिलाषा उन्हें निरन्तर प्रतिसमय हुआ करती है । आभोगनिवर्तित अर्थात् इच्छापूर्वक होने वाले आहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य चतुर्थ भक्त से अर्थात् एक अहोरात्र से और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष से कुछ अधिक काल से होती है। २० प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? ' ___२० उत्तर-हे गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं। : क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा जैसा पन्नवणा सूत्र के अट्ठाईसवें पद में कहा है वैसा ही यहाँ समझ लेना चाहिए। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों द्वारा आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? ... २१ उत्तर-हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शनेन्द्रियपने, सुरूप पने, सुवर्णपने, इष्टपने, इच्छितपने, मनोहरपने, ऊर्ध्वपने और सुखपने बार-बार परिणत होते हैं । किन्तु अधःपने और दुःखपने परिणत नहीं होते हैं। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों द्वारा पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए ? २२ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार के अभिलाप से अर्थात् नारकी के स्थान पर असुरकुमार शब्द का प्रयोग करते हुए यह सारा वर्णन नारकियों के समान ही समझना चाहिए । यावत् अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं। विवेचन-चौबीस दण्डकों में से पहला नैरयिक दण्डक कहा गया। उसके बाद क्रम प्राप्त असुरकुमारों का कथन किया गया है। नैरयिक प्रकरण में ७२ सूत्र कहे गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६२ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नागकुमार देवों का वर्णन उनमें से २३ सूत्र असुरादि प्रकरण में समान हैं। सिर्फ विशेषता यह है कि असुरकुमारों में । उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम से कुछ अधिक ही है, वह असुरराज बलि की अपेक्षा से समझनी ___ चाहिए, क्योंकि चमरेन्द्र का आयुष्य एक सागरोपम होता है और बलिन्द्र का आयुष्य एक सागरोपम से कुछ अधिक होता है । __मूल में असुरकुमारों के श्वासोच्छ्वास के लिए सात स्तोक का कथन किया गया है, उसका मतलब यह है कि-सात स्तोक बीतने के बाद वे श्वासोच्छ्वास लेते हैं । स्तोक का लक्षण इस प्रकार कहा गया है हदुस्स अणवगल्लस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति बुच्चइ ॥ सत्त पाणणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ अर्थ-रोगरहित, स्वस्थ हृष्टपुष्ट प्राणी के एक श्वासोच्छ्वास को एक प्राण कहते हैं । सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोक का एक लव होता है । ७७ लवों का एक मुहूर्त होता है। जघन्य स्थिति वाले असुरकुमार जघन्य काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं और उत्कृष्ट स्थिति वाले असुरकुमार उत्कृष्ट काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं । असुरकुमारों के श्वासोच्छ्वास का उत्कृष्ट काल एक पक्ष से कुछ अधिक है। ___ 'चउत्थभत्त- चतुर्थभक्त' यह उपवास की संज्ञा है । यहां 'चउत्थभक्त' का अर्थ है-एक दिन रात अर्थात् आठ प्रहर । असुरकुमार एक दिन आहार कर लेने पर फिर दूसरा दिन और रात बीत जाने के बाद तीसरे दिन उनको आहार की अभिलाषा होती हैं । यह उनके आहार की अभिलाषा का जघन्य काल है । उत्कृष्ट काल तो एक हजार वर्ष है अर्थात् एक हजार बर्ष बीतने के बाद उनको आहार की अभिलाषा होती है । जघन्य स्थिति वालों को जघन्य काल में और उकृष्ट स्थिति वालों को उत्कृष्ट काल में आहार की अभिलाषा होती है। . नागकुमार देवों का वर्णन २३ प्रश्न-णागकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ नागकुमार देवों का वर्णन २३ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दसवाससहरसाई, उनकोसेणं सूणाई दो पलिओ माई । २४ प्रश्न - नागकुमारा णं भंते! केवइयकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा णीससंति वा ? २४ उत्तर - मोयमा ! जहणणेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्को सेणं मुहुत्तपुहुंत्तस्स आणमंति वा पाणमंति वा उससंति वा णीससंति वा । २५ प्रश्न - नागकुमारा णं भंते ! आहारट्ठी ? २५ उत्तर - हंता, आहारट्ठी । २६ प्रश्न - णागकुमारा णं भंते ! केवइयकालस्स आहारडे समुप्पज्जइ ? २६ उत्तर - गोयमा ! णागकुमाराणं दुविहे आहारे पण्णत्ते, तंजा - आभोगणिव्यत्तिए य, अणाभोगणिव्वत्तिए य, तत्थ णं जे अपभोगणिव्यत्ति से अणुसमयं अविरहिए आहारट्ठे समुप्पजइ । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से जहण्णेणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्ठे समुप्पजइ । सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव चलिये कम्मं णिज्जरेंति, णो अचलियं कम्मं णिज्ज - रेंति । एवं सुवण्णकुमाराणं वि, जाव थणियकुमाराणं ति । शब्दार्थ - भंते - हे भगवन् ! जागकुमाराणं - नागकुमार देवों की, ठिई-स्थिति, . केवइयं कालं - कितने काल की, पण्णत्ता- कही गई है ? ६३ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६४ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नागकुमार देवों का वर्णन . ' गोयमा-हे गौतम ! जहण्णेणं-जघन्य, दस वाससहस्साइं-दस हजार वर्ष की और उक्कोसेणं-उत्कृष्ट, देसूणाई दो पलिओवमाइं-देशोन--कुछ कम दो पल्योपम की कही गई भंते-हे भगवन् ! णागकुमारा-नागकुमार, केवइयकालस्स-कितने समय में, आणमंति-श्वास लेते हैं ? पाणमंति-निःश्वास छोड़ते हैं ? ऊससंति-उच्छ्वास लेते हैं ? नीससंति-निःश्वास छोड़ते हैं ? - गोयमा-हे गौतम ! जहण्णेणं-जघन्य से, सत्तण्ह-सात, थोवाणं-स्तोक में और उक्कोसेणं-उत्कृष्ट से, महत्तपुहत्तस्स-मुहूर्त पृथक्त्व अर्थात् दो मुहूर्त से लेकर नव'मुहूर्त के अन्दर किसी भी समय, आगमंति वा ४-श्वासोच्छ्वास लेते और छोड़ते हैं । - . भंते-हे भगवन् ! क्या, नागकुमारा-नागकुमार देव, आहारट्ठी-आहारार्थी हैं ? हंता-हाँ, गौतम ! नागकुमार देव, आहारट्ठी-आहारार्थी हैं।। भंते-हे भगवन् ! णागकुमाराणं-नागकुमार देवों को, केवइयकालस्स-कितने काल में, आहारठे-आहार की अभिलाषा, समुप्पज्जइ-उत्पन्न होती है ? । गोयमा-हे गौतम ! णागकुमाराणं-नागकुमार देवों का, आहारें-आहार, दुविहे-दो प्रकार का, पण्णत्ते-कहा गया है। आभोगणिव्वत्तिए--आभोगनिर्वसित और, अणाभोगणिबत्तिए-अनाभोगनिवर्तित । अणाभोगणिन्वत्तिए आहारठे-अनाभोग निर्वतित आहार की अभिलाषा, अणुसमयं अविरहिए-प्रतिसमय विरह रहित, समुप्पज्जइ-होती है । आभोगजिव्वत्तिए-आभोग निर्वतित, आहारठे-आहार की अभिलाषा, जहणेणं-जघन्य से, चउत्थभत्तस्स-चतुर्थभक्त अर्थात् एक अहोरात्र के बाद, और उक्कोसेणं-उत्कृष्ट, दिवसपुहत्तस्स--दिवस पृथक्त्व के बाद, समुप्पज्जइ-उत्पन्न होती हैं। सेसं-बाकी सारा वर्णन, जहा असुरकुमाराणं-असुरकुमार देवों की तरह समझना चाहिए । जाव-यावत्, चलियं कम्म-चलित कर्म की, णिज्जरेंति-निर्जरा करते हैं, जो अचलियं कम्मं णिज्जरेंति-किन्तु अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं । यहाँ तक कह देना चाहिए। एवं-इसी तरह, सुव्वणकुमाराणं विं -सुवर्ण कुमारों का भी कह देना चाहिए । जाब-यावत्, पणियकुमाराण-स्तनितकुमारों तक कह देना चाहिए। भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! नागकुमार देवों की स्थिति कितनी है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की है। For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ नागकुमार देवों का वर्णन ६५ २४ प्रश्न-हे भगवन् ! नागकुमार देव कितने समय में श्वासोच्छ्वास लेते हैं ? २४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य सात स्तोक में और उत्कृष्ट महत पृथक्त्व में अर्थात् दो मुहूर्त से लेकर नव मुहूर्त के भीतर श्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नागकुमार आहारार्थी हैं ? २५ उत्तर-हाँ, गौतम ! आहारार्थी हैं। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! कितने समय के बाद नागकुमार देवों को आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? २६ उत्तर-हे गौतम ! नागकुमार देवों का आहार दो प्रकार का हैआभोगनिर्वतित और अनाभोग निर्वतित । अनाभोग निर्वतित आहार को अभिलाषा प्रतिसमय निरन्तर उत्पन्न होती है। और आभोग निर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य एक अहोरात्र के बाद और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व अर्थात् दो दिन से लेकर नव दिन तक का समय बीतने के बाद होती है। शेष सारा वर्णन असुरकुमारों की तरह समझना चाहिए । इसी प्रकार सुवर्णकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए। विवेचन-यहाँ पर नागकुमार देवों की जो देशोन (कुछ कम) दो पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति कही है वह उत्तर दिशा के नागकुमार देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए। कहा है 'दाहिणदिवडपलियं, बो देसूणुत्तरिल्लाणं' . अर्थात्-दक्षिण दिशा के नागकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति डेढ पल्योपम की और --- उत्तर दिशा के नागकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति देशोन दो पल्योपम कही गई है। ___सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार, इन आठ की स्थिति, उच्छ्वास आदि का वर्णन नागकुमार की तरह कह देना चाहिए। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि असुरकुमार आदि दस भवनपतियों के दस दण्डक माने गये हैं और सात नरक के जीवों का एक ही दण्डक माना गया है। इसका For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन क्या कारण है ? इस आशंका का समाधान यह है कि नारकी जीव दुःख में पड़े हुए हैं, इसलिए उनमें इतनी अधिक उथल पुथल नहीं होती है, किन्तु भवनपति देवों में उथल पुथल अधिक होती रहती है, इत्यादि कारणों से उनके दण्डक अलग अलग माने गये संभवित होते हैं । इस विषय में शास्त्रों में कोई स्पष्टीकरण देखने में नहीं आया है, किन्तु पूर्वाचार्यों की धारणा ऐसी है कि सातों नरकों की क्षेत्र - सीमा परस्पर संलग्न है । इनके बीच में कोई . दूसरे त्रस जीव नहीं है । किन्तु भवनपति देवों में यह बात नहीं है, इनके बीच में नैरयिक जीवों का व्याघात होने sa use पृथक्-पृथक् माने गये हैं अर्थात् प्रथम नरक में १३ प्रतर और १२ अन्तर हैं । भगवती सूत्र के दूसरे शतक के आठवें उद्देशक में समभूमि से ४० हजार योजन नीचे चमरचंचा राजधानी बतलाई है। चालीस हजार योजन नीचे जाने पर रत्नप्रभा पृथ्वी का तीसरा अंतर आता है इसलिए ऊपर के दो अन्तरों को छोड़कर शेष नीचे के दस अन्तरों में दस जाति के भवनपति देव रहते हैं और प्रतर में रिये रहते हैं, परन्तु प्रथम नरक के नीचे के प्रतर से सातवीं नरक तक बीच में कोई भी सजीव नहीं होने से सातों नरक जीवों का एक ही दण्डक कहा गया है और दस जाति के भवनपतियों के बीच-बीच में प्रथम नरक के नैरयिकों के प्रतर आने से भवनपतियों के दस दण्डक (विभाग) किये गये हैं। ऐसी पूर्वाचार्यों की धारणा है । पृथ्वीकाय आदि का वर्णन २७ प्रश्न–पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? २७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं । २८ प्रश्न - पुढवीकाइया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमति वा ऊससंति वा जीससंति वा ? २८ उत्तर - गोयमा ! वेमायाए आणमंति वा ४ । २९ प्रश्न - पुढवीकाइया णं भंते ! आहारट्ठी ? For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन ६७ , २९ उत्तर-हंता, आहारट्ठी। ३० प्रश्न-पुढवीकाइयाणं केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजह ? ३० उत्तर-गोयमा ! अणुसमयं अविरहिए आहारटे समुप्पजइ। ३१ प्रश्न-पुढवीकाइया कि आहारं आहारेंति ? ३१ उत्तर-गोयमा ! दवओ जहा णेरइयाणं, जाव णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं, वण्णओ कालणील-पीय-लोहिय-हालिद्द-सुकिलाणं, गंधओ सुभिगंधाई २ । रसओ तित्ताई ५। फासओ कक्खडाई ८, सेसं तहेव णाणत्तं । ३२ प्रश्न-कहभागं आहारेंति, कइभागं फासाइंति ? ३२ उत्तर-गोयमा ! असंखिजभागं आहारेंति, अणंतभागं फासाइंति जाव। ३३ प्रश्न-तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? ___ ३३ उत्तर-गोयमा ! फासिंदिय वेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति, सेसं जहा णेरइयाणं, जाव णो अचलियं कम्मं णिजरंति, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, णवरं ठिई वण्णेयव्वा जा जस्स । उस्सासो वेमायाए। ____ शब्दार्थ-भंते-हे भगवन् ! पुडवाइमाणं-पृथ्वीकाय के जीवों की, 6िई-स्थिति For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन . . केवइयं कालं-कितने काल की, पण्णता-कही गई है ? गोयमा-हे गौतम ! जहणेणं--जघन्य, अंतोमहुत्तं--अन्तर्मुहूर्त और, उक्कोसेणंउत्कृष्ट, बावीसं वाससहस्साई-बाईस हजार वर्ष की है। भंते-हे भगवन् ! पुढवीकाइया--पृथ्वीकाय के जीव, केवइयकालस्स-कितने काल में, -आणमंति-श्वास लेते हैं और, पाणमंति-निःश्वास छोड़ते हैं ४ ? गोयमा-हे गौतम ! वेमायाए-विमात्रा से अर्थात् विविध काल में, आणमंतिश्वासोच्छ्वास लेते हैं अर्थात् इनके श्वासोच्छ्वास का समय स्थिति के अनुसार नियत नहीं हे भगवन् ! क्या, पुठवीकाइया-पृथ्वीकाय के जीव, आहारट्ठी-आहार के अभिलाषी होते हैं ? हंता-हां, गौतम ! आहारट्ठी-आहार के अभिलाषी होते हैं। पुढवीकाइयाणं-पृथ्वीकाय के जीवों को, केवइकालस्स-कितने काल में, आहारो -आहार की अभिलाषा, सनुप्पज्जा-उत्पन्न होती है ? गोयमा-हे गौतम ! अणुसमयं-अनुसमय-प्रतिसमय, अविरहिए-विरह रहित-- निरन्तर, आहारठे-आहार की अभिलाषा, समुप्पज्जइ-उत्पन्न होती है। .. हे भगवन् ! पुढवीकाइया-पृथ्वीकाय के जीव, किं-क्या, आहारं आहारैति-आहार करते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! दखओ-द्रव्य की अपेक्षा, जहा मेरइयाणं-जिस प्रकार नारकी जीवों में कहा उसी तरह कह देना चाहिये अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा वे अनन्तप्रदेशी द्रव्य का आहार करते हैं। जाव-इत्यादि सारा वर्णन नारकी जीवों के समान जानना चाहिए। जाव-यावत् पृथ्वीकाय के जीव, जिव्वाघाएण-निर्व्याघात आश्री अर्थात् व्याघात न हो तो, छदिसिं-छहों दिशाओं से आहार लेते हैं, वाघायं पडुच्च-व्याघात आश्री अर्थात् व्याघात हो तो, सिय-कदाचित्, तिविसि-तीन दिशाओं से, सिय-कदाचित्, चउद्दिसि-चार दिशाओं से और, सिय-कदाचित, पंचदिसि-पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। वण्णओ-वर्ण की अपेक्षा, कालणीलपीयलोहियहालिहसुविकलाणं-काला, नीला, पीला, लाल, हारिद्र-हल्दी जैसा तथा सफेद वर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं। गंधओ-गन्ध से, सुम्मिगंधाई २-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध वाले, दोनों गन्ध वाले, रसओ-रस की अपेक्षा, तिताई-तिक्त आदि पांचों रस वाले, फासओ-स्पर्श की अपेक्षा, कालाई ८-कर्कश आदि आठों स्पर्श वाले For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ५ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन . ६९ द्रव्य का आहार करते हैं। सेसं तहेव-शेष सब वर्णन पहले के समान ही समझना चाहिए । णाणत्तं-सिर्फ भेद यह है-- हे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव, कइभाग-कितने भाग का, आहारेंति-आहार करते हैं, और कहभागं-कितने भाग का, फासाइंति-स्पर्श करते हैं-आस्वादन करते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! असंखिज्जमागं-असंख्यातवें भाग का, आहारेंति-आहार करते हैं, और अणंतभागं-अनन्तवें भाग का, फासाइंति-स्पर्श करते हैं-आस्वादन करते हैं । हे भगवन् ! तेसि-उनके द्वारा आहार किये हुए, पोग्गला-पुद्गल, कीसत्ताएकिस रूप में, भुज्जो भुज्जो-बारबार, परिणमंति-परिणत होते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! फासिदिय वेमायत्ताए-स्पर्शेन्द्रिय के रूप में साता असाता रूप विविध प्रकार से, भुज्जो भुज्जो-बारबार, परिणमंति-परिणत होते हैं । सेसं जहा रइयाणं-शेष सब वर्णन नारकियों के समान समझना चाहिए, जाव-यावत् णो अचलियं कम्मं णिज्जरंति-अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं । एवं-इसी प्रकार, जाव वणस्सइकाइयाणं-अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों के विषय में समझना चाहिए, गवरं-सिर्फ विशेषता यह है कि, ठिई वण्णेयव्वा जा जस्स-जिसकी जितनी स्थिति हो उसकी उतनी कह देनी चाहिए। उस्सासो वेमायाए-इन सब का उच्छ्वास • भी विमात्रा-विविध प्रकार से जानना चाहिए अर्थात् स्थिति के अनुसार नियत नहीं है। .. भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीवों की स्थिति कितनी २७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कितने काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं ? २८ उत्तर-हे गौतम ! विमात्रा से श्वासोच्छ्वास लेते हैं अर्थात् इनके श्वासोच्छ्वास का समय स्थिति के अनुसार नियत नहीं है। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के जीव आहार के अभिलाषी २९ उत्तर-हाँ गौतम ! आहार के अभिलाषी हैं। For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन ३० प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीवों को कितने समय में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? ३० उत्तर-हे गौतम! प्रतिसमय निरन्तर आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव किसका आहार करते हैं ? .. ३१ उत्तर-हे गौतम! द्रव्य से अनन्त प्रदेश वाले द्रव्य का आहार करते हैं। इत्यादि वर्णन नारकी जीवों के समान जानना चाहिए । पृथ्वीकाय के जीव व्याघात न हो तो छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। वर्ण को अपेक्षा पांचों वर्ण के द्रव्य का आहार करते हैं। गन्ध को अपेक्षा दोनों गन्ध वाले, रस की अपेक्षा पांचों रस वाले और स्पर्श की अपेक्षा आठों स्पर्श वाले द्रव्य का आहार करते हैं । शेष सब वर्णन पहले के समान समझना चाहिए। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कितने भाग का आहार करते है और कितने भाग का स्पर्श करते है-आस्वादन करते है ? ___३२ उत्तर-हे गौतम ! असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का स्पर्श करते है-आस्वादन करते हैं। . ३३ प्रश्न हे भगवन् ! उनके आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? _ ३३ उत्तर-हे गौतम ! स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में विमात्रा से अर्थात् इष्ट अनिष्ट आदि विविध प्रकार से बारबार परिणत होते हैं। शेष सब नारकी जीवों के समान समझना चाहिए। यावत् चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, किंतु अचलित कर्म को निर्जरा नहीं करते हैं। इसी प्रकार अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों के विषय में समझना चाहिए, किन्तु इतना अंतर है कि इन सब की स्थिति अलग-अलग है, सो जिसकी जितनी स्थिति हो For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन उसकी उतनी स्थिति कह देनी चाहिए और इन सब का उच्छ्वास भी विमात्रा से जानना चाहिए । विवेचन - नारकी जीवों का एक दण्डक, दस ग्यारह दण्डक हुए । इसके बाद पृथ्वीकाय जीवों का किया गया है । ७१ भवनपति देवों के दस दण्डक, ये एक दण्डक आता है । उसका वर्णन पृथ्वीकाय जीवों को आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है । ऊपर बताया जा चुका है कि ७७ लव का एक मुहूर्त्त होता है, उससे कुछ कम तक के काल को अर्थात् मुहूर्त के भीतर के समय को अन्तर्मुहूर्त्त कहते हैं । पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की जो बताई गई है वह 'खर' पृथ्वी की अपेक्षा से समझनी चाहिए। पृथ्वी के छह भेद हैंसहाय सुद्ध वाय, मणोसिला सक्करा य खरंपुढवी । एगं बारस चोट्स, सोलस अट्ठारस बावीस ति ॥ अर्थ - श्लक्ष्ण - स्निग्ध, शुद्ध, बालुका, मनःशिला, अर्करा और खर, यह छह प्रकार की पृथ्वी है। श्लक्ष्ण-सुहाली पृथ्वी की स्थिति एक हजार वर्ष की है । 'शुद्ध' पृथ्वी की बारह हजार वर्ष की, 'बालुका' पृथ्वी की चौदह हजार वर्ष की, 'मनःशिला' पृथ्वी की सोलह हजार वर्ष की, 'शर्करा' पृथ्वी की अठारह हजार वर्ष की और 'खर' की बाईस हजार वर्ष की स्थिति है । पृथ्वीकाय के जीवों के श्वासोच्छ्वास के लिए 'वेमायाए' शब्द दिया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय के जीवों के श्वासोच्छ्वास की क्रिया विषम काल वाली है अर्थात् अमुक स्थिति वाले इतने काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं, ऐसा निश्चित निरूपण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार आहार के परिणमन के विषय में भी इनकी 'विमात्रा' है अर्थात् इष्ट अनिष्ट विविध रूप से परिणमता है । पृथ्वीकाय के जीवों के आहार के विषय में कहा गया है कि यदि व्याघात न हो, तो वे छहों दिशा से आहार लेते हैं । तो यहां यह जान लेना आवश्यक है कि व्याघात किसे कहते हैं ? लोक के अन्त में जहां लोक और अलोक की सीमा मिलती है वही व्याघात होना संभव है । जहाँ व्याघात हो, वहाँ तीन, चार या पांच दिशा से आहार लेते हैं । तात्पर्य यह है कि लोक के अन्त में कोने में ऊपर या नीचे रहा हुआ पृथ्वीकाय का जीव, तीन, चार या पांच दिशाओं से आहार ग्रहण करता है । जब पृथ्वीकायिक जीव लोकान्त For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ भगवती सूत्र - श. १. उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन ऊपर अग्निकोण में रहा हुआ होता है तब उसके तीन तरफ यानी ऊपर, पूर्व और दक्षिण में अलोक होता है तब वह तीन दिशाओं का आहार लेता । इसी प्रकार नीचे अग्निकोण में रहा हुआ जीव, नीचे पूर्व और दक्षिण में अलोक आजाने से शेष तीन दिशाओं से आहार लेता है । जब ऊपर या नीचे में से एक तरफ अलोक होता है और पूर्वादि चारों दिशा में से एक दिशा में अलोक होता है तब शेष चार दिशाओं से आहार ग्रहण करता है, जब छह दिशाओं में से किसी एक दिशा में अलोक होता है तब पांच दिशा से आहार ग्रहण करता है, तात्पर्य यह है कि किसी भी कोने में रहे हुए जीव के जिस तरफ अलोक होता है, उस तरफ का आहार नहीं लेता है, शेष दिशाओं से आहार लेता है । पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के लिये नैरयिक जीवों के आहार की भलामण दी है, किंतु इस में इतनी विशेषता है कि नैरयिंक और देवों में 'ओसण्णं कारणं पडुच्च'- - शब्द दिया है जिसका अर्थ है - प्राय: करके सामान्यतया । किन्तु यह बात पृथ्वीकायिक जीवों के लिये नहीं कहनी चाहिये । क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाईसवें पद में कहा है- 'णवरं ओसण्णं कारणं न भण्णइ' अर्थात् इन में 'ओसण्ण कारण ( सामान्यतया ) नहीं कहना चाहिये । इसी तरह सभी औदारिक दण्डकों में समझना चाहिये । पृथ्वीकाय के जीवों के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है, उनके रसनेन्द्रिय नहीं होती है । जिसके रसनेन्द्रिय होती है, वह उसके द्वारा आहार का स्वाद लेता है, किन्तु यह बात पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में नहीं है । इसलिए पृथ्वीकायिकादि जीव स्पर्शनेन्द्रिय से ही आहार ग्रहण करके उसी के द्वारा उसका आस्वादन करते हैं । इनका स्पर्शन भी एक प्रकार का आस्वादन है । पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों में पृथ्वीकाय कि स्थिति पहले बताई जा चुकी है । काय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है । ते काय के जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है । वायुकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है । वनस्पतिकाय के जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है । For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ बेइन्द्रिय जीवों का वर्णन बेइन्द्रिय जीवों का वर्णन ३४-बेइंदियाणं ठिई भाणियव्वा उस्सासो वेमायाए । ३५ प्रश्न वेइंदियाणं आहारे पुच्छा ? ३५ उत्तर-अणाभोग णिव्वत्तिए तहेव, तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेजसमइए, अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्ठे समुप्पजइ, सेसं तहेव जाव अणंतभागं आसायंति । ३६ प्रश्न-बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति, ते किं सव्वे आहारंति, णो सव्वे आहारंति । ३६ उत्तर-गोयमा ! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते तंजहालोमाहारे पक्खेवाहारे । जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गिण्हंति ते सव्वे अपरिसेसिए आहारेंति, जे पक्खेवाहारत्ताए गिण्हंति तेसिं णं पोग्गलाणं असंखेजइभागंआहारति, अणेगाइं च णं भागसहस्साइं अणासाइजमाणाइं अफासाइजमाणाइं विद्धंसं आगच्छति । ३७ प्रश्न-एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुंया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ३७ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा । For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७४ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ बेइन्द्रिय जीवों का वर्णन . ३८ प्रश्न-बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति, ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ? ३८ उत्तर-गोयमा ! जिभिदिय-फासिंदियवेमायत्ताए भुजो भुजो परिणमंति। ३९ प्रश्न-बेइंदियाणं भंते ! पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया ? . ३९ उत्तर-तहेव जाव णो अचलियं कम्मं णिज्जतं । । शब्दार्थ-बेइंदियाणं-बेइन्द्रिय जीवों की, ठिई-स्थिति, भाणियव्वा-कह देनी चाहिए, उस्सासो- उनका श्वासोच्छ्वास, वेमायाए–विमात्रा से कहना चाहिए। बेइंदियाणं-बेइन्द्रिय जीवों के, आहारे-आहार के विषय में, पुच्छा-प्रश्न करना चाहिए । अर्थात् हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव को कितने काल में आहार की अभि-: लाषा होती है ? अणाभोगणिव्वत्तिए-अनाभोगनिर्वतित आहार, तहेव-पहले के समान समझना चाहिए । जे–जो, आधोगणिन्वत्तिए-आभोग निर्वतित आहार है, से-उस, आहारठेआहार की अभिलाषा, वेमायाए-विमात्रा से, असंखेन्ज समइए अंतोमुहुत्तिए-असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त में होती है। सेसं-बाकी, तहेव - उसी प्रकार जानना चाहिए, जाव-यावत्, अणंतभागं-अनन्तवें भाग को, आसायंति—आस्वादन करते हैं । भंते-हे भगवन् ! बेइंदिया-बेइन्द्रिय जीव, जे-जिन, पोग्गले–पुद्गलों को, आहारत्ताए-आहार रूप से, गिण्हंति-ग्रहण करते हैं, कि-क्या, वे, ते-उन, सव्वेसबको, आहारंति–खा जाते हैं ? अथवा, णो सव्वे आहारंति-उन सबको नहीं खाते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! बेइंदियाणं-बेइन्द्रिय जीवों का, आहारे-आहार, दुविहे-दो प्रकार का, पण्णत्ते-कहा गया है । तंजहा-वह इस प्रकार है-लोमाहारे-रोमाहार, य-और पक्खेवाहारे-प्रक्षेपाहार । जे-जिन, पोग्गले-पुद्गलों को, लोमाहारत्ताए-वे रोमाहार द्वारा, गिव्हंति-ग्रहण करते हैं, ते सम्वे-उन सबको, अपरिसेसिए-सम्पूर्णपने, आहारेंति-खा जाते हैं । जे-जिन पुद्गलों को, पक्खेवाहारत्ताए-प्रक्षेपाहार रूप से, गिण्हंति-ग्रहण करते हैं, तेसि पोग्गलाणं- उन पुद्गलों को, असंखिज्जइभागं-असंख्यातवां भाग, आहारेंति-खाया For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १ उ. १ बेइन्द्रिय जीवों का वर्णन जाता है, च- और, अगाई भागसहस्साइं अनेक हजारों भाग, अणासाइज्जमाणाइं- आस्वाद किये बिना और, अफासाइज्जमाणाई-स्पर्श किये बिना, विद्धंसं आगच्छंति - नष्ट हो जाते हैं, ७५ भंते - हे भगवन् ! एएस- -इन, अणासाइज्जमाणाणं -- बिना आस्वादन किये हुए, य - और, अफासाइज्जमाणाणं - बिना स्पर्श किये हुए पुद्गलों में से, करे - कौन से पुद्गल, कयरेंहितो - किन पुद्गलों से, अप्पा - अल्प हैं, वा- अथवा, बहुया - बहुत हैं, वा -- अथवा, तुल्ला - तुल्य हैं, वा-अथवा विसेसाहिया - विशेषाधिक हैं ? गोमा - हे गौतम! सव्वत्थोवा - सब से थोड़े, पोग्गला - पुद्गल, अणासाइज्ज़माणाआस्वाद में नहीं आये हुए हैं और, अफासाइज्जमाणा - स्पर्श में नहीं आये हुए पुद्गल, अनंतगुणा — उनसे अन्तगुणा हैं । भंते - हे भगवन् ! बेइंदिया - बेइन्द्रिय जीव, जे- जिन, पोग्गले - पुद्गलों को, आहारत्ताए – आहार रूप में ग्रहण करते हैं । ते वे, पोग्गला - पुद्गल, तेसि - उनके, कीसत्ताए – किस रूप में, भुज्जो भुज्जो - बारम्बार, परिणमंति - परिणत होते हैं ? गोयमा - हे गौतम! जिन्भिदिय फासिदिय वेमायत्ताए – वे पुद्गल उनको विविधतापूर्वक जिव्हेंन्द्रियपने और स्पर्शनेन्द्रियपने, भुज्जो भुज्जो - बार-बार, परिणमतिपरिणत होते हैं । भंते - हे भगवन् ! बेइंदियाणं - बेइन्द्रिय जीवों को क्या, पुण्याहारिया - पहले आहार किये हुए, पोग्गला - पुद्गल, परिणया – परिणत हुए हैं ? तव - यह सब वक्तव्य पहले की तरह समझना चाहिए। जाव- यावत्, अचलियंकम्मं - अचलित कर्म की, णो णिज्जरंति - निर्जरा नहीं करते हैं । भावार्थ - ३४ बेइन्द्रिय जीवों की स्थिति कह देनी चाहिए। उनका श्वासोच्छ्वास विमात्रा से कहना चाहिए । ३५ प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? ३५ उत्तर - हे गौतम ! बेइन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का है । उनमें से अनाभोगनिवर्तित आहार तो पहले के समान समझना चाहिए। आभोगनिर्वातित आहार की अभिलाषा विमात्रा से असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त में For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ बेइन्द्रिय जीवों का वर्णन होती है। बाकी उसी प्रकार जानना चाहिए यावत् अनन्तवाँ भाग आस्वादन करते हैं। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सब पुद्गलों को खा जाते हैं अथवा उन सब को नहीं खाते हैं ? . ३६ उत्तर-हे गौतम ! बेइन्द्रिा जीवों का आहार दो प्रकार का कहा गया है-रोमाहार और प्रक्षेपाहार। जिन पुद्गलों को रोमाहार द्वारा ग्रहण करते हैं, उन सब को सम्पूर्णपने खा जाते हैं। जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहार रूप से ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से असंख्यातवां भाग खाया जाता है और अनेक हजारों भाग आस्वादन किये बिना और स्पर्श किये बिना विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। ३७ प्रश्न-हे भगवन् ! इन बिना आस्वादन किये हुए और बिना स्पर्श किये हए पुद्गलों में से कौन से पुद्गल किन पुद्गलों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! आस्वादन में नहीं आये हुए पुद्गल सब से थोडे हैं, स्पर्श में नहीं आये हुए पुद्गल उनसे अनन्तगुणा हैं। ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं वे पुद्गल उनके किस रूप में बारम्बार परिणत होते हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! वे पुद्गल उनको विविधतापूर्वक जिव्हेन्द्रियपने और स्पर्शनेन्द्रियपने बारबार परिणत होते है। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या बेइन्द्रिय जीवों को पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! यह सब पहले की तरह समझना चाहिए। यावत् अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं, वहां तक कह देना चाहिए। . विवेचन-द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रिय वाले) जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त की और For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भववती सूत्र-श. १ उ. १ तेइन्द्रियादि जीवों का वर्णन ७७ उत्कृष्ट बारह वर्ष की है । इन जीवों को आभोग आहार ('मैं आहार करता हूँ' इस प्रकार बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला आहार) की अभिलाषा असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त बाद होती हैं । इन जीवों के स्थिति के अनुसार आहार का कोई निश्चित नियम नहीं है, अतएव 'विमात्रा' से कहा गया है। इन जीवों का आभोग आहार भी दो प्रकार का होता है-रोमाहार और प्रक्षेपाहार । रोमाहार उसे कहते हैं जो रोमों द्वारा अपने आप लिया जाता है । जैसे कि-जब वर्षा होती है तब रोमों द्वारों शीत अपने आप ही आजाता है । इस प्रकार रोमों द्वारा ग्रहण किये हुए आहार को वे पूर्ण रूप से खा जाते हैं । कवल (ग्रास) द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे प्रक्षेपाहार कहते हैं । प्रक्षेपाहार का बहुत सा भाग नष्ट हो जाता है और असंख्यातवां भाग शरीर रूप में परिणत होता है । इस कथन के आधार पर यह प्रश्न किया गया है कि जो पुद्गल स्पर्श में तथा आस्वाद में आये बिना ही नष्ट हो जाते हैं उनमें कौन से अधिक हैं ? अर्थात् स्पर्श में न आने वाले पुद्गल अधिक हैं या आस्वाद में न आने वाले ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि आस्वाद में न आने वाले पुद्गल थोड़े हैं और स्पर्श न किये जाने वाले पुद्गल अनन्तगुणा हैं। . तेइन्द्रियादि जीवों का वर्णन ... ४० तेइंदिय-चउरिदियाणं णाणत्तं टिईए जाव णेगाइं च णं भागसहस्साइं अणाघाइज्जमाणाई अणासाइज्जमाणाई अफासाइजमाणाई विद्धंस आगच्छंति । ४१ प्रश्न-एएसिं गं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाणं पुच्छा। ४१ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइजमाणा, अणासाइजमाणा अणंतगुणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा । For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय जीवों का वर्णन - तेइंदियाणं घाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियवेमायाए भुजो भुजो परिणमंति। चरिंदियाणं चरिखदियघाणिदिय-जिभिदियफासिंदियत्ताए भुजो भुजो परिणमंति । शब्दार्थ-तेइंदिय चरिदियाणं-तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों की, ठिइए-स्थिति में, णाणत्तं-भेद है । जाव-यावत्, अणेगाइं च णं भागसहस्साई-अनेक हजारों भाग, अणाघाइज्जमाणाइं—बिना सूंघे, अणासाइज्जमाणाइं—बिना चख, अफासाइज्जमाणाइंबिना स्पर्श ही, विद्धंसं आगच्छंति-नष्ट हो जाते हैं। मंते-हे भगवन् ! एएसि-इन, अणाघाइज्जमाणाणं-बिना सूंघे हुए, अणासाइज्जमाणाणं-बिना चखे हुए, अणाफासाइज्जमाणाणं-बिना स्पर्श किये हुए, पोग्गलाणं-पुद्गलों में कौन किससे थोड़ा, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? पुच्छा-ऐसा प्रश्न करना चाहिए। गोयना-हे गौतम ! अणाघाइज्जमाणा-बिना सूंघे हुए, पोग्गला-पुद्गल, सम्वत्योवा --सब से थोड़े हैं, अणासाइज्जमाणा-बिना चखे हुए पुद्गल, अणंतगुणा-उनसे अनन्तगुणा हैं, अफासाइज्जमाणा-बिना स्पर्श किये हुए पुद्गल, अणंतगुणा-अनन्तगुणा हैं, तेइंदियाण-तेइन्द्रिय जीवों द्वारा किया हुआ आहार उनके, घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियवेमायाए-घ्राणेन्द्रिय के रूप में, जिव्हेन्द्रिय के रूप में और स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में विमात्रा से, भज्जो मुज्जो-बारबार, परिणमंति-परिणत होता है । चरिदियाणं-चौइन्द्रिय जीवों द्वारा मान किया हुआ आहार उनके, चक्खिदिय-घाणिविय-जिब्मिदिय-फासिदियत्ताए-चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेंद्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय रूप में विमात्रा से, भुज्जो भुज्जो-बारम्बार परिणमंति-परिणत होते हैं। ___ भावार्थ-४० तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों की स्थिति में भेद है। शेष सब पहले की तरह है। यावत् अनेक हज़ारों भाग बिना सूंघे, बिना चखे और बिना स्पर्श ही नष्ट हो जाते हैं। ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! इन बिना सूंघे हुए, बिना चखे हुए और बिना स्पर्श किये हुए पुद्गलों में कौन किससे थोड़ा, बहुत, अल्प या विशेषाधिक है ? • ऐसा प्रश्न करना चाहिए। ४१ उत्तर-हे गौतम ! बिना सूंघे हुए पुद्गल सब से थोडे हैं, बिना For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. उ. १ तिर्यञ्च और मनुष्य का वर्णन चखे हुए पुद्गल उनसे अनन्तगुणा हैं और बिना स्पर्श किये हुए पुद्गल उनसे अनन्तगुणा हैं। तेइन्द्रिय जीवों द्वारा खाया हुआ आहार घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में विमात्रा से बारबार परिणत होता है । चौइन्द्रिय जीवों द्वारा खाया हुआ आहार च इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय रूप में विमात्रा से बारम्बार परिगत होता है। विवेचन-तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों का कथन बेइन्द्रिय जीवों की तरह ही कहना चाहिए । किन्तु स्थिति आदि में अन्तर है। वह इस प्रकार है-तेइन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ४९ रात दिन की है । चौइन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट छह मास की है । तेइन्द्रिय जीव जो आहार करते हैं: वह उनके घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय, इन तीन इन्द्रिय रूप में परिणत होता है और चौइन्द्रिय जीवों के चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय इन चार इन्द्रिय के रूप में परिणत होता है। शेष सारा वर्णन बेइन्द्रियों के समान समझना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य का वर्णन • ४२-पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं ठिई भणिऊणं उस्सासो वेमायाए । आहारो अणाभोगणिव्वत्तिओ अणुसमयं अविरहिओ। आभोगणिव्वत्तिओ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तरस, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स । सेसं जहा चउरिंदियाणं जाव णो अचलियं कम्मं णिज्जरेंति । ४३-एवं मणुस्साण वि, णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स, सोइंदिय ५ वेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति, सेसं जहा तहेव जाव णिजठेति । For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ तिर्यञ्च और मनुष्य का वर्ण शब्दार्थ - पंचिदियतिरिक्ख जोणियाणं- पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों की, ठिईस्थिति, मणिकर्ण - कह कर, उस्सासो – उनका उच्छ्वास, वेमायाए – विमात्रा से कहना चाहिए । अणाभोगणिव्वत्तिओ आहारो-उनका अनाभोगनिर्वर्तित आहार, अविरहिओ - विरह रहित, अणुसमयं - प्रति समय होता है । आभोगणिव्वत्तिओ - आभोग निर्वर्तित आहार, जहण्णेणं-जघन्य, अंतोमुहुत्तस्स - अन्तर्मुहूर्त्त और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, छट्ठभत्तस्सषष्ठ भक्त अर्थात् दो दिन बीतने पर होता है । सेसं जहा चउरदियाणं- शेष वर्णन चौइन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए। जाव - यावत्, अचलियं कम्मं - अचलित कर्म की, णो णिज्जरेंति - निर्जरा नहीं करते हैं । ८० एवं मणुस्साण वि - मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए, नवरं - किंतु इतनी विशेषता है कि, आभोगणिव्वत्तिए उनका आभोग निर्वर्तित आहार, जहणेणंजघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, अट्ठमभत्तस्स - अष्टम भक्त अर्थात् तीन दिन बीतने पर होता है । पञ्चेन्द्रिय जीवों द्वारा गृहीत आहार, सोइंदिय ५ वेमायत्ताए – श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय, इन पांचों इन्द्रिय रूप में विमात्रा से भुज्जो भुज्जो - बारम्बार, परिणमंति- परिणत होता है, सेसं जहा तहेव जाव णिज्जरेंतिशेष सब पहले के समान समझना चाहिए यावत् अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं । भावार्थ - ४२ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की स्थिति कहकर उनका उच्छ्वास विमात्रा - विविध प्रकार से कहना चाहिए। उनके अनाभोगनिवर्तित आहार निरन्तर प्रतिसमय होता है । आभोगनिर्वर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट षष्ठभक्त अर्थात् दो दिन बीत जाने पर होता है। शेष वर्णन चतुरिन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए यावत् वे अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं । ४३ - मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनका आभोग निर्वर्तत आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अष्टम भक्त ( तीन रात दिन ) बीतने पर होता है । पञ्चेन्द्रियों द्वारा गृहीत आहार श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र - श. १ उ. १ वाणत्र्यंतसदि का वर्णन रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय रूप में विमात्रा से परिणत होता है । शेष सब पहले की तरह समझना चाहिए। यावत् वे अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं । ८१ विवेचन - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च का आहार षष्ठ भक्त अर्थात् दो दिन बीत जाने पर बतलाया गया है। यह आहार देवकुरु और उत्तरकुरु के युगलिक तिर्यञ्चों की अपेक्षा समझना चाहिए और ऐसी ही स्थिति (आयु) वाले भरत ऐरवत के तिर्यञ्च युगलिकों के लिए भी समझना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों का आहार अष्टन भक्त अर्थात् तीन दिन बीत जाने के बाद कहा गया है यह देवकुरु उत्तरकुरु के युगलिक मनुष्यों की अपेक्षा तथा भरत ऐरवत क्षेत्र में जब अवसर्पिणी का प्रथम आरा प्रारम्भ होता है और उत्सर्पिणी का छठा आरा समाप्ति पर होता है उस समय के मनुष्यों की अपेक्षा समझना चाहिए । वाणव्यन्तरादि का वर्णन ४४ - वाणमंतराणं ठिईए णाणतं, अवसेसं जहा णागकुमाराणं । ४५ - एवं जोइसियाण वि, णवरं उस्सासो जहणणेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि मुहुत्तपुहुत्तस्स । आहारो जहणणेणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्को सेण वि दिवसपुहुत्तस्स, सेसं तव । ४६-वेमाणियाणं ठिई भाणियव्वा ओहिया, उस्सासो जहणणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, उक्को सेणं तेत्तीसाए पक्खाणं, आहारो आभोगणिव्वत्तिओ जहणेणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं, सेसं चलियाई तहेव जाव णिज्जरेंति । शब्दार्थ- वाणमंतराणं-वाणव्यन्तर देवों की, ठिईए- स्थिति में, णाणत्तं --भेद है । For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ वाणव्यन्तरादि का वर्णन अवसेसं - बाकी सारा वर्णन, जहा णागकुमाराणं - नागकुमारों की तरह समान समझना चाहिए । एवं - इसी तरह, जोइ सियाण वि-ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । वरं - इतनी विशेषता है कि, उस्सासो-उ - उनका उच्छ्वास, जहण्णेणं - जघन्य से, मुहुत्तपुहुत्तस्स - मुहूर्त पृथक्त्व और, उक्को सेणं - उत्कृष्ट भी, मुहुत्तपुहुत्तस्स - मुहूर्त्त पृथक्त्व के बाद होता है । आहारो-उनका आहार, जहण्णेणं - जघन्य से, दिवसपुहुत्तस्स - दिवसपृथक्त्व से और, उक्को - सेणं - उत्कृष्ट, दिवसपुहुत्तस्स - दिवसपृथक्त्व के बाद होता है । सेसं तहेब - शेष सारा वर्णन पहले के समान समझना चाहिए । वैमाणियाणं- वैमानिक देवों की, ओहिया - औधिक, ठिई-स्थिति, भाणियव्वाकहनी चाहिये । उस्सासो उनका उच्छ्वास, जहणेणं-जघन्य से, मुहुत्तपुहुत्तस्स - मुहूर्त पृथक्त्व से और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, तेत्तीसाए पक्खाणं- तेतीस पक्ष के बाद होता है । आभोगणिव्वत्तिओ आहारो-उनका आभोगनिर्वर्तित आहार, जहणणेणं-जघन्य से, दिवसपुहुत्तस्सदिवस पृथक्त्व और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, तेत्तीसाए वाससहस्साणं- तेत्तीस हजार वर्ष के बाद होता है । सेसं चलियाइयं तहेव जाव णिज्जरेंति - वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं । इत्यादि शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए । भावार्थ - ४४ - वाणव्यन्तर देवों की स्थिति में भेद है । बाकी सारा वर्णन नागकुमारों की तरह समझना चाहिए । ४५ - ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में भी इसी तरह जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनका उच्छ्वास जघन्य से मुहूर्त्त पृथक्त्व और उत्कृष्ट भी मुहूर्त्त पृथक्त्व के बाद होता है। उनका आहार जघन्य से दिवसपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी दिवस पृथक्त्व के बाद होता है । शेष सारा वर्णन पहले के समान समझना चाहिए। ४६ - वैमानिक देवों की औधिक स्थिति कह देनी चाहिए । उनका उच्छुवास जघन्य से मुहूर्त्त पृथक्त्व और उत्कृष्ट तेतीस पक्ष के पश्चात् होता है । उनका आभोग निर्वर्तित आहार जघन्य दिवस पृथक्त्व के बाद और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष के बाद होता है । वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं । इत्यादि शेष सब वर्णन पहले के समान समझना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन · ८३ विवेचन-वाणव्यन्तर देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है। ज्योतिषी देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है । दो से लेकर नौ तक की संख्या को 'पृथक्त्व' कहते हैं । 'पृथक्त्व' यह सैद्धांतिक पारिभाषिक शब्द है । अतः दो मुहूर्त से लेकर नौ मुहूर्त तक को 'मुहूर्त पृथक्त्व' कहते हैं । जघन्य 'मुहूर्तपृथक्त्व' में दो या तीन मुहूर्त समझना चाहिए और उत्कृष्ट में आठ या नौ मुहूर्त समझना चाहिए। यहां वैमानिक देवों की औधिक स्थिति कही है । औधिक का परिमाण एक पल्योपम से लेकर तेतीस सागरोपम तक है। इसमें जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोक की अपेक्षा और उत्कृष्ट अनुत्तर विमानों की अपेक्षा से कही गई है। .. श्वासोच्छ्वास और आहार का जघन्य परिमाण जघन्य स्थिति वालों की अपेक्षा और उत्कृष्ट परिमाण उत्कृष्ट स्थिति वालों की अपेक्षा से जानना चाहिए । यहाँ संग्रह गाथा कही गई है जो इस प्रकार है जस्स जाइं सागराइं तस्स ठिई तत्तिएहि पोहि । उस्सासो देवाणं, वाससहस्सेहिं आहारो॥. ___ अर्थ-जिन वैमानिक देवों की जितने सागरोपम की स्थिति हो, उनका श्वासोच्छ्वास उतने ही पक्ष में होता है और आहार उतने ही हजार वर्ष में होता है । ऐसा समझना चाहिए। आत्मारम्भ परारम्भ आदि का वर्णन ___४७ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं आयारंभा परारंभा तदुभयारंभा अणारंभा ? ४७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा । अत्थेगइया जीवा णो आयारंभा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा, अणारंभा। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन ४८ प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - ' अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि एवं पडिउच्चारेयव्वं ? ४८ उत्तर - गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता तंजहा - संसार समावण्णगाय, असंसार समावण्णगा य । तत्थ णं जे ते असंसार समावण्णगा ते णं सिद्धा । सिद्धा णं णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जे ते संसार समावण्णा ते दुविहा पण्णत्ता तंजहा - संजया य असंजया य । तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता तंजहा - पमत्तसंजया य अप्पमत्त संजया य । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा अणारंभा । असुहं जोगं पडुच्च आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा । तत्थ णं जे ते. असंजया ते अविरइं पडुच्च आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं gas 'अत्थेगइया जीवा जाव अणारंभा ।' शब्दार्थ - भंते - हे भगवान् ! किं-क्या, जीवा-जीव, आयारंभा - आत्मारम्भी हैं ? परारंभा - परारम्भी हैं, तदुभयारंभा - तदुभयारम्भी हैं या, अणारंभा - अनारम्भी हैं ? गोमा - हे गौतम! अत्थेगइया- कितनेक, जीवा-जीव, आयारंभा वि-आत्मारम्भी भी हैं, परारंभा वि-परारम्भी हैं और, तदुभयारंभा वि तदुभयारम्भी भी हैं किन्तु णो अणारंभा - अनारम्भी नहीं हैं, अत्येगइया-कितनेक, जीवा-जीव, णो आयारंभा - आत्मारम्भी For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन ८५ भी नहीं है, जो परारंभा-परारम्भी भी नहीं हैं, जो तदुभयारंभा-तदुभयारम्भी भी नहीं हैं - किन्तु, अणारंभा-अनारम्भी हैं। भंते-हे भगवन् ! केणठेणं-किस कारण से, एवं वुच्चइ-आप ऐसा फरमाते हैं कि अत्यंगइया-कितनेक, जीवा-जीव, आयारंभा वि-आत्मारम्भी भी हैं ? एवं पडिउच्चा रेयत्वं-इत्यादि पूर्वोक्त उत्तर फिर से उच्चारण करना चाहिए? गोयमा-हे गौतम ! जीवा-जीव, दुविहा-दो प्रकार के, पण्णत्ता-कहे गये हैं, तंजहा -वे इस प्रकार हैं, संसारसमावण्णगा-संसार-समापन्नक, य-और, असंसारसमावण्णगाअसंसार-समापन्नक, तत्थ-उनमें से, जे-जो, असंसारसमावण्णगा-असंसार समापन्नक हैं। ते-वे, सिद्धा-सिद्ध हैं, सिद्धा-सिद्ध भगवान्, णो आयारंभा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा -आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं, और तदुभयारम्भी नहीं हैं किन्तु, आयारंभा-अनारम्भी हैं, जे-जो. संसारसमावण्णगा-संसार-समापन्नक जीव हैं, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, पण्णता-कहे गये हैं, तंजहा-वे इस प्रकार हैं-संजया-संयत, य-और, असंजया-असंयत, तस्य-उनमें से, जे-जो, संजया-संयत हैं, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, पण्णत्ता-कहे गये हैं, तंजहा-वे इस प्रकार हैं-पमत्तसंजया-प्रमत्त संयत, य-और. अप्पमत्तसंजया-अप्रमत संयत, तत्य-उनमें से, जे-जो, अप्पमत्तसंजया-अप्रमत्त संयत हैं. ते-वे, णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा-आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं और तदुभयारम्भी नहीं हैं किन्तु, अणारंभा -अनारम्भी हैं । जे-जो, पमत्तसंजया -प्रमत्तसंयत हैं, ते-वे, सुहं जोगं-शुभ योग की, पडुच्च-अपेक्षा. णो आयारंभा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा-आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं और तदुभयारम्भी नहीं हैं. किंतु अणारंभा-अनारम्भी हैं । असुहं जोगंअशुभ योग की, पडुच्च-अपेक्षा, आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि-आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी हैं और तदुभयारम्भी भी है, किन्तु णो अणारंभा-अनारम्भी नहीं हैं। जे-जो, असंजया असंयत हैं, ते-वे, अविरइं पडुच्च-अविरति की अपेक्षा, आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि-आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं किन्तु, णो अणारंभा-अनारम्भी नहीं हैं । तेणठेणं-इस कारण, गोयमा-हे गौतम ! एवं वुच्चइ-ऐसा कहा जाता है, कि अत्यंगइया जीवा जाव अणारंभा-कितनेक जीव आत्मारम्भी भी है यावत् अनारम्भी भी हैं। भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं या अनारम्भी हैं ? For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ आत्मारंभी परारंभी आदि का वर्णन ४७ उत्तर - हे गौतम! कितनेक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं, तथा कितनेक जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं और तदुभयारम्भी भी नहीं हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । ४८ प्रश्न - हे भगवन् ! आप इस प्रकार किस कारण से कहते हैं कि - "कितनेक जीव आत्मारम्भी भी हैं' इत्यादि पूर्वोक्त उत्तर फिर से उच्चारण करना चाहिए । I ४८ उत्तर - हे गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं - संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं वे सिद्ध भगवान् हैं, वे आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं हैं किन्तु अनारम्भी हैं । जो संसारसमापन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा - संयत और असंयत । इनमें से जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । जो अप्रमत्त संयत हैं, वे आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग अपेक्षा आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं हैं, किंतु अनारम्भी हैं और अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं। और तदुभयारम्भी भी हैं, किंतु अनारम्भी नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा से आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किंतु अनारम्भी नहीं हैं । इसलिए हे गौतम! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कितनेक जीव आत्मारम्भी भी हैं, यावत् कितनेक जीव अनारम्भी भी हैं ।' विवेचन-- 'आरम्भ' शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है । किसी कार्य को शुरू करना भी 'आरम्भ' कहलाता है, किन्तु यहां पर यह अभिप्राय नहीं है । यहाँ 'आरम्भ' का अर्थ है - ऐसा सावद्य कार्य करना जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचता हो या उसके प्राणों का घात होता हो । आशय यह है कि आश्रवद्वार में प्रवृत्ति करना आरम्भ कहलाता है । आत्मारम्भ का अर्थ यह है- आत्मा को आश्रवद्वार में प्रवृत्त करना या आत्मा द्वारा स्वयं आरम्भ करना । जो ऐसा करता है वह आत्मारम्भी कहलाता है । दूसरे को आश्रव में प्रवृत्त करना या दूसरे के द्वारा आरम्भ कराना - परारम्भ है और ऐसा करने वाला परा For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन ८७ रम्भी कहलाता है । आत्मारम्भ और परारम्भ दोनों करने वाला-तदुभयारम्भी कहलाता है । जो जीव आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ से रहित होता है, वह अनारम्भी कहलाता है। . . 'आयारम्भा वि परारम्भा वि' यहां पर जो 'अपि' शब्द दिया है, वह पूर्वपद और उत्तरपद के संबंध को सूचित करता है। यह शब्द 'आत्मारम्भीपन' इत्यादि धर्मों का एकाश्रयपन को बतलाने के लिए अथवा भिन्नाश्रयपन को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है । एकाश्रयपन कालभेद से समझना चाहिए। यथा-एक ही जीव किसी समय आत्मारम्भी होता है, किसी समय परारम्भी होता है और किसी समय उभयारम्भी होता है । इसीलिए अनारम्भी नहीं होता। भिन्नाश्रयपन भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए कि कितनेक जीव अर्थात् असंयत जीव आत्मारम्भी, परारम्भी और उभयारम्भी भी होते हैं। कितनेक जीव अर्थात् सिद्ध आदि जीव न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, न तदुभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । - पहले जीव के दो भेद किये गये हैं—संसार-समापन्नक अर्थात् संसारी और असंसारसमापन्नक अर्थात् असंसारी-सिद्ध । सिद्ध जीव अनारम्भी हैं। - संसारी के दो भेद हैं-संयत और असंयत । जो जीव सब प्रकार की बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि से और विषय कषाय से निवृत्त हो गये हैं, वे संयत कहलाते हैं । जो विषय कषाय से निवृत्त नहीं हुए हैं और आरम्भ में प्रवृत्त हैं, वे असंयत कहलाते हैं । .. संयत भी दो प्रकार के हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । अप्रमत्तसंयत न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न तदुभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । प्रमत्तसंयत के भी दो भेद हैं-शुभ योग वाले और अशुभ योग वाले । उपयोगपूर्वक-सावधानतापूर्वक योग की प्रवृत्ति को शुभयोग कहते हैं । उपयोगपूर्वक पडिलेहणा (प्रतिलेखना)आदि करता हुआ संयत अनारम्भी होता है। उपयोग के बिना प्रतिलेखनादि करना अशुभ योग है। जैसा कि कहा पुढवी-आउक्काए-तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥ अर्थात्-प्रतिलेखनाप्रमत्त अर्थात् उपयोग रहित होकर प्रतिलेखना करने वाला पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छह कायों का विराधक होता है। For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन ___ सारांश यह है कि शुभयोग वाला प्रमत्त संयत-अनारम्भी है और अशुभयोग वाला आत्मारम्भी आदि है, अनारम्भी नहीं है। जैसे कि ईर्यासमिति में ध्यान रख कर गमन करते हुए मुनि द्वारा किसी जीव की विराधना हो जाने पर भी (द्रव्य हिंसा हो जाने पर भी) वह अनारम्भी है । __४९ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा ? | ___ ४९ उत्तर-गोयमा ! णेरइया आयारंभा वि, जाव णो अणारंभा। ____५० प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? ५० उत्तर-गोयमा ! अविरइं पडुच्च, से तेणटेणं, जाव णो अणारंभा, एवं जाव असुरकुमारा वि । जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया । ५१-मणुस्सा जहा जीवा, णवरं सिद्ध विरहिया भाणियव्वा । ५२-चाणमंतरा जाव वेमाणिया, जहा गेरइया । ५३-सलेस्सा जहा ओहिया । कण्हलेसस्स णीललेसस्स काउलेसस्स जहा ओहिया जीवा, णवरं पमत्त-अप्पमत्ता ण भाणियव्वा । तेउलेसस्स, पम्हलेसस्स, सुकलेसस्स जहा ओहिया जीवा, णवरं सिद्धा ण भाणियव्वा । शब्दार्थ-भंते-हे भगवन् ! णेरइया-नरयिक जीव, कि-क्या, आयारंभा-आत्मारम्भी हैं, परारंभा-परारम्भी हैं, तदुभयारंभा-तदुभयारम्भी हैं या, अणारंभा-अनारम्भी है ? गोयमा-हे गौतम ! जेरइया-नरयिक जीव, आयारंभा वि जाव णो अणारंभाआत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन ८९ से ट्ठे - हे भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गोयमा - हे गौतम ! अविरइं पडुन्च - अविरति की अपेक्षा, से तेणट्ठेणं - अविरति के कारण नैरयिक आत्मारम्भी आदि हैं, जाव णो अणारम्भा - किन्तु अनारम्भी नहीं हैं, एवं -- इस प्रकार, असुरकुमारा वि -- असुरकुमारों का जान लेना चाहिए, जाव पाँचदिय तिरिक्ख जोणिया - यावत् तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तक जान लेना चाहिए । मणुस्सा जहा जीवा - मनुष्य पूर्वोक्त सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिए, वरं - किन्तु विशेषता यह है कि, सिद्ध विरहिया भाणियव्वा -- इन जीवों में सिद्धों का नहीं कहना चाहिए वाणमंतरा जाव वेमाणिया -- वाणव्यन्तरों से लगा कर वैमानिक देवों तक, जहा णेरइया - नैरयिकों की तरह कहना चाहिए । सलेस्सा - लेश्या वाले जीव, जहा ओहिया - सामान्य जीवों की तरह कहना, चाहिए | कण्हलेसस्स, णीललेसस्स, काउलेसस्स - कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले, जहां ओहिया जीवा - सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए, नवरंकिन्तु इतना अन्तर है कि, पमत्ता अप्पमत्ता ण भाणियव्वा – यहाँ पर प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहना चाहिए, तेउलेसस्स पम्हलेसस्स सुक्कलेसस्स - तेजोलेश्या वाले, पद्यश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले जीव, जहा ओहिया जीवा - औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए, वरं - किन्तु इतनी विशेषता है कि, सिद्धा ण भाणियव्वा - सिद्ध जीव नहीं कहना चाहिए । भावार्थ-४ - ४९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं या अनारम्भी हैं ? ४९ उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं । · ५० प्रश्न - हे भगवन् ! आप इस प्रकार किस कारण से कहते हैं। ५० उत्तर - हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा ऐसा कहा जाता है कि नरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं । इस प्रकार असुरकुमार का भी जान लेना चाहिए। यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तक जान लेना चाहिए । ५१ - मनुष्य पूर्वोक्त सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिए, किन्तु विशे For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ९० भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभी परारंभी आदि का वर्णन षता यह है कि इन जीवों में सिद्धों को नहीं कहना चाहिए। ५२-वाणव्यन्तरों से लगा कर वैमानिक देवों तक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। ५३-लेश्या वाले जीव सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए । कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि यहाँ पर प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन लेश्या वाले सब प्रमत्त ही होते हैं। तेजो लेश्या वाले, पद्म लेश्या वाले और शुक्ल लेश्या वाले जीव सामान्य जीवों की तरह कह देना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि सिद्ध जीव नहीं कहना चाहिए। विवेचन-नरक के जीव अव्रती हैं, इसलिए वे अनारम्भी नहीं हैं । इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक सभी अनारम्भी नहीं हैं, क्योंकि वे सभी अव्रती हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय और चौइंद्रिय जीवों के लिए भी यही बात है, वे आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। ... ___तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों में कोई-कोई श्रावक तो हो सकते हैं, किन्तु वे सर्व-विरति चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकते, इसलिए वे भी अनारम्भी नहीं हैं। मनुष्य संयत और असंयत के भेद से दो प्रकार के हैं । संयत के भी प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो भेद हैं। जीव के विषय में पहले समुच्चय रूप से जो कहा गया है वही यहाँ भी समझना चाहिए। . वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में नरक जीवों के समान ही समझना चाहिए, क्योंकि अव्रत को अपेक्षा नारकी और देव समान ही हैं। - . लेश्या वाले जीवों के विषय में प्रश्न किया गया है। लेश्या का स्वरूप इस प्रकार है कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ - अर्थात्-कृष्ण आदि द्रव्यों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उसे लेश्या कहते हैं। जैसे स्फटिक के नीचे काले रंग की वस्तु रखने से स्फटिक काला दिखाई देता है वैसे ही लेश्या से आत्मा हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभी परारंभी आदि का वर्णन ९१ लेश्या वाले जीवों के निरूपण में संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक ऐसे दो भेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि लेश्या वाले जीव संसार समापन्नक ही होते हैं, असंसार समापन्नक नहीं । कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में औधिक (सामान्य जीव) के समान समझना चाहिए। किन्तु इनमें प्रमादी, अप्रमादी के भेद नहीं है, क्योंकि इन लेश्या वाले अप्रमत्त संयत नहीं होते हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्या के प्रश्नोत्तर वैसे ही समझना चाहिए जैसे समुच्चय जीव के विषय में है । इन लेश्याओं में संयत, असंयत, प्रसादी और अप्रमादी के भेद भी हैं। प्रमादी में भी तेजोलेश्या, पद्यलेश्या और शुक्ल लेश्या होती है * उसमें शुभयोग और अशुभ योग भी होता है । यदि वह उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है, तो अनारम्भी है और यदि ऐसा नहीं करता है, तो अनारम्भी नहीं है। तेजोलेश्या आदि में समुच्चय जीव की अपेक्षा इतनी विशेषता है कि इनमें असंसारसमापन्नक (सिद्ध) नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध अलेश्य हैं। * टीकाकार कृष्णादि तीन भाव लेश्याओं में संयम नहीं मानते हैं, किन्तु यह बात संगत नहीं होती है, क्योंकि जीव को चारित्र आते ही सातवां गुणस्थान ही आता है। फिर जीव सातवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान में आ सकते हैं । किन्तु नीचे के गुणस्थानों में नहीं। मातवें गणस्थान में तो तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याए ही होती हैं और छठे गुणस्थान में छहों ही हैं । यदि उनमें भाव कृष्णादि लेश्याएं मानी जाय तब तो उनमें द्रव्य कृष्णादि लेश्याएं मानी जा सकती है। और यदि भाव कृष्णादि तीन तीन लेश्याएं न मानी जाय तो द्रव्य तीन लेश्याएं केसे आवेगी? क्योंकि उन भाव लेश्याओं के बिना वे द्रव्य लेश्याएं प्राप्त नहीं हो सकती । हाँ, यह हो सकता है कि भाव लेश्या हट जाने के बाद भी द्रव्य लेश्या कुछ समय तक रह सकती है, किन्तु भाव लेश्या के बिना द्रव्य लेश्या नहीं आ सकती। भाव लेश्या तो उन उन द्रव्य लेश्याओं के बिना भी आ सकती है। चारित्र (छठे गणस्थान) में छह लेश्याएं शास्त्र में बताई है। जबकि जीव सातवें गुणस्थान से ही छठे में आते हैं और सातवें में तीन ही लेश्याएं हैं, तो फिर छठे में तीन तो भाव लेश्या और कृष्णादि तीन द्रव्य लेश्या, ये छह मानें तो तीन भाव लेश्याओं का मानना तो ठीक हो जायगा, क्योंकि वे तो सातवें में थी ही, किन्तु कृष्णादि तीन द्रव्य लेश्या कहाँ से आई ? क्योंकि भाव लेश्या के बिना द्रव्य लेश्या आ नहीं सकती, यह ऊपर बताया जा चुका है। अतः कृष्णादि तीम भाव लेश्याओं के मानने पर ही कृष्णादि तीन द्रव्य लेश्याओं का मानना युक्ति संगत हो सकेगा । कृष्णादि अशुभ लेश्याओं के भी असंख्य दर्जे हैं। उनमें से नीचे के ज्यादा खराब अशुभ दर्जी को छोड़कर ऊपर के कम अशुभ दर्जे वाले परिणाम थोड़ी देर के लिये किसी किसी के हो जाते हैं । हाँ, यह बात अवश्य है कि कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं में चारित्र की प्राप्ति नही होती, परन्तु चारित्र प्राप्त हो जाने के For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ ज्ञानादि संबंधी प्रश्नोत्तर । ज्ञानादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तर .५४ प्रश्न-इहभविए भंते ! णाणे, परभविए णाणे, तदुभयभविए णाणे? ५४ उत्तर-गोयमा ! इहभविए वि णाणे, परभविए वि णाणे, तदुभयभविए वि णाणे । दंसणं पि एवमेव । ५५ प्रश्न-इहभविए भंते ! चरित्ते, परभविए चरित्ते, तदुभयभविए चरिते ? . ५५ उत्तर-गोयमा ! इहभविए चरित्ते, णो परभविए चरिते, । णे तदुभयभविए चरित्ते । एवं तवे, संजमे । __शब्दार्थ-मंते-हे भगवन् ! क्या, णाणे-ज्ञान, इहमविए-इहभविक है, परभविएपरभविक है ? या, तदुभयभविए-तदुभयभविक है ? ___गोयमा-हे गौतम ! गाणे-ज्ञान, इहभविए वि-इहभविक भी है, परमविए विपरभविक भी है और, तदुभयमविए वि-तदुभयभविक भी है, एवमेव-इसी तरह, दंसणं पि -दर्शन भी जान लेना चाहिए। पश्चात् ये कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं आ सकती है। जैसा कि भद्रबाहुस्वामी विरचित आवश्यक नियुक्ति की उपोद्घात नियुक्ति में कहा है "पुव्वपडिवण्णओ पुण अण्णयरीए उ लेस्साए" अर्थ-चारित्र प्राप्ति के पश्चात् साधु में कोई भी लेश्या हो सकती है। जैसे कि-मनःपर्ययज्ञान अप्रमत्त संयत को ही प्राप्त होता है, किन्तु मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् वह प्रमत्तसंयत में भी रह सकता है । भगवती श. ८ उ. २ तथा पनवणा पद १७ उ. ३ में कृष्णादि पांच लेश्याओं में चार मान तक बतलाये हैं । अतः इससे भी यह स्पष्ट होता है कि जब कृष्णादि अशुभ लेश्या में मनःपर्ययज्ञान है, तो वह भाव लेश्या ही हो सकती है, क्योंकि द्रव्य लेश्या तो पुद्गल है। अतः चारित्र प्राप्ति के बाद इन संपत जीवों में कृष्णादि लेश्या भी कभी हो सकती है। For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. उ. १ ज्ञानादि संबंधी प्रश्नोत्तर . ९३ भंते-हे भगवन् ! क्या, चरिते-चारित्र, इहमविए-इहभविक है, परमविए --- . परभविक है या, तदुभयभविए-तदुभयभविक है ? __गोयमा-हे गौतम ! चरिते-चारित्र, इहमविए-इहभविक है, जो परमविएपरभविक नहीं है और, णो तदुभयभविए-तदुभयभविक भी नहीं है, एवं-इसी प्रकार, तवे-तप और, संजमे-संयम भी जान लेना चाहिए। भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या ज्ञान इहमविक है, परभविक है या तदुभयभविक है ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञान इहभाविक भी है, परभविक है और तदुभयभविक भी है। इसी तरह दर्शन भी जान लेना चाहिए। - ५५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या चारित्र इहमविक है, परमविक है या तदुभयभविक है ?... ५५ उत्तर-हे गौतम ! चारित्र इहभविक है, किन्तु परभविक और तदुभयभविक नहीं है। इसी प्रकार तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए। - विवेचन-जो इस वर्तमान चालू भव में ही हो उसे 'इहभविक' कहते हैं । जो वर्तमान चालू भव के बाद होने वाले दूसरे भव में साथ रहे उसे 'पारभविक' कहते हैं। जो इस भव में रहे और परभव में तथा परतर भव में अर्थात् तीसरे चौथे भव में भी माथ रहे उसे 'तदुभयभविक' कहते हैं। ज्ञान और दर्शन (सम्यक्त्व) ये दोनों इहभविक भी हैं, पारभविक भी हैं और तदुभयभविक भी हैं । - चारित्र इहभविक ही है किन्तु पारभविक और तदुभयभविक नहीं है, क्योंकि इस भव में ग्रहण किया हुआ चारित्र यावज्जीवन ही रहता है । देशविरति चारित्र और सर्व विरति चारित्र वाले जीवों की उत्पत्ति देवलोक में ही होती है और देवलोक में विरति का सर्वथा अभाव है । अतएव चारित्र का सर्वथा अभाव है । सर्वविरति चारित्र का पालनकर, सर्वथा कर्मों का क्षय कर जो जीव मोक्ष में जाते हैं, तो मोक्ष में भी चारित्र नहीं होता है। कर्मों का क्षय करने के लिए चारित्र अंगीकार किया जाता है । मोक्ष में कर्म नहीं हैं, कर्मों का सर्वथा क्षय होने से ही मोक्ष होता है । इसलिए मोक्ष में चारित्र का कुछ मी प्रयोजन नहीं है । चारित्र धारण करते समय जीवन पर्यन्त की प्रतिज्ञा ली जाती है, वह इस जीवन के समाप्त होने पर पूर्ण हो जाती है और मोक्ष में नया चारित्र ग्रहण नहीं For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंवृत अनगार . . किया जाता है । इस प्रकार मोक्ष में भी चारित्र नहीं है । इसलिए कहा गया है 'सिद्ध णो चरित्ती, गो अचरित्ती, गो चरित्ताचरित्ती' ___अर्थ-सिद्ध जीव न चारित्री हैं, न अचारित्री हैं और न चारित्राचारित्री हैं। मोक्ष में अनुष्ठान रूप चारित्र का अभाव . होने से वे चारित्री नहीं हैं और अविरति का अभाव होने से अचारित्री तथा चारित्राचारित्री भी नहीं हैं। . जिस सम्यक् चारित्र का वर्णन यहाँ चल रहा है, उसके दो भेद है- तप और संयम । जिस प्रकार चारित्र का कथन किया गया है, वैसा ही तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए। असंवृत अनगार ५६ प्रश्न-असंवुडे णं भंते ! अणगारे किं सिज्झइ बुज्झइ. मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? ५६ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे। . ५७ प्रश्न-से केणटेणं जाव णो अंतं करेइ ? ५७ उत्तर-गोयमा ! असंवुडे अणगारे आउयवजाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ हस्सकालठिड्याओ दीहकालठिड्याओ पकरेइ । मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसगाओबहुप्पएसगाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय णो बंधइ, अस्सायावेयणिजं च णं कम्मं भुजो भुजो उवचिणइ, अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमळू चाउरंतसंसारकतार अणुपरियट्टइ, से तेणटेणं गोयमा ! असंवुडे अणगारे णो सिन्झइ जाव णो अंतं करेइ । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंवृत अनगार ९५ शब्दार्थ-भंते-हे भगवन् ! असंवुडे--असंवृत, अणगारे--अनगार, किं--क्या, सिन्झइ -सिद्ध होता है ? बुज्मइ -बुद्ध होता है ? मुच्चइ-मुक्त होता है ? परिणिव्वाइ--निर्वाण प्राप्त करता है ? सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ-सब दुःखों का अन्त करता है ? गोयमा-हे गौतम ! णो इणद्वै समठे-यह अर्थ समर्थ नहीं है । से केणणं-हे भगवन् ! किस कारण से, जाव-यावत्, गो अंतं करेइ-सब दुःखों का अन्त नहीं करता है ? ___ गोयमा-हे गौतम ! असंवडे अणगारे-असंवृत अनगार, आउयवज्जाओ-आयु कर्म को छोड़कर, सिढिलबंधणबद्धाओ-शिथिल बन्धन से बांधी हुई, सत्तकम्मपगडीओ-सात कर्म प्रकृतिओं को, धणियबंधणबद्धाओ-गाढ रूप से बान्धता, पकरेइ-प्रारम्भ करता है, हस्सकालठिइयाओ-अल्पकालीन स्थिति वाली प्रकृतियों को, दोहकालठिइयाओ-दीर्घकालीन स्थिति वाली, पकरेइ-करता है । मंदाणुभावाओ-मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को, तिव्वाणुभावाओ-तीव्र अनुभांग वाली, पकरेइ-करता है, अप्पपएसगाओ-अल्प प्रदेश वाली प्रकृतियों को, बहुप्पएसगाओ-बहुत प्रदेश वाली, पकरेइ-करता है, च-और, आउयं कम्म आयु कर्म को, सिय बंधइ सिय णो बंधइ-कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है । अस्सायावेयणिज्ज कम्म-असातावेदनीय कर्म को, भुज्जो भुज्जो-बारम्बार, उवचिणइउपार्जन करता है, अणाइयं-अनादि, अणवयग्गं-अनवदन-अनन्त, दोहमद्धं-दीर्घ मार्ग वाले, चाउरंतसंसारकंतार-चतुर्गति वाले संसार रूपी अरण्य में, अणुपरियट्टइ-बारबार पर्यटन करता है, से तेणद्रेणं-इस कारण से, गोयमा-हे गौतम ! असंवुडे अणगारे-असंवृत अनगार, णो सिज्मइ-सिद्ध नहीं होता है, जाव-यावत्, णो अंतं करेइ-सब दुःखों का अन्त नहीं करता हैं। - भावार्थ-५६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असंवृत अनगार सिद्ध होता है ? बुद्ध होता है ? मुक्त होता है ? निर्वाण प्राप्त करता है ? सब दुःखों का अन्त करता है ? ... ५६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ५७ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से यावत् वह सब दुःखों का अन्त नहीं करता हैं ? ५७ उत्तर-हे गौतम ! असंवृत अनगार आयु कर्म को छोड़ कर शिथिल For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंवृत अनगार बन्धन से बांधी हुई सात कर्म प्रकृतियों को गाढ़ रूप से बाँधना प्रारम्भ करता है, अल्पकाल की स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घ काल की स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को तीव अनुभाग वाली करता है, अल्प प्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है। आयुकर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं भी बांधता है । असातावेदनीय कर्म को बारम्बार उपार्जन करता है तथा अनादि अनन्त, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गति रूप संसार रूपी अरण्य में बारबार पर्यटन करता है। इस कारण हे गौतम ! असंवृत अनगार सिद्ध नहीं होता यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता। विवेचन-जिसने आश्रव द्वारों को नहीं रोका है ऐसे अनगार-साधु को असंवृत अन। गार कहते हैं । उसके मुक्ति पाने के विषय में यहाँ प्रश्न किया गया है । प्रश्न में 'सिज्झई' आदि पद दिये गये हैं जिनका अर्थ इस प्रकार है 'सिज्झइ'-सिद्ध होता है अर्थात् चरम भव-अन्तिम जन्म प्राप्त करके मोक्ष के योग्य होता है। 'बुज्झइ' बुद्ध होता है अर्थात् केवलज्ञानी होता है । तात्पर्य यह है कि चरमशरीरी जीव को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कह सकते है किन्तु वह 'बुद्ध' तभी कहा जायगा जब वह 'केवलज्ञानी हो जायगा । अतः 'बुज्झइ' का अर्थ है-केवलज्ञानी होना। 'मुच्चई' कर्मों से मुक्त होता है अर्थात् जिस जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो चुका हैं, अतएव जो बुद्ध होगया है, उसके केवल भवोपनाही कर्म (आयुष्य, नाम, गोत्र और वेदनीय) शेष रहते है, जब वह भवोपनाही कर्मों को प्रतिक्षण छोड़ता है तब वह 'मुक्त' कहलाता है। 'परिणिब्वाइ' निर्वाण प्राप्त करता है अर्थात् भवोपनाही कर्मों को प्रतिक्षण छोड़ने वाला वह महापुरुष, कर्म पुद्गलों को ज्यों ज्यों क्षीण करता जाता है त्यों त्यों शीतल होता जाता है । इस प्रकार की शीतलता प्राप्त करना ही निर्वाण प्राप्त करना कहलाता है। 'सव्वदुक्खाणमंतं करेइ' सब दुःखों का अन्त करता है। चरम भव के अन्त समय में समस्त कर्मों का क्षय करने वाला जीव ही सब दुःखों का अन्त करता है। ___ गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि असंवृत अनगार मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि असंवृत अनगार आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के ढीले बन्धन को मजबूत कर लेता है, निधत्त कर लेता For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंवृत अनगार ९७ . है और निधत्त को निकाचित के रूप में परिणत कर लेता है। थोड़ी स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को दीर्घकाल की स्थिति वाली बना लेता है । क्योंकि असंवृतपन कषाय रूप भी है और कषाय स्थिति-बन्ध का कारण है। ___ असंवृत अनगार मन्द रस वाली कर्म प्रकृतियों को तीव्र रस वाली बनाना आरम्भ करता है अर्थात् मन्द रस वाले कर्मों को तीव्र रस वाले बनाता है । जैसे नीम के पत्तों का रस मन्द होता है यदि उसे औटाया जाय तो वह गाढा हो जाता है वह जितना गाढा होगा उतना ही अधिक कटुक होगा। इसी प्रकार असंवृत अनगार मन्द रस वाले कर्मों को गाढे रस वाले करता है जिससे कि उन कर्मों में तीव्र फल देने की शक्ति आ जाती है। रसबन्ध भी कषाय से होता है और असंवृत अनगार में कषाय की तीव्रता होती है । . कर्म बन्ध के चार प्रकार हैं-प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध, प्रदेश-बन्ध और अनुभागबन्ध । इनमें प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध योग से होते हैं और स्थिति-बन्ध तथा अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं । असंवृत अनगार के योग अशुभ होते हैं और कषाय तीव्र होते हैं। इसलिए वह चारों ही बन्धों में वृद्धि करता है। यहां आयुकर्म को पृथक् कर दिया गया है, क्योंकि वह बारबार नहीं बंधता है, किन्तु एक भव में एक ही बार बँधता है और वह भी आयु के त्रिभागादि अवशेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त में ही बँध जाता है। . असंवत अनगार असातावेदनीय कर्म का बार बार उपचय करता हैं । असंवत अनगार अत्यन्त दुःखी होता है, यह बात बतलाने के लिए असाता वेदनीय कर्म का पृथक् उल्लेख किया गया है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि असाता से बचने के लिए असंवृतपन का त्याग करना चाहिए। . असंवृत अनगार जिस संसार में परिभ्रमण करता है उसके लिए भगवान् ने अणाइयं अणवयग्गं' आदि विशेषण लगाये हैं । उनका अर्थ यह है-'अणाइयं' अनादि अर्थात् जिसका आदि-प्रारम्भ न हो। अथवा 'अणाइयं' अज्ञातिक अर्थात् जिसका कोई स्वजन नहीं रहता, ऐसे पाप कर्म बांधता है । अथवा 'अणाइयं' यानी, 'ऋणातीत' अर्थात् ऋण से होने वाले दुःख की अपेक्षा भी अधिक दुःखदायी । अथवा 'अणाइयं' यानी अणातीत अर्थात् अतिशय पाप । सारांश यह है कि संसार में पाप तो अनेक हैं किन्तु साधु होकर आस्रव का सेवन करना बहुत बड़ा पाप है। इसलिए असंवृत्त अनगार अतिशय पाप रूप संसार में परिभ्रमण करता है। For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ संवृत अनगार . संसार का दूसरा विशेषण है-'अणवयग्गं' यानी अनन्त अर्थात् जिसका परिमाण ज्ञात न हो, जिसके अन्त का पता न चले, उसे अनन्त कहते हैं । तीसरा विशेषण है-'दीहमद्धं'। अध्व का अर्थ है-मार्ग और 'दीह' का अर्थ है दीर्घ (लम्बा) । जिसका मार्ग लम्बा हो, वह 'दीहमद्धं' कहलाता है अथवा दीर्घकाल वाले को भी 'दीहमद्धं' कहते हैं। चौथा विशेषण है—'चाउरंत' । चाउरंत का अर्थ है-चार विभाग वाला । नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देव गति । इस प्रकार जिसमें चार विभाग हैं, वह चाउरंत - चातुरन्त कहलाता है । . . तात्पर्य यह है कि असंवृत अनगार ऐसे संसार रूपी वन में भ्रमण करता है जिसमें दुःख ही दुःख है, जिसकी समाप्ति का पता नहीं, जिसके अन्त का कोई परिमाण नहीं जिसका मार्ग लम्बा है और जिसके चारगति रूप चार विभाग हैं । अतः असंवृतपन त्याज्य है। संवृत अनगार ___५८ प्रश्न-संवुडे णं भंते ! अणगारे सिन्झइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? ... ५८ उत्तर-हंता, सिज्झइ जाव अंतं करेइ । ५९ प्रश्न-से केणटेणं भंते ? ५९ उत्तर-गोयमा ! संवुडे अणगारे आउयवजाओ सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिडिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठियाओ हस्सकालट्ठियाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावओ पकरेइ, बहुप्पएसगाओ अप्पपएसगाओ पकरेइ, आउयं For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ संवृत अनगार च णं कम्मं ण बंधइ, असायावेयणिजं च णं कम्मं णो भुजो भुजो उवचिणाइ, अणादीयं च णं अणवदग्गं दीहमळू चाउरंतसंसारकंतारं वीईवयइ । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-संवुडे अणगारे सिज्झइ जाव अंतं करेइ। शब्दार्थ--भते--हे भगवन् ! क्या, संवुडे अणगारे--संवृत अनगार, सिज्मइ-- . सिद्ध होता है ? जाव--यावत्, सव्वदुक्खाणं--सब दुःखों का, अंतं करेइ--अन्त करता है ? हंता-हाँ, गौतम ! सिज्मइ--सिद्ध होता है, जाव-यावत्, अंतं करेइ--सब दुःखों का अन्त करता है। भंते-हे भगवन् ! से केणठेणं--ऐसा आप किस कारण से फरमाते हैं ? गोयमा-हे गौतम ! संवुडे--संवृत, अणगारे--अनगार, आउयवज्जाओ--आयुकर्म को छोड़कर, सत्तकम्मप्पगडीओ--शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को, धणियबंधणबदाओ--जो गाढबन्धन से बँधी हुई हो उन्हे, सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ-शिथिल बन्धन वाली कर देता हैं, दोहकालढिइयाओ--लम्बे काल को स्थिति वाली को, हस्सकालद्विइयाओ-थोड़े काल की स्थिति वाली, पकरेइ--कर देता है, तिव्वाणुभावाओ--तीव्र रस वाली को, मंदाणुभावाओ पकरेइ-मंद रस वाली कर देता है, बहुप्पएसगाओ-बहुत प्रदेश वाली प्रकृतियों को, अप्पपएसगाओ-अल्प प्रदेश वाली, पकरेइ - कर देता है, च - और, आउयं कम्म-आयु कर्म को, ण बंधइ-नहीं बाँधता है, असायावेयणिज्ज कम्मअसाता वेदनीय कर्म को, भुज्जो मुज्जो बारम्बार, जो उवचिणाइ-उपचय नहीं करता है इसलिए, अणादीयं-अनादि, अणवदग्गं-अनंत, दोहमखं-दीर्घ मार्ग वाले, चाउरंतसंसारकतार-चार गति रूप संसार अटवी को, वीईवयइ-उल्लंघ जाता है, से तेणठेणंइस कारण से, गोयमा-हे गौतम ! एवं वुच्चइ-ऐसा कहा जाता है कि, संवुडे अणगारेसंवृत अनगार, सिज्मइ-सिद्ध होजाता है, जाव-यावत, अंतकरेइ - सब दुःखों का अन्त कर देता है। ___ भावार्थ-५८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या संवृत अनगार सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? ५८ उत्तर-हाँ, गौतम ! सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त कर For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भगवती सूत्र-श. १ उ. १ संवृत अनगार देता है। ५९ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? ५९ उत्तर-हे गौतम ! संवत अनगार आयुकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को जो गाढ़ बन्धन से बंधी हुई हों उन्हें शिथिल बन्ध वाली करता है, दीर्घकालीन स्थिति वाली प्रकृतियों को अल्पकालीन स्थिति वाली बनाता है, तीव्र फल देने वाली प्रकृतियों को मन्द फल देने वाली बनाता है, बहुत प्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्प प्रदेश वाली बनाता है। आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करता है तथा असाता वेदनीय कर्म का बारबार उपचय नहीं करता है। इसलिए अनादि अनन्त, लम्बे मार्ग वाले, चातुरन्तक-चार प्रकार की गति वाले संसार रूपी वन का उल्लंघन कर जाता है। इसलिए हे गौतम ! संवृत अनगार सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है। विवेचन-आश्रव द्वार का निरोध करके संवर की साधना करने वाले मुनि को संवृत अनगार कहते हैं । संवृत अनगार छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक होते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त और सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक अप्रमत्त होते हैं। संवृत अनगार चरमशरीरी और अचरमशरीरी के भेद से दो प्रकार के होते हैं । जो दूसरा शरीर धारण नहीं करेंगे वे चरमशरीरी कहलाते हैं । जिन्हें दूसरा शरीर धारण करना पड़ेगा उन्हें अचरमशरीरी कहते हैं । गौतम स्वामी और भगवान् के ये प्रश्नोत्तर चरमशरीरी की अपेक्षा से हैं । अचरमशरीरी के विषय में नहीं है अथवा इस सूत्र का दो तरह से अर्थ करना चाहिए-एक साक्षात्-इसी भव में मुक्त होने वाले और दूसरा परम्परा-अगले किसी भव में सिद्धि प्राप्त करने वाले । चरमशरीरी इसी भव से मोक्ष जावेंगे, अतएव यह सूत्र उन पर साक्षात् रूप से लागू होता है । अचरमशरीरी सात आठ भव में मोक्ष जायेंगे, इसलिए उनके लिए परम्परा से लागू होता हैं। - इस समाधान से एक नया प्रश्न उपस्थित होता हैं, वह यह है कि परम्परा से तो असंवृत अनगार भी मोक्ष प्राप्त करेंगे, क्योंकि शुक्ल-पाक्षिक का मोक्ष अवश्यम्भावी है। फिर संवृत और असंवृत अनगार का भेद करने से क्या लाभ है। .. - इसका समाधान यह है कि संवृत अनगार चाहे इस भव से मोक्ष न जावें, तथापि परम्परा से मोक्ष जायेंगे ही और परम्परा की सीमा सिर्फ सात-आठ भव' ही है । सात For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंयत जीव की गति १०१ आठ भवों के अन्दर ही उन्हें मुक्ति प्राप्त हो जायगी । कहा भी है " जहणियं चरित्ताराहणं आराहित्ता सत्तट्ठभवग्गहणेहि सिज्झइ"। अर्थात्-जघन्य चारित्र की आराधना करने वाला भी सात आठ भव' ग्रहण करके सिद्ध हो जाता है । इस प्रमाण से यह स्पष्ट है कि संवृत अनगार सात-आठ भव में सिद्धि प्राप्त कर लेता है, किन्तु असंवृत अनगार के लिए यह नियम लागू नहीं होता । असंवृत अनगार की परम्परा तो अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन (अर्द्ध पुद्गल परावर्तन से कुछ कम) भी हो सकती है । अतएव संवृत अनगार और असंवृत अनगार का भेद स्पष्ट है। ___इस प्रकार यह सूत्र साक्षात् रूप से चरमशरीरी संवृत अनगार के लिए लागू होता है और परम्परा से अचरमशरीरी संवृत अनगार के लिए लागू होता है। असंवृत अनग्गर विराधक होता है, किन्तु संवृत अनगार आराधक होता है । यह भी दोनों में अन्तर है। असंयत जीव को गति ६० प्रश्न-जीवे गंभंते ! असंजए अविरइए अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया ? ६० उत्तर-गोयमा ! अत्गइए देवे सिया, अत्थेगइए णो देवे सिया। ६१ प्रश्न-से केणटेणं जाव इओ चुए पेचा अत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए णो देवे सिया ? . ६१ उत्तर-गोयमा ! जे इमे जीवा गामा-गर-णगर-णिगम-रायहाणी-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-सण्णिवेसेसु-अकाम For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ असंयत जीव की गति तण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीता-तव- दंसमसग - अकाम अव्हाण - सेयजल्ल-मल-पंक- परिदाहेणं अप्पतरं वा भुज्जतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेस्संति अप्पाणं परिकिलेस्सित्ता कालमा से कालं किवा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । ६२ प्रश्न - केरिसा णं भंते ! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोया पण्णत्ता ? ६२ उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए इह मणुस्सलोगम्मि असोगवणे इवा, सत्तवण्णवणे इ वा, चंपयवणे इ वा, चूयवणे इ वा, तिलगवणे इ वा, लाउवणे इ वा, णिग्गोहवणे इ वा छत्तोहवणे इ वा, असणवणे इवा, सणवणे इ वा, अयसिवणे इ वा, कुसुंभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बंधुजीवगवणे इ वा, णिच्चं कुसुमिय माइय-लवइय-थवइय - गुलुइय - गोच्छय जमलिय - जुवलिय - विणमिय- पणमिय सुविभत्तपिंडिमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठ, एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिइएहिं उक्कोसेणं पलिओ मट्टिइएहिं बहूहिं वाणमंत रेहिं देवेहिं तद्देवीहि य आइण्णा विकिण्णा उवत्थडा संथा फुडा अवगाढगाढा सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिठ्ठति । एरिसगा णं गोयमा ! तेसिं च वाणमंतराणं देवानं देवलोया For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंयत जीव की गति पण्णता । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-जीवेणं असंजए जाव देवे सिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ॥ पढमे सए पढमो उद्देसो समतो॥ शम्दार्थ-भंते-हे भगवन् ! असंजए-असंयत, अविरइए-अविरत और, अप्पम्हिय. पच्चक्खायपावकम्मे-पाप कर्म का हनन तथा त्याग न करने वाला, जीवे-जीव, इमो-इस लोक से, चुए-चव कर = मर कर, पेच्चा-परलोक में, देवे-देव, सिया-होता है ? .: ' गोयमा-हे गौतम ! अत्थेगइए-कोई एक जीव, देवे-देव, सिया-होता है, अत्येगइए -कोई जीव, देवे-देव, णो सिया-नहीं होता है। __-से केणठेणं-किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि, इओ-इस लोक से, चुए-चव कर, पेच्चा-पर लोक में, अत्थेगइए-कोई जीव, देवे-देव, सिया-होता है और, अत्यगइएकोई जीव, णो सिया-नहीं होता है ? - जे-जो, इमे जीवा-ये जीव, गामागरणगरणिगमरायहाणीखेडकम्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसग्णिवेसेसु-गांव, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम तथा सन्निवेश आदि स्थानों में, अकामतव्हाए-अकाम तृषा से, अकामछुहाएअकाम क्षुधा से, अकामबंमचेरवासेणं-अकाम ब्रह्मचर्य से, अकामसीतातवदंसमसग-अकाम शीत, आतप तथा डांस मच्छरों के काटने के दुःख को सहन करने से, अकामअण्हाणग सेयजल्लमलपंकपरिवाहेणं-अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल, मैल तथा पङ्क-कीचड़ से होने वाले परिदाह से, अप्पतरं वा भुज्जतरं वा कालं-थोड़े समय तक या बहुत समय तक, अप्पाणंअपनी आत्मा को, परिकिलेस्संति-क्लेशित करते हैं, अप्पाणं परिकिलेस्सित्ता-अपनी आत्मा को क्लेशित करके, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु के समय मर कर, वाणमंतरेसुदेवलोगेसु For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंयत जीव की गति अण्णयरेसु-वाणव्यंतर देवलोकों के किसी देवलोक में, देवत्ताए-देव रूप से, उववत्तारो भवंति-उत्पन्न होते हैं। भंते-हे भगवन् ! तेसि-उन, वाणमंतराणं देवाणं-वाणव्यन्तर देवों के, देवलोयादेवलोक, केरिसा-किस प्रकार के, पण्णता-कहे गये हैं ? गोयमा-हे गौतम ! से जहा णामए-जैसे, इह मणुस्स लोगम्मि-इस मनुष्य लोक में, णिच्चं कुसुमिय-सदा फूला हुआ, माइय-मयूरित, पुष्प विशेष वाला-मौर वाला, लवइय-लवकित-कौंपलों वाला, थवइय-स्तवित-फूलों के गुच्छों वाला, गुलुइय-लता समूह वाला, गोच्छिय-गुच्छों वाला, जमलिय-यमलित-समान श्रेणी के वृक्षों वाला, जुवलिययुगल वृक्षों वाला, विणमिय-फल फूल के भार से झुका हुआ, पणमिय-फल फूल के भार से झुकने की शुरुआत वाला, सुविभतपिडिमंजरीवडेंसगधरे-विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला, इस प्रकार के विशेषणों सहित, असोगवणे-अशोक वन, सत्तवण्णवणे-सप्तपर्ण वन, चंपयवणे-चम्पक वन, चूयवणे-आम्रवन, तिलगवणे-तिलक वन, लाउवणे-तूम्बे की लताओं का वन, णिग्गोहवणे-बड़ वृक्षों का वन, छत्तोहवणे-छत्रौघ वन, असणवणे-अशन वृक्षों का वन, सणवगे-सन वृक्षों का वन, अयसिवणे-अलसी के पौधों का वन, कुसुंभवणे-कुसुम्ब वृक्षों का वन, सिद्धत्थवणे-सिद्धार्थ -सफेद सरसों का वन, बंधुजीवगवणे-बन्धुजीवक-दुपहरिया वृक्षों का का वन, इत्यादि वन, सिरीए-शोभा से, अईव अईव-अतीव अतीव, उपसोभेमाणे उवसोमेमाणे-सुशोभित होता है । एवामेव-इसी तरह से, तेसि वाणमंतराणं देवाणं-उन वाणव्यन्तर देवों के, देवलोगा-देवलोक, जहण्णेणं-जघन्य दसवाससहस्सटिइएहि-दस हजार वर्ष की स्थिति वाले, उक्कोसेणं-उत्कृष्ट, पलिओवमट्ठिइएहि-एक पल्योपम की स्थिति वाले, बहूहि-बहुत से, वाणमंतरेहि देवेहि-वाणव्यन्तर देवों से, य-और, तद्देवीहि-उनकी देवियों से, आइण्णा-आकीर्णव्याप्त, विकिण्णा-व्याकीर्ण-विशेष व्याप्त, उवत्थडा-उपस्तीर्ण-एक दूसरे के ऊपर आच्छादित, संथडा-परस्पर मिले हुए, फुडा-स्फुट-प्रकाश वाले, अवगाढगाढा-अत्यन्त अवगाढ, उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा-सुशोभित, चिटति-रहते हैं। तेसि वाणमंतराणं देवाण-उन पाणव्यन्तर देवों के, देवलोया-देवलोक, एरिसगाइस प्रकार के, पणत्ता-कहे गये हैं । से तेणठेग-इस कारण से, एवं बुच्चइ-इस प्रकार कहा जाता है कि, जीवे गं असंजए जाव देवे सिया-असंयत जीव मर कर कोई देव होता है और कोई देव नहीं होता है। For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १ उ. १ असंयत जीव की गति सेवं भंते - हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, त्ति - ऐसा कह कर, भगवं गोयमेभगवान् गौतम स्वामी, समगं भगवं महावीरं - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को, बंदर णमंसइ – वन्दना नमस्कार करते हैं, वंदित्ता णमंसित्ता - वन्दना नमस्कार करके, संजमेण तवसा - संयम और तप से, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, भावेमाणे – भावित करते हुए, विहरह - विचरते हैं । भावार्थ - ६० प्रश्न - हे भगवन् ! असंयत, अविरत और पापकर्म का हनन तथा त्याग न करने वाला जीव इस लोक से चंव कर-मर कर क्या परलोक में देव होता है ? ६० उत्तर - हे गौतम ! कोई एक जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता है । १०५ ६१ प्रश्न - हे भगवन् ! इस लोक से चव कर परलोक में कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता, इसका क्या कारण हैं ? ६१ उत्तर - हे गौतम ! जो जीव ग्राम, आकर, नगर निगम, राजधानी खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश आदि स्थानों में अकाम तृषा से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से, अकाम शीत आतप तथा डोस मच्छरों के काटने के दुःख को सहन करने से, अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल मैल तथा पङ्क - कीचड़ से होने वाले परिवाह से थोडे समय तक या बहुत समय तक अपनी आत्मा को क्लेशित करते हैं, अपनी आत्मा को क्लेशित करके मृत्यु के समय मर कर वाणव्यन्तर देवलोकों के किसी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होते हैं । .६२ प्रश्न - हे भगवन् ! उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गये हैं ? ६२ उत्तर - हे गौतम! जैसे इस मनुष्यलोक में सदा फूला हुआ, मयूरित - पुष्प विशेष वाला - -मौर वाला, लवकित - कोंपलों वाला, फूलों के गुच्छों वाला, लता समूह वाला, पत्तों के गुच्छों वाला, यमल - समान श्रेणी के वृक्षों वाला, युगल वृक्षों वाला, फल फूल के भार से झुका हुआ, फल फूल के भार से झुकने की For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भगवती सूत्र - श १ उ. १ असंयत जीव की गति शुरुआत वाला, विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला इत्यादि विशेषणों से विशिष्ट अशोक वन, सप्तपर्ण वन, चम्पक वन, आम्रवन, तिलक वृक्षों का वन, तूम्बे की लताओं का वन, बड़ वृक्षों का वन, छत्रोघ वन, अशन वृक्षों का वन, सण वृक्षों का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुम्ब वृक्षों का वन, सिद्धार्थ - सफेद सरसों का वन, बन्धुजीवक अर्थात् दुपहरिया के वृक्षों का वन शोभा से अत्यन्त शोभित होता है । इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले बहुत से वाणव्यन्तर देवों और उनकी देवियों से व्याप्त, विशेष व्याप्त, उपस्तीर्ण - एक दूसरे के ऊपर आच्छादित, परस्पर मिले हुए, प्रकट अर्थात् प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ शोभा से अत्यन्त सुशोभित रहते हैं। हे गौतम ! वाणव्यन्तर देवों के देवलोक इस प्रकार कहे गये हैं । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-असंवत जीव यावत् देव होता है । भगवान् गौतम स्वामी ने कहा कि हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । विवेचन - असाधु को अर्थात् संयम रहित को असंयत कहते हैं । जिसने प्राणातिपात आदि पापों का त्याग रूप व्रत धारण नहीं किया है एवं जिसकी तप आदि के विषय में विशेष तल्लीनता नहीं है उसे अविरत कहते हैं । जिसने भूतकालीन पापों को निन्दा ग आदि के द्वारा दूर नहीं किया है और भविष्यकालीन पापों का त्याग नहीं किया है उसे ‘अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा' कहते हैं अथवा मरण काल से पहले जिसने तप आदि के द्वारा पाप का नाश न किया हो उसे 'अप्रतिहतपापकर्मा' कहते हैं और मृत्यु काल आ जा पूर भी जिसने पाप का नाश न किया हो उसे 'अप्रत्याख्यातपापकर्मा' कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसने मृत्यु से पहले पापों का त्याग नहीं किया है और मृत्यु आने पर भी त्याग नहीं किया है वह 'अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा' कहलाता है अथवा शुद्ध श्रद्धा को धारण करना, पूर्व के पापकर्मों का नाश करना कहलाता है। जिसने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करके For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंयत जीव की गति • पापकर्मों को नष्ट नहीं किया है वह अप्रतिहतपापकर्मा कहलाता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर सर्व विरति आदि अंगीकार करके पापकर्मों का निरोध न करने वाला अप्रत्याख्यातपापकर्मा कहलाता है । इस प्रकार जिसने न सम्यक् श्रद्धा धारण की है और न व्रत धारण किये हैं वह अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा कहलाता है। गौतम स्वामी का प्रश्न यह है कि जिनका मिथ्यात्व नहीं छूटा है उन असंयतियों में से यहाँ से अर्थात् मनुष्यगति और तिर्यञ्चगति से मरकर देव होता है या नहीं ? भगवान् ने फरमाया कि कोई होता है और कोई नहीं। इस पर गौतमस्वामी ने फिर पूछा कि-हे भगवन् ! इसका क्या कारण हैं ? इस प्रश्न का उत्तर जो भगवान् ने फरमाया उसमें अनेक स्थानों के नाम आये हैं । उनका अर्थ इंस प्रकार है ग्राम-देश के मनुष्यों के लिए जो आश्रय रूप स्थान हो उसे ग्राम कहते हैं। जहां सामान्य बुद्धि वाले और विशेष बुद्धि वाले दोनों प्रकार के मनुष्य रहते हों उसे ग्राम कहते हैं। ___ आकर-खान (खदान) को आकर कहते हैं । जहाँ लोहा आदि धातुएं निकलती हैं वह भूभाग आकर कहलाता है। . : नगर-न कर अर्थात् जहाँ पर कर (टेक्स) न लगे वह स्थान नगर (न+कर) कहलाता है। .निगम-जहाँ व्यापारी अधिक संख्या में रहते हों उस बस्ती का नाम निगम है अर्थात् जहाँ माल का आना-जाना बना रहता हो और व्यापार खूब होता हो वह निगम कहलाता है। .. राजधानी-जहाँ राजा स्वयं स्थायी रूप से रहता हो वह राजधानी हैं। . - खेट-जिस छोटी बस्ती के चारों ओर धूल का कोट हो उसे खेट या खेड़ा कहते हैं। कर्बट-खराब नगर कर्बट-कस्बा कहलाता है । जिसकी गणना न ग्राम में की जा सके और न नगर में। मडम्ब-जिस बस्ती के चारों तरफ ढाई-ढाई कोस तक दूसरी बस्ती न हो उसे मडम्ब कहते हैं। द्रोणमुख - जहाँ के लिए जलमार्ग भी हो और स्थलमार्ग भी हो वह बस्ती द्रोणमुख कहलाती है। ___ पट्टण = पत्तन पाटण-जहां देश देशान्तर से आया हुआ माल उतरता है उसे पट्टण कहते हैं । पट्टण दो प्रकार के होते हैं-जलपट्टण और स्थलपट्टण । जो जल के बीच में या किनारे पर बसा हो वह 'जलपट्टण' है और जो स्थल में बसा हुआ हो-जहाँ स्थलमार्ग से For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ... भगवती सूत्र - श. १ उ. १ असंयत जीव की गति आया हुआ माल उतरता हो वह 'स्थलपट्टण' है । जहाँ सब प्रकार के बहुमूल्य पदार्थ - हाथी, घोड़े रत्न आदि बिकते हों उसे भी पट्टण कहते हैं । कोई रत्न भूमि को पट्टण ( पत्तन ) कहते है । आश्रम - तपस्वी और संन्यासियों के रहने के स्थान को आश्रम कहते हैं । सन्निवेश - जहाँ दूध दही बेचने वाले लोग रहते हैं वह सन्निवेश कहलाता है । उसे 'घोष' भी कहते हैं । भगवान् फरमाते हैं कि इन स्थानों में से किसी भी स्थान में रहता हो किन्तु जो अकाम निर्जरा करता है वह देव होता है । अज्ञानपूर्वक की जाने वाली अर्थात् मोक्ष से रहित अकामनिर्जरा हैं। ज्ञान पूर्वक की जाने से की जाने वाली निर्जरा - सकाम निर्जरा है । प्राप्ति के योग्य निर्जरा की अभिलाषा वाली अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की कामना जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है वह पूर्वोक्त स्थानों में से किसी भी स्थान में रहता हुआ मिथ्यादृष्टि पुरुष, मोक्ष योग्य निर्जरा की अभिलाषा रहित आहार आदि की अभिलाषा वाला होते हुए आहार आदि के संयोग न मिलने के कारण क्षुधादि को सहन करने वाला अकाम निर्जरा वाला कहलाता है । वह भूख प्यास सहन करता है, ब्रह्मचर्य पालन करता है, स्नान नहीं करता, स्वेद ( पसीना ), जल्ल ( पसीने पर लगी हुई रज), मल (जल्ल का जम जाना) पङ्क ( पसीने से जल्ल का गीला होना) इन सब को ह करता हैं । इस प्रकार थोड़े काल तक या बहुत काल तक वह आत्मा को क्लेश पहुंचाता है । फिर भी उसके इन कार्यों से वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । इस अकामनिर्जरा के कारण वह वाणव्यन्तर देवो में जन्म लेता है । कई ज्ञानी सकाम - निर्जरा वाले भी देवलोक में जाते हैं और कई मिथ्यात्वी अकामनिर्जरा वाले भी देवलोक में जाते हैं। इन दोनों के देवलोक में जाने में क्या अन्तर है ? यह बताने के लिए कहा है कि अकाम-निर्जरा वाले वाणव्यन्तर देव होते हैं और सकाम निर्जरा वाले परलोक की उत्तम से उत्तम स्थिति प्राप्त करके मोक्ष की भी आराधना कर सकते हैं । इसके पश्चात् गौतम स्वामी ने पूछा है कि हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के देवलोक कैसे होते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने अशोक वन आदि वनों की उपमा देकर बतलाया हैं कि जैसे- अशोक वन आदि पल्लवित और पुष्पित होते हैं तब उनकी शोभा • अद्भुत होती है, उसी प्रकार उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोकों की शोभा भी अद्भुत है । * इन स्थानों का अर्थ दूसरी टीकाओं में दूसरी तरह से भी दिया है । For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ असंयत जीव की गति वाणव्यन्तर शब्द का अर्थ है वन विशेष में उत्पन्न होने वाले अर्थात् बसने वाले और वनों में क्रीड़ा करने वाले देव वाणव्यन्तर देव कहलाते हैं । यह स्थान वाणव्यन्तर देवों से और देवियों से व्याप्त होता है। वहीं जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति है और अधिक से अधिक एक पल्योपम की है । भगवान् के वचन सुनकर गौतम स्वामी ने कहा कि- "हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही है, दूसरी तरह से नहीं है ।" यह कहकर गौतम स्वामी ने भगवान् के वचनों के प्रति बहुमान प्रदर्शित किया है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और तप संयम से आत्मा को भावित कर विचरने लगे । १०९ यहाँ वन्दना नमस्कार करने का उल्लेख आया है। इससे यह प्रकट किया गया है। कि- प्रश्न पूछने से पहले और उत्तर सुनने के बाद वन्दना करना - विनय प्रदर्शित करना है । बिना विनय के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । अतः ज्ञान प्राप्त करने में विनय की अत्यन्त आवश्यकता है । ॥ प्रथम शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ स्वकृत कर्म वेदनी .. शतक १ उद्देशक २ . ६३ रायगिहे नगरे समोसरणं । परिसा णिग्गया, जाव-एवं वयासीः ६४ प्रश्न-जीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेएइ ? ६४ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइयं वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएइ। ६५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइय वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएई ? ६५ उत्तर-गोयमा ! उदिण्णं वेएइ अणुदिण्णं नो वेएइ, से तेणटेणं एवं वुच्चइ-'अत्यंगइयं वेएइ, अत्यंगइयं नो वेएई'। एवं चउव्वीसदंडएणं, जाव-चेमाणिए। ६६ प्रश्न-जीवा णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेति ? ६६ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेति, अत्थेगइयं णो वेदेति । ६७ प्रश्न-से केणटेणं ? ६७ उत्तर-गोयमा ! उदिण्णं वेदेति नो अणुदिण्णं वेदेति, से तेणटेणं, एवं जाव-वेमाणिया। ६८ प्रश्न-जीवे णं भंते ! सयंकडं आउयं वेएइ ? ६८ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइयं वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएइ । जहा दुक्खेणं दो दंडगा तहा आउएणं वि दो दंडगा-एगत्तपुहत्तिया, For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ स्वकृत कर्म वेदना एगत्तेणं जाव-चेमाणिया, पुहत्तेण वि तहेव । विशेष शब्दार्थ-समोसरणं-समवसरण, परिसा-परिषद्, वयासी-बोले, सयंकडंअपना किया हुआ, अस्थगइयं-कुछ दुःख को, उदिण्णं-उदय में आया हुआ, अणुदिनंउदय में नहीं आया हुआ, आउयं-आयुष्य, एगत्त-एक वचन, पुहुत्त-पृथक्त्व-बहुवचन । भावार्थ-६३ राजगृह नगर में समवसरण हुआ । परिषद् निकली। यावत् भगवान् ने इस प्रकार फरमाया- . ६४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख भोगता है ? ६४ उत्तर-हे गौतम ! कुछ भोगता है और कुछ नहीं भोगता। ६५ प्रश्न-आप किस कारण से ऐसा फरमाते हैं कि-कुछ भोगता है और कुछ नहीं भोगता ? . . ६५ उत्तर-हे गौतम ! जीव उदीर्ण अर्थात् उदय में आये हुए दुःख (कर्म) को भोगता है और अनुदीर्ण-उदय में नहीं आये हुए दुःख (कर्म) को नहीं भोगता है। इसलिए कहा गया है कि-कुछ भोगता है और कुछ नहीं भोगता है। इस प्रकार वैमानिक तक चौबीस (सभी) दण्डकों में समझ लेना चाहिए। _६६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख को भोगते हैं ? ... ६६ उत्तर-हे गौतम ! कुछ कर्म को भोगते हैं और कुछ कर्म को नहीं भोगते। ६७ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ६७ उत्तर-हे गौतम ! उदीर्ण कर्म को भोगते हैं, अनुदीर्ण को नहीं भोगते । इस कारण ऐसा कहा गया है कि कुछ को भोगते हैं और कुछ को नहीं भोगते । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक चौबीस (सभी) दण्डकों में समझ लेना चाहिए। ६८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत आयु को भोगता है ? ६८ उत्तर-हे गौतम ! जीव कुछ आयु को भोगता है और कुछ को नहीं भोगता । जैसे दुःख-कर्म के विषय में दो दण्डक-आलापक कहे हैं उसी For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ स्वकृत कर्म वेदना प्रकार आयुष्य के सम्बन्ध में भी एक वचन आश्रयी और बहुवचन आश्रयी दो दण्डक-आलापक कह देने चाहिए। एक वचन से यावत् वैमानिकों तक कहना और बहुवचन से भी उसी प्रकार वैमानिकों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिए । विवेचन - पहले उद्देशक में 'चलन' आदि का कथन किया गया है, दूसरे उद्देशक में भी उसी का कथन किया जाता है। तथा उद्देशक की संग्रहणी गाथा में कहे हुए 'दुक्ख' शब्द का विवेचन किया जाता है । गौतम स्वामी ने भगवान् से यह प्रश्न किया है कि - हे भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख भोगता है | इस प्रश्न से यह बात स्पष्ट होती है कि-जीव अपने किये हुए कर्म को ही भोगता हैं, किन्तु दूसरों के किये हुए कर्म को नहीं भोगता है । जैसा कि कहा है स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ अर्थात्-स्वयं आत्मा ने जो कर्म पहले उपार्जन किये हैं, उन्हीं कर्मों का शुभ या शुभ फल वह आत्मा भोगता है । यदि दूसरे के किये हुए कर्मों का फल आत्मा भोगने लगे, तो अपने किये हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे । यहाँ 'दुःख' शब्द से 'कर्म' लिया गया है। क्योंकि सांसारिक सुख या दुःख कारण रूप कर्म ही है । दुःख तो दुःख रूप है ही, किन्तु सांसारिक सुख भी दुःख रूप ही हैं । परसंयोग से कभी सुखं प्राप्त नहीं होता, दुःख ही होता है । सांसारिक सुख में निराकुलता नहीं है, व्याकुलता है, अतृप्ति है, भय है, उसका शीघ्र अंत हो जाता है, उसकी मात्रा अत्यल्प होती है, इन सब कारणों से सांसारिक सुख वास्तव में दुःख रूप है । यहाँ प्रश्नवाची कोई शब्द नहीं है तथापि काकुपाठ से प्रश्न समझना चाहिए । गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि जीव कुछ कर्म को भोगता है और कुछ को नहीं भोगता । इसका कारण यह हैं कि कर्म की दो अवस्थाएं हैंउदयावस्था और अनुदयावस्था । जो कर्म उदीरणा द्वारा या स्वाभाविक रूप से उदय में आये हैं उन्हें जीव भोगता है और जो कर्म अब तक उदय में नहीं आये हैं उन्हें नहीं भोगता है । शास्त्र में कहा है कि For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १. उ. २ स्वकृतं कर्म वेदना ११३ 'कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि' अर्थात्-किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है । इस नियमानुसार किये हुए सब कर्मों को भोगना ही पड़ता है, किन्तु बांधे हुए सभी कर्म एक साथ उदय में नहीं आ जाते हैं । इसलिए अवश्य वेद्य कर्मों में से भी कुछ को वेदता है और कुछ को नहीं वेदता है अर्थात् उदय में नहीं आये हुए कर्म को नहीं वेदता है। यह एक वचन सम्बन्धी कथन नरक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक में समझ लेना चाहिए। एक वचन सम्बन्धी प्रश्न का जो उत्तर दिया गया वैसा ही बहुवचन सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर है । अर्थात् बहुत जीव (सभी जीव)अपने ही किये हुए कर्म का फल भोगते हैं और उदय प्राप्त कर्म का फल भोगते हैं, अनुदय प्राप्त का फल नहीं भोगते हैं । यह बात चौबीस ही दण्डकों के लिए समान रूप से लागू होती है। शंका-यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि-जो अर्थ एक वचन वाले प्रश्न में है वही अर्थ बहुवचन वाले प्रश्न में है, फिर यह बहुवचन वाला दूसरा प्रश्न क्यों किया गया? - इसका समाधान यह है कि-किसी पदार्थ के विषय में एक वचन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में और बहुवचन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में अर्थ विशेष देखने में आता है। जैसे किएक जीव आश्री सम्यक्त्वादि (सम्यक्त्व, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, और अवधिज्ञान)की स्थिति छासठ सागरोपम से कुछ अधिक की है और बहुत जोवों आश्री सम्यक्त्वादि की स्थिति 'सव्वद्धा-सदा काल है। इसी प्रकार सम्यक्त्वादि की तरह यहाँ पर भी एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में शायद कोई अर्थ विशेष सम्भवित हो, इस अभिप्राय से गौतम स्वामी ने बहुवचन सम्बन्धी प्रश्न किया है। अतः बहुवचन सम्बन्धी प्रश्न करने में किसी प्रकार का दोष नहीं है । अथवा अत्यन्त अव्युत्पन्न बुद्धि वाले शिष्यों को बोध कराने के लिए बहुवचन सम्बन्धी प्रश्न किया है। यद्यपि आयुकर्म भी आठ कर्मों के अन्तर्गत है, तथापि यहाँ आयु के सम्बन्ध में अलग प्रश्न करने का आशय यह है कि नरक तिर्यञ्च आदि के व्यवहार में आयुष्य की मुख्यता है । इसलिए आयुष्य के सम्बन्ध में एक वचन और बहुवचन युक्त प्रश्न किये गये हैं । इसका उत्तर भी भगवान् ने यही फरमाया है कि-जीव अपने उपार्जन किये हुए आयुष्य को वेदता है, किन्तु दूसरों के उपार्जन किये हुए आयुष्य को नहीं वेदता । अपनी उपार्जन की हुई आयु में से ज्यों ज्यों आयु उदय में आती जाती है, त्यों त्यों वह आयु भोगी जाती है । और उदय में नहीं आई हुई आयु नहीं भोगी जाती है। उदाहरणार्थ-जैसे कोई For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ नैरयिक सम्बन्धी विचार मनुष्य यहां मौजूद है, उसने आगामी भव के लिए स्वर्ग की आयु बांध ली । अब दह पहले बंधी हुई मनुष्यायु जो कि उदय में आई हुई है उसे भोग रहा है और अभी बंधी हुई. देवायु को नहीं भोग रहा है, किन्तु उसे आगे भोगेगा, क्योंकि उसका अभी उदय नहीं आया है । चौबीस ही दण्डकों के लिए आयु के विषय में यही बात समझनी चाहिए। __ यहाँ टीकाकार ने कृष्णवासुदेव का उदाहरण देकर यह बतलाया है कि पहले उन्होंने सातवीं पृथ्वी का आयुष्य बांधा था, फिर कालान्तर में परिणाम विशेष से तीसरी पृथ्वी का आयुष्य बांधा । किन्तु यह बात आगम से मेल नहीं खाती हैं, क्योंकि एक जीव एक भव में एक ही बार आयुष्य का बन्ध करता है, दो बार नहीं। . एक भव में दो बार आयुष्य का बन्ध कहना टीकाकार का स्वयं स्ववचन बाधित है, क्योंकि प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में इन्हीं टीकाकार ने लिखा है-'यस्मादेकत्रभवग्रहणे सकृदेवाऽन्तमुहूर्तमात्रकाले एवायुषोबन्धः । अर्थात् एक भव में एक जीव एक ही बार आयुष्य का बन्ध करता है। ___ नरयिक सम्बन्धी विचार , ६९ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! सव्वे समाहारा, सव्वे समसरीरा, सव्वे समुस्सासनीसासा ? ६९ उत्तर-गोयमा ! नो इणटे समढे । .. ७० प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'नेरइया नो सव्वे समाहारा, नो सव्वे समसरीरा, नो सव्वे समुस्सासनीसासा ! ७० उत्तर-गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहाः-महासरीरा य, अप्पसरीरा य । तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेंति, बहुतराए पोग्गले उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंति; अभिक्खणं आहा For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १ उ. २ नैरयिक सम्बन्धी विचार रेति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं उस्ससंति, अभिक्खणं नीससंति । तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति, अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति, अप्पतराए पोग्गले नीससंति: आहच आहारेंति, आहच्च परिणामेंति, आहच्च उत्ससंति, आहच्च नीससंति से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचड़ - 'नेरइया सव्वे जो समाहारा, नो सव्वे समसरीरा, नो सव्वे समुस्सासनीसासा' । विशेष शब्दों के अर्थ- समाहारा - समान आहार वाले, समसरीरा - समान शरीर वाले, समुस्सासनीसासा - समान उच्छ्वास निःश्वास वाले, इणट्ठे- यह अर्थ, समट्ठे- समर्थ, अभिक्खणं - बारम्बार, आहच्च - कदाचित् । ११५ भावार्थ - ६९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सभी नारकी जीव समान आहार वाले, समान शरीर वाले, तथा समान उच्छ्वास निःश्वास वाले हैं ? ६९ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसी बात नहीं है । ७० प्रश्न - हे भगवन् ! आप इस प्रकार किस कारण से कहते हैं किसभी नारको जीव समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छवास निःश्वास वाले नहीं हैं ? ७० उत्तर-हे गौतम ! नारकी जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- महाशरीरी अर्थात् बडे शरीर वाले और अल्प शरीरी अर्थात् छोटे शरीर वाले । इन में जो बड़े शरीर वाले हैं वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत पुद्गलों को परिणमाते हैं, बहुत पुद्गलों को उच्छ्वास रूप से ग्रहण करते हैं और बहुत पुद्गलों को निःश्वास रूप से छोड़ते हैं । बारबार आहार करते हैं, बारबार परि माते हैं, बारबार उच्छ्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं । उनमें जो छोटे शरीर वाले हैं, वे थोडे पुद्गलों का आहार करते हैं, थोडे पुद्गलों को परिणमाते For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिक सम्बन्धी विचार हैं, थोडे पुद्गलों को उच्छ्वास रूप से ग्रहण करते हैं, थोडे पुद्गलों को निःश्वास रूप से छोड़ते हैं । कदाचित् आहार करते हैं, कदाचित् परिणमाते हैं, कदाचित् उच्छ्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं। इसलिये हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि-सब नारको जीव समान आहार वाले, समान शरीर बाल और समान उच्छ्वास निःश्वास वाले नहीं है। विवेचन-श्री गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! नैरयिक जीव दुःख में पड़े हुए हैं-क्या उन सब का आहार समान है ? क्या वे सब समान शरीर वाले हैं, ? क्या . वे समान उच्छ्वास निःश्वास वाले हैं ? ___ इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-नहीं, गौतम ! ऐसी बात नहीं है। सब नरयिकों का आहार आदि समान नहीं है.। तब गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? सब नैरयिकों का आहार आदि समान क्यों नहीं है ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! नैरयिक जीव दो प्रकार के हैं-महाशरीर वाले और अल्प शरीर वाले । उनके शरीर में भिन्नता होने के कारण उनके आहारादि में भी भिन्नता है। यहाँ बड़ा और छोटा शरीर अपेक्षाकृत है । छोटे की अपेक्षा कोई पदार्थ बड़ा कहलाता है और बड़े की अपेक्षा छोटा कहलाता है । नारकी जीवों के शरीर दो प्रकार के होते हैं-भवधारणीय ( मूल शरीर ) और उत्तरवैक्रिय ( अपनी इच्छानुसार बड़ा या छोटा बनाया हुआ शरीर) । नारकी जीवों का भवधारणीय शरीर छोटे से छोटा अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना होता है और बड़े से बड़ा पांच सौ धनुष परिमाण होता हैं। उत्तर वैक्रिय शरीर छोटे से छोटा अंगुल के संख्यातवें भाग तक हो सकता है, इससे अधिक छोटा नहीं हो सकता है । इसी प्रकार बड़े से बड़ा एक हजार धनुष का हो सकता है, इससे ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता। गौतम स्वामी ने जो प्रश्न किया है उसमें पहले आहार की बात पूछी है, उसके बाद शरीर की बात पूछी है, किन्तु भगवान् ने पहले शरीर के सम्बन्ध में कथन किया है। इस व्यतिक्रम (उल्टा क्रम) का कारण यह है कि शरीर का परिमाण बताये बिना आहार आदि की बात ठीक रूप से और सरलता से समझ में नहीं आ सकती। शरीर का परिमाण बता देने पर आहार, श्वासोच्छ्वास आदि की बात ठीक तरह से और सरलता पूर्वक समझ में आ सकती है। इस कारण से शरीर सम्बन्धी प्रश्न बाद में पूछने पर भी उत्तर पहले दिया गया है और आहार सम्बन्धी प्रश्न पहले पूछने पर भी उत्तर पीछे दिया गया है। For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ नैरयिक सम्बन्धी विचार बड़े शरीर वाला नैरयिक बहुत पुद्गलों का आहार करता है और छोटे शरीर वाला कम पुद्गलों का । यहाँ मनुष्यलोक में भी यही बात देखी जाती है कि बड़े शरीर वाला अधिक खाता है और छोटे शरीर वाला कम । इसके लिए हाथी और खरगोश का उदाहरण दिया जा सकता है। आहार का यह परिमाण भी सापेक्ष ही समझना चाहिए अर्थात् बड़े शरीर वाले के आहार की अपेक्षा छोटे शरीर वाले का आहार कम है और छोटे शरीर वाले के आहार की अपेक्षा बड़े शरीर वाले नारकी का आहार अधिक है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि इस लोक के प्राणियों का जो उदाहरण दिया गया है, सो इससे कोई निश्चित नियम सिद्ध नहीं होता, क्योंकि कभी कभी यह देखा जाता है। कि कोई छोटे शरीर वाला बहुत आहार करता है और कोई बड़े शरीर वाला थोड़ा आहार करता है । फिर यह कैसे घटित होगा ? ११७ इसका समाधान यह है - यह उदाहरण प्रायिक है। अधिकांश मनुष्यों की अपेक्षा यह दृष्टान्त दिया गया है । अतः बहुतों की अपेक्षा यह कथन होने से कोई दोष नहीं है । बड़े शरीर वाले नारकियों को क्षुधा की वेदना भी अधिक होती है और ताड़ना तर्जना तथा क्षेत्रादि से उत्पन्न होने वाली पीड़ा भी अधिक होती है । बड़े शरीर वालों का आहार भी बहुत होता है और परिणमन भी बहुत होता है । यह परिणमन आहार की अपेक्षा से है। इसी प्रकार बड़े शरीर वाले नैरयिक श्वास लेने में बहुत पुद्गल ग्रहण करते हैं और निःश्वास में बहुत पुद्गलों को छोड़ते भी हैं। बड़े शरीर वाले को वेदना ज्यादा होती है, इसलिए उन्हें श्वासोच्छ्वास भी ज्यादा लेना पड़ता है, क्योंकि दुःखी प्राणी शीघ्र शीघ्र और ज्यादा श्वास लेता है। छोटे शरीर वाले नैरयिक को दुःख कम होता है, अतः उनका श्वासोच्छ्वास भी कम होता है । वे कदाचित् आहार लेते हैं और कदाचित् नहीं लेते । वे कदाचित् श्वासोच्छ्वास लेते हैं और कदाचित् नहीं लेते हैं । यहाँ यह शंका हो सकती है कि पहले उद्देशक में नारकी जीवों के वर्णन में यह कहा गया था कि - नारकी जीव निरन्तर आहार लेते हैं और निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं । फिर यहाँ कदाचित् आहार लेने और कदाचित् श्वासोच्छ्वास लेने का कथन कैसे किया गया है ? इसका समाधान यह है कि पहले उद्देशक में निरन्तर आहार लेने और निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेने की जो बात कही है, वह बड़े शरीर वाले नारकियों की अपेक्षा कही गई है और यहाँ जो कदाचित् आहार लेने और कदाचित् श्वासोच्छ्वास लेने की बात कही है। For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ नैरयिकों के समकर्म आदि प्रश्नोत्तर वह छोटे शरीर वाले नारकियों की अपेक्षा कही गई है। महाशरीर वाले नारकियों की अपेक्षा अल्प शरीर वाले नारकी बहुत अन्तर से आहार लेते हैं और बहुत अन्तर से श्वासो - च्छ्वास लेते हैं । अथवा शरीर अपर्याप्त अवस्था में अर्थात् जहाँ तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो वहां तक नारकी जीवों का शरीर बहुत छोटा होने से वे लोमाहार ( रोमाहार ) नहीं कर सकते हैं और शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने पर वे लोमाहार करते हैं, इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि- नारकी जीव कदाचित् आहार करते हैं और कदाचित् आहार नहीं करते हैं । इसी तरह जब तक वे श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्त रहते हैं तबतक श्वासोच्छ्वास नहीं लेते और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति पूर्ण करने पर श्वासोच्छ्वास लेते हैं, इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि- 'नारकी जीव कदाचित् श्वासोच्छ्वास लेते हैं और कद्राचित् श्वासोच्छ्वास नहीं लेते हैं' । इसलिए पहले उद्देशक में कही हुई बात और यहाँ कही हुई बात में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है । उपर्युक्त सारे कथन का आशय यह है कि सब नारकी जीव न तो समान आहार करते हैं, न समान रूप से परिणमाते हैं, न समान शरीर वाले हैं और न समान रूप से श्वासोच्छ्वास लेते हैं । और सभी विषम शरीरी आदि हों यह बात भी नहीं है । नैरयिकों के समकर्म आदि प्रश्नोत्तर ७१ प्रश्न - नेरइया णं भंते ! सव्वे समकम्मा ? ७१ उत्तर - गोयमा ! नो इणट्टे समड़े | ७२ प्रश्न - से केणट्टेणं ? ७२ उत्तर - गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा : - पुव्वोववन्नगा य, पच्छोववन्नगा य । तत्थ णं जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं अप्पकम्मतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं महाकम्मतरागा, से तेणट्टेणं गोयमा !....। For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र--श. १ उ. २ नैरयिकों के समकर्म आदि प्रश्नोत्तर ११९ ७३ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! सव्वे समवन्ना ? ७३ उत्तर-गोयमा ! नो इणटे समझे। ७४ प्रश्न-से केणटेणं तह चेव....? ७४ उत्तर-गोयमा ! जे ते पुव्योववन्नगा ते णं विसुद्धवन्नतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा, तहेव से तेणटेणं एवं....। ७५ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! सव्वे समलेस्सा ? ७५ उत्तर-गोयमा ! नो इणटे समटे । ७६ प्रश्न-से केणटेणं जाव-'नो सव्वे समलेस्सा' ? ७६ उत्तर-गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहाः-पुखोववण्णगा य, पच्छोववण्णगा य; तत्थ णं जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं विसुद्धलेस्सतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा, से तेणटेणं........। _ विशेष शब्दों के अर्थ-समकम्मा-समान कर्म वाले, पुल्वोववण्णगा-पूर्वोपपन्नक अर्थात् पहले उत्पन्न हुए, पच्छोववण्णगा-पश्चादुपपन्नक अर्थात् पीछे उत्पन्न हुए, अप्पकम्मतरागा-अल्प कर्म वाले, महाकम्मतरागा-महा कर्म वाले, समवण्णा-समान वर्ण वाले, समलेस्सा-समान लेश्या वाले, विसुद्धवण्णतरागा-विशुद्ध वर्ण वाले, विसुद्धलेस्सतरागा-विशुद्ध लेश्या वाले । मावार्थ-७१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब नारकी समान कर्म वाले हैं ? ७१ उत्तर-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ७२ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिकों के समकर्म आदि प्रश्नोत्तर. ++++ + __७२ उत्तर-हे गौतम ! नारको जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-यथापूर्वोपपन्नक-पहले उत्पन्न हुए और पश्चादुपपन्नक-पीछे उत्पन्न हुए। इनमें जो नरयिक पूर्वोपपन्नक हैं वे अल्प कर्म वाले हैं और जो पश्चादुपपन्नक हैं वे महा कर्म वाले हैं। इसलिए हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि-सब नारको समान कर्म वाले नहीं हैं। ७३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब नारकी समान वर्ण वाले हैं ? . ७३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ७४ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ७४ उत्तर-हे गौतम ! नारकी जीव दो प्रकार के हैं। यथा-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक । इनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं वे विशुद्ध वर्ण वाले हैं और जो पश्चादुपपन्नक हैं वे अविशुद्ध वर्ण वाले हैं। इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि सब नारकी समान वर्ण वाले नहीं हैं। ७५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या, सब नारको समान लेश्या वाले हैं ? ७५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ७६ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ७६ उत्तर-हे गौतम ! नारको जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथापूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक । इनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं वे विशुद्ध लेश्या वाले हैं और जो पश्चादुपपन्नक हैं वे अविशुद्ध लेश्या वाले हैं। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-सब नारकी समान लेश्या वाले नहीं हैं। विवेचन-श्री गौतम स्वामी ने नारकियों के कर्म, वर्ण और लेश्या के सम्बन्ध में प्रश्न किया है । जिसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया है कि-हे गौतम ! सब नारकियों के कर्म, वर्ण, लेश्या समान नहीं हैं । गौतमस्वामी ने इस असमानता का कारण पूछा, तब भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! नारकी जीव दो प्रकार के हैं-पूर्वोपपन्नक (पूर्वोत्पन्न) अर्थात् पहले उत्पन्न हुए और पश्चादुपपन्नक (पश्चादुतान्न) अर्थात् पीछे उत्पन्न हुए। जो जीव नरक में पहले उत्पन्न हो चुके हैं उन्होंने नरक का आयुष्य और अन्य सात कर्म बहुत से भोग लिये हैं, अतएव उनके बहुत से कर्मों की निर्जरा हो चुकी है । इस कारण वे अल्प For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिकों के समवेदना आदि १२१ कर्मी हैं । जो जीव पीछे उत्पन्न हुए हैं उन्हें आयु और सात कर्म बहुत भोगने बाकी हैं, इस लिए वे महाकर्मो (बहुत कर्म वाले) हैं, क्योंकि इनका आयुष्य और सात कर्म बहुत थोड़े भोग गये हैं। भगवान् का यह कथन समान स्थिति वाले नारकियों की अपेक्षा समझना चाहिए। विषम स्थिति वालों की अपेक्षा नहीं । जैसे कि मान लीजिये-एक जीव दस हजार वर्ष की स्थिति बांधकर हाल ही में रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न हुआ है । और दूसरा रत्नप्रभा पृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर की बाँधकर उससे बहुत पहले उत्पन्न हो चुका है और उसने बहुत-सी स्थिति भोग ली है, सिर्फ एक पल्योपम की स्थिति भोगनी बाकी रही हैं फिर भी वह पश्चादुत्पन्न दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक की अपेक्षा महाकर्मी है, और वह पश्चादुत्पन्न दस हजार वर्ष की स्थिति वाला नैरयिक उस पूर्वोत्पन्न की अपेक्षा अल्पकर्मी है। यदि दो जीव समान स्थिति बांध कर नरक में गये हैं, तो उनमें से जो पहले उत्पन्न हुआ है वह अल्पकर्मी है और जो पीछे उत्पन्न हुआ है वह बहुकर्मी है, क्योंकि पहले उत्पन्न हुए नरयिक ने उसकी अपेक्षा अधिक कर्म भोग लिए हैं और उत्पन्न होने वाले ने उसकी अपेक्षा कम कर्म भोगे हैं। इस तरह यह सूत्र समान स्थिति वाले नैरयिकों की अपेक्षा से है-ऐसा जानना चाहिए। - यही बात वर्ण के विषय में है, समान स्थिति वाले नैरयिकों में से जो पहले उत्पन्न हुआ है, वह अल्पकर्मी होने से उसका वर्ण विशुद्ध होता है और जो पीछे उत्पन्न हुआ है उसका वर्ण उसकी अपेक्षा अविशुद्ध होता है, क्योंकि वह उसकी अपेक्षा महाकर्मी है। ... लेश्या के सम्बन्ध में भी यही बात है । लेश्या' शब्द से यहाँ 'भाव लेश्या' को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्य लेश्या तो वर्ण रूप है, वह 'वर्ण' में आ चुकी है। इस प्रकार समान स्थिति बांधकर जो जीव नरक में पहले उत्पन्न हो चुका है, उसकी भाव लेश्यापश्चात् उत्पन्न होने वाले नैरयिक की अपेक्षा विशुद्ध है और पश्चात् उत्पन्न होने वाले की भाव लेश्या पूर्वोत्पन्न की अपेक्षा अविशुद्ध है। नरयिकों के समवेदना आदि ७७ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! सव्वे समवेयणा ? ७७ उत्तर-गोयमा ! णे इणढे समढे। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिक के समवेदना आदि ७८ प्रश्न-से केणटेणं ? ___७८ उत्तर-गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहाः-सण्णिभूया य, असण्णिभूया य; तत्थ णं जे ते सन्निभूया ते णं महावेयणा तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं अप्पवेयणतरागा, से तेणटेणं गोयमा....। . ७९ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? - ७९ उत्तर-गोयमा ! नो इणटे समटे । ८० प्रश्न-से केणटेणं ? ८० उत्तर-गोयमा ! नेरड्या तिविहा पन्नत्ता, तं जहाः-समदिट्ठी, मिट्ठिी , सम्मामिच्छदिट्ठी; तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी तेसिं णं चत्तारि किरियाओ पन्नत्ता, तं जहाः-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पञ्चक्खाणकिरिया । तत्थ णं जे ते मिच्छदिट्ठी तेसिं णं पंच किरियाओ कजंति, तं जहाः-आरंभिया जावमिच्छदंसणवत्तिया । एवं सम्पयामिच्छादिट्ठीणं पि, से तेण?णं गोयमा....। ८१ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! सव्वे समाउया, सव्वे समोववनगा ? ८८१ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे। ८२ प्रश्न-से केणटेणं ? For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिक के समवेदना आदि १२३ ८२ उत्तर-गोयमा ! नेरइया चविहा पन्नत्ता, तं जहाःअत्थेगइया समाउया समोववनगा, अत्थेगइया समाउया विसमो. ववन्नगा, अत्यंगड्या विसमाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा; से तेणटेणं गोयमा ! विशेष शब्दों के अर्थ-समवेयणा-समान वेदना वाले, सण्णिभूया-संजीभूत, असण्णिभूया असंजीभूत, समकिरिया-समान क्रिया वाले, समाउया-समान आयु वाले, समोववण्णगा-समोपपन्नक = एक साथ उत्पन्न हुए, विसमोववण्णगा-विषमोपपन्नक = एक साथ नहीं किन्तु पहले पीछे उत्पन्न हुए। भावार्थ--७७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब नारकी समान वेदना वाले हैं ? ७७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ७८ प्रश्न-भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ७८ उत्तर-हे गौतम ! नारको जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । यथासंजीभूत और असंज्ञीभूत । इनमें जो संज्ञीभूत हैं वे महावेदना वाले हैं और जो असंज्ञीभत हैं वे अल्पवेदना वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारकी समान वेदना वाले नहीं हैं। ७९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब नारकी समान क्रिया वाले हैं ? ७९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ८० प्रश्न--हे भगवन् ! किस कारण से ?. ८० उत्तर-हे गौतम ! नारको जीव तीन प्रकार के कहे गये है। यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि-मिश्रदृष्टि । इनमें जो सम्यगदृष्टि हैं उनके चार क्रिया कही गई हैं-आरम्भिको, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यान क्रिया। मिथ्यादृष्टि के पाँच क्रिया होती है-आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया। इसी तरह सम्यमिथ्यादृष्टि के भी पांच क्रियाएँ होती हैं । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-सब नारको समान क्रिया वाले नहीं हैं। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिकों के समवेदना आदि ८१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब नारकी समान आयुष्य वाले हैं और समोपपन्नक-एक साथ उत्पन्न होने वाले हैं ? ८१ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं। ८२ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ८२ उत्तर-हे गौतम ! नारको जीव चार प्रकार के कहे गये हैं । यथा१ समायुष्क समोपपन्नक-समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए। २ समायुष्क विषमोपपन्नक-समान आयु वाले और पहले पीछे उत्पन्न हुए । ३ विषमायुष्क समोपपन्नक-विषम आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए । ४ विषमायुष्क विषमोपपन्नक-विषम आयु वाले और पहले पीछे उत्पन्न हुए। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारको जीव समायुष्क समोपपत्रक अर्थात् समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए नहीं हैं। विवेचन-श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! क्या सब नारकी जीव समान वेदना वाले हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-सब जीव समान वेदनां वाले नहीं हैं, क्योंकि नारकी जीवों के दो भेद है-संजीभूत और असंज्ञीभूत । संज्ञीभूत नारकियों को बहुत वेदना होती है और असंजीभूत नारकियों अल्प वेदना होती है। . __यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत किसे कहते हैं ? इस सम्बन्ध में टीकाकार का कयन इस प्रकार है-संज्ञा का अर्थ है-सम्यग्दर्शन अर्थात् शुद्ध श्रद्धा । सम्यग्दर्शन वाले जीव को संज्ञी कहते हैं और जिस जीव को संज्ञीपन प्राप्त हुआ है, उसे संज्ञीभूत कहते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि को संज्ञीभूत कहते हैं । ___संज्ञीभूत का दूसरा अर्थ है-जो पहले असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि) था और अब संज्ञी (सम्यग्दृष्टि) होगया है अर्थात् जो नरक में ही मिथ्यात्व को छोड़ कर सम्यग्दृष्टि हुआ है, वह संज्ञी कहलाता है । संशीभूत को बहुत वेदना होती है। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जब नरक में जाता है या नरक में गये हुए जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है, तब वह अपने पूर्वकृत कर्मों का विचार करता है और सोचता है कि-अहो ! मैं कैसे घोर संकट में हैं। अरिहन्त भगवान् का धर्म सब संकटों को टालने वाला और परमानन्द देने वाला है, उसका मैंने आचरण नहीं किया । इसी कारण यह अचिन्तित आपदा आ पड़ी हैं । कामभोग जो ऊपरी दृष्टि से अच्छे प्रतीत होते थे, किन्तु जिनका परिणाम अत्यन्त दारुण हैं, उनमें फंसा For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र-शः १ उ. २ नैरयिकों के समवेदना आदि १२५ रहा । इन कामभोगों के जाल में फंस जाने के कारण ही मैंने अरिहन्त भगवान् के धर्म का आचरण नहीं किया। मैने नर-भव निष्फल गंवा दिया। इस प्रकार का पश्चात्ताप संज्ञिभूत नारकी को होता है, जिससे उसकी मानसिक वेदना बढ़जाती है और जिससे वह महावेदना का अनुभव करता है। असंज्ञिभूत का अर्थ है-मिथ्यादृष्टि । उसे यह ज्ञान ही नहीं है कि-हम अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं । अतएव उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता और न मानसिक पीड़ा ही होती है । इसलिए असंज्ञिभूत नैरयिक अल्प वेदना का अनुभव करता है। सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व अवस्था में नरक का आयुष्य नहीं बांधता, किन्तु जिसने मिथ्यात्व अवस्था में नरक का आयु बाँध लिया हो, ऐसा जीव फिर चाहे सम्यक्त्व प्राप्त कर भी ले तो भी उसे पूर्व बद्ध नरकायु के अनुसार नरक में अवश्य जाना पड़ता है । नरक में जाने पर भी वह सम्यग्दृष्टि रह सकता है और उसे अपने कृतकर्मों पर पश्चात्ताप होता है। तात्पर्य यह है कि नरक में सम्यग्दृष्टि महावेदना का अनुभव करता है, क्योंकि उसे पश्चात्ताप अधिक होता है । असंज्ञिभूत अर्थात् मिथ्यादृष्टि को अल्पवेदना होती है, क्योंकि स्वकृत कर्मों को न जानने से उसे पश्चाताप नहीं होता। संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत शब्दों के अर्थ में किसी किसी आचार्य का मत भिन्न है। उनका कहना है कि-संज्ञिभूत का अर्थ यहां संज्ञी पञ्चेन्द्रिय है अर्थात् जो जीव नरक में जाने से पहले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय था, उसे यहाँ संज्ञिभूत कहा गया है । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव में तीव्र अशुभ परिणाम हो सकते हैं। इसलिए वह सातवीं नरक तक जा सकता है । जो जीव आगे की नरकों में जाता है उसको अधिक वेदना होती है । नरक में जाने से पहले जो जीव असंज्ञी था उसे यहाँ 'असंज्ञिभूत' कहा गया है। ऐसा जीव रत्नप्रभा के तीव्र वेदना रहित नरक स्थानों में उत्पन्न होता है । अतः उसे अल्प वेदना होती है। . अथवा-यहाँ संज्ञिभूत का अर्थ 'पर्याप्त' और 'असंज्ञिभूत' का अर्थ 'अपर्याप्त' है। जिस नारकी ने सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण करली हों, उसे 'पर्याप्त' कहते हैं और जिसने अभी तक उन्हें पूर्ण न किया हो उसे - 'अपर्याप्त' कहते हैं । संज्ञिभूत अर्थात् पर्याप्त को महावेदना होती है और 'असंज्ञीभूत' अर्थात् अपर्याप्त को अल्पवेदना होती है। . संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत शब्दों के ये सभी अर्थ अपेक्षाकृत ठीक हैं। गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! क्या सभी नारकी जीव समान क्रिया वाले हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-नहीं, सभी नारकी जीव समान क्रिया वाले नहीं For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२६ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिकों के समवेदना आदि हैं, क्योंकि नरक के जीव तीन प्रकार के हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि)। क्रियाएँ पाँच हैं-आरंभिया (आरम्भिकी), परिग्गहिया (पारिग्रहिकी), मायावत्तिया (मायाप्रत्यया), अपच्चक्खाणिया (अप्रत्याख्यानिकी), मिच्छादसणवत्तिया (मिथ्यादर्शनप्रत्यया)। . सम्यग्दृष्टि को चार क्रियाएँ लगती हैं। यथा-आरम्भिकी, पारिश्रहिकी, माया-. प्रत्यया और अप्रत्याख्यानिकी। मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि को उपर्युक्त पाँचों क्रियाएँ लगती हैं। इन क्रियाओं का अर्थ इस प्रकार है- आरम्भिकी-पृथ्वीकायादि छह काया रूप जीव तथा अजीव (जीव रहित शरीर, आटे आदि के बनाये हुए जीव की आकृति के पदार्थ या वस्त्रादि) के आरम्भ से लगने वाली क्रिया को 'आरम्भिकी' कहते हैं। पारिग्रहिकी-'परिग्रहो धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारः, धर्मोपकरणमूर्छा च, स . प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिको' । अर्थ-धर्मोपकरण जो धर्म की साधना के लिए रखे जाते हैं उनको छोड़कर अन्य समस्त पर-पदार्थ परिग्रह है और धर्मोपकरणों पर ममता होना भी परिग्रह है । मूर्छाममत्वभाव से लगने वाली क्रिया-'पारिग्रहिकी'-है। मायाप्रत्यया-मरलना का भाव न होना-कुटिलता का होना माया है। क्रोध, मान, माया और लोभ के निमित्त से लगने वाली क्रिया-मायाप्रत्यया क्रिया कहलाती है। . अप्रत्याख्यानिकी-अप्रत्याख्यान अर्थात् थोड़ा-सा भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यानिकी है। अथवा अव्रत से जो कर्मबन्ध होता है वह अप्रत्याख्यानिकी क्रिया है। - मिथ्यादर्शनप्रत्यया-जीव को अजीव, अजीव को जीव, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, साधु को असाधु, असाधु को साधु समझना इत्यादि विपरीत श्रद्धान से तथा तत्त्व में अश्रद्धान आदि से लगने वाली क्रिया-मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है। यद्यपि दूसरी जगह “मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगाः बन्धहेतवः" अर्थात्मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कर्मबन्ध के कारण हैं-ऐसा कहा हैं, और यहाँ आरम्भ परिग्रह आदि को कर्मबन्ध का कारण कहा है तथापि इसमें तात्त्विक विरोध नहीं है, क्योंकि आरम्भ परिग्रह योग के अन्तर्गत है, और योग आरम्भ परिग्रह रूप ही है तथा प्रमाद तो सब कारणों के साथ ही है। शेष तीन कारण मिथ्यात्व, अविरति और कषाय दोनों जगह समान हैं। For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ असुरकुमारादि में समाहारादि १२७ + + इसके पश्चात् गौतमस्वामी ने यह प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! क्या सब नारकी जीव समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! ऐसा नहीं है, क्योंकि इस विषय में नारकी जीवों में चार भंग हैं । यथा(१) समायुष्क समोपपन्नक-समान-साथ में आयुष्य के उदय वाले अर्थात् एक समय में जन्मे हुए और समोपपन्नक-एक साथ परभव में उत्पन्न होने वाले अर्थात् यहाँ से साथ मर कर कर एक साथ पर भव में जाने वाले समायुष्क समोपपन्नक कहलाते हैं । (२) समायुष्क विषमोपपन्न क-साथ में आयुष्य के उदय वाले अर्थात् एक समय में उत्पन्न हुए और विषमोपपन्नक-अलग अलग समय में परभव में उत्पन्न होने वाले अर्थात् यहाँ से भिन्न भिन्न समयों में मर कर परभव में जाने वाले समायुष्क विषमोपपन्नक कहलाते हैं । (२) विषमायुष्क समोपपत्रक-जो अलग-अलग समय में उत्पन्न होने वाले हैं पर साथ में ही परभव में जाने वाले हैं । (४) विषमायुष्क विषमोपपन्नक-जो अलग अलग समय में उत्पन्न होने वाले हैं और अलग अलग समय में ही परभव में जाने वाले हैं। - इस प्रकरण में पहले नारकी जीवों के दो भेद किये, फिर तीन भेद किये और फिर चार भेद किये । ये सब अपेक्षाकृत भेद हैं, अतः विरोध की कोई संभावना नहीं हैं। असुरकुमारादि में समाहारादि __८३ प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा, समसरीरा ? ८३ उत्तर-जहा नेरइया तहा भाणियव्वा, नवरं कम्म-वण्णलेस्साओ परिवण्णेयव्वाओ-पुन्वोववण्णगा महाकम्मतरागा, अविसुद्धवण्णतरागा, अविसुद्धलेसतरागा । पच्छोववण्णगा पसत्था, सेसं तहेव । एवं जाव-थणियकुमाराणं । For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ भगवती सूत्र-श. उ. २ असुरकुमारादि में आहारादि । विशेष शब्दों के अर्थ-माणियव्वा-कहना चाहिए, गवरं-इतनी विशेषता है, . इतना अन्तर है, पसत्था-प्रशस्त-अच्छा । ___भावार्थ-८३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब असुरकुमार समान आहार चाले और समान शरीर वाले हैं ?-- ८३ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमारों का वर्णन नारकी जीवों के समान कहना चाहिए । विशेषता यह है कि-असुरकुमारों के कर्म, वर्ण और लेश्या नारको जीवों से विपरीत कहना चाहिए अर्थात् पूर्वोपपन्नक (पूर्वोत्पन्न) असुरकुमार महाकर्म वाले, अविशुद्ध वर्ण वाले और अविशुद्ध लेश्या वाले हैं और पश्चादुपपन्नक (बाद में उत्पन्न होने वाले) प्रशस्त हैं। शेष पहले के समान समझना चाहिए। इसी तरह स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए। विवेचन-सात नरकों का एक दण्डक है और वह पहला दण्डक है । उसके विषय में प्रश्नोत्तर हो चुके । असुरकुमारों का दूसरा दण्डक है । अब उनके विषय में प्रश्नोत्तर आरम्भ होते हैं। गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! क्या सब असुरकुमार देवों का आहार और शरीर एक समान हैं ? भगवान् ने फरमाया कि ऐसा नहीं है । असुरकुमारों के विषय में भी सभी बाते नैरयिकों के समान ही हैं। इतना फर्क है कि असुरकुमारों का कर्म, वर्ण और लेश्या नैरयिकों के कर्म, वर्ण और लेश्या से विपरीत समझना चाहिए। नारकी जीवों के समान असुरकुमार भी अल्प शरीर वाले और महा शरीर वाले हैं। महाशरीर वाले असुरकुमार बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं और बार बार आहार करते हैं तथा बार बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं । अल्प शरीर वाले असुरकुमार थोड़े पुद्गलों का आहार करते हैं, बारबार आहार नहीं करते और बारबार श्वासोच्छ्वास नहीं लेते। ___असुरकुमारों काभवधारणीय (स्वाभाविक) शरीरं जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग का और उत्कृष्ट सात हाथ का होता है । उत्तर वैक्रिय की अपेक्षा जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन होता है। ___ यहाँ असुरकुमारों के मनोभक्षी (मानसिक-आहार ग्रहण करने का मन होते ही इष्ट कान्त आदि आहार के पुद्गल मनोभक्षी आहार के रूप में परिणत होजाते हैं) आहार को मुख्य करके उसकी अपेक्षा से कथन किया गया है-अल्प शरीर वालों का अल्प (कम) आहार और महाशरीर वालों का अधिक आहार अपेक्षा कृत समझना चाहिए । जैसे किसी For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ असुरकुमारादि में आहारादि १२९ असुरकुमार का शरीर सात हाथ का है और किसी का छह हाथ का । सात हाथ वाले की अपेक्षा छह हाथ वाले का आहार कम है, परन्तु पाँच हाथ वाले की अपेक्षा छह हाथ वाले का अधिक है । इस प्रकार कम अधिक होना अपेक्षाकृत है । यहाँ पर पांच हाथ आदि की अवगाहना उत्पत्ति के अन्तर्मुहूर्त में ही समझना चाहिए । पूर्ण अवगाहना होने पर सभी की अवगाहना सात हाथ की हो जाती है। शङ्का-असुरकुमारों का आहार चतुर्थभक्त (एक दिन के अन्तर से होने वाला) और श्वासोच्छ्वास सात स्तोक में लेना कहा है। फिर यहां बारबार आहार और बारबार श्वासोच्छ्वास क्यों कहा है ? समाधान-'बारबार आहार' यह कथन भी अपेक्षाकृत समझना चाहिए। जैसे एक असुरकुमार चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन के अन्तर से आहार करता है और दूसरा असुरकुमार देव सातिरेक (साधिक)एक हजार वर्ष में एक बार आहार करता है । सातिरेक एक हजार वर्ष में एक बार आहार करने वाले की अपेक्षा एक दिन के अन्तर से आहार करने वाला 'बारबार आहार करता है' ऐसा कहा जाता है और जो पाँच दिन के अन्तर से आहार करता है वह उसकी अपेक्षा 'कदाचित् आहार करता है' ऐसा कहा जाता है । लोक में भी ऐसा ही व्यवहार होता है । यही बात श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए। कोई असुरकुमार सात स्तोक में एक बार श्वासोच्छ्वास लेता है और कोई असुरकुमार सातिरेक एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेता है, तो इसकी अपेक्षा सात स्तोक में श्वासोच्छ्वास लेने वाला 'बारबार श्वासोच्छ्वास लेता हैं'-ऐसा कहा जाता है। . अथवा-अल्पशरीरी का अल्पाहार और अल्प श्वासोच्छ्वास तथा कदाचित् आहार और कदाचित् श्वासोच्छ्वास अंतराल की अपेक्षा से कहा गया है । अल्पशरीर वालों के आहार और श्वासोच्छ्वास में अन्तराल बहुत पड़ जाता है । इस अपेक्षा से यह कथन किया गया है। __अन्तराल का अर्थ है -बीच या अन्तर । एक आहार से दूसरे आहार के बीच के समय का अन्तर या व्यवधान कहलाता है। यद्यपि महाशरीर वाले के आहार में भी अन्तराल है-एक दिन का अन्तर पड़ता है, परन्तु वह अन्तर अन्य देवों की अपेक्षा अत्यल्प है, इसलिए नगण्य है । नगण्य होने के कारण ही अल्पशरीरी की अपेक्षा महाशरीरी का आहार 'अभीक्ष्णं-बारम्बार आहार' कहा गया है । यह बात आगम से भी सिद्ध है कि-महाशरीर वाले का आहार बारबार होता है और अल्पशरीर वाले का आहार-अन्तराल बड़ा होने से बारबार नहीं होता । यथा-प्रथम देवलोक के देव का शरीर सात हाथ का है । उनका आहार दो हजार वर्ष के अन्तर से और . For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. भगवती सूत्र-श. १ उ. २ असुरकुमारादि. में समाहारादि श्वासोच्छ्वास दो पक्ष के अन्तर से होता है। अनुत्तर विमान के देव का शरीर एक हार का है और उनका आहार तेतीस हजार वर्ष के अन्तर से तथा श्वासोच्छ्वास तेतीस पक्ष के अन्तर से होता है । इस अपेक्षा से प्रथम देवलोक के देवों का शरीर बड़ा है, इसलिए ₹ आहार और श्वासोच्छ्वास भी बारबार लेते हैं । इनकी अपेक्षा अनुत्तर विमान के देवों का शरीर छोटा हैं, इसलिए वे आहार और श्वासोच्छ्वास भी अल्प लेते हैं । यही बात असुरकुमारों के विषय में भी है। अथवा-पर्याप्त अवस्था में महाशरीर वाले असुरकुमार लोमाहार की अपेक्षा बारबार आहार लेते हैं और अपर्याप्त अवस्था में अल्पशरीर वाले असुरकुमार लोमाहार नहीं करते, किन्तु ओजाहार ही करते हैं, इस अपेक्षा से भी महाशरीर वाले बारबार आहार करते हैं और अल्पशरीर वाले कदाचित् आहार करते हैं, ऐसा कहा गया है। भगवान् ने असुरकुमारों के कर्म, वर्ण और लेश्या की असमानता बतलाते हुए यह । भी बतलाया है कि इनके कर्म आदि का कथन नारकियों से उल्टा है । इसका आशय यह . है कि-नैरयिकों में जो पूर्वोपपन्नक (पूर्वोत्पन्न) हैं. वे अल्प कर्म, विशुद्ध वर्ण और विशद्ध लेश्या वाले हैं और पश्चादुपपन्नक महाकर्म, अविशुद्ध वर्ण और अविशुद्ध लेश्या वाले हैं, किन्तु असुरकुमारों में इससे विपरीत है। पूर्वोपपन्नक असुरकुमार महाकर्म, अविशुद्ध वर्ण और अविशुद्ध लेश्या वाले हैं और पश्चादुपपन्नक अल्प कर्म, विशुद्ध वर्ण और विशुद्ध लेश्या वाले हैं। इस विपरीतता का कारण यह है कि पूर्वोपफ्नक असुरकुमारों का चित्त अतिकन्दर्प और दर्प युक्त होने से वे नरक के जीवों को बहुत त्रास देते हैं । त्रास सहन करने के नरक के जीवों के तो निर्जरा होती है, किन्तु असुरकुमारों के नये कर्मों का बन्ध होता है । वे अपनी क्रूर भावना के कारण एवं विकारादि के कारण अपनी अशुद्धता बढ़ाते हैं । उनका पुण्य क्षीण होता जाता है, पाप कर्म बढ़ता जाता है, इसलिए वे महाकर्मी होते हैं, उनका वर्ण और लेश्या अशुद्ध हो जाती है । इस अपेक्षा से पश्चादुपपन्नक असुरकुमार अल्पकर्मी, विशुदं वर्ण वाले और विशुद्ध लेश्या वाले होते हैं । . अपवा-बद्धायुष्क की अपेक्षा देखा जाय तो पूर्वोत्पन्न असुरकुमार यदि तिर्यन गति का आयुष्य बांध चुके हों, तो वे महाकर्म अशुद्ध वर्ण और अशुद्ध लेश्या वाले होते है। पश्चादुत्पन्न हुए असुरकुमारों ने बभी परलोक का आयुष्य नहीं बांधा हो, तो वे अपने साथ जो शुभ कर्म के गये हैं, वे ज्यादा क्षीण न होने से वे अल्प कर्म, विशुद्ध वर्ण और विशुद्ध लेश्या बाले होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्र - श. १ उ. २ पृथ्वीकायिक में आहारादि १३१ असुरकुमारों की वेदना भी नारकी जीवों की तरह होती है, क्योंकि उनमें भी नयिकों की तरह दो भेद है - संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । संज्ञीभूत चारित्र के विराधक होते हैं । इसलिए चारित्र की इस विराधना के कारण उन्हें पश्चात्तापजन्य मानसिक वेदना बहुत होती है । इसलिए संज्ञीभूत ( सम्यग्दृष्टि ) महावेदना वाले होते हैं । असंज्ञीभूत अर्थात् मिथ्यादृष्टि असुरकुमारों को यह वेदना नहीं होती है। इस कारण से वे अल्पवेदना वाले होते हैं 1 अथवा - पूर्व भव में जो संज्ञी (समनस्क) थे वे संज्ञीभूत कहलाते हैं अथवा जो पर्याप्त अवस्था प्राप्त कर चुके हैं, वे संज्ञीभूत कहलाते हैं । इन्हें शुभ वेदना की अपेक्षा महावेदना होती है और असंज्ञीभूत को अल्पवेदना होती है। शेष सब वर्णन नैरयिकों की तरह यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए । पृथ्वीकायिक में आहारावि ८४ - पुढविकाइयाणं आहार कम्म - वन्न - लेस्सा जहा णेरइयाणं । ८५ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! सव्वे समवेयणा ? ८५ उत्तर - हंता, समवेयणा । ८६ प्रश्न - से केणणं भंते ! समवेयणा ? ८६ उत्तर - गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे असन्नी असन्निभूयं अणिदाए वेयणं वेदेंति, से तेणट्टेणं. ८७ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? ८७ उत्तर - हंता, समकिरिया । ८८ प्रश्न - से केणट्टेणं ?. For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ पृथ्वीकायिक में आहारादि ८८ उत्तर-गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे माई मिच्छादिट्ठी ताणं णियइयाओ पंच किरियाओ कज्जति, तं जहाः-आरंभिया जाव-मिच्छादसणवत्तिया । से तेणटेणं......समाउया, समोवनगा जहा नेरइया तहा भाणियव्वा । विशेष शब्दों के अर्थ-अणिदाए-अनिर्धारित रूप से । माई-मायी-माया का सेवन करने वाले। भावार्थ-८४ पृथ्वीकाय के जीवों का आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या नैरयिकों के समान समझना चाहिए। ८५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले ८५ उत्तर-हाँ, गौतम ! समान वेदना वाले हैं। ८६ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ८६ उत्सर-हे गौतम ! सब पृथ्वीकायिक जीव असशी हैं और असंजीभूत वेदना को अनिर्धारित रूप से वेदते हैं। इस कारण हे गौतम ! वे सब समान वेदना वाले हैं। । ८७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब पृथ्वीकायिक जीव समान क्रिया वाले. .. ८७ उत्तर-हाँ, गौतम ! सब समान क्रिया वाले हैं। ८८ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ८८ उत्तर-हे गौतम ! सब पृथ्वीकायिक जीव मायी और मिथ्यावृष्टि हैं। इसलिए उन्हें नियम से पांचों क्रियाएं लगती हैं। वे पांच क्रियाएँ ये हैंआरम्भिको यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि-सब पृथ्वीकायिक जीव समान क्रिया वाले हैं। जैसे नारकी जीवों में समायुष्क समोपपन्नक आदि चार भंग कहे हैं । For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ पृथ्वीकायिक में आहागदि १३३ वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों में भी कहना चाहिए। - विवेचन-श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के सब जीव समान आहारी हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! पृथ्वीकाय के सब जीव समान आहारी नहीं है, क्योंकि पृथ्वीकाय के जीवों के.दो भेद हैं-महाशरीरी और अल्पशरीरी। महाशरीरी का आहार आदि वारबार होता है और अल्पशरीरी का कदाचित् होता है, इत्यादि समस्त वर्णन तथा कर्म, वर्ण, लेश्या आदि का वर्णन नैरयिकों के समान ही सम-. झना चाहिए। ___ शंका-पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग कहा गया है, फिर उनमें महाशरीर और अल्पशरीर कैसे हो सकता है ? समाधान-अँगुल के असंख्यातवें भाग वाले शरीर में भी तरतमता से असंख्य भेद होते. हैं । अतएव एक दूसरे की अपेक्षा से उनमें कोई महाशरीरी है और कोई अल्पशरीरी है। इस सम्बन्ध में आगम प्रमाण है। पन्नवणा सूत्र में कहा है-+पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना की अपेक्षा चउट्ठाणवडिया (चतुःस्थान पतित) है । यथा-असंख्यातभागहीन, संख्यात-भागहीन, संख्यात-गुणहीन, असंख्यात-गुणहीन, असंख्यात-भागवृद्ध, संख्यातभागवृद्ध, संख्यात-गुणवृद्ध, असंख्यात-गुणवृद्ध । इन चार स्थान वाले होते हैं । इन्हें चउट्ठाणवडिया कहते है । तात्पर्य यह है कि-यद्यपि सब पृथ्वीकायिक जीव अंगुल के असंख्यातवें भाग शरीर वाले हैं, तथापि उनकी परस्पर अवगाहना में चउट्ठाणवडिया हीनता औरच उट्ठाणवडिया वृद्धि पाई जाई जाती हैं। इस अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव अल्पशरीरी भी है और महाशरीरी भी है। . ... + 'पुढबीककाइए पुढवीक्काइयस्स ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवहिए'। + वुढ्ढी वा हाणी वा, अणंत-अस्संख-संखभागेहि । वत्थूण संख-अस्संखऽणंतगुणणेण य विहेआ॥ - जहाँ छट्ठाण वडिया (षट्म्थान पतित) शब्द आता है, वहां छह स्थान इस प्रकार हैं-वृद्धि सम्बन्धी छह स्थान-अनन्त-भाग-वृद्ध, असंख्यात-भाग-वृद्ध, संख्यात-भाग-वृद्ध, संख्यात-गुण-वृद्ध, असंख्यात . गुण-वृद्ध, अनन्त-गण-वृद्ध । हानि सम्बन्धी छह स्थान ये हैं-अनन्त-भाग-हीन, असंख्यात-भाग-हीन, संख्यात-भाग-हीन, संख्यातगुण-हीन, असंस्थात-गुण-हीन, अनन्त-गुण-हीन । इसी तरह तिहाणज्यिा , दुट्ठाणवडिया, एगट्ठाणवडिया आदि भी समझ लेना चाहिए। . For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ बेइन्द्रियादि में आहारादि दि . महाशरीर वाले पृथ्वीकायिक लोमाहार द्वारा बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं और बारबार श्वासोच्छ्वास लेते हैं। अल्पशरीरी कम आहार करते हैं और कम श्वासोच्छ्वास लेते हैं । कदाचित् आहार लेते हैं और कदाचित् आहार नहीं लेते हैं । यही बात पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के लिए भी कही जा सकती है। पृथ्वीकायिक जीवों के कर्म, वर्ण और लेश्या का वर्णन नरयिक जीवों के समान समझना चाहिए। ___ सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना को वेदते हैं । इसका कारण यह है कि सब पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और असंज्ञीभूतं वेदना को वेदते हैं। उनकी वेदना 'अजिंदा' अर्थात् अनिर्धारित होती है । वे सभी मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी (अमनस्क) होने के कारण मूच्छित एवं उन्मत्त पुरुष के समान वे बेसुध होकर कष्ट भोगते हैं। उन्हें इस बात का पता नहीं है कि-यह हमारे पूर्व कर्मों का फल है, हमें कौन पीड़ा दे रहा है, कौन मारता है, कौन काटता है और किस कर्म के उदय से यह वेदना हो रही है। पृथ्वीकायिक जीवों में मायी-मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं जैसा कि कहा है • उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गढहिययमाइल्लो। सढसीलो य ससल्लो. तिरियाउं बंधए जीवो॥ अर्थात्-उन्मार्ग का उपदेश देने वाला, सन्मार्ग का नाश करने वाला, गूढ़ हृदय वाला अर्थात् हृदय में गांठ रखने वाला, मायावी, शठ स्वभाव. वाला और शल्य वाला जीव, पृथ्वीकाय आदि तिर्यञ्च योनि की आयु बाँधता है । यद्यपि पृथ्वीकाय के जीव इस समय मायाचार करते हुए दिखाई नहीं देते हैं, किंतु माया के कारण ही वे पृथ्वीकाय में आये हैं, इसलिए वे मायी-मिथ्यादृष्टि हैं। ___ अथवा-माया का दूसरा अर्थ--अनन्तानुबन्धी कषाय है । जिसके अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है । जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय है । इस कारण पृथ्वीकायिक जीवों के नियमित रूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं। बेइन्द्रियादि जीवों का वर्णन ८९ जहा पुढविकाइया तहा जाव-चरिदिया । For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ बेइन्द्रियादि में आहारादि ९० पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरइया,णाणत्तं किरियासु। ९१ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्खिजोणियाणं भंते ! सव्वे समकिरिया। ९१ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे। . ९२ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? ९२ उत्तर-गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नता तं जहाः-सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी। तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते दुविहा पन्नता, तं जहाः-असंजया य, संजयासंजया य, तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिण्णि किरियाओ कजंति, तं जहाः-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया; असंजयाणं चत्तारि, मिच्छादिट्ठीणं पंच, सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच । विशेष शब्दों के अर्थ–णाणतं--भिन्नता, असंजया--असंयत, संजयासंजयासंयतासंयत, तंजहा-वे इस प्रकार हैं। . भावार्थ-८९- जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीवों का समझना चाहिए। . ९०--पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों का कथन नारकियों के समान है, केवल क्रियाओं में भिन्नता है। • ९१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीव समान क्रिया वाले हैं ? ९१ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ९२ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ९२ उत्तर-हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीव तीन प्रकार For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ बेइन्द्रियादि में आहारादि के हैं - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ) । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं वे दो प्रकार के हैं- असंयत और संयतासंयत । उनमें जो संयतासंयत हैं उन्हें तीन क्रियाएँ लगती हैं । वे इस प्रकार हैं- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । उनमें जो असंयत हैं उन्हें अप्रत्याख्यानी क्रिया सहित चार क्रियाएँ लगती हैं । उनमें जो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं उन्हें पाँच क्रियाएँ लगती हैं । विवेचन - अप्काय, ते काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय का वर्णन पृथ्वीकाय के समान समझना चाहिए। इनमें अल्पशरीर और महाशरीर अपनी अपनी अवगाहना की अपेक्षा समझना चाहिए । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीवों में कवलाहार भी होता है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों के लिए जो यह बात कही गई है- 'जो महाशरीर वाले हैं वे बारम्बार आहार करते हैं और बारम्बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं ।' यह बात संख्यात वर्ष की आयु वालों की अपेक्षा से समझनी चाहिए, यहां पर असंख्यात वर्ष की आयु वाले नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उनका प्रक्षेपाहार छट्टभत्त-दो दिन के अन्तर से होता है । अल्पशरीर वालों के जो कदाचित् कहा है वह अपर्याप्त अवस्था में लोमाहार और श्वासोच्छ्वास न होने से कहा गया है। पर्याप्त अवस्था में ये दोनों होते हैं, इसलिए 'बारम्बार' कहा है । पूर्वोत्पन्न जीव अल्पकर्मी और पश्चादुत्पन्न जीव महाकर्मी होते हैं । यह जो कहा गया है वह आयुष्यादि तद्भववेद्य कर्मों की अपेक्षा समझना चाहिए । वर्ण और लेश्या सूत्र में पूर्वोत्पन्न जीवों के जो शुभवर्णादि कहे गये हैं, वे युवावस्था 'की अपेक्षा समझना चाहिए। और पश्चादुत्पन्न जीवों में जो अशुभ वर्णादि कहे गये हैं वे बचपन की अपेक्षा समझना चाहिए । लोक व्यवहार में इसी प्रकार देखा जाता है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में सम्यग्दृष्टि संयतासंयत ( देशविरत श्रावक ) के तीन क्रियाएँ होती हैं । सम्यग्दृष्टि असंयत के चार क्रियाएँ होती है । मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि जीवों के पाँचों क्रियाएँ होती हैं । For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ मनुष्य के आरंभिकी आदि क्रिया १३७ . - - मनुष्य के आरंभिको आदि किया ९३-मणुस्सा जहा नेरहया, नाणतं-जे महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति, ते आहाच आहारेति । जे अप्पसरीरा ते अप्पतराए पोग्गले आहारेति । अभिरखणं आहारेति । सेसं जहा णेरइयाणं जाव-चेयणा। . ९४ प्रश्न-मणुस्सा णं भंते ! सब्वे समकिरिया ? ___९४ उत्तर-गोयमा ! णो इणडे समटे । ९५ प्रश्न-से केणटेणं ? . ९५ उत्तर-गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पनत्ता, तं जहाःसम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी; तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहाः-संजया, असंजया, संजयाऽसंजया । तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहाः-सरागसंजया य, वीयरागसंजया य । तत्य णं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया । तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पन्नत्ता; तं जहाःपमत्तसंजया य, अपमतसंजया य, तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया तेसि णं एगा मायावत्तिया किरिया कजइ, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसि णं दो किरियाओ कजंति, तं जहाः-आरंभिया य, मायावत्तिया य, तत्थ णं जे ते संजयाऽसंजया तेसि णं आइल्लाओ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ मनुष्य के आहारादि (आदिमाओ) तिण्णि किरियाओ कजंति, तं जहाः-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया । असंजयाण चत्तारि किरियाओ कजंतिः- आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पञ्चरखाणपच्चया । मिच्छादिट्ठीणं पंचः-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पचक्खाणपञ्चया, मिच्छादसणवत्तिया । सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच। विशेष शब्दों के अर्थ-सरागसंजया-सराग संयत, वीयरागसंजया-वीतराग संयत, पमत्तसंजया-प्रमत्त संयत, अप्पमत्तसंजया-अप्रमत्तसंयत, कज्जइ-की जाती है । आइल्लाओ-आदि की = प्रारंभ की = पहले की। भावार्थ-९३-मनुष्यों का वर्णन नारकियों के समान समझना चाहिए। उनमें इतना अन्तर है कि-जो महाशरीर वाले हैं, के बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं और वे कभी कभी आहार करते हैं। जो अल्पशरीर हैं. वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बारबार आहार करते हैं। शेष सब वेदना पर्यन्त नारकियों के समान समझना चाहिए। ९४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ? ९४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ९५ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? - ९५ उत्तर-हे गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्या- . दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यगदृष्टि हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैं-संयत, संयतासंयत और असंयत । इनमें से संयत दो प्रकार के कहे गये हैं-सरागसंयत और वीतरागसंयत। इनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रिया रहित हैं । सरागसंपत के दो भेद हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । अप्रमत्तसंयत को एक मायावत्तिया क्रिया लगती है। प्रमत्तसंयत को दो क्रियाएँ लगती For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ मनुष्य के आहारादि 'हैं - आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । संयतासंयत को तीन क्रियाएँ लगती हैंआरम्भिकी, पारिग्रहिको और मायाप्रत्यथा । असंयत मनुष्य को चार क्रियाएँ लगती हैं - आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानप्रत्यया । मिथ्यादृष्टि मनुष्य को पाँच क्रियाएँ लगती हैं—आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सम्यग्मिथ्यादृष्टि ( मिश्र दृष्टि ) मनुष्य को भी ये पाँचों क्रियाएँ लगती हैं । विवेचन- गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान आहार करने वाले हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि इनका सारा वर्णन नारकियों के समान ही समझ लेना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है- महाशरीरवाले मनुष्य बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, परन्तु कदाचित् आहार करते हैं। महाशरीरी नारकी बारबार आहार करते हैं, किन्तु महाशरीरी मनुष्य कभी कभी आहार करते हैं। यहां महाशरीरी मनुष्यों से. देवकुरु आदि के मनुष्य लेना चाहिए। उनका शरीर तीन गाऊ का होता है और आहार अष्टम-भक्त होता है अर्थात् तीन दिन में एक बार आहार करते हैं। इस अपेक्षा से 'कदाचित् आहार करनेवाले' ऐसा कहा गया है । यद्यपि वे परिमाण की अपेक्षा अल्प परिमाण में आहार करते हैं, तथापि बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं. ऐसा जो कहा गया है। उसका आशय यह है कि वे सारभूत आहार करते हैं, सारभूत आहार में जितने पुद्गल होते हैं, निःसार में उतने नहीं होते। इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं । १३९ अल्पशरीरी मनुष्य थोड़े पुद्गलों का आहार करते हैं और बारबार आहार करते हैं, जैसे कि बालक बारबार आहार करता है तथा सम्मूच्छिम मनुष्य अल्पशरीरी होते हैं और वे बारबार आहार करते हैं । यहाँ पूर्वोत्पन्न मनुष्यों में जो शुभ वर्णादि का कथन किया गया है वह युवावस्था की अपेक्षा समझना चाहिए अथवा यह कथन सम्मूच्छिम मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए । इसके बाद क्रिया का प्रश्न किया गया है । भगवान् ने फरमाया कि - मनुष्य तीन प्रकार के है - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि सम्यग् मिथ्यादृष्टि । जो संयम का पालन करता है, चारित्ररूपी यतना का विवेक रखता है वह संयत For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भगवती सूत्र-श. १ उ. २ मनुष्य के आहारादि कहलाता है । जिसमें चारित्र की क्रिया नहीं है वह असंयत है । जो देश चारित्र की आराधना करता है, जिसके अणुव्रत हैं परन्तु महाव्रत नहीं हैं वह संयतासंयत (श्रावक) कहलाता हैं। जो संयम का पालन करता है, किन्तु संज्वलन कषाय का क्षय या उपशम नहीं हुआ है, वह 'सरागसंयत' कहलाता है । जिसके सम्पूर्ण कषाय का सर्वथा क्षय या उपशम होगया है उसे क्रमशः 'क्षीणकषायी वीतराग संयत' और 'उपशान्त कषायी वीतराग संयत' कहते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशांत कषायी वीतराग कहलाते हैं और बारहवें, तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवाले क्षीण कषायी वीतराग कहलाते है। .... ___ वीतराग संयत कर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया से रहित होते हैं । यद्यपि सयोगी अंवस्था में योग की प्रवृत्ति से होनेवाली ईर्यापथिक क्रिया उनमें विद्यमान है, परन्तु वह क्रिया नहीं के बराबर है और इन पांच क्रियाओं में उसकी गणना नहीं है। अप्रमत्त संयत में सिर्फ एक मायाप्रत्यया होती है, क्योंकि वह क्षीण कषायी नहीं है। उसमें कषाय अवशिष्ट है । कषाय के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया कहलाती है। . यहां पर टीकाकार ने यह बात कही है कि: "कदाचिदुड्डाहरक्षणप्रवृत्तानामक्षीणकषायत्वादिति"' अर्थात्-उड्डाह (धर्म पर आया हुआ कलंक एवं धर्म की होती हुई हंसी) से रक्षण के निमित्त 'अप्रमत्त-संयत मायाप्रत्यया क्रिया का सेवन करते हैं, क्योंकि उनके कषाय अभी क्षीण नहीं हुए हैं। किन्तु टीकाकार की यह बात आगम से मेल नहीं खाती है, क्योंकि अप्रमत्त अवस्था में आहारक लब्धि का भी प्रयोग नहीं करते हैं, तो फिर जानबूझकर प्राणवध सरीखी क्रिया में तो प्रवृत्ति करे ही कैसे ? और यह क्रिया दशवें गुणस्थान तक है फिर 'उड्डाह' रक्षक कार्य की संगति वहां तक कैसे बैठेगी? इसलिए अप्रमत्त संयत में तो यह क्रिम कषाय के सीव से ही लगती है, विपरीत प्रवृत्ति के कारण नहीं। प्रमत्त संयत को आरम्भिकी और मायाप्रत्यया ये दो क्रियाएँ लगती हैं। "सर्व प्रमत्तयोग आरम्भः" अर्थात्-सब प्रमत्तयोग औरम्भ रूप है । प्रमत्तसंयत में प्रमाद का अस्तित्व है। इसलिए उसे आरम्भिकी क्रिया लगती है। उसके संज्वलन कषाय का सर्वथा क्षय या उपशम नहीं हुआ है, इसलिए उसे 'मायाप्रत्यया' क्रिया लगती है। For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ देवों का वर्णन संयतासंयत अर्थात् देशविरत (श्रावक) के तीन क्रिया होती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया। श्रावक को अप्रत्याख्यानप्रत्यया क्रिया नहीं लगती है । असंयत सम्यग्दृष्टि के चार क्रियाहोती हैं और मिथ्यादृष्टि तथा मिश्रदृष्टि के पाँचों ही क्रियाएँ होती हैं। देवों का वर्णन ९६-चाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं . वेयणाए णाणत्तं-मायिमिच्छादिट्ठीउववनगा य अप्पवेयणतरा, अमायिसम्मदिट्ठीउववनगा य महावेयणातरागा भाणियव्वा जोइसवेमाणिया। : विशेष शब्दों के अर्थ-अमायिसम्मदिट्ठिउववणगा-जो अमायी सम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न हुए हैं, जोइसवेमाणिया-ज्योतिषी और वैमानिक देव । ... भावार्थ-९६-यहां वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, ये सब असुरकुमारों के समान कहना चाहिए । इनको वेदना में भिन्नता है । ज्योतिषी और वैमानिक्रों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि रूप से उत्पन्न हुए हैं, वे अल्प वेदना वाले हैं और जो अमायी-सम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न हुए हैं वे महावेदनावाले होते हैंऐसा कहना चाहिए। विवेचन - यहां वाणव्यव्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों का वर्णन असुरकुमार देवों के समान बतलाया गया है। इनमें वेदना का भेद है। इन देवों में अल्पशरीरी और महाशरीरी अपनी अपनी अवगाहना के अनुसार समझना चाहिए । वेदना के विषय में असुरकुमारों के लिए यह कहा था कि-जो संज्ञीभूत हैं वे महावेदना वेदते हैं और जो असंज्ञीभूत हैं वे अल्प वेदना वेदते हैं । यही बात वाणव्यन्तर देवों में भी समझना चाहिए क्योंकि असुरकुमारों से लेकर वाणव्यन्तर देवों तक असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं। यह बात इसी उद्देशक में आगे बतलाई जायगी । यथा .. "असन्नीगं जहानेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु"। अर्थात्-असंज्ञी जीव यदि देवगति में उत्पन्न हों तो जघन्य भवनपतियों में और For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ . भगवती सूत्र-श. १ उ. २ लेश्या उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं और वे अल्पवेदना वाले होते हैं । यह बात असुरकुमारों में कही हुई युक्ति के अनुसार समझनी चाहिए । संज्ञीभूत अर्थात् सम्यग्दृष्टि'' और असंज्ञीभूत अर्थात् 'मिथ्यादृष्टि' यह जो पहले अर्थ किया था वह यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। - ज्योतिषी और वैमानिक देवों में तो असंज्ञी जीव उत्पन्न ही नहीं होते हैं । इसलिए इनकी वेदना के सम्बन्ध में कहा गया है कि ज्योतिषी देवों के दो भेद हैं—मायी-मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि उपपन्नक । शुभ वेदना की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि को अल्प वेदना होती है और सम्यग्दृष्टि को महा वेदना होती है। लेश्या ९७ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! नेरइया सव्वे समाहारगा ? ९७ उत्तर-ओहियाणं, सलेस्साणं, सुकलेस्साणं; एएसि णं तिण्हं एको गमो। कण्हलेस्साणं, नीललेस्साणं पि एको गमो । नवरं वेदणाएं-मायिमिच्छदिट्ठीउववनगा य, अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नगा य भाणियव्वा । मणुस्सा किरियासु सरागचीअराग-पमत्ता-ऽपमत्ता न भाणियव्वा, काउलेस्साण वि एसेव गमो । नवरं-नेरइए जहा ओहिओ दंडए तहा भाणियव्वा, तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा जस्स अस्थि जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियव्वा । नवरं-मणुस्सा सरागा, वीयरागा न भाणियव्वा । गाहाः दुक्खा-उए उदिण्णे आहारे कम्म-वन-लेरसा य, समवेयण-समकिरिया समाउए चेव बोधव्वा। For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ लेश्या १४३ विशेष शब्दों के अर्थ-ओहियाणं-औधिक = सामान्य, तिण्हं-तीन का, एक्को गमो-एक गम अर्थात् समान पाठ ।। भावार्थ-९७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या लेश्या वाले सब नैरयिक समान आहार वाले हैं ? ९७ उत्तर-हे गौतम! औधिक-सामान्य, सलेश्य और शुक्ल लेश्या वाले, इन तीनों का एक गम-पाठ कहना चाहिए । कृष्ण लेश्या वालों का और नील लेश्या वालों का एक समान पाठ कहना चाहिए, परन्तु उनको वेदना में इस प्रकार भेद है-मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और अमायी-समदृष्टि उपपन्नक कहने चाहिए तथा कृष्ण लेश्या. और नील लेश्या में मनुष्यों के सराग-संयत, वीतरागसंयत, प्रमत्त-संयत और अप्रमत्तसंयत ऐसे भेद नहीं करना चाहिये। क्योंकि कृष्ण और नील लेश्या वाले वीतराग संयत नहीं होते हैं, किन्तु सराग संयत ही होते हैं, अप्रमत्त संयत नहीं होते हैं, किन्तु प्रमत्त संयत ही होते हैं । कापोत लेश्या में भी यही पाठ कहना चाहिए, किंतु भेद यह है कि कापोत लेश्या वाले नरयिकों को औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वालों को औधिक वण्डक के ही समान कहना चाहिए, विशेषता यह है कि मनुष्यों को सराग और वीतराग नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वे सराग ही होते हैं। . गाथा का अर्थ इस प्रकार है__कर्म और आयुष्य उदीर्ण हो तो वेदते हैं । आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य, इन सब को समानता के सम्बन्ध में पहले कहे अनुसार ही समझना चाहिए। विवेचन-अब लेश्या की अपेक्षा चौबीस दण्डकों का विचार किया जाता है। छह लेश्याओं के छह दण्डक (आलापक) और सलेश्य का एक दण्डक, इस प्रकार. सांत दण्डकों से यहाँ विचार किया गया है । पहले नैरयिकों. का जो वर्णन किया गया है उसमें सामान्य नैरयिकों का प्रश्न था। किन्तु यहाँ पर यह प्रश्न है कि-हे भगवन् ! क्या लेश्या वाले सब नरयिक समान आहारी हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! सलेश्य नारकों के दो भेद. For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ लेश्या हैं - अल्पशरीरी नैरयिक भी सलेश्य हैं और महाशरीरी नैरयिक भी लेश्या युक्त है । अतएव नैरयिकों के आहारादि की वक्तव्यता पहले के समान ही समझनी चाहिए । आहार के विषय में जिस प्रकार प्रश्न किया गया है उसी प्रकार शरीर, श्वासोच्छ्वाम, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात के लिए भी प्रश्न करना चाहिए । इसी प्रकार चौबीस ही दण्डकों को लेकर प्रश्न करना चाहिए । १४४ सामान्य रूप से सलेश्य का प्रश्न करने के पश्चात् कृष्णलेश्या सम्बन्धी प्रश्न आता है । वह इस प्रकार है- क्या कृष्णलेश्या वाले सत्र नारकी समान आहारी है ? इसके उत्तर में भगवान् फरमाते हैं कि नहीं। क्योंकि कृष्णलेश्या यद्यपि सामान्य रूप से एक है तथापि उसके अवान्तर भेद अनेक हैं । कोई कृष्णलेण्या अपेक्षाकृत विशुद्ध होती है, कोई अविशुद्ध होती है। एक कृष्णलेश्या से नरक गति मिलती है और एक कृष्णलेश्या से भवनपति देवों में उत्पत्ति होती है । अतएव कृष्णलेश्या में तरतमता के भेद से अनेक भेद हैं । कृष्णलेश्या वाले नारकियों के दो भेद हैं-अल्पशरीरी और महाशरीरी । अतएव उन सबका आहार समान नहीं है । कृष्णलेश्या और नीललेश्या में मनुष्यों के सरागसंयत, वीतराग संयत, प्रमत्त - संयत और अप्रमत्त संयत, ऐसे भेद नहीं करने चाहिए, क्योंकि कृष्णलेव्या और नीललक्ष्या वाले वीतराग संयत नहीं होते हैं, किन्तु सराग संयत ही होते हैं, अप्रमत्त संयत नहीं होते हैं । किन्तु प्रमत्त संयत ही होते है * । कृष्णलेश्या की तरह सभी लेश्याओं का वर्णन आहार, शरीर आदि नौ पदों को लेकर करना चाहिए। इस प्रकार सात दण्डकों का प्रश्न समझना चाहिए । ९८ प्रश्न - क णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? ९८ उत्तर - गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ता, तंजहा : -लेस्साणं बिईओ उद्देसो भाणियव्वो, जाव इड्ढी । विशेष शब्दों के अर्थ - बिईओ - दूसरा, उद्देसो- उद्देशक, जाव-यावत् = तक, पर्यन्त, हड्डी-ऋद्धि । भावार्थ - ९८ प्रश्न - हे भगवन् ! कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? ● पाद टिप्पण पु० ९१ में देखें। For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल ९८ उत्तर - हे गौतम ! छह लेश्याएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार हैंकृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल । यहां पन्नवणा सूत्र के लेश्या पद का दूसरा उद्देशक कहना चाहिए। वह ऋद्धि की वक्तव्यता तक कहना चाहिए । विवेचन - गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम ! - लेश्याएँ छह है। पन्नवणा सूत्र के सतरहवें पद के दूसरे उद्देशक में लेश्या का जो वर्णन किया गया है वह सब यहाँ समझ लेना चाहिए। वहाँ इस प्रकार वर्णन है— प्रश्न - हे भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? उत्तर - हे गौतम! लेश्याएँ छह हैं । यथा - कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के कितनी लेश्याएँ होती हैं ? १४५ उत्तर - हे गौतम! तीन होती हैं। यथा-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या । तिर्यञ्च योनि, के जीवों के छहों लेश्याएँ होती हैं । एकेन्द्रियों में चार लेश्याएँ पाई जाती हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में चार लेश्याएँ, तेउकाय, वायुकाय, बेइन्द्रिथ, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवों में तीन लेश्याएँ होती हैं । तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य में छहों लेश्याएँ होती हैं । भवनपति, वाणव्यन्तर देवों में चार लेश्याएँ, ज्योतिषी देवों में एक तेजोलेश्या होती है । पहले दूसरे देवलोक में एक तेजो लेश्या, तीसरे, चौथे, पाँचवें देवलोक में एक पद्म लेश्या तथा आगे के देवलोकों में एक शुक्ल लेश्या होती है । फिर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! कृष्ण लेश्या से 'शुक्ल लेश्या तक के जीवों में से कौन कम ऋद्धि वाला है और कौन किससे अधिक ऋद्धि वाला है ? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि कृष्ण लेश्या वाले से नील लेश्या वाला महाऋद्धि वाला हैं । इस प्रकार सबसे अधिक ऋद्धि वाले गुक्ल लेश्या वाले हैं और सब से कम ऋद्धि वाले कृष्ण लेश्या वाले हैं । इत्यादि ऋद्धिपर्यन्त सारा वर्णन जान लेना चाहिए । संसार संस्थान काल ९९ प्रश्न - जीवस्स णं भंते ! तीतद्धाए आदिट्ठस्स कहविहे संसारसंचिट्टणकाले पण्णत्ते ? For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ . भगवती सूत्र---श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल ९९ उत्तर-गोयमा ! चउविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णत्ते, तं जहाः-णेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले, तिरिक्ख-मणुस्स-देव-संसारसंचिट्ठणकाले य पण्णत्ते। १०० प्रश्न-नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? १०० उत्तर-गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते, तं जहाः-सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले। ___१०१ प्रश्न-तिरिवखजोणियसंसार....पुच्छा ? १०१ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहाः-असुन्नकाले, मिस्सकाले य। १०२-मणुस्साण य देवाण य जहा नेरइयाणं ।' १०३ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! नेरइयस्स संसारसंचिट्ठणकालस्स सुन्नकालस्स, असुन्नकालस्स, मीसकालस्स य कयरे कयरहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ? ... १०३ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवे असुन्नकाले, मिस्मकाले अणंतगुणे, सुन्नकाले अणंतगुणे। ___ १०४ तिरिक्खजोणियाण सव्वत्थोवे असुन्नकाले, मिस्सकाले अर्णतगुणे। १०५-मणुस्स-देवाण य जहा नेरइयाणं । . For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ५ उ २ संसार संस्थानकाल १४७ १०६ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठणकालस्स जावदेवसंसारसंचिट्ठणकालम्स जाव-विसेसाहिए वा ? १०६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, नेरझ्यसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेजगुणे, देवसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेजगुणे, तिरिक्खजोणिएसंसारसंचिट्ठणकाले अणंतगुणे। विशेष शब्दों के अर्थ-तीतद्धाए - अतीत काल में, आविट्ठस्स-आदिष्ट-नारकादि विशेषण विशिष्ट, संसारसंचिट्ठणकाले-संसार संस्थान काल, सुण्णकाले-शून्यकाल, असुण्णकाले-अशून्यकाल, मिस्सकाले-मिश्रकाल, कयरे-कौन, कयरेहितो-किनसे, अप्पे-अल्प, तुल्ले-तुल्य, विसेसाहिए-विशेषाधिक, सव्वत्थोवे-सब से थोड़े। : भावार्थ-९९ प्रश्न-हे भगवन् ! अतीत काल में आदिष्ट-नारक आदि . विशेषण विशिष्ट जीवों का संसार संस्थान काल कितने प्रकार का कहा गया है ? . . ९९ उत्तर--हे गौतम! संसार संस्थान काल चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है-नरयिक संसार संस्थान काल, तिर्यञ्च संसार संस्थान काल, मनुष्य संसार संस्थान काल और देव संसार संस्थान काल। ... १०० प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक संसार संस्थान काल कितने प्रकार का कहा गया है ? १०० उत्सर-हे गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है-शून्यकाल, अशून्यकाल, और मिश्रकाल। १०१ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यञ्च संसार संस्थान काल कितने प्रकार का कहा गया है ? - १०१ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है-अशून्यकाल और मिश्रकाल । १०२-मनुष्यों और देवों के संसार संस्थान काल का कयन नारकियों के समान समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल १०३ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक संसार संस्थान काल के जो तीन भेद हैं - शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल । इनमें कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? १४८ १०३ उत्तर - हे गौतम! सब से कम अशून्यकाल है, उससे मिश्रकाल अनन्तगुणा है, उससे शून्यकाल अनन्तगुणा है । १०४ - तिर्यञ्च संसार संस्थान काल के दो भेद हैं, उनमें सब से कम अशून्यकाल है, उससे मिश्रकाल अनन्तगुणा है । १०५ - मनुष्य और देवों के संसार संस्थान काल का अल्पबहुत्व (न्यूनाधिकता ) नैरयिकों के संसार संस्थान काल के अल्प बहुत्व के समान ही समझना चाहिए । १०६ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों संसार संस्थान कालों में कौन किससे कम, ज्यादा, तुल्य या विशेषाधिक है ? १०६ उत्तर - हे गौतम ! मनुष्य संसार संस्थान काल सब से थोड़ा है, उससे नैरयिक संसार संस्थान काल असंख्यात गुणा है, उससे देव संसार संस्थान काल असंख्यात गुणा है, और उससे तिर्यञ्च संसार संस्थान काल अनन्त गुणा है । विवेचन - ' पशव: पशुत्वमश्नुवते' अर्थात् पशु मर कर पशु ही होता है और मनुष्य मर कर मनुष्य ही होता है, इस प्रकार की मान्यता का निराकरण करने के लिए गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया कि हे भगवन् ! जीव अनादिकाल से एक योनि से दूसरी योनि में भ्रमण कर रहा है, तो अतीत काल में जीव ने कितने प्रकार का संसार बिताया है ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! सब जीव अतीत काल में चार प्रकार के संसार में रहे हैं- कभी नारकी, कभी तिर्यञ्च, कभी मनुष्य और एक भव से दूसरे भव में भ्रमण करना' इसी को संसार संस्थान गौतम स्वामी पूछते हैं - हे भगवन् ! नरक में जीव रहा तो वहाँ उसने कितने प्रकार का काल बिताया है ? भगवान् ने फरमाया- वहाँ उसने तीन प्रकार का काल बिताया है । यथा - शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल जैसा कि कहा है कभी देव । ' इस प्रकार काल कहते हैं । सुण्णासुण्णो मोसो तिविहो संसारचिट्ठणाकालो । तिरियाणं सुण्णवज्जो, सेसाणं होइ तिविहो वि ॥ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल १४९ अर्थात्-संसार संस्थानकाल तीन प्रकार का है--शून्यकाल, अशून्यकाल, मिश्रकाल । तिर्यञ्चों में शून्यकाल नहीं होता। शेष तीन गतियों में तीनों काल हैं। अब इन तीनों काल का स्वरूप बतलाया जाता है । यद्यपि पहले शून्यकाल का नाम आया है तथापि पहले अशून्यकाल का स्वरूप बतलाया जाता है, क्योंकि अशून्यकाल का स्वरूप समझ लेने पर शेष दो सरलता से समझ में आ सकते हैं । जैसे-वर्तमान काल में सातों नरकों में जितने जीव विद्यमान हैं उनमें से जितने समय तक कोई जीव न तो मरे और न नया उत्पन्न हो अर्थात् उतने के उतने ही जीव जितने समय तक रहें उस समय को नरक की अपेक्षा अशून्यकाल कहते हैं । तात्पर्य यह है कि नरक में एक ऐसा समय भी आता है जब न कोई नया जीव नरक में जाता है और न पहले के नारकियों में से । कोई बाहर निकल कर आता है। वह काल नरक की अपेक्षा अशून्यकाल कहलाता है। . कहा भी है आइडसमइयाणं, रइयाणं न जाव इक्को वि। उव्वइ अण्णो वा, उववज्जइ सो असुण्णो उ॥ : अर्थात् -आदिष्ट (नियत) समय वाले नारकी जीवों में से जब तक मर कर एक • भी वहाँ से नहीं निकलता है और न कोई नया उत्पन्न होता है, तबतक का काल अशून्य काल कहलाता है। वर्तमानकाल के इन नारकियों में से एक दो तीन चार इत्यादि क्रम से निकलते निकलते जब उनमें से एक ही नारकी शेष रह जाय अर्थात् मौजूदा नारकियों में से एक का निकलना जब आरम्भ हुआ तब से लेकर जब एक शेष रहा तब तक के काल को मिश्रकाल कहते हैं। निर्दिष्ट वर्तमान काल के जिन नारकियों के ऊपर विचार किया गया है उनमें से जब समस्त नारकी जीव नरक से निकल जावें, उनमें से एक भी जीव शेष न रहे और उनके स्थान पर सभी नये नारकी जीव पहुँच जावें, वह समय नरक की अपेक्षा शून्यकाल कहलाता है । जैसा कि कहा है उन्बट्टे एक्कम्मि वि ता मीसो धरइ जाव एक्का वि । जिल्लेविएहि सव्वेहि, वट्टमाणे हि सुण्णो उ॥ अर्थात्-उद्वर्तन होते हुए जब तक उनमें से एक भी जीव वहाँ बाकी रहे, उसे मिश्रकाल कहते हैं और वर्तमान समय के सभी जीव निर्लेप रूप से वहाँ से निकल आवें और जो हैं वे सब अन्य हो, उसे शून्यकाल कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भगवती सूत्र-श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल यह जीव नरक में रहा है । इसने कभी ऐसी अवस्था भोगी है जब नरक के अपने साथियों से बिछुड़ कर अकेला ही रहा । कभी इसने ऐसी अवस्था भोगी है जब इसके साथी अनेक जीव वहाँ मौजूद थे और कभी ऐसा भी समय आया जब इसके साथ पहले वालों में से कोई भी शेष नहीं रहा था। यहाँ नारक संसार संस्थान काल में जो मिश्रकाल सम्बन्धी विचार किया गया है वह केवल वर्तमान काल के जीवों की अपेक्षा से ही नहीं किया गया है, किन्तु जिस काल में नरक के जीव नरक में थे वे वहाँ से निकल कर दूसरी योनि में गये, फिर वे चाहे किसी भी योनि में गये हों, परन्तु उनकी अपेक्षा भी विचार किया गया है । यदि ऐसा न माना जायगा तो दोष आयगा । क्योंकि आगे अशून्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा कहा गया है सो वह घटित नहीं हो सकेगा। नरक का अशून्यकाल अर्थात् विरहकाल बारह मुहर्त का है । यदि यहाँ नरक के वर्तमान के जीवों की ही अपेक्षा ली जाय तो वह असंख्यातगुणा ही ठहरेगा, अनन्तगुणा नहीं । इसलिए जो जीव नरक से निकलकर दूसरी गति में गया और वापिस नरक में उत्पन्न हुआ वह भी नरक की अपेक्षा वाले मिश्रकाल में गिना जायगा तभी मिश्रकाल की अनन्तगुणता सिद्ध हो सकेगी। कहा भी है एवं पुण ते जीवे, पडुच्च सुत्तं न तन्मवं चेव। जइ होज्ज तम्भवं तो, अणंतकालो ण संभवइ ॥ अर्थात्-यह सूत्र जीवों के उसी भव के आश्रित. नहीं है । यदि उसी भव के . आश्रित माना जाय तो मिश्रकाल अनन्तगुणा संभव नहीं होगा। अनन्तगुणता में बाधा आने का कारण यह है कि नरक के वर्तमान कालीन नारकी जीव अपनी आयु पूर्ण करके नरक से निकलते ही हैं और नरक की आयु असंख्यातकाल को ही है, अनन्तकाल की नहीं है। ऐसी अवस्था में बारह मुहूर्त वाले अशून्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल असंख्यातगुणा सिद्ध होगा, अनन्तगुणा नहीं। अतएव नरक के जीव जबतक नरक में रहें तभीतक मिश्रकाल नहीं समझना चाहिए, किन्तु नरक के जीव नरक से निकलकर दूसरी योनि में जन्म लेकर फिर नरक में आवें तबतक का काल मिश्रकाल है। . तिर्यञ्च योनि में दो ही संस्थानकाल हैं--अशून्यकाल और मिश्रकाल । तिर्यञ्च योनि में शून्यकाल नहीं है। शून्यकाल तब होता जब उस योनि में पहले वाला एक भी जीव न रहे, किन्तु वनस्पति की अपेक्षा तिर्यञ्च योनि में अनन्त जीव हैं । वे सब के सब उसमें से निकल कर कहां समा सकते हैं, क्योंकि अन्य किसी भी योनि में अनन्त जीव समा For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. C उ. २ अंतक्रिया सकने का अवकाश स्थान नहीं । इसलिए तिर्यञ्च योनि में शून्यकाल नहीं है । मनुष्य योनि और देवयोनि में तीनों काल है । इसलिए इनका वर्णन पूर्वोक्त नारकियों के वर्णन के समान ही समझना चाहिए । नरक की अपेक्षा सबसे कम अशून्यकाल है । अशून्यकाल उत्कृष्ट से उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त का है । मिश्रकाल, अशून्यकाल से अनन्तगुणा है। जीव नरक से निकल कर दूसरी गति में जाकर त्रस और वनस्पति में गमनागमन करके फिर नरक में आवे तबतक मिश्रकाल ही है । मिश्रकाल अनन्तगुणा है। इसका कारण यह है कि नरक का निर्लेपन काल वनस्पतिकाय की कायस्थिति के अनन्तवें भाग है । इसलिए मिश्रकाल अनन्तगुणा है । शून्यकाल, मिश्रकाल से भी अनन्तगुणा है। नरक के विवक्षित सभी जीव नरक से निकल कर दूसरी गति में चले गये हों, तो उनमें से बहुत से जीव वनस्पति में अनन्तकाल तक रह सकते हैं । तिर्यञ्चों की अपेक्षा सब से कम अशून्यकाल है । उनमें बारह मुहूर्त का विरह होता है, इसलिए अशून्यकाल कम है । सन्नी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय का विरह काल उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त है। तीन विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय का विरह उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । पृथ्वीकायादि पाँच स्थावर में समय समय परस्पर एक दूसरे में असंख्य जीव उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए इनमें विरह काल नहीं है । तिर्यञ्च गति में जो बारह मुहूर्त्त का विरह बतलाया गया है वह 'तीन गतियों से आकर जीव इस गति में उत्पन्न नहीं होते हैं, इस अपेक्षा से है ।' मिश्रकाल अनन्तगुणा है । वह नरक के समान जान लेना चाहिए । मनुष्यों के और देवों के संसार संस्थान काल की अल्पबहुत्व आदि नारकियों के समान ही समझना चाहिए । १५१ करेज्जा; अंतकिरियापयं नेयव्वं । अन्तक्रिया १०७ प्रश्न - जीवे णं भंते! अंतकिरियं करेज्जा ? १०७ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए नो विशेष शब्दों के अर्थ - अंतकिरिय-अन्तक्रिया = मोक्ष प्राप्ति । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ उपपात भावार्थ - १०७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? १०७ उत्तर - हे गौतम ! कोई जीव करता है और कोई जीव नहीं करता । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का अन्तक्रिया पद समझ लेना चाहिए । १५२ विवेचन - जिस क्रिया के पश्चात् फिर कभी दूसरी क्रिया न करनी पड़े, वह 'अन्तक्रिया, कहलाती है अथवा कर्मों का सर्वथा अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है । इन दोनों व्याख्याओं का आशय एक ही है कि समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करना । प्रश्न यह है कि क्या जीव संसार में ही रहता है या संसार का अन्त कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए पनवणा सूत्र के बीसवें पद का उल्लेख किया गया है। वहाँ अन्तक्रिया पद में इसका विस्तार पूर्वक वर्णन है । वह इस प्रकार है— प्रश्न- हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? उत्तर-हे गौतम ! कोई जीव करता है और कोई जीव नहीं करता है । प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर - हे गौतम! भव्य जीव अन्तक्रिया करते हैं और अभव्य जीव अन्तक्रिया नहीं करते है । इस तरह नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक में कहना चाहिए । किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि मनुष्य के सिवाय अन्य किसी भी दण्डक के जीव उसी भव में अन्तक्रिया नहीं कर सकते । वे नरकादि दण्डकों से निकलकर मनुष्य भव में आकर फिर अन्तक्रिया कर सकते हैं । उपपात १०८ प्रश्न - अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं, अविराहियसंजमाणं, विराहियसंजमाणं, अविराहियसंजमासंजमाणं, विराहियसंजमासंजमाणं, असण्णीणं, तावसाणं, कंदप्पियाणं चरगपरि For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ उपपात . १५३ ब्वायगाणं, किब्बिसियाणं, तेरिच्छियाणं, आजीवियाणं, आमिओगियाणं सलिंगीणं देसणवावन्नगाणं, एएसि णं देवलोगेसु उववजमाणाणं कस्स कहिं उववाए पन्नत्ते ? .. १०८ उत्तर-गोयमा! असंजयभवियदव्वदेवाणं जहण्णेणं भवणवासिसु, उनकोसेणं उवरिमगेविज्जएसु, अविराहियसंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सवसिधे विमाणे; विराहियसंजमाणं जहण्णेणं भवणवासिसु, उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे; अविराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं भवणवासिसु, उक्कोसेणं जोइसिएसु; असण्णीणं जहण्णेणं भवणवासिसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु; अवसेसा सव्वे जहण्णेणं भवणवासिसु, उक्कोसणं वोच्चमिः-तावसाणं जोइसिएसु, कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे, चरगपरिवायगाणं बंभलोए कप्पे, किब्बिसियाणं लंतगे कप्पे, तेरिच्छ्यिाणं सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं अच्चुए कप्पे, आभिओगियाणं अच्चुए कप्पे, सलिंगीणं दंसणवावन्नगाणं उवरिमगेविज्जएसु । विशेष शब्दों के अर्थ-असण्णीणं असंज्ञी, तावसाण-तापस, कप्पियाणं-कान्दपिक, परगपरिवायगाणं-चरक परिव्राजक, किम्पिसियाणं-किल्विषिक, तेरिच्छियाणं-तियं. यौनिक, आजीविया-आजीविक-गोशालक मतानुयायी, सणवावण्णगाणं-दर्शनव्यापन्न- सम्यक्त्व से भ्रष्ट। भावार्थ-१०८-हे भगवन् ! असंयत भव्य-द्रव्य-देव, अखण्डित संयम For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ उपपात वाला, खण्डित संयम वाला, अखंडित संयमासंयम — देशविरति वाला, खण्डित: संयमासंयम वाला, असंज्ञी, तापस, कान्दपिक, चरक परिव्राजक, किल्विषिक, तिर्यञ्च, आजीविक, आभियोगिक, श्रद्धा-भ्रष्ट वेशधारी, ये सब यदि देवलोक उत्पन्न हों, तो कौन कहाँ उत्पन्न हो सकता है ? १०८ उत्तर - हे गौतम! असंयत भव्य द्रव्य-देवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयकों में उत्पाद (उत्पत्ति ) कहा गया है । अखण्डत संयमवालों का जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में, खण्डित संयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में, अखण्डित संयमासंयम वालों का जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट अच्युत कल्प में, खंडित संयमासंयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में, असंज्ञी जीवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों में और शेष का उत्पाद जघन्य भवनवासियों में होता है और उत्कृष्ट अब बताया जाता है। तापसों का ज्योतिष्कों में, कान्दपिकों का सौधर्म कल्प में, चरक परिव्राजकों का ब्रह्मलोक कल्प में, किल्विषिकों का लान्तक कल्प में, तिर्यञ्चों का सहस्रार कल्प में, आजीविकों का तथा आभियोगिकों का अच्युत कल्प में और श्रद्धा-भ्रष्ट वेशधारियों को ऊपर के ग्रैवेयक में उत्पाद होता है । विवेचन - जो चारित्र के परिणाम से शून्य हो वह 'असंयत' कहलाता है । जो देव होने के योग्य है वह 'भव्य द्रव्य-देव' कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो चारित्र पर्याय से रहित है और इस समय तक देव नहीं हुआ है, किन्तु आगे देव होने वाला है वह 'असंयत-भव्य-द्रव्य' देव है । कोई यहाँ पर असंयत भव्य द्रव्य देव का अर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि करते हैं, किन्तु वह ठीक नहीं है । क्योंकि इसी सूत्र में असंयत भव्य द्रव्य-देव की उत्पत्ति ऊपर के ग्रैवेयक तक बतलाई है, किन्तु असंयत सम्यग्दृष्टि की तो बात ही क्या है, देशविरत श्रावक भी बारहवें देवलोक से ऊपर नहीं जा सकता है। ऐसी अवस्था में असंयत सम्यग्दृष्टि ऊपर के ग्रैवेयक तक कैसे जा सकता है ? १५४ यहाँ पर कोई असंयत भव्य द्रव्य देव का अर्थ निन्हव करते हैं, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निन्हव का पाठ आगे इसी सूत्र में अलग आया है । अतः यहाँ पर असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ 'मिथ्यादृष्टि' लेना चाहिए। असंयत भव्य द्रव्य देव वही होगा जो साधु For Personal & Private Use Only J Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ उपपात के गुणों को धारण करनेवाला, साधु की सम्पूर्ण समाचारी का पालन करने वाला, किन्तु जिसमें आन्तरिक साधुता न हो, केवल द्रव्य-लिंग धारण करने वाला हो। ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि ही यहां लेना चाहिए । १२ वें देवलोक तक उत्पन्न होने में सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के असंयत ग्रहण किये जा सकते है । ऊपर की व्याख्या ग्रैवेयक में उत्पन्न होने वाले के लिए समझना चाहिए । जब देशविरत श्रावक भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं जाता है, तो समझना चाहिए कि ऊपरी ग्रैवेयक तक जाने के लिए और भी विशेष क्रिया की आवश्यकता है । वह विशेष क्रिया श्रावक की तो है नहीं, अंतएव साधु के सम्पूर्ण बाह्य गुण ही हो सकते हैं । उस सम्पूर्ण क्रिया के प्रभाव से ही ऊपरी ग्रैवेयक में उत्पन्न होता है । यद्यपि वह साधु की सम्पूर्ण बाह्य क्रिया करता है, किन्तु परिणाम रहित होने कारण वह असंयत है । शंका- वह भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि श्रमण गुणों का धारक कैसे कहा जा सकता है ? समाधान- यद्यपि असंयत भव्य द्रव्य देव को महामिथ्यादर्शन रूप मोहकी प्रबलता होती है, तथापि जब वह साधुओं की चक्रवर्ती आदि अनेक राजा महाराओं द्वारा वन्दनपूजन, सत्कार, सम्मान आदि देखता है, तो मन में सोचता है कि यदि में भी दीक्षा ले लूं, तो मेरा भी इसी तरह वन्दन, पूजन, सत्कार, सम्मान आदि होगा । इस प्रकार प्रतिष्ठा मोह से उसमें व्रत पालन की भावना उत्पन्न होती है । वह लोक सन्मान की भावना से व्रतों का पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं । इस कारण वह व्रतों का पालन करता हुआ भी चारित्र के परिणाम से शून्य ही है अर्थात् भावपूर्वक क्रिया करते हुए भी उसके मिथ्यात्व का उदय होने से वह असयत ही गिना गया है । १५५ गौतम स्वामी का यहाँ पहला प्रश्न है कि - हे भगवन् ! असंयत भव्य- द्रव्य- देव यदि देव रूप में उत्पन्न हो तो किस देवलोक तक उत्पन्न हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हे गौतम! जघन्य भवनवासियों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट नववें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है । गौतम स्वामी ने दूसरा प्रश्न यह किया है कि हे भगवन् ! अविराधित संयम वाला अर्थात् दीक्षाकाल से लेकर जिसका चारित्र कभी भंग नहीं हुआ है, अथवा दोषों का शुद्धिकरण करने से व्रतों की शुद्धि हुई है, ऐसा साधु यदि देवलोक में उत्पन्न हो, तो किस देवलोक तक उत्पन्न होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया- हे गौतम! जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होता है। संज्वलन कषाय से अथवा प्रमत्तगुणस्थान के कारण उनमें स्वल्प मायादि दोष संभवित हो सकते हैं, तथापि चारित्र का For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-श. १ उ. २ उपपात उपघात हो ऐसा आचरण नहीं करते हैं । अतएव सकषाय और सप्रमाद होने पर भी साधु आराधक संयमी हो सकता है। जिसने महाव्रतों को ग्रहण करके उनका भली प्रकार पालन नहीं किया है और जिसने संयम की विराधना की है, ऐसा विराधित संयमी यदि देवलोक में जाय तो जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प उत्पन्न में होता है। अविराधित सयमासंयमी अर्थात् जिस समय से देशविरति को ग्रहण किया है, उस समय से अखण्डित रूप से उसका पालन करले वाला, दोषों के शुद्धिकरण से शुद्ध व्रत वाला आराधक श्रावक यदि देवलोक में उत्पन्न हो, तो जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट अच्युत कल्प (बारहवें देवलोक) में उत्पन्न होता है । विराधित संयमासंयमी (श्रावकव्रतों की विराधना करनेवाला) जघन्य भवनवासी में और उत्कृष्ट ज्योतिषियों में उत्पन्न होता है। _असंज्ञी जीव अर्थात् जिसके मनो-लब्धि नहीं हैं. ऐसा असंज्ञी जीव, अकाम निर्जरा करता है, (निर्जरा के उद्देश्य बिना कष्ट सहन करता है) वह यदि देवगति में जाय तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में जाता है। . - शेष तापस आदि आठ प्रश्नों के उत्तर में भगवान् ने फरमाया है कि यदि ये देवगति में जावें, तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट भिन्न-भिन्न स्थानों में जाते हैं । तापस आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है तापस-वृक्ष आदि से गिरे हुए पत्तों को खाकर उदर निर्वाह करने वाला तापस, यानी बाल तपस्वी कहलाता है । वह उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है। कान्दर्पिक-जो साधु हंसोड़ हो-हास्य के स्वभाव वाला हो । ऐसे साधु चारित्रवेश में रहते हुए भी हास्यशील होने के कारण अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ करते हैं । भौंह, आँख, मुख, होठ, हाथ, पैर आदि से ऐसी चेष्टा करते हैं कि जिससे दूसरों को हंसी आवे, कन्दर्प अर्थात् कामसम्बन्धी वार्तालाप करे, उनको कान्दर्पित कहते हैं । ऐसे कान्दर्पिक साधु देवों में जावे तो उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में उत्पन्न होते हैं और वे उसी प्रकार के कान्दर्पिक देव होते हैं । - चरक परिव्राजक-गेरु से या और किसी पृथ्वी के रंग से वस्त्र रंग कर उसी वेश से धाटी (एक प्रकार की भिक्षा) द्वारा आजीविका करने वाले त्रिदण्डी, चरक परिव्राजक कहलाते हैं । अथवा कुच्छोटक आदि चरक कहलाते हैं और कपिल ऋषि के शिष्य परिवाजक कहलाते हैं । ये यदि देवलोक में उत्पन्न हों, तो उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प (पांचवें देवलोक) तक उत्पन्न हो सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र-श. १ उ. २ उपपात १५७ किल्विषिक-किल्विष का अर्थ है-पाप । जो पापी हो उसे किल्विषिक कहते हैं। किल्विषिक व्यवहार से चारित्रवान् होते हैं, किन्तु ज्ञान आदि का अवर्णवाद करने के कारण किल्विषिक कहलाते हैं । कहा भी है: णाणस्स केवलोणं धम्मायरियस्स सव्वसाहूर्ण । माई अवग्णवाई, किम्विसियं भावणं कुणइ ।। अर्थात्-ज्ञान, केवलज्ञानी, धर्माचार्य और सब साधुओं का अवर्णवाद करने वाला एवं पापमय भावना रखने वाला किल्विषिक कहलाता है। ऐसा किल्विषिक साधु देवों में जावे तो उत्कृष्ट लान्तक कल्प तक उत्पन्न हो कसता है । तिर्यञ्च:-- गाय घोड़ा आदि देवलोक में जावे तो उत्कृष्ट सहस्रार कल्प में उत्पन्न हो सकते हैं। ___ आजीविक-एक खास तरह के पाखण्डी आजीविक कहलाते हैं या गौशालक के नग्न रहने वाले शिष्य अथवा लब्धि प्रयोग करके अविवेकी लोगों द्वारा ख्याति एवं महिमा, पूजा आदि प्राप्त करने के लिए तप और चारित्र का अनुष्ठान करने वाले और अविवेकी लोगों में चमत्कार दिखला कर अपनी आजीविका उपार्जन करने वाले-आजीविक कहलाते हैं । ये आजीविक यदि देवलोक में उत्पन्न हों, तो अच्युतकल्प तक उत्पन्न होते हैं। - आभियोगिक-विद्या और मन्त्र आदि के द्वारा दूसरों को अपने वश में करना-अभियोग कहलाता है । अभियोग दो प्रकार का है-द्रव्य अभियोग और भाव अभियोग । द्रव्य से चूर्ण आदि का योग बताना-द्रव्याभियोग और मन्त्र आदि बताकर वश में करना-भावाभियोग है । जो व्यवहार से तो संयम का पालन करता है, किन्तु मंत्र आदि के द्वारा दूसरे को अपने अधीन बनाता है, उसे आभियोगिक कहते हैं ।आभियोगिक का लक्षण बताते हुए कहा है कोऊय भूइकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। इद्धि-रस-साय-गलओ, अहिओगं भावणं कुणा ॥ अर्थात्-जो सौभाग्य आदि के लिए स्नान बतलाता है, भूतिकर्म (रोगी को भभूत देने का काम) करता है, प्रश्नाप्रश्न अर्थात् प्रश्न का फल, स्वप्न का फल बताकर तथा • टीका में-'देशविरति' विशेपण दिया है, किन्तु बिना देशविरति वाले तिपंच भी बाठवें देवलोक तक जा सकते हैं । यह बात भगवती सूत्र चौबीसवें शतक के बीसवें उद्देशक के जघन्य उत्कृष्ट सम्म तथा इसी शतक के चौबीसवें उद्देशक के उत्कृष्ट अषम्य गम्मे से स्पष्ट होती है। . .. - For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ उपपात निमित्त बताकर आजीविका करता है, ऋद्धि, रस और साता का गर्व करता है, इस प्रकार कार्य करके जो संयम को दूषित करता है, फिर भी व्यवहार में साधु की क्रिया करता है, उसे आभियोगिक कहते हैं । यदि यह देवलोक में जावे तो उत्कृष्ट अच्युत देवलोक तक . जाता है। सलिंगी-सलिंगी होते हुए भी जो निन्हव हैं अर्थात् जो साधु के वेश में है, किन्तु दर्शन भ्रष्ट है, वह निन्हव कहलाता है। यदि ये देव गति में जावे तो उत्कृष्ट नववें ग्रेवेयक तक जा सकते हैं। ये चौदह प्रश्नोत्तर हैं । इनसे यह नहीं समझना चाहिए कि-ये चौदह प्रकार के . जीव देवलोक में ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु यदि देवलोक में उत्पन्न हो तो कौन कहां तक उत्पन्न हो सकता है-इसी बात पर यहां विचार किया गया है ।.ये दूसरी गतियों में भी उत्पन्न होते हैं । किन्तु उसका यहां विचार नहीं किया गया है। शंका-यहाँ विराधित संयम वालों की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म देवलोक बतलाई गई है, किन्तु सुकुमालिका के भव में द्रौपदी संयम की विराधिका होते हुए भी ईशान देवलोक में गई थी। फिर उपर्युक्त कथन कैसे संगत होगा ? ___समाधान-सुकुमालिका ने मूलगुण की विराधना नहीं की थी, किन्तु उत्तरगुण की विराधना की थी अर्थात् उसने बकुशत्व का कार्य किया था। बारबार हाथ मुंह धोते रहने से साधु का चारित्र बकुश (चितकबरा) हो जाता है । सुकुमालिका का यही हुआ था। यह उत्तर गुण की विराधना हुई, मूलगुण की नहीं । यहाँ जिन विराधक संयमियों की.उत्पत्ति उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में बताई गई है, वे मूलगुण के विराधक हैं, ऐसा समझना चाहिए। क्यों कि उत्तर गुण प्रतिसेवी बकुशादि की उत्पत्ति तो अच्युत कल्प तक ही हो सकती है। __ शंका-यहाँ असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर बतलाई गई है । तो क्या भवनवासी देवों से वाणव्यंतर बड़े हैं ? इसके सिवाय भवनवासी देवों के इन्द्र चमर और बलि की ऋद्धि बड़ी कही गई हैं। आयुष्य भी इनका सागरोपम से अधिक है, जबकि वाणव्यंतरों का आयुष्य पल्योपम प्रमाण ही है। फिर वाणव्यन्तर भवनवासियों से बड़े कैसे माने जा सकते हैं ? - समाधान-कई वाणव्यन्तर कई भवनवासियों से भी उत्कृष्ट ऋद्धि वाले होते हैं और कई भवनवासी वाणव्यन्तरों की अपेक्षा कम ऋद्धि वाले हैं । अतः यहां जो कथन किया गया है, उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है, कई वाणव्यन्तर कई भवनवासियों से अधिक For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र --शः १ उ. २ असंज्ञी जीवों का आयुष्य ऋद्धिशाली होते हैं और कई भवनवासी वाणव्यन्तरों से अल्प ऋद्धि वाले होते हैं । यह बात शास्त्र के इसी कथन से सिद्ध है । समान स्थिति वाले भवनवासी और वाणव्यन्तरों में वाणव्यन्तर श्रेष्ठ गिने जाते हैं। असंज्ञो जीवों का आयुष्य १०९ प्रश्न - कवि णं भंते ! असण्णिआउए पन्नत्ते ? १०९ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहे असण्णिआउए पन्नत्ते, तं जहा:नेरहयअसणिआउ, तिरिक्ख मणुस्स- देवअसण्णिआउए । ११० प्रश्न - असण्णी णं भंते ! जीवे किं नेरइयाज्यं पकरेइ, तिरिक्ख मणु-देवाउयं पकरेह ? ११० उत्तर - हंता, गोयमा ! नेरइयाऽऽउयं पि पकरेह, तिरिक्खमस्स- देवाउयं पिपकरे । नेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दस वाससहस्साईं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जभागं पकरेइ, तिखिख जोपियाउयं पकरमाणे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओ मरस असंखेजड़भागं पकरेह; मणुस्साउए वि एवं चेव, देवाउयं जहा नेरहयाउए १५९ १११ प्रश्न - एयस्स णं भंते ! नेरइयअसण्णिआउयस्स, तिखिखमणु-देवअसण्णिआउयस्स कयरे कयरे० जाव-विसेसाहिए वा ? १११ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, मणुस्सअसण्णी आउए असंखेज्जगुणे, तिरियअसण्णी आउए असंखेज्जगुणे, For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. भगवती सूत्र-श. १ उ. २ असंज्ञी जीवों का आयुष्य नेरइय असन्नीआउए असंखेजगुणे । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥ बिइओ उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-असग्णि आउए-असंज्ञी का आयुष्य, पकरे-करता है, अंतोमुहूतं--अन्तर्मुहूर्त । __ भावार्थ-१०९ प्रश्न-हे भगवन् ! असंजी का आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? १०९ उत्तर-हे गौतम ! असंज्ञी का आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-नरयिक असंज्ञी आयुष्य, तिर्यञ्च असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य असंज्ञी आयुष्य और देव असंज्ञी आयुष्य । ११० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असंज्ञी जीव नरक की आयु उपार्जन करता है ? तिर्यञ्च की, मनुष्य को और देव की आयु उपार्जन करता है ? . ११० उत्तर-हे गौतम ! असंज्ञी जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव की आयु भी उपार्जन करता है। नरक की आयु उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जीव जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग को उपार्जन करता है। तिर्यञ्च की आयु उपार्जन करता हुआ असंही जीव जघन्य अन्तर्महत की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग को उपार्जन करता है। मनुष्य की आयु भी इतनी ही उपार्जन करता है और देव की आयु, नरक की आयु के समान उपार्जन करता है। १११ प्रश्न-हे भगवन् ! नरक असंज्ञी आयुष्य, तिर्यञ्च असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य असंज्ञी आयुष्य और देव असंज्ञी आयुष्य, इनमें कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? १११ उत्तर-हे गौतम ! देव असंज्ञी आयुष्य सब से कम है । उसकी For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र - श. १ उ. २ अमंत्री जीवों का आयुष्य अपेक्षा मनुष्य असंज्ञी आयुष्य असंख्यातगुणा है, उससे तिर्यञ्च असंज्ञी आयुष्य - असंख्यातगुणा है और उससे नरक असंज्ञी आयुष्य असंख्यातगुणा है । हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हें वह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । विवेचन-असंज्ञी जीव की उत्पत्ति देवों में होती है, यह बात पहले कही गई है । वह उत्पत्ति आयुष्य से ही होती है । इसलिए यहाँ असंज्ञी जीवों के आयुष्य. का कथन किया गया है । वर्तमान में जो जीव असंज्ञी है, वह परभक का जो आयुष्य बाँधता है उसे 'असंज्ञी का आयुष्य' कहते है | असंज्ञी जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य झौर देव चारों गतियों का आयुor बाँध सकता है । इसलिए असंजी आयुष्य के चार भेद हैं। यह चार प्रकार का आयुष्य असंज्ञी जीव उपार्जन करता है । १६१ असंज्ञी जीव नरक में जघन्य दस हजार वर्ष का आयुष्य उपार्जन करता है। यह आयुष्य रत्नप्रभा नरक के पहले पाथड़े की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के पहले पाथड़े में जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट ९० नब्बे हजार वर्ष की स्थिति होती है । असंज्ञी जीव की नरक की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है । यह स्थिति रत्नप्रभा के चौथे पाथड़े की अपेक्षा समझनी चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के दूसरे पाथड़े में जघन्य दम लाख वर्ष की + और उत्कृष्ट ९० नब्बे लाख वर्ष की स्थिति होती है । तीसरे पाथड़ में जघन्य ९० नब्बे लाख वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की है । चौथे पाथड़े में जघन्य पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट सागरोपम के दसवें भाग की स्थिति होती है । इस प्रकार इस चौथे पाथड़े में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति, मध्यम स्थिति बनती है । असंज्ञी जीव की तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी उत्कृष्ट आयु जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग कही है, वह युगलिक तिर्यञ्च और युगलिक मनुष्य की समझनी चाहिए । + पहले पाथड़े की उत्कृष्ट स्थिति नब्बे हजार वर्ष की होती है स्थिति दस लाख वर्ष की होती है। इसका यह फलितार्थ निकलता है कि नैरमिक नहीं होते हैं अर्थात् नब्बे हजार वर्ष एक समय अधिक से की स्थिति किसी भी नैरयिक की नहीं होती है, क्योंकि वस्तु स्वभाव ही ऐसा है । और दूसरे पाथड़े की जघन्य इसके बीच की स्थिति वाले For Personal & Private Use Only लेकर एक समय कम दस लाख वर्ष '. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ असंज्ञी जीवों का आयुष्य असंज्ञी जीव की देव सम्बन्धी उत्कृष्ट आयु जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग कही गई है वह भवनपति और वाणव्यन्तर देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए और वह पत्योपम का असंख्यातवां भाग करोड़पूर्व से ज्यादा नहीं समझना चाहिए । भगवान् के उत्तर को सुनकर श्री गौतम स्वामी ने श्रद्धा और विनम्रता प्रकट करते हुए कहा - हे भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है । जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही वस्तुतत्त्व है । १६२ ॥ प्रथम शतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय शतक १ उद्देशक ३ कांक्षा-मोहनीय ११२ प्रश्न-जीवा णं भंते ! कंखामोहणिजे कम्मे कडे ? ११२ उत्तर-हंता, कडे । ११३ प्रश्न मे भंते ! किं देसेंणं देसे कडे, देसेणं सब्वे कडे, सव्वेणं देसे कडे, सव्वेणं सव्वे कडे ? ११३ उत्तर-गोयमा ! नो देमेणं देसे कडे, नो देसेणं सव्वे कडे, नो मवेणं देसे कडे, सव्वेणं सव्वे कडे । - ११४ प्रश्न-नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिजे कम्मे कडे ? ११४ उत्तर-हंता, कडे, जाव-सब्वेणं सव्वे कडे, एवं जाववेमाणियाणं दंडओ भाणियव्यो। • ११५ प्रश्न-जीवा गं भंते ! कंखामोहणिजं कम्मं करिंसु ? ___ ११५ उत्तर-हंता करिंसु । ११६ प्रश्न-तं भंते ! किं देसेणं देसं करिंसु ४ ? . ११६ उत्तर-एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियव्वो, जाव-चेमाणियाणं, एवं करेंति, एत्थ वि दंडओ जाव-चेमाणियाणं, एवं करिस्संति एत्थ विदंडओ जाव-चेमाणियाणं, एवं चिए, चिणिंसु, चिणंति; चिणिस्संति, उवचिए, उवचिणिंसु, उपचिणंति, उपचिणिस्संति, For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ . भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा मोहनीय कर्म उदीरसु, उदीरेंति, उदीरिस्संति, वेदेंसु, वेदेति, वेदिस्संति, निजरेंसु, निजरेंति, निजरिस्संति । गाहा कड-चिया उवचिया, उदीरिया वेदिया य निजिण्णा । आदितिए चउभेदा, तियभेया पच्छिमा तिण्णि ॥ विशेष शब्दों के अर्थ-कंखामोहणिज्जे-कांक्षामोहनीय, कडे-किया, करिसुकिया, अभिलावेणं-अभिलाप मे-कथन से, करेंति-करते हैं, करिस्संति-करेंगे। भावार्थ-११२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीवों का. कांक्षामोहनीय कर्म कृत-क्रिया-निष्पादित अर्थात् किया हुआ है ? ११२ उत्तर-हाँ गौतम ! कृत है। ११३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह देश से देशकृत है, देश से सर्वकृत है, सर्व से देशकत है या सर्व से सर्वकृत है ? - ११३ उत्तर-हे गौतम ! वह देश से देशकृत नहीं है, देश से सर्वकृत नहीं है, सर्व से देशकृत नहीं है, सर्व से सर्वकृत है। ११४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिकों का कांक्षामोहनीय कर्म, कत है ? ११४ उत्तर-हाँ गौतम ! कृत है, यावत् सर्व से सर्वकृत है । इसी तरह यावत् चौबीस ही दण्डकों में वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। . ११५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म उपार्जन किया है ? ११५ उत्तर-हां, गौतम ! किया है। ". ११६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या देश से देशकृत है ? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न करना चाहिए। ११६ उत्तर-हे गौतम ! सर्व से सर्वकत है। इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक चौबीस ही दण्डक में कहना चाहिए। इसी प्रकार करते हैं और करेंगे, इन दोनों का कपब थी यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए । इसी For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र-श. १ उ. ३ काक्षा-मोहनीय कर्म प्रकार चय, चय किया, चय करते हैं, चय करेंगे। उपचय, उपचय किया, उपचय करते हैं, उपचय करेंगे। उदीरणा की, उदीरणा करते हैं, उदीरणा करेंगे । वेदनकिया, वेदन करते हैं, वेदन करेंगे। निर्जीर्ण किया, निर्जीर्ण करते हैं, निर्जीर्ण करेंगे। इन सब पदों का कथन करना चाहिए। . गाथा का अर्थ इस प्रकार है-कृत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण इतने अभिलाप यहाँ कहना है। इनमें से कृत, चित, उपचित में एक एक के चार चार भेद हैं अर्थात् सामान्य क्रिया, भूतकाल की क्रिया, वर्तमान काल की क्रिया और भविष्यकाल की क्रिया। पिछले तीन पदों में सिर्फ तीन काल सम्बन्धी क्रिया कहनी चाहिए। विवेचन-दूसरे उद्देशक के अन्त में असंज्ञी जीव के आयुष्य का विचार किया गया है। आयु, मोह रूपी दोष से बंधता है। जब आयु का बन्ध होता है तब आठों ही कर्मों का बन्ध होता है। अतएव आयु वन्ध के बाद कांक्षामोहनीय कर्म का विचार किया जाता है। प्रथम शतक के प्रारम्भ में उद्देशों सम्बन्धी जो संग्रह गाथा कही गई थी, उसमें तीसरे उद्देशक के लिए 'कंखपओस' नाम दिया गया है। तदनुसार यहां कांक्षामोहनीय कर्म का विचार किया जाता है। __ जो कर्म जीव को मोहित करता है और मूढ़ बनाता है उसे मोहनीय-कर्म कहते हैं। मोहनीय-कर्म के दो भेद हैं-चारित्र-मोहनीय और दर्शन-मोहनीय । यहां चारित्र-मोहनीय कर्म के विषय में प्रश्न नहीं है । इसलिए मोहनीय शब्द के साथ 'कांक्षा' शब्द लगाया है। कांक्षामोहनीय का अर्थ है-दर्शनमोहनीय । यहां 'कांक्षा' का अर्थ है, 'अन्यदर्शनों की इच्छा करना' । जैसे कोई सोचता हैजैनधर्म वैराग्य की ओर प्रेरित करता है और संसार के आमोद प्रमोदों के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है, किन्तु चार्वाक (नास्तिक) मत कितना सुन्दर है, जो 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्'ऋण करके भी खूब घी पीओ' का उपदेश देता है और सांसारिक सुख भोग का समर्थन करता है । उसमें परलोक का भी कुछ भय नहीं है । वह कहता है कि-'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः'-जला हुआ शरीर दूसरे भव में आता नहीं है और आत्मा का अस्तित्व है ही नहीं । ऐसी अवस्था में जैनधर्म को त्यागकर चार्वाक मत' को ग्रहण करना अच्छा है । इत्यादि रूप से विचार करना-कांक्षामोहनीय कर्म' कहलाता है। संशयमोहनीय For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय कम परपाषण्ड प्रशंसा मोहनीय आदि कांक्षामोहनीय के अन्तर्गत समझ लेना चाहिए। "क्रियते इति कर्म' जो कर्ता द्वारा किया जाय उसे कर्म कहते हैं । जो कर्ता द्वारा नहीं किया जाता वह कर्म नहीं हो सकता। यदि विना किये ही कर्म होने लगे तो जगत् कि सम्पूर्ण व्यवस्था उथलपुथल हो जाय । अतः गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-कांक्षा मोहनीय कर्म जीव द्वारा किया हुआ है। इसके बाद गौतम स्वामी ने पछा कि जीव ने कांक्षामोहनीय कर्म किया है तो क्या-१ देश से देश को किया? २ देश से सर्व को किया ? ३ सर्व से देश को किया ? या ४ सर्व से सर्व को किया ? कार्य चार प्रकार से होता है। जैसे कोई मनुष्य किसी वस्तु को ढकना चाहे, तो वह उसे चार प्रकार से ढक सकता है । १ अपने शरीर के हाथ आदि किसी एक अवयव से वस्तु के एक भाग को ढके । २ शरीर के किसी एक भाग से सम्पूर्ण वस्तु को ढके । ३ अपने सारे शरीर से वस्तु के किसी एक भाग को ढके । ४ अपने सारे शरीर से सम्पूर्ण वस्तु को ढके । .. यहाँ 'देश' का अर्थ है-आत्मा का एक देश और एक समय में ग्रहण किये जाने वाले कर्म का एक देश । यदि आत्मा के एक देश से कर्म का एक देश किया, तो यह 'देश से देश किया' कहलाता है। यदि आत्मा के एक देश से सर्व कर्म किया, तो 'देश से सर्व किया' कहलाता है। सम्पूर्ण आत्मा से कर्म का एक देश किया गया, तो 'सर्व से देश किया' कहलाता है । सम्पूर्ण आत्मा से सम्पूर्ण कर्म किया, तो 'सर्व से सर्व किया' कहलाता है । गौतम स्वामी ने इसी अभिप्राय से कांक्षामोहनीय कर्म के विषय में प्रश्न किया है। भगवान् ने उत्तर में फरमाया है कि हे गौतम ! कांक्षामोहनीय कर्म ‘सर्व से सर्वकृत' है। अर्थात् समस्त आत्मप्रदेशों से समस्त कर्म किया हुआ है । पूर्वोक्त चौभंगी में से यहां चौथा भंग ग्रहण किया गया है। - केवल चौथा भंग ही ग्रहण करने का कारण है-जीव का स्वभाव । जीव अपने स्वभाव से समस्त आत्म-प्रदेशों के द्वारा एक क्षेत्रावगाढ कर्म पुद्गलों को, जो एक समय में बंधने योग्य हो, बाँधता है। अतएव एक काल में किया जाने वाला कांक्षामोहनीय कर्म, जीव 'सर्व से सर्व' को करता है । इसलिए तीन भंगों का निषेध करके यहां सिर्फ चौथा भंग स्वीकार किया गया है। ' अथवा-जिन आकाश प्रदेशों में जीव का अवगाहन हो रहा है-जिस क्षेत्र में आत्मा के प्रदेश विद्यमान हैं, उसी आकाश प्रदेश में रहने वाले कर्मपुद्गल एक क्षेत्रावगाढ कहलाते For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १. उ. ३ कांक्षा - मोहनीय कर्म 1 हैं। ऐसे ही कर्मपुद्गलों को जीव समस्त प्रदेशों से अपने में एकमेक करता है । जिस हेतु से आत्मा कर्म करता है वह हेतु सभी कर्म प्रदेशों का है । इस प्रकार समस्त आत्मप्रदेशों द्वारा एक समय में बंधने योग्य समस्त कर्म पुद्गलों को बांधने के कारण कांक्षामोहनीय कर्म 'सर्व से सर्वकृत' है । कई ग्रन्थकारों का मत है कि जीव के आठ रुचक प्रदेश 'कर्मबन्ध से खाली रहते है । वहाँ कर्म का बन्ध नहीं होता' किन्तु शास्त्र में तो उपरोक्त प्रकार से कथन है । अतः आठ रुचक प्रदेशों को निर्लेप कहना संगत नहीं है । यह समुच्चय प्रश्नोत्तर है, अब दण्डक विशेष को आश्रित करके प्रश्न किया जाता है । गौतम स्वामी पूछते हैं कि - हे भगवन् ! क्या नैरयिकों का कांक्षामोहनीय कर्म कृत किया हुआ है ? भगवान् ने फरमाया- हाँ, गौतम ! कृत है, और वह भी सर्व से सर्वकृत है। जिस प्रकार नैरयिकों के लिए प्रश्नोत्तर हैं उसी प्रकार चौबीस ही दण्डकों के लिए समझ लेना चाहिए। कर्म क्रिया निष्पाद्य है अर्थात् कर्म क्रिया से होता है और क्रिया तीनों काल से सम्बन्ध रखती है । अतीत काल में कर्म निष्पादन की क्रिया की थी, वर्तमान में की जा रही है और भविष्य में की जायगी। इस त्रिकाल सम्बन्धी क्रिया से कर्म लगते हैं । क्रिया पहले होता है, कर्म बाद में लगते हैं । जीव ने कांक्षामोहनीय कर्म किया है और वह भी 'सर्व से सर्व' किया है । इसी तरह वर्तमान काल और भविष्य काल सम्बन्धी प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए । इस समुच्चय कथन की तरह चौबीस ही दण्डक में समझ लेना चाहिए । १६७ यहाँ जो प्रश्नोत्तर 'कृत' के विषय में बतलाये गये हैं. वे ही प्रश्नोत्तर चितं, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण के विषय में भी समझ लेना चाहिए। पूर्वोक्त प्रश्नों में जहाँ 'कृत' शब्द आया है वहां 'चित, उपचित' आदि शब्दों का प्रयोग करके प्रश्नोत्तरों की योजना कर लेनी चाहिए । मूलपाठ में चित, उपचित आदि के विषय में एक संग्रह - गाथा कही गई है । उसमें यह बतलाया गया है कि 'कृत, चित, उपचित' इन तीन पदों के चार चार भेद कहने चाहिए । अर्थात् एक सामान्य क्रिया और तीन काल की तीन क्रियाएँ । उदीरित, वेदि और निर्जीर्ण इन तीन पदों में तीन काल की क्रिया कहनी चाहिए, जिससे प्रत्येक के तीन तीन भेद होंगे। इन तीन पदों के साथ सामान्य क्रिया नहीं कहनी चाहिए । 'चय' आदि का स्वरूप इस प्रकार है For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय कर्म जो कर्म पहले उपार्जन किये हुए हैं उनमें प्रदेश और अनुभाग की वृद्धि करना 'चय' कहलाता है । बारबार चय करना 'उपचय' कहलाता है। अन्य आचार्यों का अभिप्राय ऐसा है कि-कर्मपुद्गलों को ग्रहण करना 'चय'. कहलाता है और अबाधाकाल को छोड़ कर दूसरे काल में ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों को वेदने के लिए निषेचन करना 'उपचय' कहलाता है। ... अबाधाकाल-कर्मबन्ध होने के पश्चात् और उदय से पहले का समय जब कि कर्म . सत्ता में पड़ा रहता है और फल नहीं देता, उस काल को 'अबाधाकाल' कहते हैं । कर्म की स्थिति जितने कोड़ाकोड़ी सागर की होती है उतने ही सौ वर्ष का अबाधाकाल, उत्कृष्ट अबाधाकाल माना गया है। . निषेचन का अर्थ है-वर्गीकरण । जीव पहली स्थिति में बहुत से कर्म दलिकों का निषेचन करता है । उसके पश्चात् दूसरी स्थिति में बहुत कम कर्म दलिकों का निषेचन करता है । इस प्रकार यावत् उत्कृष्ट स्थिति में बहुत कम का निषेचन करता है । कहा भी है ___ मोत्तूण सगमबाहं, पढमाइ ठिईई बहुयरं वव्वं । सेसं विसेसहीणं जाव उक्कोसं ति सव्वासं ॥, अर्थात्-अपना अबाधाकाल छोड़कर प्रथम स्थिति में बहुतर द्रव्य को और इसी प्रकार यावत् उत्कृष्ट स्थिति में बहुत कम द्रव्य का निषेचन करता है । जो कर्म उदय में नहीं आये हैं उन्हें एक प्रकार के विशिष्ट करण द्वारा उदय में ले आना 'उदीरणा' है । और उदय में आये हुए कर्मों के फल को भोगना 'वेदना' कहलाता है । जीव प्रदेशों से कर्म का पृथक् हो जाना 'निर्जरा' है। स्थिति के परिपक्व होने पर कर्म आत्मप्रदेशों से पृथक् होते हैं-वह निर्जरा है। ___संग्रह गाथा में बताया गया है. कि पहले के तीन पदों में चार चार भेद और पीछे के तीन पदों में तीन तीन भेद करना चाहिए । इसका कारण यह है कि-कृत, चितं और उपचित कर्म बहुत समय तक-सत्तर कोडाकोडी सागरोपम तक ठहर सकते हैं। इसलिए इन तीन पदों में तीन काल बतलाने के साथ ही साथ सत्ता रूप काल बतलाने के लिए सामान्य क्रिया का भी प्रयोग किया जाता है । उदीरणा आदि बहुतकाल तक नहीं रहते हैं, इस लिए इनमें सामान्य क्रिया नहीं बतलाई गई है, किन्तु सिर्फ तीन काल ही बतलाये गये हैं। इसी कारण से पहले के तीन पदों के चार चार और पिछले तीन पदों के तीन तीन भेद किये गये हैं। . For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ कांक्षा- मोहनीय वेदन कांक्षा- मोहनीय वेदन ११७ प्रश्न - जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ? ११७ उत्तर - हंता. गोयमा ! वेदेति । ११८ प्रश्न - कह णं भंते! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? ११८ उत्तर - गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया, कंखिया वितिगिंछिया, भेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना, एवं खलु जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेति । ११९ प्रश्न - से पूर्ण भंते! तमेव सच्च णीसंकं जं जिणेहिं १६९ पवेsयं । ११९ उत्तर - हंता, गोयमा ! तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेड़यं । १२० प्रश्न - से णूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे एवं चिट्ठेमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवइ ?. १२० उत्तर - हंता, गोयमा ! एवं मणं धारेमाणे जाव भवइ । विशेष शब्दों के अर्थ – वेदेति – वेदते हैं, कहं – किस तरह से, संकिया - शङ्कित, कंखियाकांक्षित, वितिगिछिया - विचिकित्सा वाले, भेयसभावण्णा - भेद समापन्न - भेद को प्राप्त हुए, सच्चं - सत्य, णीसंकं - निःशंक । भावार्थ - ११७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव कांक्षाभोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० वेदते हैं। भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ कांक्षा- मोहनीय वेदन ११७ उत्तर- हाँ, गौतम ! वेदन करते हैं । ११८ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म को किस प्रकार ११८ उत्तर - हे गौतम! अमुक अमुक कारणों से जीव शंकायुक्त, काँक्षायुक्त विचिकित्सायुक्त भेदसमापन और कलुषसमापन्न होकर कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं । ११९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वही सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् ने निरूपण किया है ? ११९ उत्तर - हाँ, गौतम ! बही सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् ने निरूपण किया है । १२० प्रश्न - हे भगवन् ! वही सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् ने निरूपण किया है, इस प्रकार मन में निश्चय करता हुआ, इसी प्रकार आचरण करता हुआ, रहता हुआ, संवर करता हुआ, जीव आज्ञा का आराधक होता है ? १२० उत्तर - हाँ, गौतम ! इस प्रकार मन में निश्चय करता हुआ बाबत् आज्ञा का आराधक होता है । विवेचन - गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि --हे भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करता है ? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हाँ, गौतम ! करता है । यहाँ पर शंका की जाती है कि यह प्रश्न पहले भी किया था, फिर दूसरी बार बही प्रश्न किस आशय से किया गया है ? इसका समाधान यह है कि-वेदन के कारणों को बतलाने के लिए यह प्रश्न वापिस दोहराया गया है । यथा पुव्वभणियं पि पच्छा जं भव्णइ तत्थ कारणं अस्थि । डिसेहो य अण्णा - हेउविसेसोवलंभो ति ॥ अर्थ - एक बार कही हुई बात को फिर कहने के कारण ये हैं-प्रतिषेध, अनुज्ञा और एक प्रकार के हेतु का कथन । तात्पर्य यह है कि पहले कही हुई बात का प्रतिषेध करने के For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श.. १ उ. : काक्षा-मोहनीय वेदन लिए, पहले की बात में अनुमति देने के लिए और पूर्वोक्त बात में कोई विशेष हेतु देने के लिये उस बात को दोहराया जाता है। ऐसी जगह पुनरुक्ति दोष नहीं होता हैं । शंका आदि कारणों से जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं । शंका कांक्षा शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-- __ वीतराग भगवान् ने अपने अनन्तज्ञान दर्शन में जिन तत्त्वों को जान कर निरूपण किया है उन तत्त्वों पर या उनमें से किसी भी एक पर शंका करना-कौन जाने यह ठीक है या नहीं ? इस प्रकार का सन्देह करना शङ्का है। एक देश से या सर्व देश से अन्यदर्शन को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है । फल के विषय में संशय होना विचिकित्सा है। जैसे-मैं तपस्या करता हूँ, ब्रह्मचर्य आदि पालता हूँ, किन्तु अभी तक तो कुछ फल मिला ही नहीं, कौन जाने आगे मिलेगा या नहीं। इस प्रकार फल के विषय में संशय करना विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वैधीभाव उत्पन्न हो जाना भेदसमापन्नता है । जैसे-जिनशासन यह है या वह है ? इस प्रकार जिनशासन के विषय में जिनकी बुद्धि भेद को प्राप्त हो रही है वह भेदसमापन्न कहलाता है। अथवा-अनध्यवसाय-अनिश्चित ज्ञान वाले को भेदसमापन्न कहते हैं । अथवा पहले शंका या कांक्षा उत्पन्न होने से जिसकी बुद्धि में विभ्रम-भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है उसको भेद समापन्न कहते हैं । विपरीत बुद्धि वाले को कलुषसमापन्न कहते हैं। जिन भगवान् ने जो वस्तु जैसी प्रकट की है उसे उसी रूप में निश्चय न करके विपरीत रूप से समझना कलुषसमापन्नता है। भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! जीव इन कारणों से कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। - गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या वही बात सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् के द्वारा प्ररूपित की गई है ? भगवान् ने फरमाया-हाँ, गौतम ! वही बात सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित की गई है। . "जिन"-यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं है । 'जिन' एक पदवी है । जिन्होंने प्रकृष्ट साधना के द्वारा अनादिकालीन राग-द्वेष आदि समस्त आत्मिक विकारों पर विजय प्राप्त कर ली हो वे ही महापुरुष 'जिन' कहलाते हैं । फिर भले ही उनका नाम कुछ भी क्यों न हो । जिन्होंने राग द्वेष और अज्ञान से अपनी आत्मा को पृथक् कर लिया है, उनके वचनों में सन्देह करने की गुंजाइश ही नहीं है । 'जिन' द्वारा उपदिष्ट धर्म 'जैनधर्म' कहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शं. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! निश्चयपूर्वक ऐसी श्रद्धा करने से कि 'जिन भगवान्' की कही हुई बात सत्य और संशय रहित है । तथा यही बात हृदय में स्थिर करने से, इसी प्रकार की क्रिया करने से, किसी के पूछने पर ऐसा ही कहने से, अन्यथा न कहने से मन में भी जिन भगवान् के वचनों को सत्य समझने से और अन्यथा न समझने से, तथा जिन भगवान् के वचनानुसार प्राणातिपात, असत्य, चोरी आदि से मन को हटा लेने से, क्या ज्ञान, दर्शन, चारित्र के सेवनरूप जिन आज्ञा का आराधक होता है ? क्या वह जिन भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाला है ? भगवान् ने उत्तर दिया- हाँ, गौतम ! जो जीव ऐसा करता है वह जिन- आज्ञा का आराधक है । जीव का ज्ञान राग द्वेष आदि कषायों के कारण मिथ्या हो जाता है। जितने जितने अंश में राग द्वेष क्षीण होते जाते हैं उतने उतने अंश में ज्ञान में निर्मलता आती जाती है । जब राग द्वेष रूपी कषाय सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाते हैं तब ज्ञान में पूर्ण निर्मलता आ जाती है और ज्ञान अनन्त हो जाता है । यहाँ मनुष्य की ऐसी स्थिति है कि इसमें असत्य के लेश की भी संभावना नहीं है। अतएव जो वस्तु जैसी है, उसे जिन भगवान् वैसी ही बतलाते हैं । वास्तविकता से विपरीत बतलाने का कारण राग द्वेष और अज्ञान है और इन दोषों को जिन- भगवान् दूर कर चुके हैं। या ऐसा भी कहा जा सकता है कि जो इन दोषों को दूर कर देता है वही 'जिन' कहलाता है । इस कारण जिन भगवान् वही बात कहते है जो सत्य है । १७२ अस्तित्व और नास्तित्व १२१ प्रश्न - से णूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमह ? १२१ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाव - परिणम | १२२ प्रश्न - जं तं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमह, नत्थित्तं नत्थिते परिणमह; तं किं पयोगसा, वीससा ? For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व १२२ उत्तर - गोयमा ! पयोगसा वि तं वीससा वितं । १२३ प्रश्न - जहा ते भंते! अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ, तहा ते नत्थित्तं नत्थिते परिणमह ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थितं अस्थित्ते परिणमइ ? १७३ १२३ उत्तर - हंता, गोयमा ! जहा मे अत्थितं अत्थित्ते परिणमह, तहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ । जहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणम, तहा मे अत्थित्तं अथित्ते परिणम । १२४ प्रश्न - से पूर्ण भंते ! अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिज्जं ? १२४ उत्तर - जहा 'परिणमइ' दो आलावगा, तहा ते इह “गमणिज्जेण वि दो आलावगा भाणियब्वा । जाव - जहा मे अत्थितं अत्थिते गमणिज्जं । १२५ प्रश्न - जहा ते भंते ! एत्थं गमणिज्जं तहा ते इहं गमणिज्वं, जहा ते इहं गमणिज्जं तहा ते एत्थं गमणिज्जं ? १२५ उत्तर - हंता, गोयमा ! जहा मे एत्थं गमणिनं जावतहा मे एत्थं गमणिज्जं । विशेष शब्दों के अर्थ - अत्थित्तं - अस्तित्व, नत्थितं नास्तित्व, परिणमइपरिणमता है, पओगसा -- प्रयोग से-पर- प्रेरणा से, वीससा -- विवसा - स्वाभाविक रूप से, ; गमणिज्जं गमनीय, आलावगा-आलापक । भावार्थ - १२१ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है ? For Personal & Private Use Only - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व १२१ उत्तर-हाँ, गौतम ! अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। १२२ प्रश्न-हे भगवन् ! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, सो क्या वह प्रयोग से अर्थात् जीव के व्यापार से या स्वभाव से परिणत होता है ? १२२ उत्तर-हे गौतम ! प्रयोग से और स्वभाव से, दोनों तरह से परिणत होता है। १२३ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे आपके मत में अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है तो क्या उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है ? और जैसे आपके मत में नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है, तो क्या उसी प्रकार अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है ? १२३ उत्तर-हां, गौतम ! जैसे मेरे मत में अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है और जिस प्रकार मेरे मत में नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है। १२४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है ? .. १२४ उत्तर-हे गौतम ! जैसे 'परिणत' पद के आलापक कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ 'गमनीय' पद के साथ भी दो आलापक कहना चाहिए । यावत् मेरे मत में अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है। १२५ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे आपके मत में (स्वात्मा में) गमनीय है, क्या उसी प्रकार परात्मा में भी गमनीय है ? हे भगवन् ! जैसे आपके मत में 'अन्नगमनीय है उसी प्रकार 'इह गमनीय' भी है ? . १२५ उत्तर-हाँ, गौतम ! जैसे मेरे मत में अन्न गमनीय है यावत् उसी प्रकार 'इह गमनीय' भी है। विवेचन-वस्तु का विद्यमान होना अस्तित्व कहलाता है और विद्यमान न होना 'नास्तित्व, कहलाता है। गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! जो वस्तु है For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व १७५ वह अपने अस्तित्व में और जो वस्तु नहीं है वह अपने नास्तित्व में परिणत होती है ? . 'अंगुली का अंगुली के रूप में होना' यह अस्तित्व है । अंगुली का अस्तित्व कहने मात्र के लिए नहीं है, किन्तु अंगुली की लम्बाई, चौड़ाई आदि पर्यायें भी वैसी ही हैं । अंगुली का स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव रूप में परिणत होना, अस्तित्व का अस्तित्व रूप में परिणत होना कहलाता है। जिसका अस्तित्व है वह स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप में परिणत होता है । तात्पर्य यह है कि अंगुली आदि कोई भी वस्तु, जिसका कि अस्तित्व है वह अपने पर्याय से भिन्न नहीं है अर्थात पर्याय होने पर भी अस्तित्व, अस्तित्व रूप में ही है । अंगुली 'अस्ति' रूप है, इसलिए चाहे वह सीधी हो या टेढ़ी हो । अपने पर्याय-अस्तित्व रूप में ही परिणत होती है । सीधी होना या टेढ़ी होना अंगुली का ही धर्म है। जिस वस्तु में अस्तित्व' है, जो सत् है, उसका रूपान्तर भले ही हो जाय अर्थात् वह एक रूप से पलटकर दूसरे रूप में भले ही पहुंच जाय, किन्तु वह रहेगी सत्य रूप ही। सत्ता कभी असत्ता नहीं बन सकती । सत्ता का विनाश होना त्रिकाल में भी संभव नहीं है । उदाहरण के लिए मिट्टी को लीजिये । वह पहले बिखरी हुई और सूखी हुई थी। उसमें पानी डाला गया तब वह गीली होगई । उसका एक पिण्ड बन गया। इताना परिवर्तन होने पर मिट्टी, मिट्टी हो रही । उसकी सत्ता ज्यों की त्यों अक्षुण्ण है। इसके बाद कुम्हार ने उस मिट्टी के पिण्ड को चाक पर चढ़ाया और उसका घड़ा बना लिया। तब भी मिट्टी तो कायम ही रही । मिट्टी के रूप में उसकी सत्ता अखण्ड है । इस प्रकार अस्तित्व, अस्तित्व रूप में ही परिणत होता है। सत्ता त्रिकाल और त्रिलोक में कभी असत्ता नहीं बनेगी। ... पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से विद्यमान रहते हैं । यद्यपि दोनों धर्म परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं और साधारणतया ऐसा मालूम होता है कि जहाँ अस्तित्व है वहाँ नास्तित्व कैसे रह तकता है ? और जहाँ नास्तित्व है वहाँ अस्तित्व कैसे रह सकता है ? किन्तु अपेक्षा से इन दोनों धर्मों में विरोध नहीं है, बल्कि इनमे साहचर्य सम्बन्ध है । जहाँ अस्तित्व है वहाँ नास्तित्व और जहां नास्तित्व है वहाँ अस्तित्व अवश्य रहता है । एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता, किन्तु यहाँ अपेक्षा भेद का ध्यान अवश्य रखना चाहिए । तात्पर्य यह है कि-यदि एक ही अपेक्षा से अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों धर्म एक पदार्थ में स्वीकार किये जाय, तो विरोध आता है, किन्तु For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से दोनों धर्मों को एक ही पदार्थ में मानना विरुद्ध नहीं है । जैसे घट (घड़ा) घट रूप से अस्ति है, किन्तु पट (वस्त्र) रूप से नहीं । घट स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा 'अस्ति' रूप है और परद्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा 'नास्ति' रूप है । यदि घट को परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा भी 'नास्ति' रूप न माना जाय तो वह 'पट' रूप भी हो जायगा। इस प्रकार प्रति-नियत पादार्थों की व्यवस्था होना असम्भव हो जायगा । इसलिए भिन्न भिन्न अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म रहते हैं। . इस विषय में एक और उदाहरण दिया जाता है। मान लीजिये-एक दीपक जल रहा है, उसका प्रकाश फैल रहा है। किसी कारण से दीपक बुझ गया किंतु प्रकाश अपने मूल रूप से नष्ट नहीं हुआ । वह प्रकाश-पुद्गल अब अपनी पर्याय पलट कर अन्धकार के रूप में परिणत हो गया है । अन्धकार भी एक प्रकार का पुद्गल ही है । इस प्रकार जो पुद्गल पहले 'प्रकाश' अवस्था में था वह अब 'अन्धकार' अवस्था में आ गया। दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य वही है । कुछ लोग अन्धकार को अभाव रूप मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है। शास्त्रकार अत्यन्ताभाव को ही 'नास्तित्व' रूप मानते हैं । यथा-खरविषाण (गधे के सींग) । जो नास्तित्व है वह कभी भी अस्तित्व नहीं होगा। 'अस्तित्व, अस्तित्व में और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है' यह निर्णय हो जाने के बाद गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है सो क्या 'विथसा'-स्वभाव से परिणत होता है या 'प्रयोगसा'-प्रयोग से अर्थात् जीव के व्यापार से ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! दोनों रूप से परिणत होता है। प्रयोग का अर्थ है-व्यापार-जीव का प्रयत्न । जीव के प्रयत्न से भी अस्तित्व, अस्तित्व रूप में परिणत होता है । जैसे-कुम्हार के व्यापार से मिट्टी के पिण्ड का घट रूप में परिणत होना । अथवा जैसे मनुष्य की क्रिया से सीधी अंगुली का टेढी हो जाना। यह अस्तित्व का अस्तित्व में प्रयोग से परिणमन हुआ। इसी प्रकार जीव के व्यापार के बिना भी अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है। जैसे काले बालों का सफेद हो जाना। इस परिणमन में जीव के किसी बाह्य व्यापार की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार नास्तित्व का नास्तित्व रूप में परिणमन भी प्रयोग और स्वभाव से होता है । अंगुली का अंगूठा आदि रूप में न होना 'नास्तित्व' कहलाता है । अर्थात् अंगुली की अपेक्षा से अंगूठे का अस्तित्व ही नास्तित्व है। For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व अब गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! सामान्य रूप से तो पदार्थ जैसे हैं, वैसे ही रहते हैं, किन्तु कभी अतिशय प्रबल कारण मिल जाने से अन्यथा प्रकार के भी हो जाते हैं। जैसे- अतिज्ञायी के प्रताप से अग्नि का शीतल हो जाना और विष का अमृत हो जाना। तो क्या प्रत्येक अवस्था में अस्तित्व, अस्तित्व रूप और नास्तित्व, नास्तित्व रूप ही रहता है, या प्रबल कारण मिल जाने पर अन्यथा परिणमन भी हो जाता है । इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हे गौतम! ऐसा नहीं हो सकता। चाहे जितना प्रबल कारण क्यों न हो, किन्तु अस्तित्व, नास्तित्व में परिणत नहीं हो सकता और नास्तित्व, अस्तित्व में परिणत नहीं हो सकता । पदार्थों में जो धर्म है वह उनमें सदा विद्यमान रहता है ! प्रत्येक पदार्थ में अनन्तगुण हैं। इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि जिस पदार्थ में जो गुण प्रसिद्ध है उसके सिवाय कोई दूसरा गुण उसमें है ही नहीं । यदि ऐसा होता, तो अग्नि कदापि शीतल नहीं होती । उदाहरण के लिए दीपक प्रकाशमय है । वह बुझ जाने पर अन्धकार के रूप में परिणत हो गया । यह अस्तित्व का अस्तित्व में परिणमन हुआ, किन्तु अस्तित्व, नास्तित्व में या नास्तित्व, अस्तित्व में परिणत नहीं हुआ है । जिस प्रकार दीपक का परिणमन हुआ उसी प्रकार जीव के व्यापार द्वारा भी वस्तु में परिणमन होता है । जैसे अग्नि को शीतल कर दिया जाता है, किन्तु अस्तित्व का नास्तित्व और नास्तित्व का अस्तित्व कदापि नहीं बन सकता है। इसी प्रकार गौतम स्वामी ने भगवान् के मत के विषय में प्रश्न किया । उसका उत्तर भी उपरोक्त रूप से जान लेना चाहिए । १७७ . . इसके पश्चात् गौतम स्वामी ने पूछा कि - हे भगवन् ! क्या अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है अर्थात् क्या यह सिद्धांत प्ररूपणा करने के लिए भी है ?: भगवान् ने फरमाया- हाँ, गौतम ! अस्तित्व, अस्तित्व में और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है- यह सिद्धांत गमनीय है अर्थात् प्ररूपणा करने के लिए है । जो वस्तु जैसी है, उसी प्रकार उसकी प्ररूपणा करना उचित ही है । गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या जिस प्रकार में आपका शिष्य हूँ और भक्ति पूर्वक आपसे पूछता हूँ और आप समभावपूर्वक फ़रमाते हैं क्या अन्य कोई संसारी या पाखण्डी द्वारा पूछा जाने पर भी आप इसी प्रकार फरमाते हैं और क्या इसी प्रकार प्ररूपणा के योग्य समझते हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया- हाँ, गौतम ! मैं इसी प्रकार कहता हूँ और प्ररूपणा के योग्य समझता हूँ । अथवा - 'एत्थ' का का अर्थ 'स्वात्मा' है और 'इह' का अर्थ 'परात्मा' है । क्या जैसे For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय . स्वात्मा को सुख प्रिय है, वैसा परात्मा को भी सुख प्रिय है ? भगवान् ने फरमाया किहाँ, गौतम ! जैसे स्वात्मा को सुख प्रिय है, वैसा परात्मा को भी सुख प्रिय है। अथवा-'एत्थ' और 'इह' ये दोनों शब्द 'एतद्' शब्द से बने हैं। ये दोनों समानार्थक हैं । इन दोनों का अर्थ है-प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वस्तु । अर्थात् आपकी सेवा में रहे हुए ये श्रमण और गृहस्थ आदि दोनों ही प्रत्यक्ष-सामने हैं । कांक्षामोहनीय के बन्धादि ... १२६ प्रश्न-जीवा णं भंते ! कंखामोहणिजं कम्मं बंधति ? .१२६ उत्तर-हंता, गोयमा ! बंधति । १२७ प्रश्न-कह णं भंते ! जीवा कंखामोहणिजं कम्मं बंधति ? १२७ उत्तर-गोयमा ! पमादपञ्चया, जोगनिमित्तं च । १२८ प्रश्न-से णं भंते ! पमाए किंपवहे ? १२८ उत्तर-गोयमा ! जोगप्पवहे । . १२९ प्रश्न-से णं भंते ! जोए किंपवहे ? १२९ उत्तर-गोयमा ! वीरियप्पवहे । १३० प्रश्न-से णं भंते ! वीरिए किंपवहे ? १३० उत्तर-गोयमा ! सरीरप्पवहे । १३१ प्रश्न-से णं भंते ! सरीरे किंपवहे ? १३१ उत्तर-गोयमा ! जीवप्पवहे । एवं सति अस्थि उटाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरिकमेइ वा। विशेष शब्दों के अर्थ-बंधंति-बांधते हैं, पमादपच्चया-प्रमाद के कारण, जोग For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय १७९ णिमित्तं-योगों के निमित्त से, जोगप्पवहे-योगों से उत्पन्न होना, उट्ठाणे-उत्थान,कम्मेकर्म, बले-बल, वीरिए-वीर्य, पुरिसक्कार परिक्कमे--पुरुषकार पराक्रम । . भावार्थ-१२६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधते हैं ? १२६ उत्तर--हाँ, गौतम ! बांधते हैं। १२७ प्रश्न--हे भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधते १२७ उत्तर-हे गौतम ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधते हैं। १२८ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? १२८ उत्तर-हे गौतम ! प्रमाद योग से उत्पन्न होता है। १२९ प्रश्न-हे भगवन् ! योग किससे उत्पन्न होता है ? १२९ उत्तर-हे गौतम ! योग वीर्य से उत्पन्न होता है। १३० प्रश्न-हे भगवन् ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? १३० उत्तर-हे गौतम ! वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। १३१ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर किससे उत्पन्न होता है ? १३१ उत्तर-हे गौतम ! शरीर जीव से उत्पन्न होता है और जीव उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से यह करता है। विवेचन--जीव प्रमाद रूप हेतु से और योग रूप निमित्त से, कांक्षामोहनीय कर्म बांधता है । मिथ्यात्व, अविरति और कषाय इन तीनों का प्रमाद में समावेश हो जाता है। शास्त्रकारों ने प्रमाद के आठ भेद बतलाये हैं । यथा- . पमाओ य मुणिदेहि, भणिओ अट्ठभेयओ । अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य॥ रागदोसो मइन्भंसो, धम्मम्मि य अणायरो। जोगाणं दुप्पणिहाणं, अट्टहा वज्जियव्यो । . अर्थ-अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, रागद्वेष, मतिभ्रंश, धर्म में अनादर बुद्धि, अशुभ योग और दुर्ध्यान, ये प्रमाद के आठ भेद हैं । इन्हें त्याग देना चाहिए। __ यद्यपि बन्ध के पांच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । यहां प्रमाद का उल्लेख करके मिथ्यात्व, अविरति और कषाय को उसी के अर्न्तगत कर दिया है । और, योग का पृथक् उल्लेख है ही। इस प्रकार बन्ध के कारणों की संख्या में For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय के बन्धादि किसी प्रकार की असंगति नहीं है । प्रमाद की उत्पत्ति योग से अर्थात् मन वचन काया के व्यापार से होती है । मद्य आदि के सेवन से तथा मिथ्यात्व आदि के आचरण से जो प्रमाद होता है वह सब मन, वचन और काया के व्यापार से होता है । अतएव प्रमाद की उत्पत्ति मन, वचन और काया के व्यापार से कही गई है। योग वीर्य से उत्पन्न होता है । अन्तराय कर्म के पांच भेदों में वीर्यान्तराय कर्म भी एक है । इस वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से जो शक्ति उत्पन्न होती है उसे वीर्य कहते हैं अर्थात् आत्मा का परिणाम विशेष 'वीर्य' कहलाता है। वीर्य की उत्पत्ति शरीर से होती है । यहां पर यह शंका की जा सकती है किवीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से वीर्य उत्पन्न होता है और अलेशी केवली भगवान् इस कर्म का क्षय कर चुके हैं । ऐसी दशा में उन्हें सवीर्य कहना चाहिए या निर्वीर्य ? . इस शंका का समाधान यह है-वीर्य के दो भेद हैं-सकरण वीर्य और अकरणवीर्य । अलेशी केवली भगवान् में जो वीर्य विद्यमान है, वह अकरण वीर्य कहलाता है । यहां इस अकरण वीर्य का प्रकरण नहीं है । यहाँ 'मकरण वोर्य' का ग्रहण किया गया है । लेश्या वाले जीव का मन, वचन और काया रूप साधन वाले आत्म प्रदेशों के परिस्पन्द रूप व्यापार को 'सकरण वीर्य' कहते हैं । करण का अर्थ है साधन । जिसका साधन मन, वचन, काया का व्यापार है उसे. सकरण वीर्य कहते हैं । यह वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है, बिना शरीर के नहीं हो सकता। शरीर किससे उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! शरीर, जीव से उत्पन्न होता है। शरीर की उत्पत्ति का कारण अकेला जीव ही नहीं है, किन्तु कर्म भी है, तथापि कर्म को भी करने वाला जीव ही है । जीव सब में प्रधान-मुख्य है। इसलिए यहां शरीर का उत्पादक कारण केवल जीव ही बतलाया है। - यहाँ प्रसंगवश गोशालक मत का निषेध करते हुए कहा है-गोशालक के मत में पुरुषार्थ आदि कुछ नहीं है। उनका मत है कि जीव के पुरुषार्थ करने से कुछ नहीं होता है। जो कुछ होता है वह नियति (होनहार) से ही होता है । जैसा कि नियतिवादी का कथन है प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुमोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नामव्यं भवति न माविनोऽस्ति नाशः ॥ For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा १८१ ++44 अर्थ-मनुष्यों को शुभ या अशुभ जो कुछ मिलना होता है वह नियति (होनहार) के प्रभाव से अवश्य मिलता है। जीव चाहे जितना प्रयत्न करे, किन्तु जो नहीं होने वाली बात है वह कभी नहीं होगी और जो बात होने वाली है वह लाख प्रयत्न करने पर भी टल नहीं सकती। नियतिवादी के इस मत का यहाँ खण्डन होता है, क्योंकि यहाँ कार्य-कारण की शृंखला बतलाई गई है । वह इस प्रकार है कि-कांक्षामोहनीय कर्म प्रमाद से, प्रमाद योग से, योग वीर्य से, वीर्य शरीर से और शरीर जीव से उत्पन्न होता है । जब जीव से शरीर उत्पन्न होता है, तो जीव में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम भी है । यदि नियतिवाद को स्वीकार किया जाय, तो प्रत्यक्ष सिद्ध पुरुषार्थ का अपलाप होता है । परन्तु जैसे सूर्य प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार प्रत्यक्ष से सिद्ध पुरुषार्थ का भी अपलाप नहीं किया जा सकता । जीव में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य. पुरुषकारपराक्रम है। - खड़ा होना, (तत्पर होना) 'उत्थान' कहलाता है । उत्क्षेपण अपक्षेपण अर्थात ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना इत्यादि जीव की चेष्टा विशेष को 'कर्म' कहते हैं । शारीरिक प्राण को 'बल' कहते हैं । जीव के उत्साह को 'वीर्य' कहते हैं । पुरुष का स्वाभिमान अर्थात् इष्ट फल का साधक पराक्रम 'पुरुषकार पराक्रम' कहलाता है । यहाँ यह शंका की जा सकती है कि क्या स्त्रियाँ क्रिया नहीं करती हैं ? यदि करती हैं, तो 'पुरुषकार' की तरह 'स्त्रीकार' क्यों नहीं कहा ? इसका समाधान यह है कि-स्वभावतः स्त्रियों की क्रिया की अपेक्षा पुरुषों की क्रिया विशेष होती है और विशेष को लक्ष्य करके ही बात कही जाती है । इसलिए यहाँ 'पुरुषकार' कहा है । उपलक्षण से स्त्री का उद्योग भी पुरुषार्थ ही समझना चाहिए। ___पुरुषकार अर्थात् पुरुष की क्रिया और पराक्रम अर्थात् शत्रु का पराजय । ये दोनों कार्य स्त्री और नपुंसक की अपेक्षा पुरुष अधिक करता है । पुरुष की क्रिया और शव का पराजय ये दोनों मिलकर 'पुरुषकार पराक्रम' कहलाता है । ____१३२ प्रश्न-से गुणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चे संवरइ ? For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२. भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा १३२ उत्तर-हंता, गोयमा ! अप्पणा चेव० तं चेव उच्चारेयब्बं । १३३ प्रश्न-जं तं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरेइ तं किं उदिण्णं उदीरेइ, अणुदिण्णं उदीरेइ, अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ, उदयाणंतरपच्छा कडं कम्म उदीरेइ ? ___ १३३ उत्तर-गोयमा ! नो उदिणं उदीरेइ, नो अणुदिण्णं उदीरेइ, अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ, णो उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं उदीरेइ। १३४ प्रश्न-जं तं भंते ! अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्म उदीरेइ तं किं उट्ठाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कारपरकमेणं अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ, उदाहु तं अणुटाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसकारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदीरणा भवियं कम्मं उदीरेइ ? ", १३४ उत्तर-गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसकारपरकमेण वि अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्म उदीरेइ । णो तं अणुटाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसकारपरकमेणं अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ । एवं सति अस्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ कांक्षा- मोहनीय की उदीरणा परकमेह वा । १३५ प्रश्न - से णूणं भंते ! अप्पणा चेव उवसामेइ, अप्पणा चैव गरहह, अप्पणा चैव संवरेइ ? १३५ उत्तर - हंता, गोयमा ! एत्थ वि तहेव भाणियव्वं । नवरं - अणुदिण्ण उवसामेइ सेसा पडिसेहेयव्वा तिष्णि । १८३ १३६ प्रश्न - जं तं भंते ! अणुदिण्णं उवसामेह तं किं उड्डाणेणं ? १३६ उत्तर - जाव - पुरिमकारपरकमेह वा । १३७ प्रश्न - से णूणं भंते ! अप्पणा चेव वेदेह, अप्पणा चेव गरहइ ? १३७ उत्तर - एत्थ वि सच्चेव परिवाडी, नवरं - उदिष्णं वेएह, णो अणुदिष्णं वेएइ, एवं जाव - पुरिसकारपरक मेड़ वा ? -१३८ प्रश्न - से पूर्ण भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेह, अप्पणा चेव गरहइ ? १३८ उत्तर - एत्थ वि सच्चेव परिवाडी, नवरं - उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निज्जरेह, एवं जाव - परकमेइ वा । विशेष शब्दों के अर्थ - उदीरेह - उदीरणा करता है, गरहइ गर्हा करता है, संवरइसंवृत करता है, उदीरणा भवियं-उदीरणा के योग्य, उदयानंतरपच्छाकडं -- उदयानन्तर पश्चात् कृत, उवसामेइ- उपशान्त करता है, परिवाडी - परिपाटी । भावार्थ - १३२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव अपनी आत्मा से ही उदीरणा करता है ? अपनी आत्मा से ही उसकी गर्हा करता है ? और अपनी For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ भगबती सूत्र-श. १ उ. ३.कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा आत्मा से ही उसका संवर करता है। १३२ उत्तर-हां, गौतम ! जीव अपनी आत्मा से ही उदीरणा, गर्दा और संवर करता है। १३३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव अपनी आत्मा से ही उदीरणा, गर्दा और संवर करता है तो क्या उदीर्ण ( उदय में आये हुए) को उदीरणा करता है ? अनुदीर्ण (उदय में नहीं आये हुए)को उदीरणा करता है ? या अनुदीर्ण उदीरणाभविक (उदय में नहीं आया हुआ किन्तु उदीरणा के योग्य) को उदीरणा करता है ? या उदयानन्तर पश्चात् कृत कर्म को उदीरणा करता है ? . १३३ उत्तर-हे गौतम ! उदीर्ण की उदीरणा नहीं करता, अनुदीर्ण की भी उदीरणा नहीं करता, तथा उदयानन्तर पश्चात्कृत को भी उदीरणा नहीं करता, किन्तु अनुदीर्ण उदीरणा-भविक कर्म की उदीरणा करता है। १३४ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव अनुदीर्ण उदीरणा-भविक की उदीरणा करता है, तो क्या उत्थान से, कर्म से, बल से, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से उदीरणा करता है ? या अनुत्थान से, अकर्म से, अबल से, अवीर्य से और अपुरुषकार पराक्रम से उदीरणा करता है? १३४ उत्तर-हे गौतम ! अनुदीर्ण उदीरणा-भविक कर्म को उदोरणा उत्थान से, कर्म से, बल से, वीर्य से और पुरुषकार पराक्रम से करता है, किन्तु अनुत्थान से, अकर्म से, अबल से, अवीर्य से और अपुरुषकार पराक्रम से उदीरणा नहीं करता है। इसलिए उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम हैं। १३५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह अपनी आत्मा से ही उपशम, गर्हा, और संवर करता है ? १३५ उत्तर-हाँ,गौतम ! यहां भी उसी प्रकार 'पूर्ववत्' कहना चाहिए। विशेषता यह है कि अनुदीर्ण (उदय में नहीं आये हुए) का उपशम करता है। शेष तीन विकल्पों का निषेध करना चाहिए। १३६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव अनुदीर्ण कर्म का उपशम करता है, तो For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ कांक्षा- मोहनीय की उदीरणा क्या उत्थान से यावत् पुरुषकार पराक्रम से करता है ? या अनुत्थान से यावत् अपुरुषकार पराक्रम से करता है ? १८५ १३६ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् जानना । यावत् पुरुषकार पराक्रम से उपशम करता है । १३७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव अपनी आत्मा से ही वेदन करता है और गर्हा करता है ? १३७ उत्तर - हाँ, गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त समस्त परिपाटी समझनी चाहिए । विशेषता यह है कि - उदीर्ण को वेदता है, अनुदीर्ण को नहीं वेदता है । इस प्रकार यावत् पुरुषकार पराक्रम से वेदता है, अनुत्थानादि से नहीं वेदता है। १३८ प्रश्न - - हे भगवन् ! क्या जीव अपनी आत्मा से ही निर्जरा करता है और गर्हा करता है ? १३८ उत्तर - हे गौतम! यहाँ भी समस्त परिपाटी पूर्ववत् समझनी चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की निर्जरा करता है । इस प्रकार यावत् पुरुषकार पराक्रम से निर्जरा और गर्हा करता है। इसलिए उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रम हैं । विवेचन - यहाँ गौतम स्वामी ने कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा, गर्हा और संवर के विषय में प्रश्न किया है कि - हे भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म को आप ही है ? ही गर्दा करता है और आप ही संवर करता है ? भगवान् ने फरमाया -हाँ, गौतम ! जीव आप ही उदीरणा आदि करता है । क्योंकि बन्ध आदि में जीव की ही मुख्यता है, परन्तु दूसरे की नहीं। जैसा कि कहा है अणुमेत्तो वि ण कस्सइ बंधो । परवत्थुपच्चया मंणिओ ॥ अर्थात् - किसी भी जीव को अणुमात्र ( जरा सा ) भी कर्मबन्ध अन्य वस्तु के कारण नहीं होता है । उदीरणा -- भविष्यकाल में उदय में आने वाले कर्म को शीघ्र नष्ट करने के लिए करण विशेष द्वारा खींच कर उदयावलिका में लाना 'उदीरणा' कहलाती है । - अतीतकाल में जो पापकार्य किया है उनके स्वरूप को जानकर उनकी निन्दा For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा करना अर्थात कर्मबन्ध के कारणों को जानकर आत्मनिन्दा करना 'गहीं' है। संवर-पापकर्म के स्वरूप को जानकर या उसके हेतु को समझकर वर्तमान में उस कर्म को न करना, उस पर रोक लगा देना 'संवर' है। . जैसे आत्मा आप स्वयं ही बन्ध का कर्ता है, उसी प्रकार उदीरणा, गर्दा और संवर का कर्ता भी आत्मा ही है। यद्यपि संवर आदि में गुरु का उपदेश आदि भी सहकारी कारण होते हैं, तथापि उनकी प्रधानता नहीं है, प्रधानता जीव की ही है । क्योंकि जीव का वीर्य ही संवर आदि में प्रधान कारण है । गुरु आदि तो उपदेश द्वारा आत्मा के सुस्त पड़े हुए वीर्य को उत्साहित कर देते हैं। किन्तु आत्मा आप ही उदीरणा करता है, आप ही गर्दा करता है और आप ही संवर करता है। - यहाँ कर्मों की चार प्रकार की स्थिति बतलाई गई है-१ उदीर्ण-उदय में आया हुआ । २ अनुदीर्ण-उदय में नहीं आया हुआ । ३ अनुदीर्ण उदीरणा-भविक-जो अभी उदय में नहीं आया है, किन्तु उदीरणा करने के योग्य है । ४ उदयानन्तर पश्चात्कृत-उदय हो चुकने के बाद जो पश्चात्कृत हो गया है । गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया है कि इन कर्मों में से जीव किन कर्मों की उदीरणा करता है ? .... शंका-पहले प्रश्न में यह कहा गया है कि आत्मा स्वयं ही उदीरणा, गर्हा और संवर करता है, किन्तु इसके बाद जो प्रश्न किया गया है कि आत्मा उदीर्ण कर्म की उदीरणा करता है, या अनुदीर्ण कर्म की अथवा अनुदीर्ण उदीरणा-भविक की, या फिर उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की उदीरणां करता है । इस प्रश्न में सिर्फ उदीरणा का ही ग्रहण क्यों किया गया है ? यहाँ गए और संवर को क्यों छोड़ दिया गया है ? अर्थात् यह क्यों नहीं पूछा कि-उदीर्ण कर्म की गर्दा करता है, या अनुदीर्ण कर्म की ? इसी प्रकार संवर के विषय में भी यह प्रश्न क्यों नहीं किया है ? . समाधान-उदीर्ण, अनुदीर्ण, अनुदीर्ण उदीरणा-भविक और उदयानन्तर पश्चात्कृत, ये चार विशेषण उदीरणा के लिए ही हैं। इसलिए इन चार विशेषणों द्वारा उदीरणा के विषय में ही प्रश्न किया गया है । इन चारों विशेषणों में से एक भी विशेषता का सम्बन्ध गर्दा और संवर के साथ नहीं है । अतएव चारों में से किसी भी विशेषण का प्रयोग गर्दा और संवर के विषय में नहीं हो सकता। शंका-यदि उदीरणा के साथ गर्दा और संवर का सम्बन्ध नहीं है, तो फिर पहले प्रश्न में इन तीनों को साथ क्यों रखा गया, वहाँ केवल "उदीरणा'-यह एक ही पद देना For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा १८७ चाहिए था ? . समाधान-गर्दा और संवर ये दोनों उदीरणा के साधन हैं। यह बात प्रकट करने के लिए ही इन दोनों पदों को उदीरणा के साथ रखा गया है। पहले प्रश्न का जो उत्तर दिया गया है उससे भी यह बात स्पष्ट हो जाती है। __ गौतम स्वामी ने जो उदीरणा का प्रश्न किया है उसका उत्तर यह दिया गया किआत्मा उदीर्ण (उदय में आया हुआ) कर्म की उदीरणा नहीं करता, क्योंकि वे तो स्वयं ही उदय में आये हुए हैं । जो कर्म उदय में आये हुए हैं यदि उनकी भी उदीरणा की जायगी, तो फिर उदीरणा का अन्त नहीं आवेगा । इस प्रकार अव्यवस्था हो जायगी । इसी प्रकार अनुदीर्ण कर्म की भी उदीरणा नहीं होती है अर्थात् जिन कर्मों की उदीरणा भविष्य में बहुत देर में होने वाली है, या जिन कर्मों की उदीरणा भविष्य में नहीं होगी, ऐसे उदीरणा के अयोग्य कर्मों की उदीरणा नहीं होती है । जो कर्म स्वरूप से अनुदीर्ण हैं, लेकिन उदीरणा के योग्य हैं, वे उदीरणाभविक (उदीरणा भाव्य) कहलाते हैं। ऐसे ही कर्मों की उदीरणा होती है अर्थात् पूर्वोक्त चार अंगों में से तीसरे भंग के कर्मों की उदीरणा होती है । जो कर्म उदयानन्तर पश्चात्कृत हैं, उनकी भी उदीरणा नहीं होती, क्योंकि वे कर्म उदय में आ चुके हैं, इसलिए अतीत रूप हैं और अतीत वस्तु असत्रूप होती है । अतएव ऐसे कर्म की उदीरणा नहीं होती है । कर्म की उदीरणा में काल, स्वभाव, नियति (होनहार) आदि भी कारण हैं, किन्तु प्रधानता आत्मा के वीर्य की ही है । इसलिए आत्मा अपने आप उदीरणा करता है और वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से करता है । ये सब आत्मा में विद्यमान हैं। यहां तक कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हुएं । अब कांक्षामोहनीय कर्म के उपशम के विषय में गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! . क्या आत्मा अपने आप ही कर्म को उपशान्त करता है, गहता है और संवरता है। भगवान् ने फरमाया-हां, गौतम ! यह सब कथन उदीरणा के सम्बन्ध में दिये गये उत्तर की ही तरह समझना चाहिए । विशेष यह है कि जो कर्म अनुदीर्ण हैं अर्थात् उदय में नहीं आये है, उन्हीं का उपशम होता है, उदय में आये हुए कर्म का उपशम नहीं होता। तात्पर्य यह . है कि पूर्वोक्त चार भंगों में से यहां दूसरा भंग कहना चाहिए। ____ उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है । जैसा कि कहा है मोहस्सेबोबसमो खओक्समो पउहं पाई। . उदयक्लयपरिणामा, अट्ठम्ह वि होति कम्मागं ॥ For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय की उदीरणा . अर्थात्-उपशम सिर्फ मोहनीय कर्म का ही होता है, क्षयोपशम चार घाती-कर्मों . (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का ही होता है । उदय और क्षय परिणाम आठों ही कर्मों का होता है। उपशम का अर्थ यह है-उदीर्ण (उदय में आए हुए) कर्म का क्षय होना और अनुदीर्ण (उदय में नहीं आये हुए) कर्म का विपाक और प्रदेशों के द्वारा अनुभव न होना। कर्म की ऐसी अवस्था को उपशम कहते है। शंका--कर्मों की ऐमी अवस्था होना तोक्षयोपशम है, फिर इसे 'उपशम' कैसे कहा . गया? समाधान-क्षयोपशम में भी उदीर्ण कर्म का क्षय होता है और अनुदीर्ण का उपशम होता है, किन्तु वहां प्रदेश द्वारा कर्म का अनुभव होता है, केवल विपाक से ही अनुभव नहीं होता । इस प्रकार जब कर्म का प्रदेश और विपाक दोनों द्वारा अनुभव नहीं होता है, तब वह उपशम कहलाता है और जब सिर्फ विपाक से अनुभव नहीं होता, किंतु प्रदेश से अनुभव होता है तब क्षयोपशम कहलाता है। यह उपशम और क्षयोपशम में अन्तर है। - यह उपशम, औपशमिक समकिति जीव में और उपशमश्रेणी वाले जीव में पाया जाता है। उदीर्ण कर्म वेदा जाता है, अनुदीर्ण कर्म नहीं वेदा जाता है। यदि अनुदीर्ण कर्म भी वेदा जाय, तो फिर उदीर्ण और अनुदीर्ण में फर्क ही क्या रहे ? जो कर्म वेदने में आता है उसकी निर्जरा होती है । इसलिए आगे निर्जरा के विषय में प्रश्न किया गया है । जीव अपने आप ही निर्जरा करता है अर्थात् अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम द्वारा निर्जरा करता है, किन्तु विशेष यह है कि निर्जरा उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की होती है। उदीरणा, उपशम, वेदना और निर्जरा के सम्बन्ध में एक संग्रह गाथा कही है। वह इस प्रकार है तइएण उदीरेंति, उवसामेति य पुणो वि बीएणं । वेइंति णिज्जरंति य, पढमचउत्यहि सब्वेवि।। - अर्थ - पहले जो चार भांगे कहे हैं उनमें से सभी जीवों के तीसरे मांगे में उदीरणा होती है, दूसरे में उपशम होता है, पहले में वेदन होता है और चौथे में निर्जरा होती है। For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ नैरयिकादि के कांक्षामोहनीय नैरयिकादि और श्रमणों के कांक्षामोहनीय १३९ प्रश्न - नेरइया णं भंते! कंखामोहणिजं कम्मं वेरंति ? १३९ उत्तर - जहा ओहिओ जीवा तहा नेरइया, जाव - थणिय · कुमारा । १४० प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्म वेइंति ? १४० उत्तर - हंता, वेति । १८९ १४१ प्रश्न - कह णं भंते ! पुढविकाइया कंखामोहणिज्जं क्रम्मं वेदेंति ? १४१ उत्तर - गोयमा ! तेसि णं जीवाणं णो एवं तका इवा, सण्णा इवा, पण्णा इवा, मणे इ वा, वईत्ति वा अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेएमो, वेति पुण ते । १४२ प्रश्न - से णूणं भंते! तमेव सच्च, णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ? १४२ उत्तर - सेसं तं चेव, जाव - पुरिसकारपरकमेइ वा एवं जाव - चउरिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव - वेमाणिया जहा ओहिया जीवा । १४३ प्रश्न - अत्थि णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखामोह For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ नैरयिकादि और श्रमणों के कांक्षा-मोहनीय णिज कम्मं वेएंति ? १४३ उत्तर-हंता अस्थि । १४४ प्रश्न-कह णं भंते ! समणा णिग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेएंति ?. १४४ उत्तर-गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं नाणंतरेहि, दंसणंतरेहि, चरितंतरेहि, लिंगंतरेहि, पवयणंतरेहि, पावयणंतरेहि, कप्पं. तरेहिं, मग्गंतरेहि, मयंतरेहि, भंगंतरेहि, णयंतरेहि, नियमंतरेहि, पमाणंतरेहिं संकिया, कंखिया, वितिगिच्छिया, भेयसमावन्ना, कलुससमावन्ना एवं खलु समणा णिग्गंथा कंखामोहणिज कम्मं वेइति । १४५ प्रश्न-से गुणं भंते ! तमेव सच्चं, मीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ? . १४५ उत्तर-हंता, गोयमा ! तमेव सच्चं, णीसंकं, एवं जावपुरिसकारपरकमेइ वा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।. . ॥ तइओ उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ--तक्का--तर्क, सणा-संज्ञा, पण्णा--प्रज्ञा, मणे--मन, , बई--वचन, समणा णिग्गंथा--श्रमण निम्रन्थ । भावार्थ-१३९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं ? • १३९ उत्तर-हां, गौतम ! वेदते हैं। जैसे सामान्य जीव कहे, वैसे ही For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ श्रमणों के काँक्षा- मोहनीय. नैरfयक भी समझना चाहिए । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए । १४० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं ? १४० उत्तर - हां, गौतम ! वेदते हैं । १४१ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार वेदते हैं ? १९१ १४१ उत्तर -- हे गौतम ! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन नहीं होता है कि 'हम कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते है, किन्तु वे उसे वेदते हैं। १४२ प्रश्न - - हे भगवन् ! वह सत्य और निःशंक है जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया हैं ? १४२ उत्तर-- हे गौतम! यह सब पहले के समान समझना चाहिए । अर्थात् जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है वह सत्य और निःशंक है । यावत् पुरुषकार पराक्रम से निर्जरा होती है। इस प्रकार चौइन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए। जैसे सामान्य जीव कहे हैं वैसे ही पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए । १४३ प्रश्न -- हे भगवन् ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं ? १४३ उत्तर -- हां, गौतम ! वेदते हैं। १४४ प्रश्न -- हे भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार वेदते हैं ? १४४ उत्तर -- हे गौतम! उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर के द्वारा शंका वाले, कांक्षा वाले For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ नैरयिकादि के कांक्षा - मोहनीय विचिकित्सा वाले, भेदसमापन और कलुषसमापन होकर इस प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं । १४५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वही सत्य और असंदिग्ध जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है ? १४५ उत्तर - हां, गौतम ! वही सत्य है, असंदिग्ध है, जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है । यावत् पुरुषकार पराक्रम से निर्जरा होती है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यही सत्य है । विवेचन - अब चौबीस दण्डक की अपेक्षा से वेदना से लगाकर निर्जरा तक का विचार किया जाता है । गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! क्या नारकी जीव भी कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं ? भगवान् ने फरमाया कि- हाँ, गोतम ! वेदते हैं। सामान्य जीवों के सम्बन्ध 'जो बातें कही गई हैं वे सब बातें यहाँ भी लागू होती है। ये ही सब बातें स्तनितकुमारों तक भी समझ लेनी चाहिए । इसके पश्चात् गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के जीव भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? भगवान् ने फरमाया- हाँ, गौतम ! वे भी वेदन करते है । जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त है वे जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करें, यह तो ठीक है, किन्तु जिनमें मनोज्ञान नहीं है, जिन्हें भले बुरे की पहचान नहीं है, वे कांक्षामोहनीय कर्स को किस प्रकार वेदते हैं ? इसी अभिप्राय से गौतमस्वामी ने फिर प्रश्न किया किहे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार वेदते हैं ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! 'हम कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं इस प्रकार उन जीवों में तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन नहीं है, फिर भी वे वेदते हैं । तर्क अर्थात् विमर्श । 'यह इस प्रकार होगा' इस तरह के विचार को 'तर्क' कहते हैं । संज्ञा अर्थात् अर्थावग्रह रूप ज्ञान । अवग्रह के दो भेद हैं-अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह । प्रज्ञा का अर्थ है - बुद्धि । सब विशेष सम्बन्धी ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं । स्मरणादि रूप मतिज्ञान के भेद को मन कहते हैं। अपने अभिप्राय को शब्द द्वारा प्रकट करना 'वचन' कहलाता है । For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कक्षा-मोहनीय की उदीरणा 'पृथ्वीकाय के जीवों में तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा और मन नहीं है, उनमें बोलने की शक्ति भी नहीं है, फिर भी वे जीव कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं । जो जिन भगवन्तों ने अपने ज्ञान में देखा है वह सत्य और शंका रहित है। वे पृथ्वीकाय के जीव कांक्षामोहनीय कर्म को अपने आप उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से वेदते हैं । पृथ्वीकाय की तरह अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय तक ऐसा ही जानना चाहिए। तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय से वैमानिक तक समु. च्चय जीव के वर्णन की तरह समझना चाहिए। कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन श्रमण निर्ग्रन्थों के सिवाय बाकी दूसरे जीवों को हो तो हो, किन्तु उसका वेदन श्रमण निर्ग्रन्थों को कैसे हो सकता है ? क्योंकि उनकी बुद्धि जिनागमों के परिशीलन से पवित्र बनी हुई होती है । इसलिए अब गौतम स्वामी इस विषय में प्रश्न पूछते हैं कि-हे भगवन् ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षा-मोहनीय कर्म वेदते हैं। यहाँ मूल में साधु अर्थ के वाचक 'श्रमण' और 'निर्ग्रन्थ' ये दो शब्द दिये हैं। इसका प्रयोजन यह है कि-शाक्य अर्थात् बौद्ध भिक्षु आदि को भी 'श्रमण' कहते हैं । परन्तु उनका यहाँ ग्रहण नहीं है । इसलिए श्रमण के साथ 'निर्ग्रन्थ' विशेषण लगाया गया है। अर्थात् जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह से रहित हैं, ऐसे निग्रंथ श्रमणों (जनमुनियों) का यहाँ ग्रहण है । वे श्रमण निर्ग्रन्थ भी ज्ञानान्तर आदि कारणों से कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदंन करते हैं। १ज्ञानान्तर-एक ज्ञान से दूसरे ज्ञान को 'ज्ञानान्तर' कहते हैं । इनके विषय में शंका हो जाना कि ऐसा क्यों हैं ? यथा-अवधिज्ञान, परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को जानता है, इसलिए इसके असंख्यात भेद हैं । वह रूपी पदार्थों को जानता है । मनःपर्ययज्ञान, मनोद्रव्य को जानता है । मनोद्रव्य भी रूपी है। रूपी होने के कारण मनोद्रव्य भी अवधिज्ञान के द्वारा जाने जा सकते हैं। ऐसी हालत में अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान । को भिन्न मानने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार का सन्देह हो जाना शंका है। ... इसका समाधान यह है कि-यद्यपि मनोगत पदार्थ रूपी हैं और अवधिज्ञान द्वारा जाने जा सकते हैं, तथापि मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान एक नहीं हो सकते । दोनों भिन्न हैं । दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। मनःपर्ययज्ञान मन के भीतर आने वाले पदार्थ के For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १९४ . भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा विकल्प को ही जानना है इसके सिवाय और किसी पदार्थ को नहीं जानता । अवधिज्ञानी सामान्य देख कर विशेष देखता है अर्थात् अवधिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है । अवधिज्ञान के साथ अवधिदर्शन होता है, किन्तु मनःपर्यय ज्ञान के साथ दर्शन नहीं है । कोई कोई अवधिज्ञान, मनोद्रव्यों को विषय नहीं करता और कोई कोई मनोद्रव्य के साथ अन्य रूपी पदार्थों को भी विषय करता है । अर्थात् कोई भी अवधिज्ञान ऐसा नहीं है जो मनः पर्यय ज्ञान की तरह केवल मनोद्रव्यों को ही जानता हो। यह दोनों ज्ञानों में विषय की अपेक्षा अन्तर है। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में और भी बहुत अन्तर है। मनःपर्ययज्ञान सिर्फ मनुष्य क्षेत्र के संज्ञी जीवों के मनोद्रव्य को ही ग्रहण करता है, जब कि अवधिज्ञान समस्त लोकाकाश के रूपी पदार्थों को ग्रहण कर सकता है और शक्ति तो इससे भी कई गुणी अधिक है। इसके सिवाय अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है, किन्तु मनःपर्यय ज्ञान केवल मनुष्य को ही होता है और वह भी अप्रमत्त संयत को ही । इस प्रकार विषय, क्षेत्र, स्वामी आदि अनेक अपेक्षाओं से दोनों ज्ञानों में अन्तर है। इस अन्तर को न समझ कर उनके विषय में शंका करने से और फिर शंका न मिटाने में कांक्षा, विचिकित्सा और कलुषता आदि आती है । २ वर्शनान्तर-ज्ञान की तरह दर्शन में भी शंका हो सकती है । सामान्य बोध को दर्शन कहते हैं । यह दो प्रकार से होता है-१ इन्द्रिय से और २ अनिन्द्रिय के निमित्त से । इन्द्रियों में श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसना, और स्पर्शन हैं तथा अनिन्द्रिय में मन है । कोई दर्शन (सामान्य बोध) इन्द्रियों से होता है और कोई मन से । यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि जब इन्द्रिय और मन से होने वाला सामान्य बोध 'दर्शन' कहलाता है, तो फिर एक चक्षुदर्शन और दूसरा अचक्षुदर्शन, इस प्रकार दो भेद करने की क्या आवश्यकता है ? यदि इन्द्रियजन्य और अनिन्द्रियजन्य भेद करने थे, तो श्रोत्रदर्शन, चक्षुदर्शन, घ्राणदर्शन, रसनादर्शन और स्पर्शनदर्शन तथा मनोदर्शन--इस प्रकार छह भेद करना चाहिए थे, अथवा संक्षेप में 'इन्द्रिय दर्शन' और 'मनोदर्शन'-ये दो भेद ही किये होते तो उचित था। किन्तु 'चक्षुदर्शन' और 'अचक्षु दर्शन' इस प्रकार दो भेद क्यों किये? इस शंका का समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु में सामान्य धर्म भी होते हैं और विशेष धर्म भी होते हैं । अतएव भी सामान्य रूप से वस्तु का कथन किया जाता है और कमी विशेष रूप से। यहां चक्षुदर्शन कहकर विशेष रूप से कथन किया गया है और अपनदर्शन कह कर सामान्य रूप से निरूपण किया गया है. अर्थात् चक्षुदर्शन यह विशेष भेद For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा है और अचक्षुदर्शन सामान्य भेद है । अन्य प्रकार से भी दर्शन के भेद किये जा सकते हैं तथापि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, इस प्रकार दो भेद करने का और भी कारण है। वह यह है कि इन्द्रियाँ दो प्रकार की है-१ प्राप्यकारी और २ अप्राप्यकारी । जो इन्द्रिय अपने ज्ञेय पदार्थ को प्राप्त करके ज्ञान कराती है, वह 'प्राप्यकारी' कहलाती है और जो प्राप्त किये बिना ही ज्ञान करा देती है वह 'अप्राप्यकारी' कहलाती है । चक्षु इन्द्रिय 'अप्राप्यकारी' है और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी' हैं । यद्यपि मन भी अप्राप्यकारी है, किन्तु वह प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ भी रहता है । मन सब इन्द्रियों के साथ रहता है, किन्तु प्राप्यकारी इन्द्रियां चार हैं और अप्राप्यकारी सिर्फ एक है । अतएव मन प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ अधिक रहता है, इस कारण अप्राप्यकारी होने पर भी उसे प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ गिना गया है । इसलिए मन से और चार इन्द्रियों से होने वाला दर्शन 'अचक्षुदर्शन' कहलाता है और आंख से होने वाला दर्शन 'चक्षुदर्शन' कहलाता है। . अथवा-दर्शन का दूसरा अर्थ 'सम्यक्त्व' है। उसके विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है-शास्त्र में सम्यक्त्व के क्षायोपशमिक और औपशमिक आदि भेद बतलाये गये हैं। क्षायोपमिक सम्यक्त्व का लक्षण यह बतलाया गया है कि-जब उदीर्ण (उदय में आया हा) मिथ्यात्व का क्षय हो गया हो और अनुदीर्ण (उदय में नहीं आया हुआ) मिथ्यात्व उपशान्त हो गया हो, तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होती है । जैसा कि कहा है मिच्छत्तं जमुदिन्यं तं सोगं, अणुदियं च उवसंत । अर्थ-उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय और अनुदीर्ण का उपशम होना 'क्षायोपशमिक' सम्यक्त्व है। औपशमिक सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है जीनम्मि उन्मम्मि अमुविजते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुत्तमेतं उबसमसम्मं लहह जीवो। अर्थ-उदय में आये हुए मिथ्यात्व का क्षय होने पर और शेष मिथ्यात्व के उदय में न आने पर अन्तर्मुहर्त मात्र के लिए जीव को उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। - इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यक्त्व का लक्षण एक-सा मालूम होता है । फिर इन दोनों दर्शनों को अलग अलग क्यों कहा गया है ? . इस प्रकार की शंका होने पर विचिकित्सा आदि के द्वारा कलुषितता में पड़ कर श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा + + + + + M इस शंका का समाधान यह है कि-क्षयोपशम और उपशम का लक्षण एक नहीं है । अलग अलग है । अतएव इन दोनों से होने वाले सम्यक्त्व भी अलग अलग हैं। - क्षयोपशम और उपशम का भेद यह है-क्षयोपशम में उदय में आये हुए कर्म का तो क्षय हो जाता है और उदय में नहीं आये हुए का विपाक से उपशम होता है, किन्तु प्रदेश से उपशम नहीं होती, अर्थात् विपाकोदय नहीं होता, किन्तु प्रदेशोदय होता है । उपशम सम्यक्त्व में विपाकानुभव और प्रदेशानुभव दोनों ही नहीं होते। जैसा कि कहा है वेएइ संतकम्मं खओवसमिएसु णाणुभावं सो। . .. उवसंतकसाओ पुण, वेएइ ण संतकम्मं ॥ .. अर्थात्-क्षायोपशमिक भाव में विपाकानुभव नहीं होता है, किन्तु प्रदेशानुभव होता है। उपशम भाव में विपाकानुभव और प्रदेशानुभव इन दोनों से वेदन नहीं होता। इसके अतिरिक्त औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहुर्त मात्र की है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागर झाझेरी (कुछ अधिक) है । इस प्रकार दोनों दर्शन भिन्न भिन्न हैं। ३. चारित्रान्तर-चारित्रान्तर का स्वरूप इस प्रकार है-सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र अलग अलग हैं । इनके विषय में यह शंका होती है कि-इन दोनों का लक्षण तो एक-सा मालूम होता है, फिर इन्हें अलग अलग क्यों कहा ? सामायिक चारित्र में सर्व सावध योग का त्याग है और छेदोपस्थापनीय चारित्र में महाव्रत हैं, किन्तु महाव्रत भी सर्व सावद्य योग का त्याग ही है। फिर इन दोनों चारित्रों को अलग अलग . क्यों कहा? __ इस शंका का समाधान यह है रिउवपकजा पुरिमेयराण समाइए वयारूहणं । मणयमसुढे पि जओ, सामाइए हुंति हु वयाई । ' अर्थ-प्रथम तीर्थङ्कर के साधु ऋजुजड़ होते हैं और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्रजड़ होते हैं । इसलिए छेदोपस्थापनीय चारित्र की स्थापना की है, क्योंकि सामायिक चारित्र में थोड़ा-सा भी दोष लग जाने पर छेदादि के द्वारा उसकी शुद्धि हो जाती है । तात्पर्य यह है कि वास्तव में तो सामायिक चारित्र ही है, लेकिन समय और प्रकृति के भेद से इसमें भेद किया गया है। इन साधुओं को आश्वासन देने के लिए छेदोपस्थापनीय चारित्र बतलाया गया है। इन्हें पहले सामायिक चारित्र ही दिया जाता है और फिर सात For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा- मोहनीय दिन, चार मास या छह मास बाद निरतिचार अवस्था में भी छेदोंपस्थापनीय चारित्र अर्थात् महाव्रतों का आरोपण किया जाता है। महाव्रत धारण करने के बाद यदि किसी कारण से चारित्र में दोष लग भी जावे, तो इस विचार से उन्हें शान्ति होगी कि मैंने दोषों के परिमार्जन से अपने महाव्रतों की रक्षा करली है । यदि ऐसा न किया गया होता, केवल सामायिक चारित्र ही धारण कराया गया होता और महाव्रत रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र धारण न कराया जाता, तो सामायिक चारित्र में दोष लग जाने पर साधु यही सोचता कि मेरे सामायिक चारित्र में दोष लगने से मेरा चारित्र ही नष्ट हो गया है । इसलिए उन्हें आश्वासन दिया कि तुम्हारें सामायिक चारित्र में दोष लग गया है, किन्तु प्रायश्चित्तादि के द्वारा तुम्हारे महाव्रतों की शुद्धि हो गई है । इस कारण सामायिक चारित्र और छदोपस्थापनीय चारित्र को अलग अलग कहा है । ४ लिंगान्तर - कांक्षा मोहनीय के वेदन का चौथा कारण लिंगान्तर है । लिंग अर्थात् वेश के विषय में यह शंका होती है कि-बीच के बाईस तीर्थङ्करों ने अपने साधुओं के लिए जैसा मिले वैसा ही वस्त्र रखने की आज्ञा । इनके शासन में रंग और परिमाण का कोई नियम नहीं है । प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधुओं के लिए परिमाणोपेत श्वेत. वस्त्र रखने की ही आज्ञा दी है । सर्वज्ञों के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता । फिर यह दो तरह की आज्ञा क्यों दी गई ? १९७ इस शंका का समाधान यह है कि- प्रथम तीर्थङ्कर के साधु 'ऋजुजड़' और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु 'वजड' होते हैं। बीच के बाईस तीर्थङ्करों के साधु 'ऋजुप्राज्ञ' होते है। इस प्रकार स्वभाव भेद के कारण यह भिन्न भिन्न आज्ञा दी गई है। इसमें मौलिक सैद्धांतिक अन्तर कुछ भी नहीं है । सब तीर्थङ्करों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व एक ही है । ५ प्रवचनान्तर - प्रवचन के विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है-बीच के बाईस तीर्थकरों ने चार महाव्रतों का प्रतिपादन किया है और प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर ने पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया है। यह भेद क्यों है ? सर्वज्ञों के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए ? 'इस शंका का समाधान यह है कि-बीच के बाईस तीर्थङ्करों ने चार महाव्रत रूप जो धर्म कहा है, वह पांच महाव्रत रूप ही समझना चाहिए। क्योंकि चौथे ब्रह्मचर्यं महाव्रत को पांचवें परिग्रह विरमण व्रत में अन्तर्गत कर लिया है। क्योंकि -. " “ योषा दिति नापरिगृहीता भुज्यते अर्थात्-अपरिगृहीत स्त्री भोगी नहीं जाती है । इस अपेक्षा से स्त्री परिग्रह रूप ही For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १९८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३. श्रमणों के कांक्षामोहनीय है। इसलिए मध्य के 'बाईस तीर्थङ्करों ने स्त्री को परिग्रह में गिन लिया है और प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर ने मैथुन त्याग रूप महाव्रत अलग बतला दिया है । अतः तीर्थकरों की प्ररूपणा में परस्पर कुछ भी भेद नहीं है। ६ प्रावधनिकान्तर--प्रवचन का अध्ययन करने वाला एवं प्रवचन का ज्ञाता प्रावचनिक कहलाता है। तत् तत् काल की अपेक्षा बहुश्रुत (बहुत आगमों का ज्ञाता) पुरुष प्रावचनिक कहलाता है। इनके विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है कि-एक प्रावनिक इस प्रकार आचरण करता है और दूसरा प्रावनिक इस प्रकार आचरण करता है । फिर किसकी बात सत्य मानी जाय ? .. इसका समाधान यह है कि-चारित्र मोहनीय कर्म से क्षयोपशम की विचित्रता के कारण प्रावचनिकों की प्रवृत्ति में भेद हो सकता है, किन्तु वही प्रवृत्ति प्रमाणभूत है जो आगम विरुद्ध नहीं हो, किन्तु आगमानुकूल हो। ७ कल्पान्तर–कल्प के विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है जिनकल्पी मुनि नग्न रहते हैं । नग्न रहने में बड़ा कष्ट होता है । उनके कल्प में यह कष्ट सहन कर्मक्षय के लिए है । स्थविरकल्पी मुनि वस्त्र पात्र आदि रखते हैं । उन्हें जिनकल्पी की भांति कष्ट नहीं होता। फिर उनका कल्प कर्मक्षय का कारण कैसे हो सकता है ? यदि स्थविरकल्प भी कर्मक्षय का कारण है, तो फिर जिनकल्प का उपदेश क्यों दिया गया ? इस शंका का समाधान यह है कि-दोनों कल्प सर्वज्ञ भगवान् के फरमाये हुए हैं। और अवस्था भेद से दोनों कल्प कर्मक्षय के कारण हैं। कष्ट और अकष्ट विशिष्ट कर्मक्षय के लिए कोई कारण नहीं है। ८ मार्गान्तर-मार्ग के विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है-मार्ग का अर्थ है'परम्परा से चली आती हुई समाचारी' पद्धति । किसी की समाचारी दो लोगस्म रूप कायोत्सर्ग करने की है और किसी की इससे भिन्न है । तो इसमें ठीक क्या है ? इसका समाधान यह है कि जो समाचारी आचरित लक्षण युक्त हो वही ठीक है। आचरित लक्षण का आशय बतलाने के लिए कहा गया है . असठेण समाइग्णं जं कत्था केणइ असावज्ज। निवारियमणेहि, बहुमणुमयमेयमायरियं ।। अर्थ-सरल स्वभाव वाले निष्कपट पुरुष ने जिसका आचरण किया हो, शास्त्र में किसी जगह पर जिसका निषेध न किया गया हो, जो असावद्य-निष्पाप हो, तथा बहुजन द्वारा अनुमत हो उसे 'आचरित' कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - ग. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा-मोहनीय ९ मतान्तर-एक ही विषय में आचार्यों का भिन्न भिन्न मत होना ‘मतान्तर' कहलाता है । मतान्तर किस प्रकार होता है, इसके लिए एक उदाहरण दिया गया है-श्री सिद्धसेन दिवाकर और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, दोनों बड़े विद्वान आचार्य हुए हैं। इन दोनों में एक विषय पर मतभेद होगया। सिद्धसेन दिवाकर का कथन है कि-केवलजान और केबलदर्शन का उपयोग एक साथ होता है। ऐसा न माना जाय, तो केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म के क्षय की निरर्थकता हो जायगी। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का कथन है कि दोनों का उपयोग भिन्न भिन्न समय में होता है, क्योंकि जीवों का स्वभाव ही ऐसा है । जीव जब सामान्य को देखता है, तो उसे विशेष का ज्ञान नहीं होता और जब विशेष का ज्ञान होता है तब सामान्य को नहीं देखता है । जैसेकि-मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम एक साथ होने पर भी दोनों का उपयोग एक साथ नहीं होता । जब मतिज्ञान का उपयोग होता है, तब श्रुतज्ञान का नहीं और जब श्रुतज्ञान का उपयोग होता है, तब मतिज्ञान का नहीं । एक ज्ञान का उपयोग होने पर दूसरे ज्ञान का क्षयोपशम मिट जाता हो, ऐसी बात भी नहीं हैं। अतएव जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, दोनों का एक साथ क्षयोपशम होने पर भी उपयोग क्रमपूर्वक ही होता है । उसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग भी क्रमपूर्वक ही होते हैं। मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की स्थिति ६६ सागरोपम से कुछ अधिक है। यदि एक के उपयोग के समय दूसरे का उपयोग न माना जाय, तो ६६ सागरोपम से कुछ अधिक की स्थिति पूरी न होगी, अतः स्थिति में कमी माननी पड़ेगी। - इस शंका का समाधान यह है कि जो बात आगम सम्मत हो उसको मान्य करना चाहिये और दूसरी बात की उपेक्षा कर देना चाहिए। . उक्त प्रश्नोत्तर के सम्बन्ध में पनवणा सूत्र में कहा है-केवली भगवन् जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं हैं और जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं है।' इस प्रकार यह स्पष्ट है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन का एक साथ उपयोग होना शास्त्रसम्मत नहीं है । शास्त्र में दोनों का उपयोग अलग अलग समय में बतलाया गया है। अतएव जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की बात शास्त्रानुकूल है । ___कौनसी बात आगम सम्मत है और कौनसी बात आगम सम्मत नहीं है ? इसका निर्णय तो बहुश्रुतः पुरुष ही कर सकते हैं, परन्तु जो बहुश्रुत न हो वह इस बात का निर्णय For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा-मोहनीयः । नहीं कर सकता, तब क्या करना चाहिए ? तब विवादग्रस्त बात के लिए इस प्रकार विचार करना चाहिए कि-आचार्यों का यह मतभेद सम्प्रदायादि के दोष से है, परन्तु जिनेन्द्र भगवान् का मत तो एक है और वह परस्पर अविरुद्ध है । क्योंकि वे रागादि रहित है । कहा है कि अगुवकय पराणुग्गह परायणा जं जिना जुगप्पवरा। जियरागदोसमोहा य गन्हा वाइगो ते॥ अर्थ-जिन जीवों ने अपने पर किसी प्रकार का उपकार नहीं किया है, उन प्राणियों पर भी उपकार और अनुग्रह करने वाले जिनेन्द्र भगवान् राग द्वेष और मोह को जीते हुए होते हैं, इसलिए वे अन्यथावचन-मूठवचन नहीं कहते हैं। "नान्यथावादिनो जिनाः"जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं, क्योंकि उनके झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। १. मंगान्तर-द्रव्यादि संयोग से होने वाले अंगों को देखकर इस प्रकार शंका हो जाती है। जैसा कि हिंसा के सम्बन्ध में चार भंग कहे गये हैं । यथा १ द्रव्य से हिंसा, भाव से नहीं। द्रव्य से हिंसा नहीं, भाव से हिंसा। ३ द्रव्य से भी हिंसा नहीं, भाव से भी हिंसा नहीं। ४ द्रव्य से भी हिंसा, भाव से भी हिंसा । ये हिंसा सम्बन्धी चार भंग हैं। इनमें से पहले मंग के लिए यह शंका होती है किउसमें हिंसा का लक्षण नहीं घटता। फिर उसे हिंसा क्यों कहा गया? द्रव्य से हिंसा हो, किन्तु भाव से हिंसा न हो, तो वह हिंसा नहीं कहलाती, जसे कि-मुनि ईर्यासमिति से देख कर चलते हैं, फिर भी उनके पैर से चींटी आदि जीव मर जाय, तो मुनि को चींटी मारने की हिंसा नहीं लगती। इस प्रकार भावहीन द्रव्य हिंसा में हिंसा का लक्षण घटित नहीं होता। हिंसा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है जो उ पमतो पुरिसो, तस्स य जोगं पडच जे सत्ता। बावज्जति नियमा, तेसि सो हिसओ होई॥ अर्थात्-जो पुरुष प्रमादी है, अहंकार, विषय, कषाय, आदि प्रमादों के वशवर्ती है, उसके योग द्वारा प्राणी की जो हिंसा होती है, उसे हिंसा समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि प्रमाद के योग से जीव का मारना हिंसा है। हिंसा का यह लक्षण पहले भंग में तो घटित नहीं होता और शास्त्र में तो इसको For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ श्रमणों के काक्षा- मोहनीय हिसा कहा है । यह कैसे ? इस शंका का समाधान यह है कि इस गाथा में हिंसा का जो लक्षण बताया गया है वह द्रव्य हिंसा का नहीं, किंतु द्रव्य और भाव दोनों हिंसा का है। केवल द्रव्य हिंसा का लक्षण तो जीव का मरना है । यह लक्षण प्रथम भंग में घटित हो जाता है । इसलिए हिंसा के लक्षण में सन्देह करने का कोई कारण नहीं है । दूसरा भंग है - द्रव्य से हिंसा नहीं, परन्तु भाव से हिंसा । जैसे- 'तन्दुलमच्छ' । यह मच्छ, मच्छलियों को खा जाने का विचार तो करता है, परन्तु मारता नहीं है । इसमें द्रव्य हिंसा तो नहीं हुई, किन्तु भावहिंसा अवश्य हुई। हिंसा का तीसरा भंग और चौथा भंग स्पष्ट ही है । २०१ ११ नयान्तर -नंगम, संग्रह आदि सात नय हैं । इनके संक्षेप में दो भेद हैं-१ द्रव्याथिंक और २ पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जो वस्तु नित्य है, वहीं वस्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है । यहां यह शंका हो सकती है कि एक ही वस्तु में नित्यता और अनित्यता ये दो विरोधी धमं कैसे रह सकते हैं ? इस शंका का समाधान यह है कि एक ही वस्तु में नित्यता और अनित्यता, ये दोनों भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से घटित होती है । अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा वस्तु अनित्य है । एक ही समय में एक ही वस्तु में भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से विरुद्ध धर्मों का समावेश होता है । यह बात लोक में भी प्रसिद्ध है कि एक ही आदमी अपने पिता की अपेक्षा पुत्र कहलाता है और अपने पुत्र की अपेक्षा वह पिता कहलाता है । इसलिए अपेक्षा भेद से वस्तु में विरुद्ध धर्म रह सकते हैं। इसमें शंका की कोई बात नहीं है । • १२ नियमान्तर - नियम का अर्थ है- 'अभिग्रह' । इसमें इस प्रकार शंका हो सकती है कि- एक ही नियम करना, फिर दूसरे नियम करने की क्या आवश्यकता है ? जैसे- जब साधुपन अंगीकार कर लिया तब सब प्रकार के सावद्य योग का प्रत्याख्यान कर लिया है, फिर पोरिसी, दो पोरिसी आदि का पच्चक्खाण क्यों किया जाता है ? सर्वविरति सामायिक करने में सब गुण आ चुके, फिर शास्त्र में पोरिसी आदि का त्याग क्यों बतलाया गया है ? इस शंका का समाधान यह है कि सर्व विरति सामायिक होने पर भी पोरिसी आदि का पच्चक्खाण करना ठीक ही है। क्योंकि सर्वविरति सामायिक कर लेने पर भी प्रमोद का नाश करने वाले और अप्रमाद गुण की वृद्धि करने वाले पोरिसी आदि पच्च For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा-मोहनीय क्खाण करना ही चाहिए । जैसा कि कहा है सामाइए वि हु सावज्जचागरूवे उ गणकरं एयं । अप्पमायवुड्ढिजणगत्तणेणं आणाओ विष्णेयं ।।। अर्थ-सर्व सावद्य त्याग रूप सामायिक के होने पर भी पोरिसी आदि का पच्चक्खाण करना गुणकारक है । क्योंकि ऐसे नियम अप्रमत्त गुण को बढ़ाने वाले हैं । अतः ये जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा में है। - सामायिक में अवगुण ग्रहण करने का त्याग किया है, गुण ग्रहण करने का त्याग नहीं किया है । अतः गुण ग्रहण करने के जितने भी नियम धारण किये जाय, अच्छा ही है। १३ प्रमाणान्तर-शास्त्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान-ये चार प्रमाण माने गये हैं । इनमें शंका इस प्रकार होती है कि-प्रत्यक्ष भी प्रमाण है और आगम भी प्रमाण है । किन्तु इन दोनों में विरोध प्रतीत होता है, जैसा कि आगम में कहा है कि-सूर्य सुमेरु पर्वत की समतल भूमि से आठ सौ योजन ऊपर घूमता है । किन्तु प्रत्यक्ष में सूर्य . पृथ्वी से निकलता हुआ दिखाई देता है । इन दोनों में कौनसा प्रमाण सच्चा है ? इसका समाधान यह है कि जिस तरह से हम सूर्य को पृथ्वी से निकलता हुआ देखते हैं । यह प्रत्यक्ष सत्य नहीं है, भ्रांत है, क्योंकि दूर की वस्तु बहुत छोटी दिखाई देती है और उसके विषय में भ्रांति भी हो सकती है। सूर्य हमसे बहुत दूर है । इसलिए उसके विषय में भ्रांति होजाना संभवित है । आगम में कही हुई बात सत्य है। इन सब कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय का वेदन करते हैं । यद्यपि कांक्षामोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय है और श्रमणं निर्ग्रन्थों में मिथ्यात्व नहीं होता है, इसलिए उन्हें दो ही क्रिया लगती है,-१ आरम्भिकी और २ मायाप्रत्यया । तथापि उनके दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व तो है, और क्षयोपशम में मिथ्यात्व मोहनीय के प्रदेशों का किञ्चित् उदय भी रहता है, इससे कांक्षामोहनीय का वेदन होना सहज है। कांक्षामोहनीय के वेदन रूप शंका आदि होने पर उनका समाधान कर लेना चाहिए। यदि किसी समय शंका का समाधान करने वाला न मिले, तो ऐसा विचार करना चाहिए कि-'जिनेन्द्र भगवान् ने जो फरमाया है वह सत्य और निःशंक है' । ऐसा विचार कर तद्नुसार आचरण करने वाला जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है। ॥ प्रथम शतक का तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १ उ ४ कर्म प्रकृतियाँ शतक १ उद्देशक ४ कर्म प्रकृतियाँ १४६ प्रश्न-कइ णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णताओ ? १४६ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, कम्मप्पगडीए पढमो उद्देसो नेयम्वो जाव-अणुभागो सम्मत्तो । गाहाः____कह पयडी ? कह बंधइ ? काहिं च ठाणेहिं बंधइ पयडी । कइ वेदेह य पयडी ? अणुभागो कइविहो कस्स ? विशष शब्दों के अर्थ-कम्मप्पगडीओ-कर्मप्रकृतियाँ, कइ-कितनी, कह-कसे । भावार्थ-१४६ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? . १४६ उत्तर-हे गौतम ! कर्म प्रकृतियाँ आठ कही गई हैं। यहाँ पर पन्नवणा सूत्र के कर्म प्रकृति नामक तेईसवें पद का पहला उद्देशक यावत् अनुभाग तक कहना चाहिए। - गाथा का अर्थ-१ कितनी कर्म प्रकृतियाँ हैं ? २ जीव किस प्रकार बंध करता है ? ३ कितने स्थानों से कर्म प्रकृतियों को बांधता है ? ४ कितनी प्रकृतियों को बेदता है ? ५ किस प्रकृति का कितने प्रकार का अनुभाग (रस) . विवेचन-कर्मों की उदीरणा और वेदन के सम्बन्ध में तीसरे उद्देशक में कहा गया है । इस उद्देशक में कर्मों के भेद आदि बतलाये जाते हैं गौतम स्वामी ने कर्म प्रकृतियों की संख्या के सम्बन्ध में प्रश्न किया है । उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-कर्म प्रकृतियाँ आठ हैं। . यहां पर पन्नवणा सूत्र के कर्मप्रकृति नामक तेईसवें पद का पहला उद्देशक कहना चाहिए । वहाँ पूछा है कि-- For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आदि । भगवती सूत्र - श. १ उ. ४ कर्म प्रकृतियाँ प्रश्न - हे भगवन् ! कर्म प्रकृतियाँ कितनी हैं ? उत्तर - गौतम ! कर्म प्रकृतियाँ आठ हैं । यथा - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रश्न – हे भगवन् ! जीव कर्म प्रकृतियों को किस प्रकार बाँधता है ? उत्तर - हे गौतम! कर्म ही कर्म को बाँधता है अर्थात् जिस जीव में कर्म है, उसी को कर्म का बंध होता है। जिस जीव में कर्म नहीं है, उसको कर्म का बन्ध नहीं होता है । कर्म जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं। आत्मा कर्मों का कर्त्ता है और अनादि काल से वह कर्मों का उपार्जन कर रहा है। हां, यह अवश्य है कि कोई भी एक कर्म अनादिकालीन नहीं है और न अनन्त काल तक आत्मा के साथ रह सकता है, किन्तु एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार नदी के जल प्रवाह के समान कर्म आते जाते रहते हैं । कर्म किस प्रकार बँधते हैं ? इसका उत्तर यह है कि- ज्ञानावरणीय कर्म जो आत्मा ने पहले उपार्जन किया है, उसका उदय होने पर दर्शनावरणीय कर्म का भी उदय होता है । जब दर्शनावरणीय कर्म का उदय होता है, तो दर्शनमोहनीय कर्म अनुभव में आता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार जीव आठ कर्मों को बांधता है । यह कर्म बन्ध का प्रवाह अनादि काल का है । पनवणा सूत्र में आगे इस प्रकार प्रश्नोत्तर हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितने स्थानों द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है ? उत्तर - हे गौतम ! राग और द्वेष, इन दो स्थानों द्वारा जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है । प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितनी कर्म प्रकृतियों को वेदता है ? उत्तर - हे गौतम ! कोई वेदता है और कोई नहीं वेदता है । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव ज्ञानावरणीय कर्म वेदता है ? उत्तर - हे गौतम ! कोई जीव वेदता और कोई जीव नहीं वेदता है । केवली भगवान् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर चुके हैं, इसलिए वे नहीं वेदते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक ज्ञानावरणीय कर्म वेदते हैं । उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म अवश्य वेदते है । प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का रस कितने प्रकार का कहा गया है. ?. For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ४ उपस्थान - परलीक की क्रिया उत्तर - हे गौतम! दस प्रकार का कहा गया है । यथा श्रोत्रावरण, श्रोत्र विज्ञानावरण आदि । श्रोत्र आदि पांच द्रव्येन्द्रियों का आवरण और श्रोत विज्ञान आदि पांच भावेन्द्रियों का आवरण । इस तरह पन्नवणा सूत्र के 'कर्मप्रकृति' पद के अनुसार वर्णन करना चाहिए । उपस्थान - परलोक की क्रिया १४७ प्रश्न- जीवे णं भंते! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिष्णेणं उवट्टाएजा ? उवडाएजा । १४७ उत्तर - हंता, १४८ प्रश्न - से भंते! किं वीरियत्ताए उवट्टाएज्जा, अवीरित्ताए 'उवट्टाएजा ? १४८ उत्तर - गोयमा ! वीरियत्ताए उवट्टाएजा णो अवीरियताए उवट्टाएजा । १४९ प्रश्न - जइ वीरित्ताए उवट्टाएजा, किं बालवीरियत्ताए उबट्टाएज्जा, पांडेयवीरियत्ताए उवट्टाएज्जा, बालपंडियवीरियत्ताए उवडाएज़ा ? २०५ १४९ उत्तर- गोयमा ! बालवीरियत्ताए उवट्टाएजा णो पंडिय वीरित्ताए उवट्टाएज्जा, णो बालपंडियवीरियत्ताए उवट्टाएजा । विशेष शब्दों के अर्थ -- उबट्ठाएज्जा — उपस्थान ( परलोक की क्रिया) करता है, मीरियताए --- वीर्य से, अबीरियत्ताए - अवीर्य से । भावार्थ - १४७ प्रश्न - हे भगवन् ! जब मोहनीय कर्म उदय में आया हुआ हो तब क्या जीव उपस्थान- परलोक की क्रिया करता है ? For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ उपस्थान १४७ उत्तर-हां, गौतम ! उपस्थान करता है। १४८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव वीर्य से उपस्थान करता है, या . अवीर्य से ? १४८ उत्तर-हे गौतम ! जीव वीर्य से उपस्थान करता है, अवीर्य से नहीं करता है। १४९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वीर्य से उपस्थान करता है, तो क्या बालवीर्य से करता है, या पण्डित वीर्य से अथवा बालपण्डित वीर्य से ? . १४९ उत्तर-हे गौतम ! बालवीर्य से ही उपस्थान करता है, किन्तु पण्डितवीर्य और बाल पण्डित वीर्य से उपस्थान नहीं करता है। विवेचन-कर्मप्रकृतियों के विषय में सामान्य रूप से विचार करने के पश्चात् मोहनीय कर्म के विषय में विचार किया गया है। गौतम स्वामी ने पूछा है कि-हे भगवन् ! जीव ने जो मोहनीय कर्म किया है, वह जब उदय में आया हो, तब क्या जीव परलोक साधन के लिए क्रिया करता है ? उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम करता है । यहाँसाधारण मोहनीय कर्म का कथन नहीं है, किन्तु मिथ्यात्वमोहनीय का कथन है। मोहनीय कर्म का उदय होने पर भी जीव परलोक की क्रिया करता है और वह वीर्य से करता है, अवीर्य से नहीं । वह वीर्य तीन प्रकार का है-१ बालवीर्य, २ पंडितवीर्य और ३ बाल-पण्डित वीर्य । जिस जीव में अर्थ का सम्यक् बोध न हो और सद्बोध के फलस्वरूप विरति न हो (क्योंकि सम्यग्ज्ञान का फल विरति-चारित्र है) अर्थात् जो मिथ्यादप्टि हो उसे 'बाल' कहते हैं । बाल जीव का वीर्य (पुरुषार्थ) बालवीर्य कहलाता है। जो जीव सर्व पापों का त्यागी होता है, उसे 'पण्डित' कहते हैं । जिसने शुष्क ज्ञान पढ़ा और पापों का त्याग नहीं किया, उसका ज्ञान निष्फल है । कहा भी है तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति राग गणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिदिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥ अर्थात् ज्ञान के सद्भाव में भी राग द्वेष पाये जावें, वह ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान का फल, राग द्वेष को टालना है । जिस ज्ञान से यह फल प्राप्त न हो सका, वह ज्ञान ज्ञान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जाज्वल्यमान सूर्य की किरणों के सामने ठहरने की शक्ति अन्धकार में कहां है ? अर्थात् सूर्य का प्रकाश फैलने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है । अतः For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ अपक्रमण २०७ जिसके फैलने पर अन्धकार बना रहे, उसे सूर्य का प्रकाश कैसे कहा जा सकता है ? इसी प्रकार ज्ञान के होने पर राग द्वेष का नाश होना चाहिए । यदि राग द्वेष का नाश न हो, तो उसे ज्ञान ही नहीं कहा जा सकता.। तात्पर्य यह है कि जो सर्व विरत हो, उसे 'पण्डित' कहते हैं। पण्डित जीव का वीर्य ‘पण्डित वीर्य' कहलाता हैं। ___ बाल पण्डित-जिन जिन त्याज्य कामों (पापों) को त्यागा नहीं है, उतने अंश में 'बालपन' है और जितने जितने त्याज्य कामों को त्यागा है, वह 'पण्डितपन' है अर्थात् देशविरति वाले श्रावक को 'बालपण्डित' कहते हैं । बालपण्डित जीव का वीर्य बालपण्डित वीर्य' कहलाता है।. जब मिथ्यात्व का उदय होता है, तब जीव मिथ्यादृष्टि गिना जाता है । जब जीव मिथ्यादृष्टि वाला होता है तब वह 'बालवीर्य' वाला होता है। बालवीर्य से ही जीव उपस्थान-परलोक की क्रिया करता है । बालपण्डितवीर्य और पण्डित वीर्य से जीव . उपस्थान नहीं करता है।' अपक्रमण--पतन १५० प्रश्न-जीवे णं भंते ! मोहणिजेणे कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं अवकमेजा ? - १५० उत्तर-हंता, अवकमेजा। - १५१ प्रश्न-से भंते ! जाव-बालपंडियवीरियत्ताए अवकमेजा ? ___ १५१ उत्तर-गोयमा ! बालवीरियत्ताए अवकमेजा, नो पंडियवीरियत्ताए अवकमेजा, सिय बालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजा। जहा उदिण्णेणं दो आलावगा तहा उवसंतेण वि दो आलावगा भाणियव्वा; नवरं-उवटाएजा पंडियवीरियताए, अवकमेजा, बाल For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ अपक्रमण पंडियवीरियत्ताए। १५२ प्रश्न-से भंते ! किं आयाए अवकमइ, अणायाए अवकमइ ? १५२ उत्तर-गोयमा ! आयाए अवकमइ, णो अणायाए अवकमइ। १५३ प्रश्न-मोहणिजं कम्म एमाणे से कहमेयं भंते ! एवं ? १५३ उत्तर-गोयमा ! पुल्विं से एयं एवं रोयइ, इयाणि से एयं एवं नो रोयइ; एवं खलु एयं एवं । विशेष शब्दों के अर्थ-अवक्कमेज्जा-अपक्रमण करता है, उदिण्णेणं-उदीर्ण = उदय में आया हुआ, उवसंतेण-उपशान्त, आयाए-आत्मा से, अणायाए-अनात्मा से । भावार्थ-१५० प्रश्न-हे भगवन् ! उपार्जन किया हुआ मोहनीय कर्म जब उदय में आया हो, तो क्या जीव अपक्रमण करता है अर्थात् उत्तम गुणस्थानक से हीन गुणस्थानक में जाता है ? १५० उत्तर-हाँ, गौतम ! अपक्रमण करता है। १५१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव बालवीर्य से अपक्रमण करता है ? या पण्डितवीर्य से अथवा बालपण्डितवीर्य से ? १५१ उत्तर-बालवीर्य से अपक्रमण होता है और कदाचित् बालपण्डित • वीर्य से भी अपक्रमण होता है, किन्तु पण्डित वीर्य से नहीं होता। जैसे 'उदय में आये हए' पद के साथ दो आलापक कहे हैं, उसी प्रकार 'उपशान्त' पद के साथ भी दो आलापक कहना चाहिए । विशेषता यह है कि यहाँ पण्डितवीर्य से उपस्थान होता है और बालपण्डितवीर्य से अपक्रमण होता है। .१५२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अपक्रमण आत्मा से होता है, या अनात्मा से ? . १५२ उत्तर-हे गौतम ! अपक्रमण आत्मा से होता है, अनात्मा से नहीं। For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ अपक्रमण २०९ १५३ प्रश्न-हे भगवन् ! मोहनीय कर्म को वेदता हुआ यह इस प्रकार क्यों होता है ?. १५३ उत्तर-हे गौतम ! पहले उसे इस प्रकार रुचता है और अब उसे इस प्रकार नहीं रुचता है । इस कारण यह इस प्रकार होता है। विवेचन-उपस्थान का विपक्ष अपक्रमण है । इमलिए उपस्थान के पश्चात् अपक्रमण का प्रश्न किया गया है। मोहनीय कर्म जब उदय में आता है तब जीव अपक्रमण करता है, अर्थात् उन्नत गुणस्थान से गिर कर नीचे हीन गुणस्थान में आता है । यह अपक्रमण बालवीर्यता से होता है और कदाचित् बालपण्डितवीयंता से भी होता है, परन्तु पण्डितवीर्यता से नहीं होता। जब मिथ्यात्व मोहनीय का उदय हो जाता है, तब जीव सम्यक्त्व से, संयम से या देशसंयम से गिरकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है। पण्डितवीर्यता अपक्रमण का कारण नहीं है। इसलिए पण्डितवीर्यता में अपक्रमण का निषेध किया गया है । कदाचित् चारित्र मोहनीय का उदय हो, तो सर्वविरति संयम से पतित होकर बालपण्डित वीर्यता (देशविरति) में आ जाता है । ... यहां पाठान्तर भी है- 'बालवीरियत्ताए जो पण्डियवीरियत्ताए, णो बालपण्डियवीरियत्ताए' अर्थात् -जब मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होता है तब सिर्फ बालवीर्य ही होता है, पंडितवीर्य और बालपंडितवीर्य नहीं होता है। __उदीर्ण--उदय का विपक्षभूत 'उपशम' है । इसलिए अब 'उपशम' के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है । उपशम सम्बन्धी प्रश्नोत्तर उदय के समान ही समझना चाहिए। विशेषता यह है कि जब मोहनीय कर्म सर्वथा उपशान्त होता है, तब पण्डितवीर्य से क्रिया में उपस्थान होता है। क्योंकि जब मोह उपशान्त हो जाता है उस अवस्था में सिर्फ पंडितवीर्य ही होता है, शेष दो वीर्य नहीं होते। वृद्धपुरुषों ने तो किसी एक वाचना का आश्रय लेकर इस प्रकार कथन किया है कि-जब मोहनीय कर्म उपशान्त होता है, तब जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता, किन्तु सर्वविरत (साधु) या देशविरत (श्रावक) होता है। अपक्रमण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर में इस प्रकार समझना चाहिए कि जब मोहनीय कर्म उपशान्त होता है, तब बालपण्डितवीर्य के चलते संयतपने से गिर कर देश-संयत होता है। क्योंकि उसका मोहोपशम अमुक अंश में होता है । परन्तु वह मिथ्यादृष्टि नहीं होता है, क्योंकि मोहनीय कर्म का उदय होने पर ही मिथ्यादृष्टि होता है । यहां तो मोह के उपशम For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १. उ. ४ कर्मक्षय से मोक्ष का प्रकरण है। इसलिए मोहोपशम सम्बन्धी बात बताई गई है। आगे प्रश्न किया गया है कि-अपक्रमण आत्मा द्वारा होता है या अनात्मा द्वारा, अर्थात् दूसरों के द्वारा होता है ? इसका उत्तर दिया गया कि अपक्रमण आत्मा द्वारा ही होता है, अनात्मा द्वारा नहीं। मिथ्यात्व मोहनीय या चारित्रमोहनीय को वेदता हुआ जीव (अर्थात् जिस के मोहनीय कर्म उदय में आया हुआ है ऐसा संयत जीव) पहले पण्डितरुचि होकर फिर मिश्ररुचि या मिथ्यात्वरुचि हो जाता है । इसमें आत्मा ही कारण है, दूसरा कारण नहीं है। . फिर गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! मोहनीय कर्म को वेदते हुए जीव के अपक्रमण किस प्रकार होता है ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! अपक्रमण होने मे पहले वह जीव, जीवादि नौ पदार्थों को मानता था, उन पर श्रद्धा रखता था और यह भी मानता था कि धर्म का मूल. अहिंसा है। जिनेन्द्र भगवान् ने जैसा तत्त्व प्रतिपादन किया है, वह वैसा ही है । इस प्रकार धर्म के प्रति उसकी रुचि और श्रद्धा थी। किंतु अब उसे पहले रुचने वाली बातें अरुचिकर लगती है । जब उसे जिनधर्म की बातें रुचती थीं तब वह सम्यग्दृष्टि था । जब नहीं रुचती है, तो उसका कारणं मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का वेदन है । इस अरुचि के फलस्वरूप मिथ्यात्व मोहनीय कर्म वेदता है । और ऊपर के गुणस्थानों से गिर जाता है। कर्मक्षय से मोक्ष १५४ प्रश्न-से णूणं भंते ! नेरइयम्स वा; तिरिक्खजोणियम्स वा, मणूसस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, नत्थि तस्स अवेइयत्ता मोक्खो ? __१५४ उतर-हंता, गोयमा ! नेरइयस्स वा, तिरिक्ख-मणुदेवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, नत्थि तस्स अवेइयत्ता मोक्खो। ... १५५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयस्स वा जाव For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ कर्मक्षय से मोक्ष मोक्खो ? . ... . - १५५ उत्तर-एवं खलु मए गोयमा ! दुविहे कम्मे पण्णत्ते । तं जहाः-पएसकम्मे य, अणुभागकम्मे य, तत्थ णं जं तं पएसकम्म तं नियमा वेएइ, तत्थ णं जं तं अणुभागकम्मं तं अत्थेगइयं वेएइ, अत्यंगइयं णो वेएइ, णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया-इमं कम्मं अयं जीवे अब्भोवगमियाए वेयणाए वेदेस्सइ, इमं कम्मं अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए वेदेस्सइ, अहाकम्म, अहानिगरणं जहा जहा तं भगवया दिटुं तहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति । से तेणटेणं गोयमा ! नेरइयस्स वा जाव-मोक्खो । विशेष शब्दों के अर्थ-अवेइअत्ता-भोगबिना, मोक्खो-मोक्ष = छुटकारा, पएसकम्मेप्रदेशकर्म, अणुभागकम्मे-अनुभागकर्म, अब्भोवगमियाए-आभ्युपगमिक-स्वेच्छा से स्वीकृत, उवक्कमियाए-औपक्रमिक-अज्ञान पूर्वक सही जानेवाली वेदना, अहाकम्म-बाँधे हुए कर्म के अनुसार, अहानिगरणं-निकरणों के अनुसार अर्थात् देश कालादि की मर्यादा के अनुसार। . भावार्थ-१५४ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पापकर्म किया है, क्या उसे भोगे बिना नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव का मोक्ष नहीं होता है ?. . . . १५४ उत्तर-हाँ, गौतम ! किये हुए कर्म को भोगे बिना नारको, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव का मोक्ष नहीं होता। . १५५ प्रश्न-हे भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि कृतको को भोगे बिना नारको यावत् देव किसी का भी मोक्ष नहीं होता ? १५५ उत्तर-हे गौतम ! यह निश्चित है कि-मैंने कर्म के दो भेद बताये हैं। वे इस प्रकार हैं-१ प्रदेशकर्म और २ अनुभाग कर्म । इनमे जो प्रदेश कर्म है वह अवश्य भोगना पड़ता हैं और जो' अनुभाग कर्म हैं, वह कुछ वेदा For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भगवती सूत्र--श. १ उ. ४ कर्मक्षय से मोक्ष जाता है और कुछ नहीं भी वेदा जाता है । यह अरिहन्त भगवान् द्वारा ज्ञात है स्मृत है और विज्ञात है कि-यह जीव इस कर्म को आभ्युपगमिक (स्वेच्छा से स्वीकृत) वेदना से वेदेगा और यह जीव इस कर्म को औपक्रमिक (अनिच्छापूर्वक) वेदना से वेदेगा । बांधे हुए कर्म के अनुसार, निकरणों के अनुसार, जैसा जैसा भगवान् ने देखा है वैसे वैसे वह विपरिणाम पायेगा। इसलिए हे गौतम ! इस कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि किये हुए कर्मों को भोगे बिना नारकी, तियंच, मनुष्य या देव किसी का भी मोक्ष नहीं है। विवेचन-अब सामान्य कर्म के सम्बन्ध में विचार किया जाता है । नरकादि चारों गतियों के जीवों ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हे भोगे विना मोक्ष नहीं हो सकता।। यहाँ 'पापकर्म' शब्द से शुभ और अशुभ सभी कर्मों का ग्रहण किया गया है, क्योंकि सभी कर्म मोक्ष प्राप्ति में व्याघात रूप होने से 'पाप' रूप ही हैं। ___मूल पाठ में जो यह कहा है कि-'मए दुविहे कम्मे पण्णत्ते' अर्थात् मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं । 'मैंने' शब्द के प्रयोग का अभिप्राय यह है कि-केवली किसी की कही हुई बात सुन कर नहीं कहते हैं, किन्तु स्वयं जान कर एवं देखकरं प्ररूपणा करते हैं । अर्थात् सर्वज्ञ की वाणी स्वतन्त्र होती है। जीव के प्रदेशों में ओतप्रोत हुए कर्मपुद्गलों को प्रदेश कर्म कहते हैं, अर्थात् जो पुद्गल आत्मा के साथ दूध पानी की तरह एकमेक हो गये हैं, उन्हें 'प्रदेश कम' कहते हैं । उन प्रदेशों का अनुभव में आने वाला रस 'अनुभाग' कर्म कहलाता है। प्रदेश कर्म निश्चय ही भोगे जाते हैं । विपाक अर्थात्-अनुभव न होने पर भी प्रदेश कर्म का भोग होता ही है । आत्मप्रदेश उन कर्म प्रदेशों को अवश्य गिराता हैअलग करता है। ... अनुभाग कर्म कोई वेदा जाता है और कोई नहीं वेदा जाता है। यथा-जब आत्मा मिथ्यात्व का क्षयोपशम करता है, तब प्रदेश से तो वेदता है, किन्तु अनुभाग से नहीं वेदता है। यही बात अन्य कर्मों के विषय में भी समझनी चाहिए । चारों गति के जीव किये हुए कर्म को अवश्य भोगते हैं, परन्तु किसी कर्म को विपाक से भोगते हैं और किसी को प्रदेश से भोगते हैं। प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म का वेदन जिस प्रकार होता है, उसे अरिहन्त भगवान् For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ४ कर्मक्षय से मोक्ष जानते हैं । छस्थ इसे नहीं जान पाते । ये दोनों प्रकार के कर्म, किस दो प्रकार से भोगे जाते है - यह बात भगवान् ने जानी है और जैसा जाना है वैसा ही दूसरों को बताया हैस्मरण किया है और देश काल आदि के भेद से विविध प्रकार से एवं विशेष रूप से भी जाना है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि स्मृति ( स्मरण) मतिज्ञान का भद है और मतिज्ञान केवली में नहीं होता, इसलिए स्मृति भी उनमें नहीं हो सकती, फिर यहाँ केवली का 'स्मरण करना' क्यों कहा है ? २१३ इसका समाधान यह है कि केवली में स्मृति का अभाव है, उन्हें किसी वस्तु का स्मरण नहीं करना पड़ता है, क्योंकि उनके लिए सब पदार्थ प्रत्यक्ष में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । फिर भी यहाँ जो 'स्मरण करना' कहा गया है। उसका कारण यह हैं कि भगवान् के ज्ञान के साथ स्मरण का अव्यभिचार के रूप में सादृश्य है । इसलिए 'सुयमेयं अरहया' इस पद से भगवान् में स्मृति का अस्तित्व नहीं समझना चाहिए । भगवान् अपने केवलज्ञान से साक्षात् देखते हैं कि यह कर्म है और यह जीव हैं ।' दोनों के स्वरूप और सम्बन्ध को भगवान् केवलज्ञान से स्पष्ट जानते हैं । भगवान् केवलज्ञाने से भूतकाल को भी देखते हैं, वर्तमान काल को भी देखते हैं और भविष्य काल को भी देखतें हैं । प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म दो प्रकार से भोगे जाते हैं- आभ्युपगमिक वेदना से और औपक्रमिक वेदना से । भगवान् प्रत्यक्ष देखते हैं कि अमुक जीव अमुक कर्म को आभ्युfor वेदना से वेदेगा और अमुक कर्म औपक्रमिक वेदना से वेदेगा | स्वेच्छापूर्वक, ज्ञानपूर्वक कर्मफल को भोगना 'आभ्युपगमिक वेदना' कहलाती है । जैसे- प्रव्रज्या लेकर ब्रह्मचर्य पालना, भूमि पर सोना, केशलोचं करना, परीषह सहना तथा विविध प्रकार का तप करना, इत्यादि वेदना जो ज्ञानपूर्वक स्वीकार की जाती हैं, वह 'आभ्युपगमिकी' वेदना है । केवली यह जानते हैं कि यह जीव दीक्षा लेकर अपने कर्मों का क्षय इस प्रकार करेगा। जो कर्म अपना अबाधा काल पूर्ण होने पर स्वयं ही उदय में आते हैं अथवा जिनकी उदीरणा की जाती हैं उनका फल भोगना 'औपक्रमिकी' वेदना कहलाती है । अरिहन्त भगवान् जानते हैं कि इस प्रकार जिस रूप से कर्म बांधे हैं उसी रूप से जीव उन्हें भोगेगा । 'अहाकम्म' का अर्थ है - यथाकर्म अर्थात् जिस रूप में कर्म बांधा है उसी रूप से For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ पुद्गल का नित्यत्व भोगना । 'अहानिगरण' का अर्थ है-'यथा निकरण' अर्थात् विपरिणाम के कारणभूत नियत देश काल आदि कारणों की मर्यादा का उल्लंघन न करके अर्थात् देश काल आदि की मर्यादा के अनुसार जो कर्म जिस रूप में भगवान् ने देखा होगा, वह उसी रूप में परिणत होगा। चारों गतियों के जीवों ने जो कर्म बांधे हैं, उनको भोगे बिना मोक्ष नहीं हो सकता । 'जीव उनको किस प्रकार भोगेगा' यह विशेषतः सर्वज्ञ भगवन्तों ने देखा है। पुद्गल का नित्यत्व १५६ प्रश्न-एस णं भंते ! पोग्गले अतीतं अणंत, सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया ? १५६ उत्तर-हंता, गोयमा ! एस णं पोग्गले अतीतं अणंतं, सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया। १५७ प्रश्न-एस णं अंते ! पोग्गले पडुप्पण्णं, सासयं समयं भवतीति वत्तव्वं सिया ? १५७ उत्तर-हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारैयव्वं । १५८ प्रश्न-एस णं भंते ! पोग्गले अणागयं, अणंतं, सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया ? १५८ उत्तर-हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं । एवं खंधेण वि तिण्णि आलावगा । एवं जीवेण वि तिण्णि आलावगा भाणियवा। विशेष शब्दों के अर्थ-अतीतं-भूतकालीन, पडुप्पण्णं-वर्तमानकालीन, अणागयंभविष्यकालीन । For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ पुद्गल का नित्यत्व २१५ भावार्थ-१५६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या यह पुद्गल अतीत अनन्त शाश्वत काल में था--ऐसा कहा जा सकता है ? १५६ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह पुद्गल अतीत अनन्त शाश्वत काल में था, ऐसा कहा जा सकता है। १५७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या यह पुद्गल वर्तमान शाश्वतकाल में है ? ऐसा कहा जा सकता है.? १५७ उत्तर-हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है (पहले उत्तर के समान ही उच्चारण करना चाहिए) १५८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या यह पुद्गल अनन्त और शाश्वत भविष्य काल में रहेगा-ऐसा कहा जा सकता है ? __ १५८ उत्तर-हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है (पहले के उत्तर के समान ही उच्चारण करना चाहिए) इसी प्रकार स्कन्ध के साथ तीन आलापक और जीव के साथ भी तीन आलापक कहना चाहिए। विवेचन-इससे पहले के सूत्र में कर्म का विचार किया गया है। कर्म पुद्गल रूप है। कार्मण वर्गणा के पुद्गल आत्मा के साथ चिपक कर 'कर्म' कहलाने लगते हैं । यहाँ 'पुद्गल' का अर्थ 'परमाणु' लिया गया है । स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु, ये चार प्रकार के पुद्गल होते हैं। स्कन्ध के विषय में अलग प्रश्न किया गया है और स्कन्ध से अलग हो जाने पर केवल 'परमाणु' ही रहता है । इसलिए यहाँ 'परमाणु' के विषय में ही प्रश्न किया गया है। यहाँ 'अतीत' काल को अनन्त और शाश्वत कहा गया है। अतीत काल सदा से है, उसकी आदि (प्रारंभ) नहीं है, इस कारण वह परिमाण रहित हैं । परिमाण रहित होने के कारण वह अनन्त है और 'अतीत' काल सदा ही रहता है, कभी ऐसा अवसर नहीं आ सकता कि लोक में अतीत काल न हो । इस कारण से अतीत काल को शाश्वत कहा है। वर्तमान काल भी शाश्वत है और भविष्यत्काल भी शाश्वत है। कभी ऐसा अवसर नहीं आ सकता कि लोक में वर्तमान काल न हो तथा भविष्यत् काल न हो। .. परमाणु और स्कन्ध की तरह जीव भी अनन्त और शाश्वत भूतकाल में था, वर्तमान काल में है और भविष्यकाल में रहेगा। For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ छद्मस्थादि की मुक्ति छद्मस्थादि को मुक्ति १५९ प्रश्न-उमत्थे णं भंते ! मणुस्से अतीतं, अणंत, सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमाईहिं सिझिसु, बुझिसु, जाव-सव्वदुक्खाणं अंत करिंसु ? १५९ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । १६० प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तं चेव जाव-अंतं करेंसु ? १६० उत्तर-गोयमा ! जे केइ अंतकरा अंतिमसरीरिया वा सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्मेति वा सव्वे ते उप्पण्णणाण-दंसणधरा, अरहा, जिणा, केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा; से तेणटेणं गोयमा ! जावसव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु, पडुप्पन्ने वि एवं चेव, नवरं-'सिझंति' भाणियव्वं, अणागए वि एवं चेव, नवरं-'सिन्झिस्संति' भाणियव्वं । जहा मत्थो तहा आहोहिओ वि, तहा परमाहोहिओ वि; तिष्णि तिण्णि आलावगा भाणियव्वा । १६१ प्रश्न केवली णं भंते ! मणूसे अतीतं, अणंतं, सासयं For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ छद्मस्थादि की मुवित समयं जाव-अंत करेंसु ? .. १६१ उतर-हंता, सिझिसु, जाव-अंतं करेंसु, एते तिन्नि आलावगा भाणियव्वा छमत्थस्स जहा, नवरं-सिझिसु सिज्झन्ति, सिज्झिस्संति। १६१ प्रश्न-से णूणं भंते! अतीतं, अणंत, सासयं समयं; पडुप्पण्णं वा सासयं; समयं अणागयं अणंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा, अंतिमसरीरिया वा, सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा; सव्वे ते उप्पण्णणाण-दंसणधरा, अरहा, जिणा, केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिज्झन्ति, जाव-अंतं करेस्संति वा ? - १६२ उत्तर-हंता गोयमा ! अतीतं, अणंतं, सासयं जाव अंतं करेस्संति वा। ___१६३ प्रश्न-से णूणं भंते ! उप्पण्णणाण-दंसणधरे, अरहा, जिणे केवली, 'अलमत्यु त्ति वत्तव्वं सिया ? १६३ उत्तर-हंता, गोयमा ! उप्पण्णणाण-दंसणधरे, अरहा, जिणे, केवली 'अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-पवयणमाईहि-प्रवचन माता के द्वारा, सिमिसु-सिद्ध हुए, बुमिसु-बुद्ध हुए, आहोहिओ-आधोवधिक, परमाहोहिओ-परमाधोवधिक, अलमत्थु-पूर्ण । For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भगवती सूत्र - श. १ उ. ४ छद्मस्यादि की मुक्ति. क्या बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में भावार्थ - १५९ प्रश्न - हे भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम से, केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवास से और केवल प्रवचन - माता से सिद्ध हुआ है, बुद्ध हुआ है, यावत् समस्त दुःखों का नाश करने वाला हुआ है ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । १५९ उत्तर - हे गौतम ! १६० प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा फरमाते हैं ? १६० उत्तर - हे गौतम! जो कोई जीव कर्मों का अन्त करने वाले और चरमशरीरी हुए हैं, वे सब उत्पन्न - ज्ञान दर्शनधारी, अरिहन्त, जिन और केवलीहोकर फिर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए हैं निर्वाण को प्राप्त हुए हैं, और उन्होंने समस्त दुःखों का नाश किया है, वैसे केवली ही मुक्त होते हैं और होंगे । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा है कि यावत् समस्त दुःखों का अन्त किया। वर्तमान काल में भी इसी प्रकार जानना । विशेष यह है कि 'सिद्ध होते हैं' ऐसा कहना चाहिए। तथा भविष्य काल में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि 'सिद्ध होंगे' ऐसा कहना चाहिए। जैसा छद्मस्थ के विषय में कहा है वैसा ही आधोवधिक और परमाधोवधिक के विषय में समझना चाहिए और उनके तीन आलापक कहना चाहिए । १६१ प्रश्न- हे भगवन् ! क्या बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में केवली मनुष्य ने यावत् समस्त दुःखों का अन्त किया ? १६१ उत्तर - हाँ, गौतम ! वह सिद्ध हुआ यावत् उसने सब दुःखों का अन्त किया । यहाँ छद्मस्थ के समान तीन आलापक कहना चाहिए । विशेष यह है कि सिद्ध हुआ, सिद्ध होता हैं और सिद्ध होगा, इस प्रकार के तीन आलापक कहना चाहिए । १६२ प्रश्न - हे भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में, वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त शाश्वत भविष्यत्‌काल में जिन अन्तकरों ने, चरम शरीर वालों ने सब दुःखों का नाश किया है, करते हैं और करेंगे, क्या वे सब For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. १ उ. ४ छद्मस्थादि की मुक्ति २१९ उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अरिहन्त, जिन और केवली होकर फिर सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का नाश करेंगे? १६२ उत्तर-हाँ, गौतम ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। १६३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वे उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अरिहन्त, जिन केवली 'अलमस्तु' अर्थात् पूर्ण हैं, ऐसा कहना चाहिए? - १६३ उत्तर-हां, गौतम ! वे उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अरिहन्त, जिन, . केवली पूर्ण हैं-ऐसा कहना चाहिए। हे भगवन् ! ऐसा ही है । हे भगवन् ! ऐसा ही है । विवेचन-पहले सूत्र में परमाणु आदि जड़ पदार्थ का और जीव का अस्तित्व प्रकट किया था। यहाँ यह बतलाया गया है कि- जीव अनादि है, तो वह कभी भवबन्ध से छूटता है, या नहीं? पहले छद्मस्थ मनुष्य के लिए प्रश्न किया है । जिन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ है वे सब छग्रस्थ कहलाते हैं-यहां ऐसा नहीं समझना चाहिए, किन्तु यहां जिसमें अवधि ज्ञान नहीं-ऐसा छद्मस्थ लिया गया है, क्योंकि आगे अवधिज्ञानी के लिए अलग प्रश्न किया गया है । यदि यहाँ 'छद्मस्थ' पद से अवधिज्ञानी भी ले लिया जाय, तो अगला प्रश्न निरर्थक हो जायगा। ___ 'केवल' शब्द का अर्थ इस प्रकार है ___ केवलमेगं सुद्धं वा, सगलमसाहारणं अणंतं च । अर्थात्-केवल = अकेला, शुद्ध, सम्पूर्ण, असाधारण और अनन्त, इन अर्थों में 'केवल' शब्द का प्रयोग होता है , - संयम-पृथ्वीकाय, अप्काय, आदि छह काय जीवों की सम्यक् प्रकार से यतना करना 'संयम' कहलाता है। यहाँ 'केवल संयम' कहा है । इसका अर्थ है कि-दूसरे की सहायता न रखने वाला संयम, अथवा शुद्ध संयम, अथवा परिपूर्ण संयम, अथवा असाधारण संयम । - संयम के बाद 'केवल संवर' शब्द है । इन्द्रियों को और कषायों को रोकना 'संवर' कहलाता है । 'केवल' शब्द का अर्थ वही है जो पहले बताया जा चुका है। For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० . भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ छद्मस्थादि की मुक्ति ब्रह्मचर्यवास और प्रवचन-माता (पांच समिति और तीन गुप्ति) इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। 'उपशान्त-मोहनीय' नामक ग्यारहवें गुणस्थान में संयमादि सब विशुद्ध होते हैं और विशुद्ध संयमादि ही मुक्ति के साधन हैं । वह विशुद्ध संयमादि उपशान्त मोह वाले में मौजूद है और वह छद्मस्थ है, तो क्या वह उसी गुणस्थान से मोक्ष प्राप्त कर लेता है ? इसी प्रकार बारहवें 'क्षीण-मोहनीय' गुणस्थान में विशुद्ध संयमादि हैं, किन्तु उस गुणस्थान वाला मनुष्य छमस्थ है, तो क्या वह उसी गुणस्थान से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ? ___ 'अन्तकर' शब्द का अर्थ है-भव का नाश करने वाला । लम्बे समय में जन्मान्तर में भव का नाश करने वाला 'अन्तकर' कहलाता है, किन्तु यहां उसका ग्रहण नहीं करना चाहिये । इसके साथ दूसरा विशेषण दिया है-'अंतिम सरीरिया, जिसका अर्थ है'अन्तिमशरीरी-चरमशरीरी' अर्थात् जिनका वर्तमान शरीर ही अन्तिम शरीर है, वर्तमान शरीर को छोड़ने के बाद फिर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं करेंगे। .. __ भगवान् ने फरमाया कि छद्मस्थ मनुष्य सिद्ध नहीं होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं करता है, नहीं करेगा और नहीं किया है। क्योंकि जितने मनुष्य संसार का अर्थात् जन्म मरण रूप सब दुःखों का अन्त करने वाले हुए हैं, वे सब चरमशरीरी ही थे, वे सब उत्पन्न ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले अर्हन्त जिन, केवली होकर ही सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त हुए हैं, होते हैं और होंगे। जिन्हें अनादि सिद्ध ज्ञान नहीं, किन्तु जो उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले हैं, उन्हें 'उत्पन्न ज्ञान दर्शनधर' कहते हैं । इस विशेषण से 'अनादि मुक्तात्मा' मानने वाले मत का निराकरण किया गया है। जो इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य हो-उसे 'अर्हन्त' कहते हैं । जिसने रागद्वेष आदि आत्मिक विकारों पर विजय प्राप्त करली हो - वह वीतराग पुरुष 'जिन' कहलाता है। भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! छमस्थ मोक्ष नहीं गये, न जाते हैं और न जावेंगे, किन्तु जो उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अर्हन्त जिन केवली होते हैं, वे ही मोक्ष गये हैं, जाते हैं और जायेंगे। छप्रस्थ के विषय में प्रश्न करने के पश्चात् गौतम स्वामी ने अवधिज्ञानी के विषय में प्रश्न किया है । अवधि का अर्थ है-मर्यादा । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा के अनुसार उत्पन्न होने वाले और मन तथा इन्द्रियों की सहायता के बिना ही रूपी पदार्थों को For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ छद्मस्थादि की मुक्ति २२१ जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं । परमावधि ज्ञान से हलका अवधिज्ञान 'आधोवधि' ज्ञान कहलाता है । इस 'आधोवधि' ज्ञान से उत्कृष्ट अवधि ज्ञान को 'परमाधोवधि' अथवा ‘परमावधि' कहते हैं। इन ज्ञानों के धारक को क्रमशः 'आधोवधिक' और परमाधोवधिक या ‘परमावधिक' कहते हैं । परम अवधिज्ञानी समस्त रूपी द्रव्यों को; अलोक में लोक प्रमाण असंख्यात खण्डों को तथा असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी को जानने की शक्ति वाला होता है। ___ ऐसा अवधिज्ञानी पुरुष भी छमस्थ है । वह उसी अवस्था में मोक्ष नहीं जा सकता है। यों तो जिस पुरुष को लोकाकाश को लांघ कर अलोक के एक प्रदेश को भी जानने की शक्ति वाला ज्ञान प्राप्त हो जाय वह पुरुष अप्रतिपाती अवधिज्ञान वाला कहलाता है। . परमावधि मोक्ष तो जाना है किन्तु जाता 'केवली' होकर के ही है । 'केवली हुए बिना कोई मोक्ष नहीं जा सकता । 'केवली' के विषय में भी तीन काल सम्बन्धी तीन आलापक कहने चाहिए । यया-केवलो ही मोक्ष गये हैं, केवली ही मोक्ष जाते हैं और केवली ही मोक्ष जायेंगे। . उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधर, अर्हन्त, जिन, केवली को 'अलमस्तु' कहते हैं । 'अलमस्तु' का अर्थ है-'पूर्ण' । जिन्होंने प्राप्त करने योग्य सब ज्ञानादि गुण प्राप्त कर लिये हैं । जिनके लिए प्राप्त करने योग्य कुछ भी अवशेष नहीं रहा है, वे 'अलमस्तु' अर्थात् 'पूर्ण' कहलाते अन्त में गौतम स्वामी ने कहा कि-'सेवं भंते ! सेवं भंते !' अर्थात्-हे भगवन् ! आप पूर्णज्ञानी हैं, अतएव आपका कथन सत्य है । आपके कथन में किसी प्रकार की शंका नहीं है। ॥ प्रथम शतक का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ नरकावास. . शतक १ उद्देशक ५ नरकावास १६४ प्रश्न कह णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? ... १६४ उत्तर-गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहाःरयणप्पभा जाव-तमतमा। १६५ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए कति निरया: वाससयसहस्सा पण्णता ? १६५ उत्तर-गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । गाहाः तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव या सयसहस्सा; तिण्णेगं पंचूणं पंचव अणुत्तरा निरया । विशेष शब्दों के अर्थ-णिरयावास-नरकावास, सयसहस्सा-लाख, अनुतरा-प्रधान । भावार्थ-१५४ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? ... १६४ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वियां सात कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं• रत्नप्रभा यावत् तमस्तमाप्रमा। १६५ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाल नरकावास-अर्थात् नरयिकों के रहने के स्थान, कहे गये हैं ? १६५ उत्तर-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। सब पश्वियों में नरकावासों की संख्या बतलाने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है-पहली पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ५ असुरकुमारों के आवास लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं पृथ्वी में सिर्फ पांच नरकावास कहे गये हैं । विवेचन — चौथे उद्देशक के अन्त में अर्हन्त का वर्णन किया था । अर्हन्त इसी पृथ्वी पर होते हैं अथवा पृथ्वी अर्थात् नरक से निकल कर मनुष्य थव पाकर अर्हन्त - सर्व होते हैं । अतः पृथ्वी का वर्णन किया जाता है तथा प्रथम शतक की संग्रह गाथा में 'पुढवी' - यह पद कहा गया है । इसलिए इस उद्देशक के प्रारम्भ में 'पृथ्वी' का वर्णन किया जाता है । गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् । पृथ्वियाँ कितनी हैं ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! पृथ्वियाँ सात हैं । यथा - रत्नप्रभा शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमः प्रभा । रत्नप्रभा के तीन काण्ड हैं- रत्नकाण्ड, जलकाण्ड और पङ्ककाण्ड । रत्नकाण्ड में कावास की जगह को छोड़ कर शेष जगह में अनेक प्रकार के इन्द्रनीलादि रत्न होते. हैं, जिनकी प्रभा - कान्ति पड़ती रहती है। इस कारण से पहली पृथ्वी का नाम 'रत्नप्रभा' पड़ा है । इसी प्रकार शेष पृथ्वियों के नामों की भी उपपत्ति समझ लेना चाहिए । सातवीं पृथ्वी में घोर अन्धकार है, इसलिए नाम तमस्तमः प्रभा या महातमः प्रभा है । इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकवास-नैरयिकों के रहने के स्थान हैं ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! तीस लाख नरकवास हैं । इसी प्रकार दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं में सिर्फ पाँच नरकवास हैं । सातों नरकों के सब मिला कर चौरासी लाख नरकावास होते हैं । २२३ असुरकुमारों के आवास १६६ प्रश्न - केवइया णं भंते ! असुरकुमारावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? १६६ उत्तर - एवं: For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भगवती सूत्र--श. १ उ. ५ असुरकुमारावास चउसट्ठी असुराणं चउरासीई य होइ नागाणं, बावत्तीरं सुवण्णाणं वाउकुमाराण छण्णउई । दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिंद-थणियमग्गीणं, छण्हं पि जुयलयाणं ावत्तरिमो सयसहस्सा। - भावार्थ-१६६ प्रश्न-हे भगवान् ! असुरकुमारों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? १६६ उत्तर-हे गौतम ! इस प्रकार हैं-असुरकुमारों के चौंसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, सुवर्णकुमारों के बहत्तर लाख, वायुकुमारों के छयानवें लाख आवास कहे गये हैं और द्वीपकुमार, दिक्कुमार (दिशाकुमार) उदधिकुमार-विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार, इन छह युगलों के छहत्तर छहत्तर लाख आवास कहे गये हैं। विवेचन-'रत्नप्रभा' आदि पृथ्वियों में प्रस्तर और अन्तर कहे गये हैं । नरयिक जीवों के रहने के स्थान को प्रस्तर कहते हैं और एक प्रस्तर से दूसरे प्रस्तर के बीच की जगह को अन्तर कहते हैं । रत्नप्रभा में तेरह प्रस्तर और बारह अन्तर हैं । बारह अन्तरों में ऊपर के दो अन्तरों को छोड़ कर शेष दस अन्तरों में क्रमशः दस प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं । भवनवासी देव मेरु से दक्षिण में और उत्तर में रहते हैं । दक्षिण दिशा में और उत्तर दिशा में रहने वाले भवनवासी देवों के आवासों की संख्या इस प्रकार हैदक्षिण दिशा में उत्तर दिशा में १ असुरकुमारों के ३४ लाख ३० लाख २ नागकुमारों के ४४ लाख ४० लाख ३ सुवर्णकुमारों के ३८ लाख ३४ लाख . ४ वायुकुमारों के ५० लाख ४६ लाख ५ द्वीपकुमारों के ४० लाख ३६ लाख . ६ दिशाकुमारों के ४० लाख ३६ लाख ७ उदधिकुमारों के ४० लाख For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ पृथ्वीकायादि के आवास २२५ दक्षिण दिशा में उत्तर दिशा में ८ विद्युत्कुमारों के ४० लाख ३६ लाख ९ स्तनितकुमारों के ४० लाख ३६ लाख १० अग्निकुमारों के ४० लाख ३६ लाख ४०६००००० ३६६००००० - कुल ७७२००००० भवन है । मूल में जो 'छण्हं जुयलयाणं' शब्द दिया है, इसका आशय यह है कि 'द्वीपकुमारसे लेकर अग्निकुमार' तक छह भवनपति देवों के युगल अर्थात् उत्तर दिशा और दक्षिण दिशा दोनों के छहत्तर छहत्तर लाख आवास हैं । . उत्तर दिशा के और दक्षिण दिशा के आवासों की संख्या बतलाने के लिए टीकाकार ने दो गाथाएँ दी हैं । यथा - चउतीसा चउचत्ता अद्रुतीसं च सयसहस्साओ। पण्णा चत्तालीसा दाहिणओ हुंति भवणाई ।। .. अर्थात्-दक्षिण दिशा के असुरकुमारों के ३४ लाख, नागकुमारों के ४४ लाख, सुवर्णकुमारों के ३८ लाख और वायुकुमारों के ५० लाख तथा शष छह द्वीपकुमार आदि प्रत्येक के चालीस चालीस लाख भवन हैं। तीसा चत्तालीसा चोत्तीसं चेव सयसहस्साइं। छायाला छत्तीसा उत्तरओ होंति भवणाई ॥ - अर्थ-उत्तर दिशा के असुरकुमारों के ३० लाख, नागकुमारों के ४० लाख, सुवर्णकुमारों के ३४ लाख, कायुकुमारों के ४६ लाख और शेष द्वीपकुमारादि छह के प्रत्येक के छत्तीस लाख, छत्तीस लाख भवन हैं। - रहने के स्थान को 'आवास' कहते हैं । भवनपति देवों के आवासों को 'भवन' कहते हैं और वैमानिक देवों के आवासों को 'विमान' कहते हैं । पृथ्वीकायादि के आवास १६७ प्रश्न केवइया णं भंते ! पुढविक्काइयावाससयसहस्सा पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २२६ . ___ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ पृथ्वीकायादि के आवास १६७ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा पुढविक्काइयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, जाव असंखिजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । . १६८ प्रश्न सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससयसहस्सा पण्णता ? १६८ उत्तर-गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता एवं: बत्तीस-ट्ठावीसा बारस-अट्ठ-चउरो सयसहस्सा, पण्ण-चत्तालीसा छ्च सहस्सा सहस्सारे । आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरण-च्चुए तिष्णि, सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु । एकारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्तुत्तरं संयं च मज्झमए, सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणाः । विशेष शब्दों के अर्थ-केवइया-कितने । भावार्थ-१६७ प्रश्नहे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने लाख आवास कहे गये हैं? १६७ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों क असंख्यात लाख आवास कहे गये हैं और इसी प्रकार यावत् ज्योतिष्क देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं। १६८ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने लाख विमानावास कहे गये हैं ? १६८ उत्तर-हे गौतम ! वहाँ बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं। . इस प्रकार-क्रमशः बत्तीस लाख, अट्ठाईस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चार For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ स्थिति-स्थान . २२७ लाख, पचास हजार, चालीस हजार विमानावास जानना चाहिए । सहस्रार कल्प में छह हजार विमानावारू हैं। आणत और प्राणत कल्प में चार सौ, आरण और अच्युत में तीन सौ, इस तरह चारों में मिल कर सात सौ विमान हैं। अधस्तन (नीचले) ग्रेवेयक त्रिक में एक सौ ग्यारह, मध्यतन (बीच के) अवेयक त्रिक में एक सौ सात और उपरितन (ऊपर के) अवेयक त्रिक में एक सौ विमानावास हैं। अनुत्तर विमान पाँच ही हैं। विवेचन-पृथ्वीकाय, अप्काय; तेउकाय, वायुकायं और वनस्पतिकाय ये पांच स्थावर जीव हैं । इनके असंख्यात लाख, आवास (रहने के स्थान) कहे गये हैं। इसी प्रकार बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्यों के भी असंख्य लाख आवास है । रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई की ऊपर की ठीकरी में वाणन्यन्तर देवों के असंख्य लाख निवास स्थान है। ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा-ये पाँच जाति के ज्योतिषी देव हैं । इनके भी असंख्य लाख विमानावास हैं। ज्योतिषी चक्र के ऊपर 'सौधर्म' नामक पहला देवलोक है। उसमें बत्तीस लाख विमान है । दूसरे ईशान देवलोक में अट्ठाईस लाख विमान हैं। तीसरे सनत्कुमार देवलोक में बारह लाख, चौथे माहेन्द्र देवलोक में आठ लाख, पाँचवें ब्रह्म देवलोक में चार लाख, छठे लान्तक देवलोक में पचास हजार, सातवें शुक्र देवलोक में चालीस हजार, आठवें सहस्रार देवलोक में छह हजार, नौवें आणत देवलोक में और दसवें प्राणत देवलोक में चार सौ, ग्यारहवें आरण देवलोक में और बारहवें अच्युत देवलोक में तीन सौ विमान हैं। इनके ऊपर नौ ग्रेवेयक विमान है। उनके तीन त्रिक (तीन तीन के तीन विभाग) हैं। पहले त्रिक में एक सौ ग्यारह, दूसरे त्रिक में एक सौ सात और तीसरे त्रिक में एक सौ विमान हैं। इन तीन त्रिकों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-अधस्तन, मध्यतन और उपरितन । इनके ऊपर अनुत्तर विमान हैं, वे पांच हैं । इस प्रकार सब 'मिला कर चौरासी लाख, सत्तानवें हजार, तेईस विमान हैं । स्थिति-स्थान संगहोः-पुढवी द्विति-ओगाहण-सरीर-संघयणमेव संठाणे, For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८.. भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ स्थिति-स्थान लेस्सा-दिट्ठी-णाणे जोगु-वओगे य दस हाणा। १६९ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ठितिवाणा पण्णता ? ___ १६९ उत्तर-गोयमा ! असंखेना ठितिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहाःजहणिया ठिती, समयाहिया जहणिया ठिती, दुसमयाहिया, जावअसंखेबसमयाहिया जहणिया ठिती । तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिती। - १७० प्रश्न-इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहण्णियाए ठितीए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभावउत्ता? १७० उत्तर-गोयमा ! सव्वे वि ताव होजा कोहोवउत्ता य । अहवा कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य । अहवा कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य । अहवा कोहोवउत्ता य मायोवउत्ते य । अहवा कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ता य । अहवा कोहोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। अहवा कोहोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य । अहवा कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य । कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य। कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्तेय । For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ५ स्थिति स्थान कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य । एवं कोह- माणलोभेण वि च । एवं कोह-माया -लोभेण वि च । एवं १२ । पन्छा माणेण, माया, लोभेण य कोहो भइयव्वो । ते कोहं अमुंचता । एवं सत्तावीस भंगा यव्वा । १७१ प्रश्न - इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावासस्यसहस्से एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहण्णद्वितीय वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, भत्ता ? १७१ उत्तर - गोयमा ! कोहोवउत्ते य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य । कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोत्ता य । अहवा कोहोवउत्ते य, माणोवउत्ते य । अहवा कोहोवउत्ते य, माणोवउत्ता य । एवं अमीति भंगा नेयव्वा । एवं जाव - संखेज्जसमयाहिया टिई, असंखेज्जसमयाहिया टिई; तप्पा उग्गुकोसिया ठिईए सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा । . २२९ विशेष शब्दों के अर्थ - ओगाहण - अवगाहना, संघयण - संहनन, संठाणे - संस्थान, ठट्ठाणा - स्थिति स्थान, तप्पाउग्गुक्कोसिया - उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति, कोहोवउत्ता - क्रोधोपयुक्त, माणोवउत्ता - मानोपयुक्त, मायोवउत्ता - मायोपयुक्त, लोभोवउत्ता - लोभोपयुक्त । भावार्थ- संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है - नरकावासादि में स्थिति, अवगाहना, शरीर, संहनन, संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग और उपयोग, इन दस बातों का विचार करना है । .. १६९ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ स्थितिस्थान में के एक एक मरकावास में रहने वाले नारक जीवों के कितने स्थिति स्थान कहे गये हैं ? अर्थात् एक एक नरकावास के नारकियों की कितनी कितनी उम्र है ? १६९ उत्तर-हे गौतम ! उनके असंख्य स्थिति स्थान कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, वह एक समय अधिक, दो समय अधिक, इस प्रकार यावत् असंख्यात् समय अधिक जघन्य स्थिति तथा उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति (ये सब मिल कर असंख्यात. स्थिति-स्थान होते हैं)। १७० प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के एक एक नरकावास में जघन्य (कम से कम)स्थिति में वर्तमान नारकी क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ?या लोभोपयुक्त हैं ? १७० उत्तर-हे गौतम !चे सभी क्रोधोपयुक्त होते हैं। .. अथवा-बहुत क्रोधी और एक मानी होते हैं। अथवा बहुत क्रोधी और बहुत मानी होते हैं। अथवा बहुत क्रोधी और एक मायी होते हैं। अथवा बहुत क्रोधी और बहुत मायी होते हैं। अथवा बहुत क्रोधी और एक लोभी होते हैं। अथवा बहुत क्रोधी और बहुत लोभी होते हैं। ___ अथवा-बहुत क्रोधी, एक मानी और एक मायी होते हैं। अथवा बहुत कोधी, एक मानी और बहुत मायी होते हैं । अथवा बहुत क्रोधी, बहुत मानी और एक मायी होते हैं। अथवा बहुत क्रोधी, बहुत मानी और बहुत मायी होते हैं। इसी तरह क्रोध, मान और लोभ के चार भंग कहना चाहिए । इसी तरह क्रोध, माया और लोभ के चार भंग कहना चाहिए। फिर क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार संयोगी आठ भंग कहना चाहिए । इस तरह कोध को नहीं छोड़ते हुए ये सत्ताईस भंग बनते हैं। .. १७१ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के एक एक नरकावास में एक समय अधिक जघन्य स्थिति में वर्तमान नारकी क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? ___१७१ उत्तर-हे गौतम! कभी एक क्रोधोपयुक्त। कभी एक मानोपयुक्त। For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ स्थिति-स्थान २३१ कभी एक मायोपयुक्त । कभी एक लोभोपयुक्त । कभी बहुत क्रोधोपयुक्त । कभी बहुत मानोपयुक्त । कभी बहुत मायोपयुक्त । कभी बहुत लोभोपयुक्त होते हैं। . . . ____अथवा एक क्रोधोपयुक्त और एक मानोपंयुक्त । अथवा एक क्रोधोपयुक्त और बहुत मानोपयुक्त । अथवा बहुत क्रोधोपयुक्त और एक मानोपयुक्त। अथवा बहुत क्रोधोपयुक्त और बहुत मानोपयुक्त । इत्यादि प्रकार से अस्सी भंग समझना चाहिए । इसी प्रकार यावत् संख्येय समयाधिक स्थिति वाले नारकियों के लिए समझना चाहिए । असंख्येय समयाधिक स्थिति वालों में तथा उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में सत्ताईस भंग कहना चाहिए। विवेचन- गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास हैं, उनमें रहने वाले जीवों की स्थिति-स्थान कितने कितने हैं ? . भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! एक एक नरकावास में रहने वाले जीवों की .स्थिति के स्थान भिन्न-भिन्न हैं। किसी की जघन्य स्थिति है, किसी की मध्यम और किसी कि उत्कृष्ट स्थिति है । इस पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के पहले प्रतर में रहने वाले नारक जीवों की आयु कम से कम दस हजार वर्ष है और अधिक से अधिक नब्बे हजार वर्ष की है। कम से कम आयु 'जघन्य' कहलाती है और अधिक से अधिक आयु 'उत्कृष्ट' कहलाती है। जघन्य और उत्कृष्ट के बीच की आयु को 'मध्यम' कहते हैं। मध्यम आयु जघन्य और उत्कृष्ट के समान एक प्रकार की नहीं है । जघन्य आयु से एक समय की अधिक की आयु भी मध्यम कहलाती है, दो समय अधिक की आयु भी. मध्यम कहलाती है, इसी प्रकार संख्यात और असंख्यात समय अधिक की आयु भी मध्यम ही कहलाती है। इस प्रकार मध्यम आयु के अनेक विकल्प हैं । अतः कोई नारकी दस हजार वर्ष की आयु वाला, कोई एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु वाला, कोई दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु वाला, इसी प्रकार कोई असंख्यात समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु वाला है. कोई उत्कृष्ट आयु वाला है । इसलिए नारकी जीवों के स्थितिस्थान असंख्य हैं। - काल का वह सूक्ष्मतम अंश, जो निरंश है, जिसका दूसरा अंश संभव नहीं है, वह 'समय' कहलता है । जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति है, उससे एक एक समय अधिक करते हुए उत्कृष्ट नब्बे हजार वर्ष की स्थिति तक असंख्य विभाग (स्थिति-स्थान) हो For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ स्थिति-स्थान जाते हैं । जघन्य स्थिति वालों में २७ भंग होते हैं, जो कि पहले बता दिये गये हैं। फिर गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! एक समयाधिक जघन्य स्थिति वाले . वे नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? मानोपयुक्त होते हैं ? मायोपयुक्त होते हैं ? या लोभोपयुक्त होते हैं ? इसके उत्तरं में भगवान् ने अस्सी भंग बतलाये हैं । वे इस प्रकार हैं - असंयोगी ८ भंग १. क्रोधी एक, २. मानी एक, ३. मायी एक, ४. लोभी एक, · ५: क्रोधी बहुत, ६. मानी बहुत, ७. मायी बहुत, ८. लोभी बहुत । द्विक संयोगी २४ भंग १. क्रोधी एक और मानी एक, २. क्रोधी एक और मानी बहुत, ३. क्रोधी बहुत और मानी एक, ४ क्रोधी बहुत और मानी बहुत, ५. क्रोधी एक और मायी एक, ६. क्रोधी एक और मायी बहुत, ७. क्रोधी बहुत और मायी एक, ८. क्रोधी बहुत और मायी बहुत, . ९ क्रोधी एक और लोभी एक, १० क्रोधी एक और लोभी बहुत ११ क्रोधी बहुत और लोभी एक, १२. क्रोधी बहुत और लोभी बहुत, १३. मानी एक और मायी एक, १४ मानी एक और मायी बहुत, १५. मानी.ब्रहुत और मायी एक, १६. मानी बहुत और मायी बहुत, १७. मानी एक और लोभी एक, १८. मानी एक और लोभी बहुत, १९. मानी बहुत और लोमी एक, २०. मानी बहुत और लोभी बहुत, २१. मायी एक और लोभी एक, २२. मायी एक और लोमो बहुत, २३. मायी बहुत और लोमो एक,२४. मायी बहुत और लोभी बहुत । त्रिक संयोगी ३२ मंग १. क्रोधी एक, मानी एक, माया एक, २. क्रोधी एक, मानी एक, मायी बहुत, ३. क्रोधी एक, मानी बहुत, मायी एक, ४. क्रोधी एक, मानी बहुत, मायी बहुत, ५. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी एक, ६. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी बहुत, ७. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायो एक, ८. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी बहुत, ९. क्रोधी एक, मानी एक, लोभी एक, १०. क्रोधी एक, मानी एक, लोभी बहुत, ११ क्रोधी एक, मानी बहुत, लोभी एक, १२. क्रोधी एक, मानी बहुत, लोभी बहुत, १३. क्रोधी बहुत, मानी एक, लोभी एक, १४ क्रोधी बहुत, मानी एक, लोभी बहुत, १५. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, लोभी एक, १६. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, लोभी बहुत, १७. क्रोधी एक, मायी एक, लोभी For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगबती सूत्र - श. १ उ. ५ स्थिति स्थान एक, १८. क्रोधी एक, मायी एक, लोभी बहुत, १९. क्रोधी एक, मायी बहुत, लोभी एक, २०. क्रोधी एक, मायी बहुत, लोभी बहुत, २१. क्रोधी बहुत, मायी एक, लोभी एक, २२. rat बहुत मायी एक, लोभी बहुत, २३. क्रोधी बहुत, मायी बहुत, लोभी एक २४. क्रोधी बहुत, मायी बहुत, लोभी बहुत, २५. मानी एक, मायी एक, लोभी एक, २६. मानी एक, मायी एक, लोभी बहुत, २७. मानी एक, मायी बहुत, लोभी एक, २८. मानी एक, माय बहुत, लोभी बहुत, २९. मानी बहुत, मायी एक, लोभी एक, ३०. मानी बहुत, मी एक, लोभी बहुत, ३१. मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी एक, ३२. मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी बहुत । चतु:संयोगी १६ मंग १. क्रोधी एक, मानी एक, मायी एक, लोभी एक, २. क्रोधी एक, मानी एक, मायी एक, लोभी बहुत, ३. क्रोधी एक, मानी एक, मायी बहुत, लोभी एक, ४, क्रोधी, एक मानी एक, मायी बहुत, लोभी बहुत, ५ क्रोधी एक, मानी बहुत, मायी एक, लोभी एक, ६ . क्रोधी एक मानी बहुत, मायी एक, लोभी बहुत, ७. क्रोधी एक, मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी एक, ८. क्रोधी एक, मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी बहुत, ९. . क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी एक, लोभी एक, १० क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी एक, लोभी बहुत, ११. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी बहुत, लोभी एक, १२. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी बहुत, लोभी बहुत, १३. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी एक, लोभी एक, १४. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी एक, लोभी बहुत, १५. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी एक, १६. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी बहुत । • जिन जिन स्थानों वाले नारक जीव शाश्वत मिलते हैं उनमें २७ भंग होते हैं । १ असंयोगी, ६ द्विक संयोगी, १२ त्रिक संयोगी, ८ चतुःसंयोगी, ये कुल २७ भंग होते हैं वे इस प्रकार हैं असंयोगी १ नंग - १ सब क्रोधी । द्विक संयोगी ६ मंग २३३ १. क्रोधी बहुत, मानी एक, २. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, ३ क्रोधी बहुत, मायी एक, ४ क्रोधी बहुत, मायी बहुत, ५. क्रोधी बहुत, लोभी एक, ६. क्रोधी बहुत, लोभी बहुत । For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ स्थिति-स्थान . त्रिक संयोगी १२ भंग . १. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी एक, २, क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी बहुत, ३. क्रोधी बहुत मानी बहुत, मायी एक, ४. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी बहुत, ५. क्रोधी बहुत, मानी एक, लोभी एक, ६ क्रोधी बहुत, मानी एक, लोभी बहुत, ७. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, लोभी एक, ८ क्रोधी. बहुत, मानी बहुत, लोभी बहुत, ९. क्रोधी बहुत, मायी एक, लोभी एक, १०. क्रोधी बहुत, मायी एक, लोभी बहुत, ११. क्रोधी बहुत, मायी बहुत, लोभी एक, १२. क्रोधी बहुत, मायी बहुत, लोभी बहुत । .... ___चतुःसंयोगी ८ भंग १. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी एक, लोभी एक, २. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी एक, लोभी बहुत, ३. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी बहुत, लोमी एक, ४. क्रोधी बहुत, मानी एक, मायी बहुत, लोभी बहुत, ५. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी एक, लोभी एक, ६, क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी एक, लोभी बहुत, ७. क्रोधी बहुत, मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी एक, ८. क्रोधी बहुन, मानी बहुत, मायी बहुत, लोभी बहुत । प्रत्येक नरक में जघन्य स्थिति वाले नैरयिक सदा पाये जाते हैं और उनमें क्रोधोपयुक्त नैरयिक बहुत ही होते हैं । अतः इन में ये उपर्युक्त २७. भंग पाये जाते हैं। इन सत्ताईस ही भंगों में 'क्रोध' बहुवचनान्त ही रहेगा। . एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्यात समय अधिक जघन्य स्थितिवाले नरयिकों में पूर्वोक्त अस्सी भंग होते हैं । इस स्थिति वाले नैरयिक कभी मिलते हैं और कभी नहीं मिलते हैं । अतः उनमें क्रोधादि उपयुक्त नैरयिकों की संख्या एक और अनेक होती है। असंख्यात समय अधिक की स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में तो पूर्वोक्त २७ भंग पाये जाते हैं । इस स्थिति वाले नैरयिक सदा काल पाये जाते हैं और वे बहुत होते हैं। इसी प्रकार नरक और देवों के जिन जिन स्थानों में सत्ता की अपेक्षा विरह न हो वहाँ २७ भंग और जहाँ विरह हो वहाँ अस्सी भंग होते हैं । औदारिक के दस दण्डकों में जो बोल निरन्तर मिलते हैं, वहाँ अभंग और जो निरन्तर नहीं मिलते हैं उनमें अस्सी भंग होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ अवगाहना स्थान । २३५ - __ अवगाहना स्थान अवन १७२ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ओगाहणाठाणा पण्णत्ता ? १७२ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा ओगाहणाठाणा पण्णत्ता । तं जहाः-जहणिया ओगाहणा । पएसाहिया जहन्निया ओगाहणा। दुप्पएसाहिया जहन्निया ओगाहणा जाव-असंखिज पएसाहिया जहणिया ओगाहणा । तप्पाउग्गुक्कोसिया ओगाहणा। . १७३ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगसि गिरयावासंसि जहणियाए ओगाहणाए वट्टमाणा णेरइया कि कोहोवउत्ता० ? . १७३ उत्तर-गोयमा ! असीइभंगा भाणियव्वा, जाव-संखिजपएसाहिया जहनिया ओगाहणा, असंखेजपएसाहियाए जहणियाए ओगाहणाए वट्टमाणाणं, तप्पउग्गुक्कोसियाए ओगाहणाए वट्टमाणाणं नेरइयाणं दोसु वि सत्तावीसं भंगा। . विशेष शब्दों के अर्थ-ओगाहणा ठाणा-अवगाहना स्थान, पएसाहिया-एक प्रदेशाधिक । __भावार्थ-१७२ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के एक एक नरकावास में रहने वाले नारकियों के अवगाहना स्थान कितने कहे गये हैं ? For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ अवगाहना-स्थान १७२ उत्तर-हे गौतम ! उनके अवगाहनास्थान असंख्यात कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-जघन्य अवगाहना (अंगुल के असंख्यातवें भाग) एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना, यावत् असंख्यात प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना तथा उसके योग्य उत्कृष्ट अवगाहना। . १७३ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के एक एक नरकावास में जघन्य अवगाहना वाले नरयिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? ..... १७३ उत्तर--हे गौतम ! जघन्य अवगाहना वालों में अस्सी भंग कहना चाहिए यावत् संख्यात प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना वालों में भी अस्सी भंग कहना चाहिए । असंख्यात प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना में वर्तने वाले और उसके योग्य उत्कृष्ट अवगाहना में वर्तने वाले, इन दोनों प्रकार के नारकियों में सत्ताईस भंग कहना चाहिए। विवेचन-जिसमें जीव ठहरता है, वह अवगाहना है, अर्थात् जीव की लम्बाई चौड़ाई अवगाहना कहलाती है । जिस जीव का जो शरीर होता है, वह उसकी अवगाहना है। जिस क्षेत्र में जीव रहता है उस परिमाण क्षेत्र को भी अवगाहना कहते हैं। सब नरकावासों में जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण है । जिस विवक्षित नरकावास के योग्य जो उत्कृष्ट अवगाहना होती है, वह उसकी 'तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अवगाहना' कहलाती है । जैसे कि पहली रत्नप्रभा नरक में उत्कृष्ट अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगल होती है। अर्थात उत्सेधांगुल से उसकी अवगाहना सवा इकतीस हाथ होती है। इससे आगे की नरकों में दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है । अर्थात् शर्करांप्रभा में पन्द्रह धनुष दो हाथ, बारह अंगुल उत्कृष्ट अवगाहना होती है । तीसरी बालुकाप्रभा में इकतीस धनुष एक हाथ, चौथी पंकप्रभा में बांसठ धनुष दो हाथ, पांचवीं धूमप्रभा में एक सौ पच्चीस धनुष, छठी तमःप्रभा में ढाई सौ धनुष, सातवीं तमस्तमाःप्रभा में पांच सौ धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। यह भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना होती है। एक एक नरकावास में बसने वाले जीवों के अवगाहना स्थान असंख्य हैं । जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग बराबर होती है । इस जघन्य अवगाहना से एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक, इस प्रकार असंख्यात प्रदेश अधिक तक की अवगाहना वाले For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ नारकों के शरीर २३७ होते हैं और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अवगाहना वाले होते हैं । अतः अवगाहना स्थान असंख्यात हैं। . ___फिर गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले जीव क्या क्रोधी हैं ? मानी हैं ? मायी हैं ? या लोभी हैं ? __भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! यहाँ भी अस्सी भंग जानने चाहिए । एक प्रदेशाधिक से लेकर संख्यात प्रदेशाधिक तक इसी तरह जानना चाहिए । जघन्य अवगाहना से असंख्य प्रदेश अधिक तथा उत्कृष्ट अवगाहना वालों के सत्ताईस भंग होते हैं। ____ यहाँ यह आशंका होती है कि जघन्य स्थिति में सत्ताईस भंग कहे हैं, फिर यहाँ जघन्य अवगाहना में अस्सी भंग कहने का क्या कारण है ? इस शंका का समाधान यह है कि जघन्य स्थिति वाले नैरयिक जब तक जघन्य अवगाहना वाले रहते हैं, तब तक उनकी अवगाहना के अस्सी भंग ही होते हैं । जघन्य स्थिति वाले जिन नैरयिकों के सत्ताईस भंग कहे हैं वे जघन्य अवगाहना को उल्लघन कर चुके हैं । उनकी अवगाहना जघन्य नहीं होती । इसलिए सत्ताईस ही भंग कहे गये हैं। ___ जघन्य अवगाहना से लेकर संख्यात प्रदेश की अधिक अवगाहना वाले जीव नरक में निरन्तर नहीं मिलते हैं, इसलिए उनमें अस्सी भंग कहे गये हैं और जघन्य अवगाहना से असंख्यात प्रदेश अधिक की. अवगाहना वाले जीव, नरक में अधिक ही पाये जाते हैं, इसलिए उनमें सत्ताईस भंग होते हैं । नारकों के शरीर १७४ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव-एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं कह सरीरया पण्णत्ता ? - १७४ उत्तर-गोयमा ! तिण्णि सरीरया पण्णत्ता । तं जहाःबेउन्विए, तेयए, कम्मए । १७५ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! जाव-वेउब्वियसरीरे वट्टमाणा For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ . भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ नारकों के शरीर संहननादि नेरइया किं कोहोवउत्ता ? १७५ उत्तर-गोयमा ! सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा । एएणं गमेणं तिणि सरीरा भाणियब्वा । ... १७६ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए जाव-नेरइयाणं सरीरया किंसंघयणी पण्णत्ता ? ___ १७६ उत्तर-गोयमा ! छण्हं संघयणाणं अस्संघयणी, नेवट्ठी, नेव छिरा, नेव पहारूणि। जे पोग्गला अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, असुहा, अमणुण्णा, अमणामा एतसिं सरीरसंघायत्ताए परिणमंति । १७७ प्रश्न-इमीसे णं भंते .! जाव छण्हं संघयणाणं असंघयणे वट्टमाणा णं नेरइया कि कोहोवउत्ता ? १७७ उत्तर-गोयमा ! सत्तावीसं भंगा। १७८ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव-सरीरया किं. संठिया पण्णता ? __ १७८ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहाः-भवधारणिजा य, उत्तरवेउब्विया य । तत्थ णं जे ते भवधारणिजा ते हुंडसंठिया पण्णता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता। १७९ प्रश्न-इमीसे णं जाव-हुंडसंठाणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ नारकों के शरीर संहननादि २३९ १७९ उत्तर-गोयमा ! सत्तावीसं भंगा। विशेष शब्दों के अर्थ-सरीरया-शरीर, वेउविए-वैक्रिय, तेयए-तेजस्, कम्मएकार्मण, नेवट्ठी-नवास्थि हड्डी नहीं, च्छिरा-शिरा-नश, हारूणि-स्नायु, अणिट्ठा-अनिष्ट, अकंता-अकान्त, अप्पिया-अप्रिय, असुहा-अशुभ, अमणुण्णा-अमनोज्ञ, अमणामा-अमनोहर। भावार्थ-१७४ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के एक एक तरकावास में बसने वाले नारको जीवों के कितने शरीर हैं ? १७४ उत्तर-हे गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये हैं। वे इस प्रकार है-वैक्रिय, तैजस और कार्मण । १७५ प्रश्न-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के प्रत्येक नरकावास में बसने वाले वैक्रिय शरीर वाले नारको क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? उत्तर-हे गौतम ! सत्ताईस भंग कहना चाहिए। और इसी प्रकार शेष दोनों शरीरों (तेजस् और कार्मण) सहित तीनों के सम्बन्ध में भी यही बात कहना चाहिए। १७६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के प्रत्येक नरकावास में बसने वाले नैरयिकों के शरीरों का कौनसा संहनन है ? . १७६ उत्तर-हे गौतम ! उनका शरीर संहनन रहित है अर्थात् उनमें छह संहननों में का संहनन नहीं होता । उनके शरीर में हड्डी, शिरा (नश) और स्नायु नहीं होती। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनोहर हैं, वे पुद्गल नारकियों के शरीर संघात रूप में परिणत होते हैं। १७७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के प्रत्येक नरकावास में रहने वाले और छह संहननों में से जिनके एक भी संहनन नहीं है, वे नरयिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० भगवती सूत्र- श. १ उ. ५ नारकों के शरीर संस्थान १७७ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ सत्ताईस भंग कहना चाहिए। . . १७८ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के प्रत्येक नरकावास में रहने वाले नरयिकों के शरीर किस संस्थान वाले हैं ? , १७८ उत्तर-हे गौतम ! उन नारकियों का शरीर दो प्रकार का कहा गया है । यथा-भंवधारणीय (जीवन पर्यन्त रहने वाला) और उत्तर वैक्रिय । उनमें जो भवधारणीय शरीर हैं, वे हुण्ड संस्थान वाले कहे गये हैं और जो शरीर उत्तर वैक्रिय रूप हैं, वे भी हुण्ड संस्थान वाले कहे गये है। ' १७९ प्रश्न-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में के प्रत्येक नरकावास में बसने वाले हुण्ड संस्थान में वर्तमान नेरयिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोमोपयुक्त हैं ? . १७९ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ सत्ताईस भंग कहना चाहिए। विवेचन-जिसमें व्याप्त होकर आत्मा रहती है, अथवा जिसका क्षण क्षण में नाश होता रहता है, उसे 'शरीर' कहते हैं । नारकी जीवों के तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तेजस और कार्मण । 'कार्मण शरीर' कर्मों का खजाना है। आहार को पचाकर खल भाग और रस भाग में विभक्त करना और रस को शरीर के अंगों में यथास्थान पहुंचाना 'तेजस शरीर' का काम हैं । 'वैक्रिय शरीर' के दो भेद हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर वाले नारकी जीव क्या क्रोधी हैं ? मानी है ? मायी हैं या लोभी हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! इस विषय में सत्ताईस भंग समझना चाहिए, क्योंकि ऐसा कोई समय नहीं होता जब वैक्रिय शरीर वाले जीव नरक में न हों । वक्रिय शरीर वाले जीव नरक में बहुत होते हैं, इसलिए सत्ताईस भंग ही प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार तीनों शरीरों के सम्बन्ध में जानना चाहिए । यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि वैक्रिय शरीर वालों के सत्ताईस भंग तो बतला दिये गये हैं । फिर मूल पाठ में 'एएणं गमेणं तिण्णि सरीरया भाणियव्वा' अर्थात् इसी प्रकार तीनों शरीरों के सम्बन्ध में जानना चाहिए । इसमें तीन शरीरों का कथन क्यों किया? क्योंकि शेष दो ही शरीर बचे हैं । इसलिए उन्हीं के सम्बन्ध में कहना चाहिए ? इस शंका का समाधान यह है कि-यहाँ तैजस और कार्मण शरीर अलग नहीं लिये For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र--श. १ उ. ५ लेश्या . गये है, क्योंकि यदि तेजस और कार्मण शरीरों को वैक्रिय से अलग कर दिया जाय तो अस्सी भा प्राप्त होंगे। क्योंकि वे विग्रह गति में हो पाये जाते हैं । यहाँ पर केवल तंजस कार्मण की चर्चा नहीं है, किन्तु वैक्रिय सहित तैजस कार्मण की है। इसलिए सत्ताईस ही भंग मिलेंगे । यही बात सूचित करने के लिए तीनों शरीरों के सम्बन्ध में जानना चाहिए'ऐसा कथन किया गया है। 'वज्रऋषभनाराच' आदि छह संहननों में से नारकी जीवों के शरीर में कोई संहनन नहीं होता है। क्योंयि हड्डियों के ढांचे को 'संहनन' कहते हैं। नारकी जीवों के शरीर में हाड़, शिरा (नस), स्नायु नहीं हैं, किन्तु जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनोहर होते हैं, वे नारकी जीवों के शरीर रूप में परिणत होते हैं, उन पुद्गलों का यह स्वभाव है कि छेदने पर वे अलग हो जाते हैं और वापिस मिल जाते हैं। इस प्रकार असंहननी शरीर में रहने वाले नारकी जीवों में सत्ताईस भंग पाये जाते हैं। एक नारकी जीव दूसरे जीव को कष्ट देने आदि के लिए जो शरीर बनाता है वह 'उत्तरवैक्रिय' कहलाता है और भवपर्यन्त रहने वाला शरीर 'भवधारणीय' कहलाता है। नारकी के दोनों प्रकार के शरीरों का संस्थान (आकार) हुण्डक ही होता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि नारक जीव उत्तर वैक्रिय शरीर का संस्थान हुण्डक क्यों बनाते हैं ? सुन्दर क्यों नहीं बनाते ? इसका समाधान यह है कि-उनमें शक्ति की मन्दता है । अतः वे सुन्दर आकार बनाना चाहते हुए भी बना नहीं सकते अर्थात् सुन्दर आकार बनाना चाहते हुए भी बेढंगा ही. बनता है । ऐसे नारकी जीवों में क्रोधी आदि के सत्ताईस भंग होते हैं । नरयिकों को लेश्या दृष्टि आदि १८० प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति लेस्साओ पण्णत्ता। १८० उत्तर-गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता । १८१ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव-काउलेस्साए For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ नैरयिकों की लेश्या दृष्टि आदि वट्टमाणा.....? . १८१ उत्तर-गोयमा ! सत्तावीसं भंगा। १८२ प्रश्न-इमीसे णं जाव-किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मा. मिच्छादिट्ठी ? १८२ उत्तर-तिणि वि। १८३ प्रश्न-इमीसे णं जाव-सम्मदंसणे वट्टमाणा नेरइया......? १८३ उत्तर-सत्तावीसं भंगा। एवं मिच्छादसणे वि । सम्मामिच्छादंसणे असीति भंगा। १८४ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! जाव-किं णाणी, अण्णाणी ? १८४ उत्तर-गोयमा ! णाणी वि, अन्नाणी वि; तिणि णाणाई नियमा, तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । १८५ प्रश्न-इमीसे. णं भंते ! जाव-आभिणिबोहियण्णाणे वट्टमाणा....? १८५ उत्तर-सत्तावीसं भंगा। एवं तिण्णि णाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भाणियव्वाई। १८६ प्रश्न-इमीसे णं जाव-किं मणहोगी, वइजोगी, कायजोगी? १८६ उत्तर-तिण्णि वि। १८७ इमीसे णं जाव-मणजोए वट्टमाणा कोहोवउत्ता.....! For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. 1 उ. ५ नैरयिकों की लेश्या दृष्टि आदि २४३ . १८७ उत्तर-सत्तावीसं भंगा। एवं वइजोए, एवं कायजोए । १८८ प्रश्न-इमीसे णं जाव-नेरइया किं सागारोवउत्ता, अणा: गारोवउत्ता ? १८८ उत्तर-गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि । १८९ प्रश्न-इमीसे णं जाव-सागारोवओगे वट्टमाणा किं कोहोवउत्ता ? १८९ उत्तर-सत्तावीसं भंगा। एवं अणागारोवउत्ता वि सत्तावीसं भंगा । एवं सत्त वि पुढवीओ नेयवाओ, णाणत्तं लेसासु । गाहा: काऊ य दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमीयाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ विशेष शब्दों के अर्थ-लेस्साओ-लेश्या, काउलेस्सा-कापोत लेश्या, आभिणिबोहियणाणे-आभिनिबोधिक ज्ञान, वइजोए-वचन योग, सागारोवउत्ता-साकारोपयुक्त, अणागारोवउत्ता-अनाकारोपयुक्त, कण्हा-कृष्ण लेश्या, परमकण्हा-परमकृष्ण लेश्या । भावार्थ-१८० प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नैरयिकों में कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? १८० उत्तर-हे गौतम ! एक कापोत लेश्या कही गई है। . १८१ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले कापोत लेश्या वाले नारको जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? | १८१ उत्तर-हे गौतम ! इनमें सत्ताईस भंग कहना चाहिए। . १८२ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्थी में बसने वाले नारको क्या For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ नैरयिकों की दृष्टि ज्ञान आदि सम्यग्दृष्टि हैं ? मिथ्यादृष्टि हैं ? या सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) हैं ? . . . १८२ उत्तर-हे गौतम ! तीनों प्रकार के हैं। १८३ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले सम्यगदष्टि नारको जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? लोभोपयुक्त हैं ? १८३ उत्तर-हे गौतम ! सत्ताईस भंग कहना चाहिए। इसी तरह मिथ्यादृष्टि में भी कहना चाहिए। सम्यगमिथ्यादृष्टि में अस्सी भंग कहना चाहिए। . १८४ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नारकी जीव क्या ज्ञानी है ? या अज्ञानी हैं ? १८४ उत्तर-हे गौतम ! उनमें ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं उनमें नियमपूर्वक तीन ज्ञान होते हैं और जो अज्ञानी हैं उनमें तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं। १८५ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले और आभिनिबोधिक ज्ञान में वर्तने वाले नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त है ? मायोपयुक्त है ? या लोभोपयुक्त है ? १८५ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ सत्ताईस भंग कहना चाहिए और इसी प्रकार तीन ज्ञान और तीन अज्ञान में कहना चाहिए। १८६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नारकी जीव क्या मनयोगी हैं ? वचनयोगी हैं ? या काययोगी हैं ? १८६ उत्तर-हे गौतम ! वे प्रत्येक तीनों प्रकार के हैं अर्थात् सभी नारकी जीव मन, वचन और काया, इन तीनों योगों वाले हैं ? १८७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले और मन योग में वर्तने वाले नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ?मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? १८७ उत्तर-हे गौतम ! सत्ताईस भंग कहना चाहिए और इसी प्रकार वचनयोगी और काययोगी में भी कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ५ नारकों के उपयोग १८८ प्रश्न - - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले नारकी जीव क्या साकारोपयोग से युक्त ? या अनाकारोपयोग से युक्त हैं ? १८८ उत्तर - हे गौतम ! साकारोपयोग युक्त भी हैं और अनाकारोपयोग युक्त भी हैं । २४५ १८९ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले और साकारोपयोग में बर्तने वाले नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त हैं ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? १८९ उत्तर - हे गौतम! इनमें सत्ताईस भंग कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाकारोपयोग युक्त में भी कहना चाहिए । रत्नप्रभा में कहा उसी तरह से सातों पृथ्वियों के विषय में कहना चाहिए । श्याओं में विशेषता है। वह इस प्रकार है-पहली और दूसरी नरक में कापोत लेश्या है । तीसरी में मिश्र अर्थात् कापोत और नील, ये दो लेश्या हैं । चौथी में नील लेश्या है। पाँचवीं में मिश्र अर्थात् नील और कृष्ण, ये दो लेश्या हैं ? छठी में कृष्ण लेश्या है और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या है । विवेचन - रत्नप्रभा के तीस लाख नरकावासों में के जीवों में सिर्फ एक कापोत लेश्या होती है। इनमें क्रोधादि के सत्ताईस भंग कहने चाहिए । इसके बाद दृष्टि द्वार का कथन किया गया है । वहाँ तीनों दृष्टि वाले जीव होते हैं । उनमें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में क्रोधादि के सत्ताईस भंग कहने चाहिए । मिश्रदृष्टि में अस्सी भंग होते हैं। इसका कारण यह है कि मिश्रदृष्टि जीव अल्प हैं और उनका सद्भाव भी काल की अपेक्षा अल्प है अर्थात् वे कभी मिलते हैं और कभी नहीं भी मिलते हैं । इसलिए मिश्रदृष्टि नारक में क्रोधादि के अस्सी भंग पाये जाते हैं । अब ज्ञान द्वार के विषय में कहा जाता है-जो जीव नरक में सम्यक्त्व सहित उत्पन्न होते हैं उन्हें जन्मकाल के प्रथम समय से लेकर भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है । अतः वे नियम पूर्वक तीन ज्ञान वाले ही होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि जीव नरक में उत्पन्न होते हैं वे यहाँ से संज्ञी जीवों में से अथवा असंज्ञी जीवों में से गये हुए होते हैं । उनमें से जो जीव यहाँ से संज्ञी जीवों में से जाकर नरक में उत्पन्न होते हैं उनको जन्मकाल से 1 For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ भगवती सूत्र-शः १ उ. ५ नरयिकों की लेश्या दृष्टि आदि विभंग (विपरीत अवधि) ज्ञान होता है, इसलिए वे तीन अज्ञान वाले होते हैं । जो असंज्ञी जीवों में से आकर नरक में उत्पन्न होते हैं उनको जन्मते समय दो अज्ञान (मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान) होते हैं और एक अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है, अब उन्हें तीन अज्ञान हो जाते हैं । इसीलिए तीन अज्ञान "भजनापूर्वक' कहे गये हैं। किसी समय उनमें दो अज्ञान होते हैं और किसी समय उनमें तीन अज्ञान होते हैं । जैसा कि निम्न लिखित दो गाथाओं में कहा है. . सण्णी रइएसु उरलपरिच्चायणतरे समये। . . . . . . विन्मंग ओहि वा अविग्गहे विग्गहे लहइ ॥१॥ असण्णी गरएसु पज्जत्तो जेण लहइ विग्मंग। नाणा तिग्णेवं तओ अण्णाणा दोण्णि तिग्णेव ॥२॥ अर्थ-औदारिक शरीर को छोड़कर जो संज्ञी जीव नरक में उत्पन्न होते हैं, वे तत्काल अविग्रह गति में अथवा विग्रह गति में विभंगज्ञान अथवा अवधिज्ञान को प्राप्त करते हैं। . यहाँ से जो असंज्ञी जीव मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं वे पर्याप्त अवस्था को प्राप्त होने के पश्चात् विभंग ज्ञान को प्राप्त होते हैं । इसलिए नरक में ज्ञान तो नियम पूर्वक तीन ही होते हैं और अज्ञान दो भी होते हैं और तीन भी होते हैं। पहले के तीन ज्ञान और तीन अज्ञान में सत्ताईस भंग पाये जाते हैं। यहां मूलपाठ में आभिनिबोधिक ज्ञान अलग कह कर फिर 'एवं तिण्णि णाणाइं तिण्णि अण्णाणाई' ऐसा कहा है । सो यहाँ दो कहना चाहिए, किन्तु जो 'तीन' कहा है, इसका कारण यह है कि आभिनिबोधिक सहित तीन ज्ञान और तीन अज्ञान लिये गये हैं। जहाँ तीन अज्ञान का कथन किया गया है वहाँ विभंग ज्ञान होने से पहले जो मतिअज्ञान श्रुतअज्ञान होते हैं, उस समय अस्सी भंग होते हैं, क्योंकि दो अज्ञान वाले जीव थोड़े होते हैं । किन्तु ये दो अज्ञान वाले जीव जघन्य अवगाहना वाले होते हैं, इसलिए उनमें जघन्य अवगाहना की अपेक्षा ही अस्सी भंग लिये गये हैं। ____ अब योग द्वार के विषय में कहा जाता है । यहाँ यद्यपि अकेले 'कार्मण काययोग' में अस्सी भंग संभव है तथापि यहाँ पर उसकी विवक्षा नहीं की है, किन्तु सामान्य काययोग की विवक्षा की गई है, इसलिए सत्ताईस भंग कहे गये हैं। - उपयोगद्वार के विषय में कहा जाता है-उपयोग के दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । विशेष ग्रहण करने की शक्ति को 'आकार' कहते हैं। उस 'आकार' For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ५ असुरकुमारों के स्थिति स्थान आदि सहित जो हो उसे साकारोपयोग कहते हैं और सामान्य अंश को ग्रहण करने वाले उपयोग को अनाकारोपयोग कहते हैं । अर्थात् ज्ञानोपयोग को 'साकारोपयोग' कहते हैं और दर्शनोपयोग को 'अनाकारोपयोग' कहते हैं । इन दोनों उपयोगों में सत्ताईस भंग होते हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी के सम्बन्ध में दस बातों की पृच्छा की गई है। रत्नप्रभा की तरह 'सातों नरकों के जीवों की पृच्छा है । सिर्फ लेश्या में अन्तर है- पहली और दूसरी नरक में कापोत लेश्या हैं। तीसरी बालुकाप्रभा के उपरितन नरकावासों में कापोत लेश्या है और - अधस्तन नरकावासों में नील लेश्या है । इसलिए तीसरी नरक में दो लेश्याएँ हैं। चौथी नरक में नील लेश्या है। पांचवी में नील और कृष्ण ये दो लेश्याएँ हैं । छठी नरक में कृष्ण लेश्या और सातवीं नरक में परम-कृष्ण लेश्या है । असुरकुमारों के स्थितिस्थान आदि १९० प्रश्न - चउसडीए णं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं केवइया टिड्डाणा पण्णत्ता ? २४७ १९० उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जा टिड्डाणा पण्णत्ता । जहणिया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरं पडिलोमा भंगा भाणियव्वा । सव्वे वि ताव होज्ज लोभोवउत्ता | अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ता य । एएणं गमेणं यव्वं जाव - थणियकुमाराणं, नवरं णाणत्तं जाणियव्वं । विशेष शब्दों के अर्थ - चउसट्ठीए - चौसठ, पडिलोमा - प्रतिलोम - उल्टा, जाणतंनानात्व- भिन्नपना । भावार्थ - १९० प्रश्न - हे भगवन् ! चौसठ लाख असुरकुमारावासों में के For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ असुरकुमारों के स्थिति स्थान आदि एक एक असुरकुमारावास में बसने वाले असुरकुमारों के कितने स्थिति स्थान कहे गये हैं ? १९० उत्तर-हे गौतम ! उनके स्थिति स्थान असंख्यात कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि वर्णन नारकियों के समान जानना चाहिए । विशेषता यह है कि इनमें जहां सत्ताईस भंग आते हैं वहां प्रतिलोम-उल्टे समझना चाहिए । वे इस प्रकार है-समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं । अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है । अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और बहुत से मायोपयुक्त होते हैं। इत्यादि रूप से जानना चाहिए । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। विशेषता यह है कि संहनन संस्थान लेश्या आदि में भिन्नता जाननी चाहिए। विवेचन-नरक गति के जीवों का वर्णन करने के पश्चात् देवगति का वर्णन किया : जाता है । भवनों में रहने वाले देव 'भवनपति' कहलाते हैं। उनके असुरकुमारादि दस भेद हैं । उनके स्थितिस्थान के असंख्य भेद हैं। उनमें क्रोधादि के सत्ताईस और अस्सी भंग पाये जाते हैं । जहाँ नारकियों में २७ भंग-क्रोध, मान, माया, लोभ इस क्रम से कहे गये हैं, वहाँ देवों में इससे उल्टे कहना चाहिए अर्थात् लोभ, माया, मान, क्रोध, इस रोति से कहना चाहिए । देवों में पाये जाने वाले सत्ताईस भंग इस प्रकार हैं। असंयोगी १ भंग१. सभी लोभी. तिक संयोगी ६ मंग १. लोभी बहुत, मायी एक, २. लोभी बहुत, मायी बहुत, ३. लोभी बहुत, मानी एक, ४ लोभी बहुत, मानी बहुत, ५ लोभी बहुत, क्रोधी एक, ६ लोभी बहुत, क्रोधी बहुत। त्रिक संयोगी १२ भंग१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, २. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ पृथ्वीकायिक के स्थिति स्थान आदि २४९ ३, लोभी बहुत. मायी बहुन, मानी एक, ४. लोभी बहुत, मामी बहुत, मानी बहुत, ५ लोभी बहुत, मायी एक, क्रोधी एक, ६ लोभी बहुत, मायी एक, क्रोधी बहुत, ७. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी एक, ८. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी बहुत, ९. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक, १०, लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत, ११. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी एक, १२. लोभी बहुत, मानीं बहुत, क्रोधी बहुत ।। • चतुःसंयोगी ८ भंग १. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी एक, २. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी बहुत, ३. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी एक, ४. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी बहुत, ५. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक, ६. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत, ७. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी एक, ८. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत ।। इन सत्ताईस ही भंगों में 'लोम' शब्द को बहुवचनान्त ही रखना चाहिए। . नारकी जीवों में और असुरकुमारादि में जो भेद है.उसको जानकर प्रश्नसूत्र और उत्तरसूत्र कहना चाहिए । असुरकुमारादि असंहननी-संहनन रहित हैं । उनके शरीर संघात रूप से जो पुद्गल परिणमते हैं, वे इष्ट और सुन्दर होते हैं । उनके भवधारणीय शरीर का संस्थान ‘समचतुरस्र' होता है और उत्तरवैक्रिय रूप शरीर किसी एक संस्थान में संस्थित होता है । असुरकुमारादि में कृष्ण, नील, कापोत और तेजो ये चार लेश्याएँ होती है। असुरकुमारादि के भवनों की संख्या पहले बताई जा चुकी है। असुरकुमारों के चौसठ लाख भवन हैं. नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं। सुवर्णकुमारों के बहत्तर लाख भवन हैं । विद्युतकुमार आदि छह के प्रत्येक के छहत्तर लाख छहत्तर लाख भवन है और पवनकुमारों के छयानवें लाख भवन हैं, तदनुसार ही प्रश्नसूत्र और उत्तरसूत्र कहना चाहिए। पृथ्वीकायिक के स्थितिस्थानादि १९१ प्रश्न-असंखिज्जेसु णं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेमु एगमेगसि पुढविकाहयावासंसि पुढविक्काइयाणं केवइया For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० भगवती सूत्र - १ उ. ५ पृथ्वीकायिक के स्थितिस्थानादि ठितिट्ठाणा पण्णत्ता ? १९१ उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जा ठितिट्टाणा पण्णत्ता । तं जहाः - जहन्निया ठिई जाव - तप्पा उग्गुव कोसिया ठिई | १९२-असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि जहणियाए ठितिए वट्टमाणा पुढविक्काइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता लोभोवउत्ता ? १९२ उत्तर - गोयमा ! कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि, मायोवउत्ता वि, लोभोवउत्ता वि । एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं । नवरं तेउलेस्साए असीतिभंगा, एवं आउनकाइया वि । तेउक्काइया, वाउक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं । वणस्संहकाइया जहा पुढविक्काइया । विशेष शब्दों के अर्थ - असंखिज्जेसु - असंख्यात में 1 भावार्थ - १९१ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक एक आवास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थितिस्थान कहे गये हैं ? • १९१ उत्तर - हे गौतम ! उनके असंख्य स्थितिस्थान कहे गये हैं । यथाउनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि यावत् उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति । .१९२ प्रश्नन - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के असंख्यात लाख आवासों में से एक एक आवास में बसने वाले और जघन्य स्थिति में वर्तमान पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त है ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ पृथ्वीकायिक के स्थितिस्थानादि २५१ १९२ उत्तर--हे गौतम ! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, मानोपयुक्त भी हैं, मायोपयुक्त भी है और लोभोपयुक्त भी हैं । इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानों में अभंगक है। विशेष यह है कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहना चाहिये। इसी प्रकार अप्काय के लिये भी जानना चाहिये । तेउकाय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है। वनस्पतिकायिक को पृथ्वीकायिक के समान समझना चाहिए। विवेचन-एक एक कषाय में उपयुक्त बहुत से पृथ्वीकायिक होते हैं, इसलिए स्थितिस्थान आदि दस ही द्वारों में 'अभंगक' समझना चाहिए । पृथ्वीकायिक सम्बन्धी लेण्या द्वार में तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहना चाहिए। क्योंकि जब कोई एक देव या बहुत से देव, देवलोक से चव कर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तब पृथ्वीकायिक जीवों में तेजोलेश्या होती है और उनके एकत्वादि के कारण अस्सी भंग होते हैं। . पृथ्वीकायिकों के स्थितिस्थान द्वार का कथन ऊपर किया गया है । बाकी द्वारों का वर्णन नारकियों की तरह कहना चाहिए, किन्तु शरीरादि सात द्वारों में भेद है, वह इस प्रकार है-पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तेजस् और कार्मण । पृथ्वोकायिक जीवों के शरीर संघात रूप में मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकार के पुद्गल परिणमते हैं । उनका संस्थान हुण्डक होता है। नैरयिकों में भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय ऐसे शरीर के दो भेद कहे थे, वे पृथ्वीकायिकों में नहीं कहना चाहिए । पृथ्वीकायिकों में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या, ये चार लेश्याएँ होती हैं । तीन लेश्याओं में अभंगक समझना चाहिये और तेजोलेश्या में अस्सी भंग होते हैं । पृथ्वीकायिक जीव एकान्त मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होते हैं, उनमें मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान, ये दो अज्ञान पाये जाते हैं। पृथ्वीकायिकों में सिर्फ एक काययोग होता है। उनमें मनयोग और वचन योग नहीं होता है। . . पृथ्वीकायिकों के समान अप्कायिकों का कथन कहना चाहिए । दस ही द्वारों में • वे अभंगक है, एक तेजोलेश्या में अस्सी भंग होते हैं, क्योंकि अप्काय में भी देव उत्पन्न . . तेउकाय और वायुकाय का कथन पृथ्वीकाय के समान कहना चाहिए । इनमें दस ही द्वारों में अभंगक कहना चाहिए । इनमें देव उत्पन्न नहीं होते, इसलिए तेजोलेश्या नहीं For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ भगवती सूत्र---- ---- श. १ उ. ५ बेइन्द्रियादि के स्थिति आदि होती और तत्सम्बन्धी अस्सी भंग भी नहीं होते हैं । वायुकाय के चार शरीर होते हैंऔदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण । वनस्पतिका का वर्णन पृथ्वीकाय के समान कहना चाहिए। ये दस ही द्वारों में अभंगक हैं । इनमें देव आकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए तेजोलेश्या पाई जाती है और तत्सम्बन्धी अस्सी भंग भी पायें जाते हैं । यहां यह शंका की जा सकती है कि कर्मग्रन्थ के मतानुसार पृथ्वीकाय, अटकाय और वनस्पतिकाय, इन तीनों में 'सास्वादन सम्यक्त्व' माना गया है । जब इनमें सास्वादन सम्यक्त्व माना गया है, और इसके साथ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी माना गया है; तब इनमें सम्यग्दृष्टि, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अस्सी भंग भी होंगे, उनका कथन यहां पर नहीं किया गया है ? समाधान - उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि पृथ्वीकायादि स्थावरकाय में सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता है। इसलिए यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया गया है। कहा भी है उभयाभावो पुढवाइए । विगलेसु होज्ज उबवण्णोति ॥ अर्थात् - पृथ्वीकायादि तीन में उभयाभाव होता है अर्थात् प्रतिपद्यमान और पूर्व प्रतिपन्न, इस दोनों सम्यक्त्व का अभाव होता है । विकलेन्द्रियों में पूर्वोपपन्नक होते हैं । तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकायादि में रहा हुआ कोई भी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता और पूर्व प्राप्त सम्यक्त्व को साथ लेकर भी कोई जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होता । विकलेन्द्रियों में रहा हुआ जीव, पूर्व प्राप्त : सम्यक्त्व को साथ लेकर आता है, इसलिए वह पूर्वोपपन्नक कहलाता है + बेन्द्रियादि के स्थिति आदि १९३ - बेइन्दिय -तेइंदिय - चउरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरह + यद्यपि टीकाकार ने यह बात कही है कि 'पृथ्वीकायिकादि में सास्वादन सम्यक्त्व आदि अत्यन्त स्वल्प समय होता है, किन्तु यह बात शास्त्र संगत नहीं है। जैसाकि - 'उभयाभावो पुढवाइएसु' गाथा से स्पष्ट हैं । और मूलपाठ तथा श. २४ उ. १२ और प्रज्ञापनादि के मूल पाठ से भी यही सिद्ध होता है । अतएव पृथ्व्यादि स्थावरकाय में सास्थादन सम्यक्त्व मानना उचित नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १. उ ५ बेइन्द्रियादि के स्थिति आदि याणं असीहभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइं चेव । नवरं अब्भहिया सम्मत्ते, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे य एएहिं असीहभंगा । जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं । विशेष शब्दों के - अमहिया - अधिक । भावार्थ - १९३ - जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गये 'हैं, उन स्थानों में बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं । विशेषता यह है कि सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान) और श्रुतज्ञान, इन तीन स्थानों में भी बेइन्द्रियादि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, यह बात नैरयिक जीवों से अधिक है । तथा जिन स्थानों में नारकी जीवों में सत्तांईस भंग कहे गये हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक है अर्थात् कोई भंग नहीं होते हैं । २५३ विवेचन - नारकी जीवों के प्रकरण में संख्यात समय अधिक तक जघन्य स्थिति में, जघन्य अवगाहना में, संख्यात प्रदेश अधिक तक जघन्य अवगाहना में और मिश्रदृष्टि में अस्सी गंग कहे हैं । यहाँ विकलेन्द्रियों (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चोइन्द्रिय जीवों) के सम्बन्ध में भी इन स्थानों में अस्सी भंग ही समझना चाहिये, क्योंकि विकलेन्द्रिय जीवों में भी इन स्थानों में जीव अल्प होते हैं, अतएव उनमें एक एक जीव भी कदाचित् क्रोधादि उपयुक्त हो सकता है । मिश्रदृष्टि वालों के अस्सी भंग यहाँ नहीं कहना चाहिए, इसका कारण यह है कि विकलेन्द्रियों में मिश्रदृष्टि जीव नहीं होते । दृष्टिद्वार और ज्ञानद्वार में नारकी जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, किन्तु यहाँ अधिक अर्थात् अस्सी भंग कहना चाहिए। क्योंकि बहुत थोड़े विकलेन्द्रियों को सास्वादन . सम्यक्त्व होता है और बहुत थोड़े होने के कारण एकत्व सम्भव है । इस प्रकार एकत्व संभव होने के कारण अस्सी भंग कहे गये है । यही बात आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान ) और श्रुतज्ञान के लिए भी समझना चाहिए, इनमें भी अस्सी भंग कहना चाहिए । नारकी जीवों के सम्बन्ध में जिन जिन स्थानों में सत्ताईस भंग बतलाये गये हैं, उन उन स्थानों में विकलेन्द्रियों के सम्बन्ध में अभंगक अर्थात् भंगों का अभाव कहना चाहिए । अभंगक कहने का कारण यह है कि विकलेन्द्रिय जीवों में क्रोधादि उपयुक्त जीव एक साथ For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ पञ्चेन्द्रियादि के स्थिति आदि . बहुत पाये जाते हैं। विकलेन्द्रिय सम्बन्धी कथन पृथ्वीकायिक की तरह कहना चाहिए, परन्तु लेश्या .. द्वार में तेजोलेश्या नहीं कहना चाहिए । विकलेन्द्रिय जीव-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होते. है। सम्यग्दृष्टि में अस्सी भंग कहना चाहिए। विकलेन्द्रिय जीव मिश्रदृष्टि नहीं होते। विकलेन्द्रिय जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं । ज्ञानी में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान पाये जाते हैं और इनमें अस्सी भंग होते हैं । अज्ञानी में मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान ये दो अज्ञान होते हैं और इनमें अभंगक है। विकलेन्द्रियों में काययोग और वचनयोग ये दो योग होते हैं, मनोयोग नहीं होता। बाकी सब पहले की तरह करना चाहिए। __१९४-पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा भाणियव्वा । नवरं-जेहिं सत्तावीसं भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं । जत्थ असीति तत्थ असीतिं चेव । - विशेष शब्दों के अर्थ-पंचिदियतिरिक्खजोणिया-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक । भावार्थ-१९४-जैसा नारको जीवों के विषय में कहा गया है, वैसा ही पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों के विषय में भी समझना चाहिए। विशेषता यह है कि नारकी जीवों के सम्बन्ध में जिन जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहना चाहिए और जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों में भी अस्सी भंग कहना चाहिए। विवेचन-तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों के विषय में नारकी जीवों के समान प्ररूपणा समझना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि नरयिकों में जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में यहां अभंगक कहना चाहिए । क्योंकि क्रोधादि उपयुक्तं पञ्चेन्द्रिय . तिर्यञ्च एक ही साथ बहुत पाये जाते हैं । नारकी जीवों में जहां अस्सी भंग कहे हैं वहां इसमें भी अस्सी भंग कहना चाहिए। तियंञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों में चार शरीर होते हैं-औदारिक, वैक्रियक, तंजस और For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ मनुष्य के स्थिति आदि . २५५ कार्मण । उन में वज्रऋषभनाराचादि छह महनन, समचतुरस्र आदि छह संस्थान और कृष्णादि छहों लेश्याएँ होती हैं । मनुष्य के स्थिति प्रादि १९५-मणुस्सा वि जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीतिभंगा तेहिं. ठाणेहिं मणुस्साणं वि असीतिभंगा भाणियव्वा । जेसु ठाणेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं । नवरं-मणुस्साणं अब्भहियं जहणियठिइए, आहारए य असीति भंगा। विशेष शब्दों के अर्थ-अमहियं-अधिक । भावार्थ-१९५-नारको जीवों में जिन जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे. गये हैं, उन उन स्थानों में मनुष्यों में भी अस्सी भंग कहना चाहिए । वारको जीवों में जिन जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं उन.उन स्थानों में मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए । विशेषता यह है कि मनुष्यों में जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग कहना चाहिए। विवेचन-पहले नारकी जीवों का दस द्वारों से वर्णन किया जा चुका है। उनमें से जिन जिन द्वारों में नारकियों के अस्सी भंग कहे हैं, उन उन द्वारों में मनुष्य के सम्बन्ध में भी अस्सी भंग ही समझना चाहिए। एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्यात समय अधिक तक की जघन्य स्थिति में, जघन्य अवगाहना में, तथा एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना से ले कर संख्यात प्रदेश अधिक तक की जघन्य अवगाहना में और मिश्रदृष्टि में जिस प्रकार नारकी जीवों के विषय में अस्सी भंग कहे हैं, उसी प्रकार इन द्वारों में मनुष्यों के विषय में भी अस्सी ही भंग समझना चाहिए, क्योंकि ऐसे मनुष्य कम होते हैं । नारकी जीव और मनुष्य सम्बन्धी प्ररूपणा में इतना अन्तर है कि-जिन स्थानों में नारकियों के सत्ताईस भंग बतलाए हैं, वहाँ मनुष्य में अभंगक समझना चाहिए । इसका कारण यह है कि नारकी जीवों में अधिकांशतः क्रोध का ही उदय होता है, इस कारण नारकियों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, किन्तु मनुष्य क्रोधादि सभी कषायों में उपयुक्त बहुत जीव पाये जाते हैं और उनके कषायोदय में कोई खास विशेषता नहीं है इसलिए For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६. भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ वाणव्यन्तरादि के स्थिति आदि । + + + + + मनुष्य के सम्बन्ध में अभंगक (भंगों का अभाव) बतलाया गया है। __ मनुष्य की प्ररूपणा में इतनी बात नरयिकों से अधिक समझना चाहिए;-नारकियों के जघन्य स्थिति में सत्ताईस भंग होते हैं, किन्तु मनुष्यों की जघन्य स्थिति में अस्सी भंग होते हैं । मनुष्यों में आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, क्योंकि आहारक शरीर वाले मनुष्य कम ही होते हैं और नैरयिक जीवों में तो आहारक शरीर होता ही नहीं। .. __ मनुष्यों के छह संस्थान, छह संहनन और छह लेश्याएं होती हैं । मनुष्यों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान, ये पांचों ज्ञान होते हैं । इनमें से चार ज्ञानों में अभंगक कहना चाहिए। केवलज्ञान में किसी भी कषाय का उदय नहीं होता है। वाणव्यन्तरादि के स्थिति आदि १९६-चाणमंतर-जोइस-चेमाणिया जहा भवणवासी। णवरंणाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स, जाव-अणुत्तरा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ । ॥ पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-वाणमंतर-वाणव्यन्तर देव, जोइस-ज्योतिषी देव, वेमाणिया-वैमानिक देव। भावार्थ-१९६-वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन भवनपति देवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि-जिसको जो भिन्नता है वह जानना चाहिए, यावत् अनुत्तर विमान तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-पहले भवनपति देवों का वर्णन दस द्वारों से किया गया है, उसी वर्णन के अनुसार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का वर्णन समझना चाहिए । भवन- . For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ५ वाणव्यन्तरादि के स्थिति आदि पति देवों में जहाँ अस्सी भंग कहे हैं, वहाँ अस्सी भंग और जहाँ संत्ताईस मंग कहे हैं, वहाँ सत्ताईस भंग वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों में भी समझना चाहिए । भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का वर्णन एक समान हैं, किन्तु ज्योतिषी और वैमानिकों में कुछ अन्तर है । यह बात प्रकट करने के लिए ही कहा गया है कि - जिसमें जहाँ जो विशेषता हो वह जानना चाहिए, जैसा कि लेश्या द्वार में ज्योतिषी देवों में केवल एक तेजोलेश्या ही पाई जाती है। ज्ञान द्वार में नियमपूर्वक तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान पाये जाते हैं। क्योंकि असंज्ञी जीव ज्योतिषी देवों में उत्पन्न नहीं होते, अतएव वहाँ अपर्याप्त अवस्था में भी विभंग ज्ञान होता है । वैमानिक देवों में भी लेश्याद्वार में भवनपति देवों से कुछ भिन्नता है । वैमानिक देवो में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्याएँ ही पाई जाती हैं । इसी प्रकार ज्ञान द्वार में नियम पूर्वक तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान कहना चाहिए । ॥ प्रथम शतक का पांचवां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only २५७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ सूर्य के उदयास्त दृश्य की दूरी . शतक १ उद्देशक ६ सूर्य के उदयास्त दृश्य को दूरी १९७ प्रश्नं-जावइयाओ यणं भंते ! उवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, अस्थमंते वि य णं मूरिए तावइयाओ चेव उवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति ? १९७ उत्तर-हंता, गोयमा ! जावइयाओ णं उवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं...., अस्थमंते वि सूरिए जाव-हव्व: मागच्छति । . १९८ प्रश्न-जावइया णं भंते ! खित्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सवओ समंता ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेह, अस्थमंते वि. य णं सूरिए तावइयं चेव खित्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ ? ____ १९८ उत्तर-हंता, गोयमा ! जावइयं णं खेतं जाव-पभासेइ। १९९ प्रश्न-तं भंते ! किं पुटुं ओभासेइ, अपुटुं ओभासेइ ? १९९ उत्तर-जाव-दिसि ओभासेइ । एवं उज्जोवेह, तवेइ, . पभासेइ, जाव-नियमा छदिसि । २०० प्रश्न-से गूणं भंते ! सव्वं ति सव्वावंति फुसमाणकाल For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ सूर्य के उदयास्त दृश्य की दूरी समयंसि जावइयं खेत्तं फुसइ तावइयं 'पुंसमाणे पुट्टे' त्ति वत्तव्वं सिया ? २०० उत्तर - हंता, गोयमा ! सव्वं ति जाव वत्तव्वं सिया । २०१ प्रश्न- तं भंते! किं पुहुं फुसइ अपुढं फुसइ ? २०१ उत्तर - जाव - नियमा छद्दिसिं । विशेष शब्दों के अर्थ-उबासंतराओ - अवकाशान्तर से उदयंते-उदय होता हुआ, चक्खुप्फासं-चक्षुःस्पर्श - नजर आना, आयवेणं- आतप से - धूप से, ओमासेइ - प्रकाशित करता है, उज्जोएइ - उद्योत करता है, तवेह तपता है, पभासेइ - खूब तपाता है, अत्थमंते-अस्त होता हुआ, पुट्ठे-स्पृष्ट, अपुट्ठे-अस्पृष्ट, छद्दिस - छह दिशाएँ, फुसइ - स्पर्श करता है । २५९ भावार्थ - १९७ प्रश्न - हे भगवन् ! जितने अवकाशान्तर से अर्थात् जितनी दूरी से उगता हुआ सूर्य शीघ्र आँखों से देखा जाता है, क्या उतनी ही दूरी से अस्त होता हुआ सूर्य भी शीघ्र दिखाई देता है ? : १९७ उत्तर - हाँ, गौतम ! जितनी दूरी से उगता हुआ सूर्य शीघ्र दिखाई देता है, उतनी ही दूरी से अस्त होता हुआ सूर्य भी शीघ्र आँखों से दिखाई देता है । १९८ प्रश्न - हे भगवन् ! उगता हुआ सूर्य अपने ताप द्वारा जितने क्षेत्र को सब प्रकार चारों ओर से सभी दिशाओं और विदिशाओं में प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है और खूब तपाता है । क्या उतने ही क्षेत्र को अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने ताप द्वारा सभी दिशाओं और सभी विदिशाओं को प्रकाशित करता है ? उद्योतित करता है ? तपाता है ? खूब उष्ण करता है ? १९८ उत्तर - हाँ, गौतम ! उगता हुआ सूर्य जितने क्षेत्र को प्रकाशित करता है, उतने ही क्षेत्र को अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने ताप द्वारा प्रकाशित करता है यावत् खूब उष्ण करता है ? १९९ प्रश्न - हे भगवन् ! सूर्य जिस क्षेत्र को प्रकाशित करता हैं, क्या वह क्षेत्र सूर्य से स्पृष्ट- स्पर्श किया हुआ होता है या अस्पृष्ट होता है ? For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ सूर्य के उदयास्त दृश्य की दूरी १९९ उत्तर - हे गौतम! वह क्षेत्र सूर्य से स्पृष्ट होता हैं और यावत् उस क्षेत्र को छहों दिशाओं में प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता 'है और खूब तपाता है । यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं में खूब तपाता है । २०० प्रश्न - हे भगवन् ! सूर्य स्पर्श करने के काल - समय से सूर्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले जितने क्षेत्र को सब दिशाओं में सूर्य स्पर्श करता है, क्या 'वह क्षेत्र 'स्पृष्ट' कहा जा सकता है ? २०० उत्तर - हाँ, गौतम ! सर्व यावत् 'वह स्पृष्ट है' ऐसा कहा जा सकता है । २०१ प्रश्न - हे भगवन् ! सूर्य स्पष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? या अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? २०१ उत्तर - हे गौतम! सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है, यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं में स्पर्श करता है । विवेचन - पांचवें उद्देशक के अन्त में आँखों से दिखाई देने वाले ज्योतिषी देवों के विमानावासों का वर्णन किया था। अब उन्हीं से सम्बन्धित बात को बतलाते हुए तथा इस शतक की प्रथम संग्रह गाथा में 'जावंते' यह पद आया है इसको बतलाते हुए छठे उद्देशक का प्रारम्भ किया गया है। गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि हे भगवन् ! उगता हुआ सूर्य जितनी दूर से आंखों से दिखाई देता है, क्या डूबता हुआ सूर्य भी उतनी ही दूर से आंखों से दिखाई देता है ? भगवान् ने फरमाया कि हाँ, गौतम ! उगता हुआ सूर्य जितनी दूर से आंखों से दिखाई देता है, डूबता हुआ सूर्य भी उतनी ही दूरी से आँखों से दिखाई देता है । सूर्य के १८४ मण्डल कहे गये है। कर्क की संक्रान्ति में सूर्य सर्वाभ्यन्तर ( सब से पीछे वाले) मण्डल में भ्रमण करता है । उस समय वह भरत क्षेत्र में रहने वालों को साधिक ४७२६३ योजन दूरी से दिखता है । मूलपाठ में 'चक्खुप्फासं' शब्द दिया गया है, जिसका सीधा शब्दार्थ है- 'चक्षु का स्पर्श होना' । किन्तु इसका अर्थ है - 'चक्षु द्वारा दिखाई देना' । चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। वह अपने विषय 'रूप' को छुए बिना ही दूर से देख लेती है। स्पर्श होने पर तो वह अपने में रहे हुए काजल को भी नहीं देख पाती, फिर For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ लोकान्त स्पर्शना आदि २६१ औरों की तो बात ही क्या है ? चक्षु इन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी है । वे अपने ग्राह्य विषय को प्राप्त करके ही जानती हैं । हुआ सूर्य जितने लम्बे चौड़े ऊंचे और गहरे क्षेत्र को प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है और खूब तपाता है, उतने ही क्षेत्र को डूबता हुआ सूर्य भी प्रकाशित आदि करता है । इस प्रश्नोत्तर में 'ओभासइ, उज्जोएइ, तवेइ और पभासेइ' ये चार क्रियापद आये हैं । जिनका अर्थ यह है- 'ओभासइ - अवभासयति' अर्थात्-थोड़ा प्रकाशित होता है । प्रातः काल में पहले सूर्य की थोड़ी सी ललाई नजर आती है, उस समय सूर्य का मण्डल दिखाई नहीं देता है। सूर्य के उस प्रकाश को 'अवभास' कहते हैं । उस समय स्थूलतर वस्तुएँ ही दिखाई देती हैं। सुबह और शाम के जिस प्रकाश में स्थूल ( बड़ी बड़ी ) वस्तुएँ ही दिखाई देती हैं, सूर्य के उस प्रकाश को 'उद्योत' कहते हैं। उस समय बड़ी बड़ी वस्तुओं का प्रकाशित होना उद्योतित होना कहलाता है । 'तवेइ' का अर्थ है - तपता है, शीत को दूर करता है, अथवा यह ताप ऐसा होता है जिससे चींटी आदि छोटे छोटे प्राणी भी स्पष्ट दिखाई देते हैं । 'पभासेइ - प्रभासयति' अर्थात् खूब तपता है, अत्यन्त ताप होने से शीत को विशेष रूप से दूर करता है तथा यह ताप ऐसा होता है जिससे छोटी से छोटी वस्तु भी दिखाई देती है । सूर्य जिस क्षेत्र को अवभासित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है, खूब तपाता है, उस क्षेत्र को स्पर्श करके अवगाहन करके अवभासित आदि करता है । अनन्तरावगाढ़ को अवभासित आदि करता है, किन्तु परम्परावगाढ़ को नहीं । अणु, बादर, ऊपर, नीचे, तिरछा, आदि, मध्य और अन्त आदि सब क्षेत्र को अवभासित आदि करता है । वह स्वविषय में अवभासित होता है, परविषय में नहीं, क्रमपूर्वक अवभासित होता है, अक्रमपूर्वक नहीं । वह छहों दिशाओं को अवभासित आदि करता है। सूर्य जिस क्षेत्र को स्पर्श करने लगा, “चलमाणे चलिए' के सिद्धान्तानुसार 'स्पृष्टस्पर्श किया हुआ' ऐसा कहा जा सकता है । लोकान्त स्पर्शना आदि २०२ प्रश्न—लोयंते भंते!अलोयंतं फुसइ, अलोयंते वि लोयंतं For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ भगवती मूत्र-श. १ उ. ६ लोकान्त स्पर्शना आदि फुसइ ? २०२ उत्तर-हंता, गोयमा ! लोयंते अलोयंत फुसइ, अलोयंते वि लोयंतं फुसइ। २०३ प्रश्न-तं भंते ! किं पुढे फुसइ, अपुढे फुसइ ? - २०३ उत्तर-जाव-नियमा छदिसि फुसइ । २०४ प्रश्न-दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ, सागरते वि दीवंतं फुसइ ? २०४ उत्तर-हंता, जाव-नियमा छद्दिसिं फुसइ । . २०५ प्रश्न-एवं एएणं अभिलावेणं-उदयंते पोयतं फुसइ, छिद्दन्ते दूसतं, छायंते आयवंतं.....! २०५ उत्तर-जाव-नियमा छदिसि फुसइ । विशेष शब्दों के अर्थ-फूसइ-स्पर्श करता है, लोयंते लोकान्त, अलोयंतेअलोकान्त, पुढें-स्पृष्ट, दीवंते-द्वीपान्त, अभिलावेणं-अभिलाप से, उदयंते-उदकांत, जल का अन्तिम भाग, पोयंते-पोतान्त-जहाज का अन्तिम भाग, छिदंते-छिद्रान्त-छेद का अन्त, दुसंतं-वस्त्र का अन्त, छायंते-छाया का अन्त, आयवंतं-आतपान्त-धूप का अन्तिम भाग । भावार्थ-२०२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या लोक का अन्त (किनारा) अलोक के अन्त को स्पर्श करता है ? क्या अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है ? २०२ उत्तर-हाँ, गौतम ! लोक का अन्त, अलोक के अन्त को और अलोक का अन्त, लोक के अन्त को स्पर्श करता है। ___ २०३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो स्पर्श किया जा रहा है क्या वह स्पृष्ट हे ? या अस्पृष्ट है ? For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ लोकान्त स्पर्शना आदि - २६३ २०३ उत्तर-हे गौतम ! यावत् छहों दिशाओं में स्पृष्ट होता है। २०४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या द्वीप का अन्त (किनारा) समुद्र के अन्त को और समुद्र का अन्त, द्वीप के अन्त को स्पर्श करता है ? ___२०४ उत्तर-हां, गौतम ! यावत् नियम से छहों दिशाओं को स्पर्श करता है। २०५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या इसी प्रकार इसी अमिलाप से पानी का : किनारा, पोत (नौका-जहाज) के किनारे को स्पर्श करता है ? क्या छेद का किनारा, वस्त्र के किनारे को स्पर्श करता है ? और क्या छाया का किनारा, आतप (धूप) के किनारे को स्पर्श करता है ? २०५ उत्तर-हां, गौतम ! यावत् नियम पूर्वक छहों दिशाओं को स्पर्श. करता है। . विवेचन-गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! क्या लोक के अन्त ने अलोक को और अलोक के अन्त ने लोक को स्पर्श कर रखा है ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! स्पर्श कर रखा है और छहों दिशाओं में स्पर्श कर रखा है। जिस आकाश के साथ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, ये चारों अस्तिकाय होते हैं, उसे लोक कहते हैं और जिस आकाश के साथ ये चारों नहीं है, किन्तु केवल आकाश ही आकाश है वह 'अलोक है । तात्पर्य यह है कि पूर्ण ज्ञानियों ने आकाश सहित पांचों अस्तिकाय जहां विद्यमान देखें, उसे 'लोक' संज्ञा दी और जहां केवल आकाश देखा, उस भाग को 'अलोक' संज्ञा दी। काल का व्यवहार भी लोक में ही होता है, अलोक में नहीं। . . लोक और अलोक दोनों की सीमा मिली हुई है अर्थात् दोनों का अन्त एक दूसरे को स्पर्श करता है । इस प्रकार लोक का अन्त, अलोक के अन्त से और अलोक का अन्त, लोक के अन्त से छहों दिशाओं में स्पृष्ट है। _ सागर का अन्त, द्वीप के अन्त को और द्वीप का अन्त, सागर के अन्त को स्पर्श करता है । जैसे-जम्बूद्वीप का अन्त, लवण समुद्र से और लवण समुद्र का अंत जम्बूद्वीप से : मिला हुआ है। इसी प्रकार सब द्वीप समुद्रों का परस्पर स्पर्श है और वह स्पर्श छहों दिशाओं से हैं। For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ क्रिया विचार यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि द्वीप और समुद्रों का अन्त छहों दिशाओं में कैसे स्पर्श करता है ? इसका समाधान यह है कि-सब द्वीपों की और सब समुद्रों की गहराई एक हजार योजन होती है । इसलिए द्वीपों और समुद्रों का अन्त एक दूसरे से नीचे भी स्पर्श करता है, बीच में भी स्पर्श करता है और ऊपर भी स्पर्श करता है । चारों तरफ चारों दिशाओं की स्पर्शना तो स्पष्ट ही है। इस प्रकार छहों दिशाओं में स्पर्शना होती है। . इस विषय में धूप और छाया, वस्त्र और छिद्र आदि के दृष्टान्त भी दिये गये हैं। . धूप का अन्त, छाया के अन्त को और छाया का अन्त, धूप के अन्त को स्पर्श करता है । इसी प्रकार वस्त्र का अन्त. छिद्र के अन्त को और छिद्र का अन्त. वस्त्र के अन्त को स्पर्श करता है और वह छहों दिशाओं में स्पर्श करता है। क्रिया विचार २०६ प्रश्र-अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया कज्जइ ? २०६ उत्तर-हंता, अत्थि। .. २०७ प्रश्न-सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? . .. २०७ उत्तर-जाव-णिव्वाघाएणं दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसिं । २०८ प्रश्न-सा भंते ! किं कडा कजइ ? अकडा कजइ ? २०८ उत्तर-गोयमा ! कडा कजइ, णो अकंडा कज्जइ । २०९ प्रश्न-सा भंते ! किं अत्तकडा कजइ ? परकडा कज्जइ ? तदुभयकडा कजइ ? २०९ उत्तर-गोयमा ! अत्तकडा कजइ, णो परकडा कज्जइ, For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ क्रिया विचार नो तदुभयकडा कजइ। - २१० प्रश्न-सा भंते ! किं आणुपुब् िकडा कजइ ? अणाणुपुल्विं कडा कजइ ? ___२१० उत्तर-गोयमा ! आणुपुट्विं कडा कजइ, णो अणाणुपुचि कडा कजइ । जा य कडा कजइ, जा य कजिस्सइ सव्वा सा आणुपुस्विकडा, णो अणाणुपुब्विकड त्ति वत्तव्वं सिया।। २११ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवायकिरिया कजइ ? २११ उत्तर-हंता, अस्थि । .. २१२ प्रश्न-सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? .. २१२ उत्तर-जाव-नियमा छदिसिं कजइ । २१३ प्रश्न-सा भंते ! किं कडा कजइ ? अकडा कज्जइ ? - २१३ उत्तर-तं चेव जाव-णो अणाणुपुग्विं कड त्ति वत्तव्वं . सिया। - २१४-जहा णेरड्या तहा एगिदियवजा भाणियब्वा जाववेमाणिया । एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा । २१५-जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए, तहा अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे जाव-मिच्छादसणसल्ले । एवं एए अट्ठारस चउवीस दंडगा भाणियव्वा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ क्रिया विचार गोयमे समणं भगवं जाव-विहरइ । विशेष शब्दों के अर्थ-पाणाइवाए-प्राणातिपात, णिव्वाधाएणं-निर्व्याघात रूप से, पडुच्च-प्रतीत्य-अपेक्षा से, अत्तकडा-आत्मकृत, परफडा-परकृत, आणुपुषि-आनुपूर्वी अनुक्रम से, अणाणपुग्वि-अनानुपूर्वी अनुक्रम के बिना, वत्तव्वं सिया-कहना चाहिए, मुसावाएमृषावाद, अदिण्णादाणे-अदत्तादान, मेहुणे-मैथुन, मिच्छादसणसल्ले-मिथ्यादर्शन शल्य । .. भावार्थ-२०६ प्रश्न हे भगवन् ! क्या जीवों द्वारा प्राणातिपात क्रिया की जाती है ? २०६ उत्तर-हाँ, गौतम ! की जाती है। २०७ प्रश्न-हे भगवन् ! को जाने वाली वह क्रिया क्या स्पृष्ट है ? या अस्पृष्ट है ? २०७ उत्तर-हे गौतम ! यावत् व्याघात न हो, तो छहों दिशाओं को और व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को और कदाचित् पांच दिशाओं को स्पर्श करती है। २०८ प्रश्न--हे भगवन् ! की जाने वाली क्रिया क्या 'कृत' है ? या २०८ उत्तर-हे गौतम ! वह क्रिया कृत है, अकृत नहीं। २०९ प्रश्न-हे भगवन् ! को जाने वाली क्रिया क्या आत्मकृत है ? या परकृत है ? या तदुभयकृत है ? २०९ उत्तर-हे गौतम ! वह आत्मकृत है, किन्तु परकृत या उभयकृत नहीं है। • २१० प्रश्न-हे भगवन् ! जो क्रिया की जाती है क्या वह अनुक्रम पूर्वक कृत है या बिना अनुक्रम से कृत है ? २१० उत्तर-हे गौतम ! वह अनुक्रमपूर्वक कृत है, किन्तु बिना अनुक्रमकृत नहीं है । जो क्रिया की जा रही है तथा की जायगी वह सब अनुक्रमपूर्वक कृत है, किन्तु बिना अनुक्रमपूर्वककृत नहीं है । ऐसा कहना चाहिए। - २११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिकों द्वारा प्राणातिपात क्रिया की For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ क्रिया विचार । २६७ जाती है ? २११ उत्तर-हाँ, गौतम ! की जाती है। २१२. प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिकों द्वारा जो क्रिया की जाती है, क्या वह स्पृष्ट है ? या अस्पृष्ट है ? - २१२ उत्तर-हे गौतम ! वह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं में की जाती है। २१३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो क्रिया की जाती है, क्या वह कृत है ? या अकृत है ? .. २१३ उत्तर-हे गौतम ! वह पहले की तरह जानना चाहिये यावत् वह अनुक्रमपूर्वक कृत है, किन्तु अननुक्रमपूर्वक कृत नहीं हैं । ऐसा कहना चाहिए। २१४-नरयिकों के समान एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक सब दण्डकों में कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए। ... २१५-प्राणातिपात के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य तक अठारह ही पापों के विषय में कहना चाहिए। इस तरह अठारह पापस्थानों का कथन चौवीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर भगवान् गौतम, श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्पर्शना का अधिकार चल रहा है, इसलिए अब प्राणातिपात आदि पापस्थानकों से उत्पन्न होने वाली कर्म सम्बन्धी स्पर्शना के विषय में कहा जाता है। क्रिया शब्द का अर्थ इस प्रकार है-'क्रियते इति क्रिया-कर्म' । जो की जाय उसे क्रिया कहते हैं और क्रिया को 'कर्म' कहते हैं । यह क्रिया (कर्म) 'कृत' (की हुई) होती हैं किन्तु 'अकृत' (बिना की हुई) नहीं होती है । वह भी आत्मकृत होती है, किन्तु परकृत और तदुभयकृत नहीं होती है । वह भी आनुपूर्वीकृत होती है, किन्तु अनानुपूर्वीकृत नहीं होती है। अनुक्रम से गिनना आनुपूर्वी कहलाती है, जैसे कि-एक, दो, तीन, चार, पाँच इत्यादि । For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भगवती सत्र-श..उ.६ क्रिया विचार इस क्रम को एक दम उल्टा कर देना पश्चानुपूर्वी कहलाती है। जैसे कि-पांच, चार, तीन, दो, एक । एक दम उल्टा या एक दम सुल्टा क्रम न होना 'अनानुपूर्वी' कहलाती है, जैसे कि-दो, पांच, एक, चार, तीन आदि . . यह प्राणातिपात क्रिया. का समुच्चय विचार हुआ । नैरयिक जीवों के सम्बन्ध में सब प्रश्नोत्तर पूर्वोक्त सामान्य जीव के समान ही समझना चाहिए। किन्तु नारकी जीवों के सम्बन्ध में छहों दिशाओं का स्पर्श कहना चाहिए क्योकि त्रसनाड़ी में होने के कारण अलोक के अन्तर का व्याघात यहाँ नहीं होता है। एकेन्द्रिय जीवों के पांच दण्डकों को छोड़ कर शेष सब दण्डकों के सम्बन्ध में नारकी जीवों के समान ही कथन समझना चाहिए । एकेन्द्रिय जीवों में समुच्चय जीव की तरह छह दिशाओं का और तीन आदि दिशाओं का स्पर्श कहा गया है । एकेन्द्रिय जीवों को कदाचित् तीन दिशा की क्रिया भी लगती है, कदाचित् चार दिशा की और कदाचित् पांच दिशा की भी क्रिया लगती है तथा उत्कृष्ट छह दिशा की क्रिया लगती है। जिस प्रकार प्राणातिपात से क्रिया लगती है, उसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान आदि अठारह ही पापस्थानों से क्रिया लगती है । अठारह पापों में क्रोध, मान, माया, लोभ का नामोल्लेख कर देने पर भी राग और द्वेष का कथन अलग किया गया है । इसका कारण यह है कि जिस अप्रीति में क्रोध और मान दोनों का समावेश हो जाता है वह द्वेष कहलाता है । जिस प्रेम (आसक्ति) में माया और लोभ दोनों का समावेश हो जाता है वह 'राग' कहलाता है। . मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे 'अरति' कहते हैं और मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न विषयानुराग को 'रति' कहते हैं । लड़ाई झगड़े को 'कलह' कहते हैं । असद्भूत दोषों को प्रकट रूप में जाहिर करना 'अभ्याख्यान' कहलाता है । असद्भूत दोषों को गुप्त रूप से जाहिर करना, किसी की पीठ पीछे दोष प्रकट करना 'पैशुन्य' कहलाता है। दूसरे की बुराई करना, निन्दा करना 'परपरिवाद' कहलाता है। माया पूर्वक झूठ बोलना 'मायामृषावाद' है । दो दोषों के संयोग से यह पापस्थानक माना गया है । • नवकार मन्त्र की जो आनुपुर्वी पुस्तिका है उसमें १२० भंग (कोष्ठक) हैं। उनमें पहला भग मानुपूर्वी है, जो कि इस प्रकार हैं-|२|३||५| सब से अन्तिम अर्थात् एक सौ बीसवाँ भग (कोष्ठक) पश्चानुपूर्वी है । जो कि इस प्रकार है-1५||शश। इन दो भंगों को छोड़कर शेष ११८ भंग अनापूर्वी है । पहले भंग की अपेक्षा लेकर इसका नाम 'आनुपूर्वी' पुस्तिका है। . For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र---श. १ उ. ६ आय रोह के प्रश्न इसी प्रकार मान और मृषा इत्यादि के संयोग से होनेवाले पापों का भी इसी में अन्तर्भाव समझना चाहिए । वेष बदल कर लोगों को ठगना 'मायामृषा' है, ऐसा भी इसका अर्थ किया जाता है । 'मिथ्यादर्शनशल्य' श्रद्धा का विपरीत होना 'मिथ्यादर्शन' है । जैसे शरीर में चुभा हुआ शल्य सदा कष्ट देता है, इसी प्रकार मिथ्यादर्शन भी आत्मा को दुःखी बनाये रखता है । इसीलिए 'मिथ्यादर्शन' को शल्य कहा है। इस प्रकार गौतमस्वामी ने अठारह ही पापों के विषय में प्रश्न किये और भगवान् ने सब के उत्तर दिये अपने हृदय का समाधान करके गौतमस्वामी 'सेवं भंते ! सेवं भंते !!' कहकर और भगवान् को वन्दना नमस्कार करके तप संयम में लीनता युक्त विचरण करने लगे। . . आर्य रोह के प्रश्न । तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी रोहे णामं अणगारे पगंइभद्दए, पगइमउए, पगइविणीए, पगइउवसंते, पगइपयणुकोह-माण-माया-लोभे, मिउमद्दवसंपन्ने, अलीणे, भद्दए, विणीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणु, अहोसिरे, झाणकोट्ठोवगए संजमेणं, तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तए णं से रोहे अणगारे जायसड्ढे जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासीः- २१६ प्रश्न-पुब्वि भंते ! लोए, पच्छा अलोए ? पुचि अलोए, पच्छा लोए ? _____२१६ उत्तर-रोहा ! लोए य, अलोए य, पुब्धि पेते, पच्छा पेते-दो वि एए सासया भावा, अणाणुपुत्वी एसा रोहा ! . For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती. सूत्र - श. १ उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न २१७ प्रश्न - पुव्विं भंते ! जीवा, पच्छा अजीवा ? पुव्विं अजीवा पच्छा जीवा ? २७० २१७ उत्तर - जहेव लोए य, अलोए य; तहेव जीवा य, अजीवा । एवं भवसिद्धिया य, अभवसिद्धिया य, सिद्धि, असिद्धि । सिद्धा, असिद्धा । २१८ प्रश्न - पु िभंते! अंडए, पच्छां कुक्कुडी ? पुविं कुक्कुडी, पच्छा अंडए ? ' रोहा ! से णं अंडर कओ ?' भयवं ! कुक्कुडीओ ।' 'सा णं कुक्कुडी कओ ?' 'भंते ! अंडयाओ ।' २१८ उत्तर-एवामेव रोहा ! से य अँडए, सा य कुक्कुडी पुि पेते, पच्छा पेते- दुवेते सासया भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोहा ! २१९ प्रश्न - पुव्विं भंते! लोयंते, पच्छा अलोयंते ? पुि अलोयंते, पच्छा लोयंते ? २१९ उत्तर - रोहा ! लोयंते य, अलोयंते यः जाव- अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! २२० प्रश्न - पुवि भंते ! लोयंते, पच्छा सत्तमे उवासंतरे ? पुच्छा । २२० उत्तर - रोहा ! लोयंते य, सत्तमे उवासंतरे; पुवि पि दो वि एए, जाव - अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! एवं लोयंते य, सत्तमे य तणुवाए, एवं घणवाए, घणोदही, सत्तमा पुढवी । एवं लोयंते For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र---श. १ उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न २७१ एक्केकेणं संजोएयव्वे इमेहि ठाणेहिं, तं जहाः उवास-वाय-घणउदहि-पुढवी दीवा य सागरा वासा, नेरइयाई अस्थिय समया कम्माइं लेस्साओ ॥१॥ दिट्ठी देसण णाणा सण्ण सरीरा य जोग-उवओगे, दव्वपएसा पन्जव अद्धा किं पुटिव लोयन्ते ? ॥२॥ २२१ प्रश्न-पुचि भंते ! लोयंते, पच्छा सव्वद्धा ? २२१ उत्तर-जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते । एवं अलोयंते वि संजोएयव्वा सव्वे । - २२२ प्रश्न-पुटिव भंते ! सत्तमे उवासंतरे, पच्छा सत्तमे तणुवाए ? . - २२२ उत्तर-एवं सत्तमं उवासंतरं सव्वेहि समं संजोएयब्वं, जाव-सव्वद्धाए। __२२३ प्रश्न-पुचि भंते ! सत्तमे तणुवाए, पच्छा सत्तमे घणवाए ? - २२३ उत्तर-एयं पि तहेव नेयव्वं, जाव-सव्वद्धा । एवं उवरिल्लं एक्कक्कं संजोयंतेणं जो जो हिडिल्लो, तं तं छडुतेणं नेयव्वं, जाव-अतीय अणागयद्धा, पच्छा सम्बद्धा, जाव-अणाणुपुत्वी एसा रोहा ! सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ । For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न विशेष शब्दों के अर्थ-पगइमद्दए-प्रकृति से भद्र, पगइमउए-प्रकृति से कोमल, पगइविणीए-प्रकृति से विनीत, पगइउवसंते-प्रकृति से उपशान्त, अलीणे-गुरु महाराज के पास रहने वाला, अदूरसामंते-न अत्यन्त दूर और न अत्यन्त नजदीक, उड्ढं जाण-ऊर्ध्व जानु-दोनों घुटने खड़े रखकर, अहोसिरे-शिर को नीचे की तरफ झुकाये हुए, माणकोट्ठोवगए-ध्यान रूपी कोठे में प्राप्त, जायसड्ढे-जातश्रद्ध-जिनको श्रद्धा उत्पन्न हुई है, सासया भावा-शाख़त भाव, अंडए-अण्डा, कुक्कुडी-कुर्कटी = मुर्गी, उवासंतरे-अवकाशांतर वास-र्ष क्षेत्र, पज्जव-पर्याय, अद्धा-काल, संजोएयव्वं-जोड़ना चाहिए, सम्बद्धा-सर्वकाल । भावार्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शिष्य रोह नामक अनगार थे। वे स्वभाव से भद्र, स्वभाव से कोमल, स्वभाव से विनीत, स्वभाव से शान्त, अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाले अत्यन्त निरभिमानी, गुरु के समीप रहने वाले, किसी को कष्ट न पहुंचाने वाले और गुरुभक्त थे। वे रोह अनगार ऊर्ध्वजानु और नीचे की तरफ शिर मुकाये हुए ध्यान रूपी कोठे में प्रविष्ट, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप विचरते थे। तत्पश्चात् वे रोह अनगार जातश्रद्ध आदि होकर यावत् भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-- २१६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पहले लोक है और पीछे अलोक है ? या पहले अलोक है और पीछे लोक है ? २१६ उत्तर-हे रोह ! लोक और अलोक पहले भी है और पीछे भी है। ये दोनों ही शाश्वत भाव हैं। हे रोह ! इन दोनों में यह पहला और यह पिछला' ऐसा क्रम नहीं है। ., २१७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पहले जीव और पीछे अजीव है ? या पहले अजीव और पीछे जीव है ? २१७ उत्तर-हे रोह ! जैसा लोक और अलोक के विषय में कहा है वैसा ही जीव और अजीव के सम्बन्ध में समझना चाहिए। इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, सिद्धि और असिद्धि तथा सिद्ध और संसारी के For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनवती सूत्र - श. १ उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न विषय में भी जानना चाहिए । २१८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले अण्डा और पीछे मुर्गी है ? या पहले मुर्गी और पीछे अण्डा है ? २७३ २१८ उत्तर - हे रोह ! वह अण्डा कहाँ से आया ? हे भगवन् ! वह आया । हे रोह ! वह मुर्गी कहां से आई ? हे भगवन् ! मुर्गो अण्डे से हुई । इसी प्रकार हे रोह ! मुर्गी और अण्डा पहले भी है और पीछे भी है । यो दोनों शाश्वत भाव हैं । हे रोह ! इन दोनों में पहले और पीछे का क्रम नहीं है । २१९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले लोकान्त है और पीछे अलोकान्त है ? या पहले अलोकान्त है और पीछे लोकान्त है ? २१९ उत्तर - हे रोह ! लोकान्त और अलोकान्त, इन दोनों में यावत् कोई क्रम नहीं है । २२० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले लोकान्त हैं और पीछे सातवाँ अवकाशान्तर है ? या पहले सातवाँ अवकाशान्तर है और पीछे लोकान्त है ? २२० उत्तर - हे रोह ! लोकान्त और सातवाँ अवकाशान्तर, ये दोनों पहले भी हैं और पीछे भी हैं। इस प्रकार यावत् हे रोह ! इन दोनों में पहले पीछे का क्रम नहीं है । इसी प्रकार लोकान्त और सातवाँ तनुवात, इसी प्रकार घनवात घनोदधि और सातवीं पृथ्वी के लिए समझना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक के साथ लोकान्त को निम्न लिखित स्थानों के साथ जोड़ना चाहिएअवकाशान्तर, वात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष (क्षेत्र) नारकी आदि जीव, चौवीस दण्डक, अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्याय और काल, क्या पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? २२१ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या लोकान्त पहले और सर्वाद्धा ( सर्व काल ) पीछे है ? For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न २२१ उत्तर - हे रोह ! जैसे लोकान्त के साथ सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार इस सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। और इसी प्रकार इन स्थानों को अलोकान्त के साथ भी जोड़ना चाहिए । २२२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले सातवाँ अवकाशान्तर हैं और पीछे सातवां तनुवात है ? २२२ उत्तर - हे रोह ! इसी प्रकार सातवें अवकाशान्तर को पूर्वोक्त सब के साथ जोड़ना चाहिए। इसी प्रकार सर्वाद्धा तक समझना चाहिए । २२३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले सातवां तनुवात है ? और पीछे सातवाँ घनवात है ? २७४ २२३ उत्तर - हे रोह ! यह भी उसी प्रकार जानना चाहिए, यावत् सर्वाद्धा तक । इस प्रकार एक एक का संयोग करते हुए और जो जो नीचे का हो उसे छोड़ते हुए पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् अतीत और अनागतकाल और फिर सर्वाद्धा, यावत् हे रोह ! इनमें कोई क्रम नहीं है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर रोह अनगार तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के 'रोह' नाम के एक शिष्य थे । वे प्रकृति से भद्र अर्थात् स्वाभाविक रूप से ही वे परोपकार करने के स्वभाव वाले थे । वे प्रकृति - स्वभाव से ही मृदु अर्थात् कोमल थे । इसीलिए वे प्रकृति से विनीत थे । प्रकृति भद्रता और मृदुता कारण है और 'विनय' उनका कार्य है । वे प्रकृति से ही उपशान्त थे अर्थात् उन्हें क्रोध का उदय नहीं होता था । यदि कदाचित् क्रोधादि कषाय का उदय हो भी जाय, तो भी उनका परिणाम (फल) न होने से उनके क्रोधादि कषाय पतले थे । वे मृदु . मार्दव सम्पन्न थे अर्थात् गुरु के उपदेश से उन्होंने अहंकार पर विजय प्राप्त किया था। वे निरभिमानी थे । वे अलीन थे अर्थात् वे गुरु के आश्रय में रहने वाले थे एवं गुप्तेन्द्रिय थे । वे भद्र थे अर्थात् किसी को संताप उपजाने वाले नहीं थे । वे विनीत थे अर्थात् गुरु सेवा के गुण से विनयवान् थे । इस प्रकार के गुणों से युक्त रोह अनगार भगवान् से न बहुत दूर और न बहुत नजदीक गोदुहासन से बैठे हुए थे, उनके दोनों घुटने ऊपर और सिर नीचे की ओर था। इस प्रकार उत्कुटुकासन से बैठे हुए रोह अनगार ध्यान के कोठे में तल्लीन For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १ उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न हो रहे थे और तत्त्व विचार कर रहे थे कि उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि पहले लोक है या पहले अलोक है ? अर्थात् इन दोनों में कौन पहले और कौन पीछे है ? इस प्रकार का प्रश्न उत्पन्न होने पर रोह अनगार अपने स्थान से उठे और भगवान् के निकट पहुँचे । उन्होंने तीन बार भगवान् को प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके रोह अनगार ने भगवान् से पूछा कि हे भगवन् ! मैंने आप से लोक और अलोक, ये दो पदार्थ सुने हैं, परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि- पहले लोक है या अलोक है ? पहले लोक बना है, या अलोक बना है ? - रोह अनगार के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि- "हे रोह ! लोक और अलोक पहले भी है और पीछे भी है, इन दोनों में पहले पीछे का क्रम नहीं है, क्योंकि ये दोनों शाश्वत भाव है ।" इसके बाद रोह अनगार ने जीव और अजीव के विषय में प्रश्न किया, जिसका उत्तर भगवान् ने वही फरमाया कि - "हे. रोह ! जीव और अजीव में पहले पीछे का क्रम नहीं है, क्योंकि ये दोनों शाश्वत भाव हैं । इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक तथा सिद्धि और असिद्धि एवं सिद्ध और असिद्ध ( संसारी) के लिए भी समझना चाहिए ।" फिर रोह अनगार ने मुर्गी और अण्डे के विषय में प्रश्न किया है। इस पर भगवान् फरमाया कि - " हे रोह ! बोलते समय तो कोई भी क्रम बनाया जा सकता है, किन्तु वस्तु में क्रम नहीं है । यदि अण्डा पहले माना जाय और मुर्गी पीछे मानी जाय, तो मैं पूछता हूँ कि- अण्डा कहाँ से आया ? रोह - हे भगवन् ! मुर्गी से आया । भगवान् -- हे रोह ! मुर्गी कहां से आई ? रोह - हे भगवन् ! मुर्गी अण्डे से हुई । २७५ भगवान् - तो हे रोह ! मुर्गी और अण्डे में पहले और पीछे किसे कहा जाय ? वस्तुतः न कोई पहले हैं, न पीछे है। दोनों में पहले पीछे का क्रम नहीं है ये दोनों प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं । इसी प्रकार सात अवकाशान्तर, सात तनुवात, सात घनवात, सात घनोदधि, सात नरक पृथ्वी, असंख्य द्वीप समुद्र, भरतादि सात क्षेत्र, नरकादि चौवीस दण्डक, पांच अस्तिकाय, काल विभाग, आठ कर्म, छह लेश्या, तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, चार संज्ञा, पांच शरीर, तीन योग, दो उपयोग, छह द्रव्य, अनन्त प्रदेश, अनन्त पर्याय तथा भूत, भविष्य - For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ लोक स्थिति आदि के प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए । ये सब शाश्वत भाव हैं, इसलिए इनमें पहले पीछे का क्रम नहीं है। . लोक स्थिति २२४ प्रश्न-भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं जाव-एवं वयासी कइविहा णं भंते ! लोयट्टिती पण्णता ? २२४ उत्तर-गोयमा ! अट्ठविहा लोयद्विती पण्णत्ता । तंजहाःआगासपइट्ठिए वाए । वायपइट्ठिए उदही, उदही पइट्ठिया पुढवी । पुढविपइट्ठिया तसा थावरा पाणा । अजीवा जीवपइट्ठिया । जीवा कम्मपइट्ठिया । अजीवा जीवसंगहिया । जीवा कम्मसंगहिया । २२५ प्रश्न-से केणटेणं भंते , एवं बुच्चइ-'अट्टविहा जावजीवा कम्मसंगहिया' ? ___२२५ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे वस्थिमाडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता उप्पि सितं बंधइ, बंधइत्ता; मञ्झेणं गंठिं बंधइ; बंधइत्ता; उवरिल्लं गंठिं मुयइ, मुइत्ता; उवरिल्लं देसं वामेइ, उवरिलं देसं वामेत्ता; उवरिल्लं देसं आउयायस्स पूरेइ, पूरित्ता उप्पिसितं बंधइ, बंधित्ता मज्झिल्लगंठिं मुयइ, मुइत्ता; से गूणं गोयमा ! से आउयाए तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरिमतले चिट्ठइ ? हंता, चिट्ठइ । से तेणटेणं जाव-'जीवा कम्मसंगहिया' । से जहा वा केइ यायस्स परेड मझिल्ला से आज्या For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ लोक स्थिति पुरिसे बस्थि आड़ोवे, आडोवित्ता कडीए बंधड़, बंधित्ता अत्थाहमतारमपोरसियंसि उदगंसि ओगाहेज्जा । मे णूणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिट्ठह ? हंता, चिट्ठइ । एवं वा अट्ट विहा लोयट्टिई पण्णत्ता, जाव - जीवा कम्मसंगहिया । विशेष शब्दों के अर्थ – लोयट्टिई - लोक स्थिति, बस्थि - बस्ति चमड़े की मशक, आडोवे - वायु से फुलावे, उप्पि – ऊपरी भाग, मुयइ - छोड़ता है, वामेइ खोल देता है, कम्म संगहिया - कर्म संग्रहीत कर्मों ने जोवों का संग्रह कर रखा है, कडीए-कटि प्रदेश में कमर में, अत्थाहमतारमपोरसियसि - अथाह, दुस्तर और पुरुषपरिमाण से अधिक अर्थात् जिसमें पुरुष मस्तक तक डूब जाय, उससे भी अधिक, उदगंसि - पानी में । २७७ भावार्थ - २२४ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार कहा - हे भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? २२४ उत्तर - हे गौतम ! लोक की स्थिति आठ प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार है- आकाश के आधार पर वायु टिका हुआ है। वायु के आधार पर उदधि है । उदधि के आधार पर पृथ्वी है । त्रस और स्थावर जीव पृथ्वी के आधार पर हैं । जीवों के आधार पर अजीव हैं, कर्म के आधार पर जीव (सकर्मक ) हैं । अजीवों को जीवों ने संग्रह कर रक्खा है और जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है । २२५ प्रश्न - हे भगवन् ! इस प्रकार कहने का क्या कारण है कि-लोक की स्थिति आठ प्रकार की है और यावत् जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है ? २२५ उत्तर - हे गौतम! जैसे कोई पुरुष चमडे की मशक को वायु से फुलावे । फिर उस मशक का मुख बांध दे। फिर मशक के बीच के भाग में गांठ बांधे। फिर मशक का मुंह खोल दे और उसके भीतर की हवा निकाल दे । फिर उस मशक के ऊपर खाली भाग में पानी भरे । फिर मशक का For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ लोक स्थिति मुंह बन्द कर दे । फिर उस मशक की बीच की गांठ खोल दे, तो हे गौतम ! वह भरा हुआ पानी उस हवा के ऊपर के भाग में रहेगा ? २७८ हाँ, भगवन् ! रहेगा । इसलिए हे गौतम ! में कहता हूँ कि यावत् कर्मों ने जीवों का संग्रह कर रखा है। अथवा - हे गौतम! कोई पुरुष उस चमडे की मशक को हवा से फुला कर अपनी कमर पर बांध ले । फिर वह पुरुष अथाह, दुस्तर और पुरुष परिमाणसे अधिक अर्थात् जिसमें पुरुष मस्तक तक डूब जाय, उससे भी अधिक पानी में प्रवेश करे, तो हे गौतम! क्या वह पुरुष पानी की ऊपरी सतह पर ही रहेगा ? हाँ, भगवन् ! रहेगा । हे गौतम! इस प्रकार लोक की स्थिति आठ प्रकार की कही गई है, यावत् कर्मों ने जीवों को संगृहीत कर रखा है । विवेचन- - पहले लोकान्त आदि का वर्णन किया गया है, अतः अब लोक स्थिति का वर्णन किया जाता है । गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! लोक स्थिति कितने प्रकार की है ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम ! आठ प्रकार की है। वह किस प्रकार हैं ? सो बतलाया जाता है - यद्यपि पृथ्वियां आठ हैं। सात पृथ्वियां नीचे हैं और ईषत्प्राग्भारा (सिद्ध शिला ). ऊपर है। वह सिर्फ आकाश के आधार पर रही हुई है। यहाँ अभी उसका विचार न करते हुए पहले सात पृथ्वियों का विचार किया गया है। इस पृथ्वी के नीचे सब से पहले आकाश है । वह आकाश किस पर ठहरा है ? यह प्रश्न नहीं हो सकता, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठित है - वह अपने आप पर ठहरा हुआ है। उसके लिए अन्य आधार की आवश्यकता नहीं होती । आकाश पर तनुवात ( पतली हवा ) है और तनुवात पर धनवात (गाढ़ हवा, ठोस हवा) है। घनवात पर घनोदधि ( जमा हुआ गाढ़ा पानी ) है । घनोदधि पर यह पृथ्वी ठहरी हुई है। पृथ्वी के आधार पर त्रस और स्थावर प्राणी रहे हुए हैं। अजीव, जीव पर प्रतिष्ठित हैं और जीव, कर्म प्रतिष्ठित हैं अर्थात् कर्म पर अवलम्बित हैं । अजीव For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ लोक स्थिति २७९ को जीव ने संग्रह किया है और जोव को कर्म ने संग्रह किया है-ग्रहण किया हुआ है । इसके लिए उदाहरण देकर समझाया गया है कि-जैसे कोई मनुष्य हाथ में चमड़े की मशक लिये हुए है। उस मशक में वह वायु भरे और मशक का मुंह बांध दे । फिर बीच में एक रस्सी बांध कर मशक की हवा को दो भागों में बांट दे । इसके बाद मशक का मंह खोल कर ऊपर के हिस्से की हवा बाहर निकाल दे और उस खाली हिस्से में पानी भर दे और मशक का मुंह बन्द करके फिर बीच की रस्सी भी खोल दे। ऐसा करने पर एक ही मशक के नीचे के भाग में हवा होगी और कार, के भाग में पानी होगा । हे गौतम ! वह मशक का पानी मशक में भरी हुई हवा पर ठहरेगा या नहीं ? अवश्य ठहरेगा। हवा सूक्ष्म है और पानी उससे स्थूल है, फिर भी हे गौतम ! हवा के आधार पर पानी रहेगा या नहीं ? गौतम ने कहा-हाँ, भगवन् ! रहेगा। हे गौतम ! इस न्याय से पहले कही हुई बात सहज ही समझ में आ सकती है कि हवा पर पानी रहता है। . अब भगवान् एक दृष्टान्त और देते हैं कि-है गौतम ! जैसे कोई एक पुरुष नदी पार करना चाहता है, परन्तु वह तैरना नहीं जानता । अतएव उसने एक मशक ली, उसमें हवा भरी और उसका मुंह बांध दिया। इसके बाद उसने मशक को कमर पर मजबूत बांध लिया और फिर वह मनुष्य अथाह जल में जावे । अब हे गौतम ! क्या वह पुरुष जल के ऊपरी भाग पर रहेगा? गौतम स्वामी ने कहा-हे भगवन् ! वह जल के ऊपरी भाग पर रहेगा। .' हे गौतम ! वायु सूक्ष्म है, फिर भी वायु मनुष्य का भार वहन करती है, जिस प्रकार इसमें सन्देह को अवकाश नहीं हैं, उसी प्रकार हे गौतम ! आठ प्रकार की लोक स्थिति में भी सन्देह करने का कोई कारण नहीं है। 'स और स्थावर प्राणी पृथ्वी के आधार रहे हुए हैं'—यह प्रायिक वचन है, क्यों कि पृथ्वी के सिवाय दूसरी जगह भी आकाश, पर्वत, विमान आदि के आधार पर जीव रहे हुए हैं । शरीरादि अजीव रूप पुद्गल जीव के आधार पर रहे हुए हैं, क्योंकि वे जीव में स्थित है । जीव कर्म के आधार पर रहे हुए हैं, क्योंकि संसारी जीवों का आधार कर्म पुद्गलों का समुदाय है। किन्हीं आचार्यों का अभिप्राय है कि-जीव कर्म के आधार रहे हुए है अर्थात् जीव नारकादि भाव से रहे हुए हैं। अजीवों को जीवों ने संग्रहित कर रखा है, क्योंकि मन और भाषा आदि के पुद्गलों For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८० . भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ जीव पुद्गल सम्बन्ध wwwmarawaimamanawwwwwwwwwwwwwwwwwwrammammummmmmmmmmmmmmm को जीवों ने संगृहीत कर रखा है। शंका-'अजीव, जीवों के आधार रहे हुए हैं' और 'अजीवों को जीवों ने संगृहीत कर रखा है,' इन दोनों वाक्यों के अर्थ में क्या अन्तर है ? _समाधान-'अजीव, जीवों के आधार रहे हुए हैं। इस प्रथम वाक्य में आधार आधेय भाव का कथन किया गया है । 'अजीवों को जीवों ने संगृहीत कर रखा है' इस दूसरे वाक्य में संग्राह्य संग्राहक भाव का कथन किया गया है । यह दोनों वाक्यों के अर्थ में भिन्नता है । दूसरे वाक्य में आधार आधेय भाव भी है. क्योंकि जो संग्राह्य होता है वह आधेय भी होता है । जैसे कि मालपुए के द्वारा तेल संग्राह्य है, तो तेल संग्राह्य भी है और आधेय भी है। इसी तरह यहां भी समझना चाहिए । तथा 'जीवों को कर्मों ने संगृहीत कर रखा है. क्योंकि संसारी जीव उदयप्राप्त कर्म के अधीन रहे हुए हैं । जो जिसके वश रहा हुआ है, वह उसमें रहः हुआ होता है, जैसे कि घड़े के रूपादि घड़े के वश हैं, इसलिए वे घड़े में रहे हुए हैं । इसी तरह 'अजीवों ने जीवों को संगृहीत कर रखा है । इस वाक्य में भी आधार आधेय भाव समझना चाहिए। जिस प्रकार मशक के दृष्टांत से यह बतलाया गया है कि पानी का आधार वायु है । उसी प्रकार आकाश और तनु वातादि में भी आधार आधेय भाव समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि-कर्मयुक्त संसारी जीव में और अजीव में आधार आधेय भाव है और इसी से संसार की स्थिति है। जीव पुद्गल सम्बन्ध २२६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! जीवा य, पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्टा, अण्णमण्णओगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिटुंति ? २२६ उत्तर-हंता, अत्थि। २२७ प्रश्न-से केपट्टेणं भंते ! जाव-चिट्ठति ? For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. १ उ. ६ जीव पुद्गल सम्बन्ध २८१ ____२२७ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए हरदे सिया, पुण्णे, पुण्णप्पमाणे; वोलट्टमाणे, वोसट्टमाणे, समभरघडताए चिट्ठइ । अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदसि एगं महं नावं सयासवं, सयछिदं ओगा. हेज्जा । से पूर्ण गोयमा ! सा णावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी, आपूरमाणी पुण्णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा, समभरघडताए चिट्ठइ ? हंता, चिट्ठइ । से तेणटेणं गोयमा ! अस्थि णं जीवा य जाव-चिटुंति । विशेष शब्दों के अर्थ-अण्णमण्णबढा-परस्पर बद्ध, अण्णमण्णपुट्ठा-परस्पर स्पृष्ट, अण्णमण्णमोगाढा-परस्पर एक दूसरे में मिले हुए, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा-परस्पर स्नेह =चिकनाई से प्रतिबद्ध, अण्णमण्णघत्ताए-परस्पर घटित होकर, हरदे तालाब, वोलट्टमाणेपानी से भरा हुआ, वोसट्टमाणे-पानी से लबालब भरा हुआ, सयासर्व-शताश्रव = सौ छेदों वाली। भावार्थ-२२६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल परस्पर संबद्ध हैं ? परस्पर गाढ संबद्ध हैं ? परस्पर एक दूसरे में मिले हुए हैं ? परस्पर स्नेह (चिकनाई) से प्रतिबद्ध हैं ? और परस्पर घटित होकर रहे हुए हैं ? २२६ उत्तर-हाँ, गौतम ! रहे हुए हैं। २२७ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि-यावत् जीव और पुदगल इस प्रकार रहे हए हैं ? . २२७ उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई एक तालाब है। वह पानी से भरा हुआ है, पानी से लबालब भरा हुआ है, पानी से छलक रहा है, पानी से बढ़ रहा है, और वह पानी से भरे हुए घडे के समान परिपूर्ण है । उस तालाब में कोई पुरुष एक ऐसी बडी नाव, जिसमें सौ छोटे छेद हों और सौ बडे छेद हों उसे डाल दे तो, हे गौतम! वह नाव, छेदों द्वारा पानी से भरती हुई, खूब भरती हुई, छलकती हुई, पानी से बढ़ती हुई, क्या भरे हुए घडे के समान हो जायगी ? For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ स्नेहकाय हाँ, भगवन् ! हो जायगी। . . इसलिए हे गौतम ! मैं कहता हूँ--यावत् जीव और पुदगल परस्पर घटित होकर रहे हुए हैं। विवेचन-लोक स्थिति का अधिकार होने से अथवा 'अजीवा जीवपइट्टिया' इन चार पदों का विवेचन करने के लिए गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं ? एक दूसरे से मिले हुए हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं यावत् परस्पर एक दूसरे से मिले हुए हैं। इसका कारण यह स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना श्लिष्यते यथा। गात्रं रागद्वेषक्लिनस्य, कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥ अर्थात् - जिस प्रकार कोई पुरुष शरीर पर तेल चुपड़ कर आंधी में बैठ जाय, तो उसका शरीर रेत से भर जाता है, उसी प्रकार जो पुरुष रागद्वेष युक्त होता है, उसके कर्मों का बन्ध होता हैं। जैसे तेल लगे शरीर पर रज लग कर मैल रूप हो जाती है, वैसे ही जीव में रागद्वेष रूपी चिकनाई है और कर्मरज सर्वत्र भरी हुई है ही, इसीसे वह जीव के साथ चिपक जाती है । सिद्ध भगवान् में रागद्वेष की चिकनाई नहीं है, अतएव उनको कर्मरज नहीं लगती। इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है-जैसे कोई पुरुष जल से परिपूर्ण यावत् लबालब भरे हुए किसी तालाब में छिद्रों वाली एक नाव डाले, तो उन छिद्रों से पानी आते आते वह नाव पानी में डूब जाती है और तालाब के तल-भाग में जाकर बैठ जाती है। फिर जिस तरह नाव और तालाब का पानी एकमेक होकर रहता है, उसी तरह जीव और पुद्गल परस्पर संबद्ध, प्रतिबद्ध यावत् एकमेक होकर रहते हैं। सिद्धों के शरीर नहीं है । शरीर कर्म से होता है और सिद्धों में कर्म नहीं हैं अतएव शरीर भी नहीं है। स्नेहकाय २२८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! सया समियं सुहुने सिणेहकाये For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ स्नेहकाय । २८३ ।। पवडइ ? २२८ उत्तर-हंता, अत्थि । - २२९ प्रश्र-से भंते ! कि उड्ढे पवडइ, अहे पवडइ, तिरिए पवडइ। २२९ उत्तर-गोयमा ! उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिए वि पवडइ। ___ २३० प्रश्न-जहा से बायरे आउयाए अण्णमण्णसमाउत्ते चिरं पि, दीहकालं चिट्ठइ तहा णं से वि ? २३० उत्तर-णो इणटे समढे। से णं खिप्पं एव विसं आगच्छइ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ॥ छटो उद्देसो सम्मत्तो॥ . · विशेष शब्दों के अर्थ–समियं-समित-परिमित, खिप्पं-शीघ्र, विद्धसं-नाश, सिहकाये-स्नेहकाय-एक प्रकार का जल। भावार्थ-२२८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय सदा परिमित . पड़ता है ? २२८ उत्तर--हां, गौतम ! पड़ता है। .... २२९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय ऊपर पड़ता है ? नीचे पड़ता है ? या तिरछा पड़ता है ? २२९ उत्तर-हे गौतम ! वह ऊपर भी पड़ता है, नीचे भी पड़ता है और तिरछा भी पड़ता है। For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ भगवती सूत्र--श. १ उ. ६ स्नेहकाय २३० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल जलकाय को भांति परस्पर समायुक्त होकर बहुत समय तक रहता है ? २३० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि वह सूक्ष्म स्नेहकाय शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर गौतम स्वामी तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। विवेचन-गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय (अप्काय) निरन्तर पड़ता रहता है ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! सदा पड़ता रहता है और वह प्रमाणयुक्त ही पड़ता है । बादर अप्काय की तरह अपरिमित नहीं पड़ता है । जैसे बादर अप्काय कहीं पड़ता है और कहीं नहीं पड़ता हैं, कभी पड़ता है और कभी नहीं पड़ता है, यह बात सूक्ष्म स्नेहकाय के विषय में नहीं है । सूक्ष्म स्नेहकाय सदा पड़ता है और सब जगह पड़ता है । सूक्ष्म स्नेहकाय का अर्थ-यहाँ 'सूक्ष्म' का अर्थ 'सूक्ष्म नाम कर्म वाले जीव' नहीं समझना चाहिये, किन्तु यह बादर अप्काय ही है, परन्तु चर्म चक्षुओं के अगोचर होने से इन्हें 'सूक्ष्म' कहा है। ___ यह सूक्ष्म स्नेहकाय दिन में तो सूर्य के ताप से ऊपर ही नष्ट ही जाता है, किन्तु रात्रि के समय नीचे तक आता है । अतः साधारणतः मुनियों को सूर्यास्त के बाद बिना छाये हुए स्थान में नहीं रहना चाहिये । यदि लघुनीत आदि परठने के लिये जाना पड़े, तो शरीर और सिर को ढक लेना चाहिये । उघाड़े शरीर और सिर रखकर खुले में नहीं जाना चाहिये। इस विषय में टीकाकार कहते हैं कि शिशिरऋतु (शीतकाल) में दिन के पहले और चौथे पहर में तथा ग्रीष्मऋतु में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आधा आधा पहर स्नेहकाय की रक्षा के लिये लेप वाले पात्र को बाहर न रखना चाहिये। ___टीकाकार का उपरोक्त कथन शास्त्र से मेल नहीं खाता है, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में पडिमाधारी मुनि के लिये ऐसा वर्णन आया है कि-"जहाँ सूर्यास्त हो जाय, वहीं उसे ठहर जाना चाहिये और सूर्योदय होते ही विहार कर सकते हैं।" For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ स्नेहकाय.. यदि पहले और चौथे पहर में सूक्ष्म स्नेहकाय नीचे तक आता होता, तो अग्नि और सिंह के उपद्रव से भी अपना बचाव नहीं करने वाले उन पडिमाधारी मुनियों के लिये सूक्ष्म स्नेहकाय की विराधना के प्रसंग पर विहार करने का विधान कैसे होता ? इससे स्पष्ट होता है कि सूर्योदय मे लेकर सूर्यास्त तक सूक्ष्म स्नेहकाय यहाँ नीचे तक नहीं पहुँचता है । अतः टीकाकार का उपर्युक्त कथन संगत नहीं है । इस प्रसंग को लेकर कई नवीन विचारक मुनियों का कहना है कि रात्रि को अछाये (बिना ढके) हुए स्थान में पूँजना नहीं चाहिये, पूँजने से उन सूक्ष्म स्नेहकाय के जीवों की विराधना होती है । किन्तु यह बात आगम विरुद्ध है, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की पहली दशा में और समवायांग बीसवें समवाय में बतलाया है कि बिना पूँजे चलना 'असमाधि स्थान' है । यदि पूंजने से जोव विराधना का कारण होता, तो यह शास्त्र विधान कैसे होता ? किसी का ऐसा कथन भी है कि 'जिस तरह 'धूंअर' (महिका) मकान के अन्दर भी आ जाती है, इसी तरह सूक्ष्म स्नेहकाय, जो कि धूअर से भी सूक्ष्म है, वह भी मकान के अन्दर आजायगी, फिर छाये हुए स्थान में और अछाये हुए स्थान में अन्तर ही क्या रहेगा ? मुनि कहीं भी सोये, वैठे, तो क्या ?' किन्तु यह कथन भी शास्त्र संगत नहीं है । क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में, रात्रि के समय छाये हुए स्थान को 'स्थल' और अछाये हुए स्थान को 'जल' कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि सूक्ष्म स्नेहकाय छाये हुए स्थान में नहीं आता है, क्योंकि उस पर वायु का असर नहीं होता है । २८५ यह सूक्ष्म स्नेहकाय ऊर्ध्वलोक में अर्थात् गोल वैताढ्य पर्वत आदि पर, अधोलोक मैं अर्थात् अधोलोक के ग्रामादि में और तिछेलोक में गिरता है और ज्यों ही गिरता है, त्यों ही विध्वंस हो जाता है सूख जाता है । ॥ प्रथम शतक का छठा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.६ भगवती सूत्र - श. १ उ. ७ नारक जीवों का आहार उद्वर्त्तनादि शतक १ उद्देशक ७ नारक जीवों का आहार २३१ प्रश्न - नेरइए णं भंते ! नेरइएस उववज्जमाणे किं देसेणं देसं ववज्जइ, देसेणं सव्वं उववज्जइ, सव्वेणं दे उववज्जह, सव्वेणं सव्वं उववज्जइ ? २३१ उत्तर - गोयमा ! नो देसेणं देसं उववज्जइ, नो देसेणं सव्वं उववज्जइ; नो सव्वेणं देसं उववज्जइ, सव्वेणं सव्वं उववज्जह; जहा नेरइए, एवं जाव - वेमाणिए । • २३२ प्रश्न - नेरइया णं भंते ! नेरइएस उववज्जमाणे किं देसेणं देसं आहारेइ, देसेणं सव्वं आहारेइ, सव्वेणं देसं आहारेह, सव्वेणं सव्वं आहारेइ ? २३२ उत्तर - गोयमा ! नो देसेणं देसं आहारेड, नो देसेणं सव्वं आहारेइ, सव्वेणं वा देसं आहारेइ, सव्वेणं वा सव्वं आहार ह । एवं जाव - माणिए । २३३ प्रश्न–नेरइए णं भंते ! नेरइए हिंतो उववट्टमाणे किं देसेणं देसं ववइ ? २३३ उत्तर - जहा उववज्जमाणे तहेव उववट्टमाणे वि. दंडगो भाणियव्वो । For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ नारक जीवों का आहार उद्वत्तनादि २८७ २३४ प्रश्न-नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो उपवट्टमाणे किं देसेणं-देसं आहारेइ । - २३४ उत्तर-तहेव जाव-सव्वेणं वा देसं आहारेइ, सव्वेणं वा सव्वं आहारेइ । एवं जाव-वेमाणिए । २३५ प्रभ-नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववन्ने किं देसेणं देसं उववन्ने ? - २३५ उत्तर-एसो वि तहेव, जाव-सब्वेणं सव्वं उपवण्णे । जहा उववजमाणे उववट्टमाणे य चत्तारि दंडगा, तहा उपवनेणं, उपवट्टेण वि चतारि दंडगा भाणियव्वा । सव्वेणं सव्वं उववण्णे । सब्वेणं वा देसं आहारेइ । सव्वेणं वा सव्वं आहारेइ एएणं अभिलावणं उववन्ने वि, उववट्टेण वि नेयव्वं । ____ २३६ प्रश्न नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे किं अधेणं अवध उक्वजई, अब्धेणं सव्वं उववजइ, सव्वेणं अब्धं उववजह, सव्वेणं सव्वं उववजह ? _____ २३६ उत्तर-जहा पढमिल्लेणं अट्ठ दंडगा तहा अधण वि अढ दंडगा भाणियव्वा । नवरं-जहिं देसेणं देसं उववजह, तहिं अधेणं अब्धं उववजह इति भाणियव्वं । एयं णाणतं, एते सव्वे वि सोलस दंडगा भाणियव्वा । विशेष शब्दों के अर्थ-उबवन्जमाणे-उत्पन्न होता हुआ, आहारोह-आहार करता है, For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -- श. १ उ. ७ नारक जीवों का आहारादि माणे - उद्वर्तता हुआ निकलता हुआ, उबवण्णे - उत्पन्न, पढ मिल्लेणं- पहले के साथ । भावार्थ - २३१ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों में उत्पन्न होता हुआ नारकी जीव, क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या सर्व भाग .... एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता हैं ? या सर्व भाग से सर्व भागों का आश्रय करके उत्पन्न होता है ? २८८ २३१ उत्तर - हे गौतम! नारकी जीव, एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न नहीं होता, एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न नहीं होता और सर्व भाग से एक भाग को आश्रित करके भी उत्पन्न नहीं होता, किन्तु सर्व भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है । नारकी जीव के समान वैमानिकों तक इसी प्रकार समझना चाहिए । २३२ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों में उत्पन्न होता हुआ नारकी जीव, क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है ? या एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके आहार करता है ? या सर्व भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है ? अथवा सर्व भाग से सर्व भाग को आश्रित करके आहार करता है ? २३२ उत्तर - हे गौतम ! नारकियों में उत्पन्न होता हुआ नारकी जीव, एक भाग से एक भाग को आश्रितं करके आहार नहीं करता, एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके आहार नहीं करता, किन्तु सर्व भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, या सर्व भागों से सर्व भागों को आश्रित करके आहार करता है । २३३ प्रश्न- हे भगवन् ! नारकियों में से उबर्तता हुआ-निकलता हुआ नारकी जीव क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके निकलता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न करना चाहिए । २३३ उत्तर- हे गौतम ! जैसे उत्पन्न होते हुए के विषय में कहा है वैसा ही उद्वर्तन के विषय में वण्डक कहना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ नारक जीवों के उदत्तनादि २८९ २३४ प्रश्न-हे भावन् ! नारकियों में से उद्वर्तता हुआ नारको जीव, क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न करना चाहिए। २३४ उत्तर-हे गौतम ! पहले की तरह जानना चाहिए, यावत् सर्व भागों से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, या सर्व भागों से सर्व भागों को आश्रित करके आहार करता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। २३५ प्रश्न-हे भगवन् ! नारकियों में उत्पन्न हुआ नारको जीव, क्या. एक भाग से एक भाग को आधित करके उत्पन्न हुआ है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न करना चाहिए। ___ २३५ उत्तर-हे गौतम ! यह कथन भी उसी प्रकार जानना चाहिए यावत् सर्व भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न हुआ है। जिस प्रकार उत्पद्यमान (उत्पन्न होता हुआ) और उद्वर्तमान (उद्वर्तता हुआ = निकलता हुआ) के विषय में चार दण्डक कहे, वैसे ही उत्पन्न और उवृत्त के विषय में भी चार दण्डक कहना चाहिए । 'सर्व भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न' 'सर्व भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार और सर्व भाग से सर्व भाग को आश्रित करके आहार'-इन शब्दों द्वारा उत्पन्न और उत्त के विषय में भी समझ लेना चाहिए। २३६ प्रश्न-हे भगवन् ! नारकियों में उत्पन्न होता हुआ नारको जीव, क्या अर्द्ध भाग से अर्द्ध भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या अर्द्ध भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या सर्व भाग से अर्ड भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या सर्व भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? २३६ उत्तर-हे गौतम ! जैसे-पहले वालों के साथ आठ दण्डक कहे हैं, उसी प्रकार अर्ब के साथ भी आठ दण्डक कहना चाहिए । विशेषता इतनी है For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० भगवती सूत्र - शः १-उ. ७ नारक जीवों के आहारादि कि- जहाँ 'एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है' ऐसा पाठ आया है वहाँ पर 'अर्द्ध भाग से अर्द्ध भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है' ऐसा पाठ बोलना चाहिए । बस यही भिन्नता है। ये सब मिल कर सोलह दण्डक होते हैं। विवेचन - पहले की संग्रह गाथा में 'णेरइए' यह पद दिया था । इसलिए अब सातवें उद्देशक के प्रारम्भ में नारकी जीवों का वर्णन किया गया हैं । गौतम स्वामी पूछते हैं कि - हे भगवन् ! नारकी जीव, नरक में उत्पन्न होता है तब क्या यहाँ के एक देश ( एक भाग) से वहाँ का एक देश उत्पन्न होता है ? या यहां के एक देश से वहां का सर्व, अथवा यहां के सर्व से वहां का एक देश, या यहां के सर्व से वहां का सर्व, इस प्रकार उत्पन्न होता है ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर भगवान् फरमाते है कि - हे गौतम! नरक में जीव देश से देश उत्पन्न नहीं होता, देश से सर्व उत्पन्न नहीं होता, सर्व से देश उत्पन्न नहीं होता, किन्तु सर्व से सर्व उत्पन्न होता है । यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि इस प्रश्नोत्तर में 'रइए णेरइएसु उववज्जमाणे ' अर्थात् 'नैरयिक, नरक में उत्पन्न होता हैं ।' तो नैरयिक का नरक में उत्पन्न होना कैसे कहा गया है ? क्योंकि यह शास्त्र प्रसिद्ध बात है कि नैरयिक मर कर नरक में उत्पन्न नहीं होता । मनुष्य और तिर्यञ्च ही मर कर नरक में उत्पन्न हो सकते हैं । अर्थात् नरक में मनुष्यगति और तिर्यञ्च गति से मर कर ही उत्पन्न होता है, अन्य गति से नहीं । फिर इस प्रश्नोत्तर में यह कथन कैसे किया गया है ? इस शंका का समाधान यह है कि 'चलमाणे चलिए' सिद्धांत के अनुसार जो जीव नरक में उत्पन्न होने वाला है, अभी नरक में पहुँचा नहीं है, किन्तु विग्रह गति में चल रहा है, उसे नैरयिक ही कहते हैं, क्योंकि वह जीव मनुष्य गति या तियंञ्च गति का आयुष्य समाप्त कर चुका है और उसके नरकायु का उदय हो चुका है। नरकायु का उदय होते ही उस जीव को नैरयिक कहा जा सकता है । यदि ऐसा न माना जाय, तो फिर उसे किस गति का जीव कहा जायगा ? मनुष्य या तिर्यञ्च की आयु तो समाप्त हो चुकी है, अतः मनुष्य या तिर्यञ्च तो कह नहीं सकते । और नरक में पहुँचा नहीं है, इस कारण यदि उसे नैरयिक भी न कहा जाय, तो फिर उसे किस गति का जीव कहा जाय ? वह नरक के मार्ग में है, उसके नरकायु का उदय हो चुका है, इसलिए नरक में उत्पन्न न होने पर भी उसे नरक का जीव ही कहना उचित है । नरक में उत्पन्न होने के विषय में चार विकल्प किये हैं- एक देश (भाग) से एक For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ नारक जीवों के आहारादि २९१ देश; एक देश से मर्व, मर्व से एक देश और सर्व से सर्व । इसमें चौथा विकल्प स्वीकार किया गया है । इसका कारण यह है कि-जब उपादान पूर्ण होता है तब वस्तु भी पूर्ण ही उत्पन्न होती है। इसलिए जीव भी सर्व से मर्व उत्पन्न होता है। उत्पन्न होने के पश्चात् आहार की आवश्यकता रहती है, इसलिए गौतमस्वामी ने आहार के विषय में प्रश्न किया है । भगवान् ने. उत्तर फरमाया कि-हे गौतम ! सर्व भाग से एक देशाश्रित आहार करते हैं और सर्व भाग से सर्व भागाश्रित आहार करते हैं । यही बात वैमानिकों तक-समझनी चाहिए। जीव जिस समय उत्पन्न होता है उस समय में-जन्म के प्रथम समय में, अपने सर्व आत्मप्रदेशों के द्वारा सर्व आहार को ग्रहण कर लेता है। जैसे-तपी हुई तेल की कड़ाई में छोड़ा हुआ मालपूआ प्रथम क्षण में लेने योग्य तेल को सर्व रूप से ग्रहण करता है-खींचता है । इसलिए जीव की उत्पत्ति के प्रथम समय में 'सव्वेगं सव्वं आहारेइ' विकल्प घटिन , होता है। उत्पत्ति के बाद वह जीव कितनेक पुद्गलों का आहार करता है और कितनेक पुद्गलों को छोड़ देता है । जैसे कि-तपी हुई तेल की कड़ाई में मालपुआ डाल देने के बाद वह मालपूआ कुछ तेल को चूसता है और कुछ को नहीं चूसता । इसलिए उत्पत्ति के बाद 'सव्वेणं देसं आहारेइ' विकल्प घटित होता है। उत्पाद का प्रतिपक्षी उद्वर्तन हैं। इसलिए गौतम स्वामी ने इस विषय में पूछा कि-हे भगवन् ! जब जीव की नरक स्थिति पूरी हो जाती हैं, तब वह वहां से उद्वर्तता - निकलता है, तो किस प्रकार निकलता है ? क्या देश से देश ? या देश से सर्व ? या सर्व से देश ? या सर्व से सर्व निकलता है ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! जिस प्रकार उत्पाद के विषय में कहा है उसी प्रकार उद्वर्तन-निकलने के विषय में भी समझना चाहिए। तब गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! नरक से निकलता हुआ नारकी, क्या देश से देश का आहार करता है ? या देश से सर्व, या सर्व से देश. या सर्व से सव का आहार करता है ? भगवान् ने फरमाया कि-इस विषय में भी पहले की तरह ही समझना चाहिए अर्थात् देश से देश का नहीं और देश से सर्व का आहार नहीं करता, किंतु सर्व से देश का और सर्व से सर्व का आहार करता है। जिस प्रकार 'उत्पन्न होता है और उद्वृत्त होता है' यह वर्तमान काल को लेकर प्रश्नोत्तर किये गये हैं, उसी तरह 'उत्पन्न हुआ और उद्वृत्त हुआ,' इस भूतकाल को लेकर भी प्रश्नोत्तर किये गये हैं। इस तरह यहां आठ दाटक (आलापका-मंग) बने हैं। यथा For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ विग्रह गति (१) उत्पन्न होता हुआ, (२) उत्पन्न होता हुआ आहार लेता है, (३) उद्वर्तता (निकलता) हुआ, (४) उद्वर्तता हुआ आहार लेता है (५) उत्पन्न हुआ, (६) उत्पन्न हुआ आहार लेता है, (७) उद्वता (निकला) हुआ, (८) उद्वर्ता निकला हुआ आहार लेता है। देश और सर्व के द्वारा जीव के उत्पादादि के विषय में विचार करने से आठ दण्डक (आलापक, भंग, विकल्प) बने हैं, जो ऊपर बतलाये गये हैं । इसी तरह, अद्ध से अर्द्ध, अद्धं से सर्व, सर्व से अर्द्ध, और सर्व से सर्व, इन चार के द्वारा जीव के उत्पादादि के विषय में विचार करने पर पूर्वोक्त प्रकार से आठ दण्डक बनते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त आठ और ये आठ दण्डक मिल कर सब सोलह दण्डक होते हैं । . . शंका-पहले 'एक देश' सम्बन्धी प्रश्न किया जा चुका है, फिर यहाँ 'आधे' के संबध में प्रश्न क्यों किया गया ? 'देश' और 'आधे' (अर्द्ध) में क्या अन्तर है ?. . समाधान-'देश' तो आधा,पौन, पाव तथा इसी तरह इससे कम और ज्यादा आदि अनेक विभाग हो सकते हैं, किन्तु बीचोबीच से दो टुकड़े होना 'आधा' कहलाता है । इस प्रकार जीव के दो टुकड़े हो और एक टुकड़ा (आधा भाग) उत्पन्न हो और दूसरा टुकड़ा (आधा भाग) उत्पन्न न हो, यह नहीं हो सकता है । यही बतलाने के लिए ये प्रश्नोत्तर किये गये हैं कि आत्मा का देश (विभाग) या अर्द्ध विभाग उत्पन्न नहीं हो सकता है। जीव के प्रदेश उत्पत्ति स्थान पर इलिका गति से धीरे धीरे जाते हुए भी वे सब एक ही स्थान पर जायेंगे, दो तीन आदि विभागों से भिन्न-भिन्न स्थानों पर उत्पन्न नहीं होगा। विग्रह गति २३७ प्रभ-जीवे णं भंते ! किं विग्गहगइसमावण्णए, अविग्गहगइसमावण्णए ? '२३७ उत्तर-गोयमा ! सिय विग्गहगइसमावष्णगे, सिय अविगहगइसमावण्णगे । एवं जाव-वेमाणिए। __२३८ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं विग्गहगइसमावष्णया, अवि. For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ विग्रहगति । २९३ गहगइसमावनगा ? २३८ उत्तर-गोयमा ! विग्गहगइसमावनगा वि, अविग्गहगइसमावनगा वि। २३९ प्रश्न-नेरइया णं भंते ! किं विग्गहगइसमावनगा, अविग्गहगइसमावनगा ? २३९ उत्तर-गोयमा ! सव्वे वि ताव होज अविग्गहगइसमावनगा । अहवा अविग्गहगइसमावनगा य, विग्गहगइसमावनगे य । अहंवा अविग्गहगइसमावनगा य, विग्गहगइसमावनगा य । एवं जीव-एगिंदियवज्जो तियभंगो। -- २४० प्रश्न-देवे णं भंते ! महड्ढिए, महज्जुइए, महब्बले, महायसे, महेसक्खे, महाणुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किंचिकालं हिरिवत्तियं, दुगुंजवत्तियं, परिसहवत्तियं आहारं नो आहारेइ । अहे णं आहारे आहारिजमाणे आहारिए, परिणामिजमाणे परिणामिए, पहीणे य आउए भवइ । जत्थ उववजह तं आउयं पडिसंवेदेइ । तंजहा-तिरिक्खजोणियाउयं वा, मणुस्साउयं वा ? . २४० उत्तर-हंता, गोयमा! देवे णं महड्ढिए जाव-मणुस्साउयं वा। विशेष शब्दों के अर्थ-विग्गहगइसमावण्णए-विग्रहगति समापन-विग्रहगति में रहा हुआ, सिय--कदाचित्, महडिए--महद्धिक-महान् ऋद्धि वाला, महज्जुइए--महान् द्युति For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ __भगवती सूत्र--श. १ उ. ७ विग्रहगति वाला, महब्बले–महान् बल वाला, महायसे–महायशस्वी, महाणुभावे-महानुभाव, हिरिवत्तियं--लज्जा के कारण, दुगुंछावत्तियं--घृणा के कारण । भावार्य-२३७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव विग्रहगति समापन्न-विग्रह गति को प्राप्त है, या अविग्रह गति समापन-अविग्रह गति को प्राप्त है ? २३७ उत्तर-हे गौतम! जीव कभी विग्रह गति को प्राप्त है और कभी अविग्रह गति को प्राप्त है । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। २३८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या बहुत जीव विग्रह गति को प्राप्त हैं या अविग्रह गति को प्राप्त हैं ? २३८ उत्तर-हे गौतम ! बहत जीव विग्रह गति को भी प्राप्त है और अविग्रह गति को भी प्राप्त हैं ? ... २३९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नारकी जीव विग्रह गति को प्राप्त हैं या अविग्रह गति को भी प्राप्त हैं ? २३९ उत्तर-हे गौतम ! (१) सभी अविग्रह गति को प्राप्त है । (२) अथवा बहुत से अविग्रह गति को प्राप्त हैं और कोई एक विग्रह गति को प्राप्त हैं। (३) अथवा बहुत से अविग्रह गति को प्राप्त हैं और बहुत से विग्रह गति को प्राप्त हैं। इसी प्रकार सब जगह तीन तीन भंग समझना चाहिए । सिर्फ जीव (सामान्य जीव) और एकेन्द्रिय में तीन भंग नहीं कहना चाहिए। २४० प्रश्न-हे भगवन् ! महाऋद्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायशस्वी, महासामर्थ्य वाला, मरण काल में च्यवने वाला महेश चामक देव अथवा महासौख्य वाला देव लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परीषह के कारण, कुछ समय तक आहार नहीं करता, फिर आहार करता है, और ग्रहण किया हुआ आहार परिणत भी होता है, अन्त में उस देव की वहां की आयु समाप्त हो जाती है। इसलिए वह देव जहाँ उत्पन्न होता है वहां की आयु भोगता है । तो हे भगवन् ! वह कौनसा आयु समझना चाहिए ? तिर्यञ्च का बायु समझना चाहिए या मनुष्य का आयु समझना चाहिए ? . २४० उत्तर-हे गौतम ! उस महाऋखि वाले देव का यावत् व्यवन के For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७. विग्रहगति - २९५ बाद (मृत्यु के बाद) तिर्यञ्च का आय अथवा मनुष्य का आयु समझना चाहिए। विवेचन-गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! जीव विग्रह गति वाला होता है या अविग्रह गति वाला होता है ? भगवन् ने फरमाया कि-हे गौतम! जीव विग्रह गति वाला भी होता है और अविग्रह गति वाला भी होता है । अर्थात् जीव में दोनों प्रकार की अवस्थाएँ हो सकती हैं। . विग्रह का अर्थ है-मोड़खाना-मुड़ना। जीव जब एक शरीर छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करने के लिए गति करता है, तो उसकी गति दो प्रकार की हो सकती है । कोई एक जीव, एक आदि बार मुड़ कर उत्पत्ति स्थान पर पहुंचता है और कोई जीव बिना मुड. सीधा ही अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुंच जाता है । जब उत्पत्ति स्थान पर जाने के लिए मोड़ खाना पडता है तब वह गति 'विग्रह गति' कहलाती है। जब जीव बिना मुड़े, सीधा ही चला जाता है तब उस गति को 'अविग्रह गति' कहते हैं तथा जब जीव ठहरा हुआ हो, गति नहीं कर रहा हो, तब भी उसे अविग्रह गति वाला समझना चाहिए। अविग्रह गति के ये दोनों अर्थ यहां विवक्षित हैं. ऐमा टीकाकार कहते हैं । यद्यपि प्राचीन टीकाकार ने अविग्रह गति का अर्थ सिर्फ सीधी (बिना मोड़ वाली) गति ही लिया है, किन्तु सिर्फ ऐसा अर्थ लेने से और अविग्रह का अर्थ 'ठहरा हुआ' न करने से नारकी जीवों में अविग्रह गति वालों की जो बहुलता बतलाई है, वह संगत नहीं बैठ सकेगी। इसलिए 'अविग्रह गति' का अर्थ यहां पर सीधी गति' और 'गति न करता हुआ-ठहरा हुआ' ये दोनों अर्थ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि-एक गति का आयुष्य समाप्त होने पर दूसरी गति. में जाते समय मार्ग में जो गति होती है (वाटे बहता) उसे विग्रह गति कहते हैं । जो मार्ग में नहीं चल रहा है) वाटे नहीं बहता हुआ) किन्तु किसी भी गति में स्थित है, उसे 'अविग्रह गति कहते हैं । एक अर्थ यह है । दूसरा अर्थ यह है-मोड़ वाली गति को विग्रह गति कहते हैं। बिना मोड़ वाली-सीधी गति को तथा 'ठहरा रहने' को अविग्रह गति कहते हैं। : _____एक जीव की अपेक्षा वह कभी विग्रह गति समापन्न होता है और कभी अविग्रह गति समापन्न होता है। ... बहुत जीवों की अपेक्षा बहुत जीव विग्रह गति समापन भी हैं और बहुत जीव अविग्रह गति समापन्न भी हैं । क्योंकि जीव अनन्त हैं, इसलिए प्रति समय बहुत जीव विग्रह गति वाले भी होते हैं और बहुत जीव अविग्रह गति वाले भी होते हैं । जीव सामान्य की • यह अर्थ भगवती सूत्र शतक १४ उद्देशक ५ के मूल पाठ और टाका से स्पष्ट होता है और यहाँ पर यही अर्थ करना उचित है । For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ विचार तरह एकेन्द्रिय जीवों के विषय में भी समझना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव भी (वनस्पति की अपेक्षा) अनन्त हैं । सामान्य जीवों की अपेक्षा नारक जीव थोड़े हैं। अतः उनमें तीन भंग पाये जाते हैं। १ कभी उनमें विग्रह गति वाला एक भी जीव नहीं पाया जाता है, सभी अविग्रह गति समापन्न होते हैं । २ अथवा कभी कोई एक विग्रह गति समापन होता है और बहुत जीव अविग्रह गति समापन्न होते है । ३ अथवा कभी बहुत जीव विग्रह गति समापन्न और बहुत जीव अविग्रह गति समापन्न होते हैं । नारकियों की तरह सभी दण्डकों में ये तीन भंग पाये जाते हैं, किन्तु एकेन्द्रियों में और जीव सामान्य में य तीन भंग नहीं पाये जाते हैं। ' गति का प्रकरण होने से च्यवन सूत्र कहा गया है-विमान और परिवार की अपेक्षा महाऋद्धि वाला, शरीर और आभूषणों की अपेक्षा महाकान्ति वाला, महाबलशाली, महायशस्वी, महा सूख वाला, अनेक प्रकार का रूप करने की शक्ति वाला कोई देव, जब देवायु समाप्त होने से च्यवने वाला होता है, तब वह अपने उत्पत्ति स्थान (स्त्री अथवा तिर्यञ्चिनी के गर्भाशय) को देखकर लज्जित होता है, क्योंकि वह स्थान, देवस्थान की अपेक्षा हीन . और अशुचिमय अपवित्र होता है । अपने उत्पत्ति स्थान में रज और वीर्य रूप गन्दगी को देखकर घृणा उत्पन्न होती है । उसे अरति रूप परीषह (बेचैनी) उत्पन्न होता है, इसलिए वह कुछ समय तक आहार भी नहीं करता है । तदनन्तर आहारादि करता है । देवायु समाप्त होने पर वह मनुष्यगति में अथवा तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होता है । क्योंकि देव मरकर मनुष्यगति अथवा तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होता है, किन्तु देवति या नरकगति में उत्पन्न नहीं होता है। गर्भ विचार . २४१ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे किं सइंदिए वक्कमइ, अणिंदिए वक्कमइ ? २४१ उत्तर-गोयमा ! सिय- सइंदिए वक्कमइ, सिय अणिदिए - वक्कमइ। For Personal & Private Use Only | Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ विचार २९७ २४२ प्रश्न-से केणटेणं ? २४२ उत्तर-गोयमा ! दबिंदियाइं पडुच आणिदिए वक्कमइ, भाविंदियाइं पडुन सइंदिए वकमइ । से तेणटेणं..... २४३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे किं ससरीरी वकमइ, असरीरी वक्कमइ ? २४३ उत्तर-गोयमा ! सिय ससरीरी वकमइ, सिय असरीरी वक्कमह। २४४ प्रश्न-से केणटेणं ? २४४ उत्तर-गोयमा ! ओरालियचेउब्विय-आहारयाइं पडुच्च असरीरी वकमइ । तेया-कम्माइं पडुच्च ससरीरी वकमइ, से तेणटेणं गोयमा !.....। २४५ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे तप्पढमयाए किं आहारं आहारेइ ?. २४५ उत्तर-गोयमा ! माउओयं, पिउसुक्कं तं तदुभयसंसिटुं कलुसं, किविसं तप्पढमयाए आहारं आहारेइ । . २४६ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे किं आहार आहारेइ ? २४६ उत्तर-गोयमा ! जं से माया नाणाविहाओ रसविगईओ आहारं आहारेइ, तदेकदेसेणं ओयं आहारेइ । For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ . . भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ विचार . . २४७ प्रश्न-जीवस्स णं भंते ! गभगयस्स समाणस्स अस्थि उच्चारे इ वा, पासवणे इ वा, खेले इ वा, सिंघाणे इ वा, वंते इ वा, पित्ते इ वा ? २४७ उत्तर-णों इणटे समढे। . २४८ प्रश्न-से केणटेणं ? २४८ उत्तर-गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जं आहारेड़ तं चिणाइ, तं सोइंदियत्ताए जाव-फासिंदियत्ताए, अट्ठि-अद्विमिंजकेस-मंसु-रोम-नहत्ताए, से तेणटेणं....। २४९ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गभगए समाणे पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ? २४९ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । २५० प्रश्न-से केपट्टेणं ? २५० उत्तर-गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ उस्ससइ, सव्वओ निस्ससइ; अभिक्खणं आहारेइ, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं उस्ससइ, अभिक्खणं निस्ससह, आहच आहारेइ, आहच्च . परिणामेइ, आहच्च उस्ससइ, आहच्च नीससइ; माउजीवरसहरणी, पुत्तजीवरसहरणी, माउजीवपडिबद्धा पुत्तजीवफुडा तम्हा आहारेइ, तम्हा परिणामेइ; अवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -शं. १ उ. ७ गर्भ विचार चिणाइ, तम्हा उवचिणाइ; से तेणटेणं जाव-नो पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए। विशेष शब्दों के अर्थ-वक्कममाणे-उत्पन्न होता हुआ, माउओयं-माता का ओज= रज, पिउसुक्क-पिता का शुक्र-वीर्य, तदुभयसंसिठं-परस्पर एक दूसरे में मिले हुए, उच्चारे-विष्ठा-मल, पासवणे-मूत्र, खेले-श्लेष्म-कफ, सिंघाणे-नाक का मैल, वंते-वमन, पित्ते-पित्त, अट्ठि-अस्थि-हड्डी, अटिमिज-अस्थिमज्जा, केस-केश, मंसु-श्मश्रू दाढ़ी, रोम-रोम, णहत्ताए-नख रूप से, कावलियं आहारं-कवलाहार, आहच्च-कदाचित्, पुत्तजीव पडिबद्ध-पुत्र के जीव से प्रतिबद्ध, माउजीवफुडा-माता के जीव से स्पृष्ट । __ भावार्थ-२४१ प्रश्न-हे भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, क्या इन्द्रिय वाला उत्पन्न होता है, या बिना इन्द्रिय का उत्पन्न होता है ? २४१ उत्तर-हे गौतम ! इन्द्रिय वाला भी उत्पन्न होता है और बिना इन्द्रिय का भी उत्पन्न होता है। _____२४२ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? २४२ उत्तर-हे गौतम ! द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा बिना इन्द्रियों का उत्पन्न होता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों सहित उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है। .. २४३ प्रश्न-हे भगवन् ! गर्भ में उपजता हुआ जीव क्या, शरीर सहित उत्पन्न होता है, या शरीर रहित उत्पन्न होता है ? २४३ उत्तर-हे गौतम ! शरीर सहित भी उत्पन्न होता है और शरीर रहित भी उत्पन्न होता है। २४४ प्रश्न-हे भगवन् ! सो किस कारण से ? .. २४४ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों की अपेक्षा शरीर रहित उत्पन्न होता है और तंजस कार्मण शरीर की अपेक्षा शरीर सहित उत्पन्न होता है । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा है। २४५ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव गर्भ में उत्पन्न होते ही सर्व प्रथम क्या आहार करता है ? For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० भगवती सूत्र - श. १ उ. ७ गर्भ विचार २४५ उत्तर - हे गौतम ! आपस में एक दूसरे से मिला हुआ माता का आर्तव और पिता का वीर्य, जो कलुष है और किल्विष है, उसका जीव, गर्भ में उत्पन्न होते ही आहार करता है। २४६ प्रश्न - हे भगवन् ! गर्भ में गया जीव क्या खाता है ? २४६ उतर- हे गौतम! गर्भ में गया हुआ ( उत्पन्न हुआ) जीव, माता द्वारा खाये हुए अनेक प्रकार के रसविकारों के एक भाग के साथ माता का आर्तव खाता है । २४७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या गर्भ में गये हुए जीव के मल, मूत्र, कफ, नाक का मैल, वमन और पित्त होता है ? २४७ उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, गर्भ में रहे हुए जीव के मल मूत्रादि नहीं होते हैं । ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? २४८ प्रश्न - हे भगवन् ! २४८ उत्तर - हे गौतम ! गर्भ में जाने पर जीव जो आहार खाता है, जिस आहार का चय करता है, उस आहार को श्रोत के रूप में यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में, हड्डी के रूप में, मज्जा के रूप में, बाल के रूप में, दाढ़ी के रूप में, रोमों के रूप में और नखों के रूप में परिणत करता है । इसलिए हे गौतम ! गर्भ में गये हुए जीव के मल मूत्रादि नहीं होते हैं । २४९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या गर्भ में उत्पन्न हुआ जीव, मुख द्वारा कंवलाहार (ग्रास रूप आहार ) करने में समर्थ है ? २४९ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है - ऐसा नहीं हो सकता है। २५० प्रश्न - हे भगवन् ! यह किस कारण से ? २५० उत्तर - हे गौतम! गर्भ में गया हुआ जीव, सर्व आत्म ( सारे शरीर) से आहार करता है, सर्व आत्म से परिणमाता है, सर्व आत्म से उच्छ्वास लेता है, सर्व आत्म से निःश्वास लेता है, बारबार आहार करता हैं, बार बार परिणमाता है, बार बार उच्छ्वास लेता हैं, बारबार निःश्वास लेता है, कदा For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ विचार ३०१ चित् आहार करता है, कदाचित् परिणमाता है, कदाचित् उच्छ्वास लेता है, कदाचित् निःश्वास लेता है, तथा पुत्रजीव को रस पहुंचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो 'मातृजीवरस हरणी' नाम की नाडी है, वह माता के जीव के साथ संबद्ध है और पुत्र के जीव के साथ स्पृष्ट-जुडी हुई है, उस नाडी द्वारा पुत्र का जीव आहार लेता है और आहार को परिणमाता है। एक दूसरी और नाडी है जो पुत्र के जीव के साथ संबद्ध है और माता के जीव से स्पृष्ट-जुडी हुई होती है, उससे पुत्र का जीव आहार का चय करता है, और उपचय करता है । हे गौतम ! इस कारण गर्भ में गया हुआ जीव, मुख द्वारा कवलाहार लेने में समर्थ नहीं है। विवेचन-इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। पौद्गलिक रचना विशेष को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । इसके दो भेद हैं–निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रव्येन्द्रिय । इन्द्रियों की बाहरी आकृति को 'निर्वति' कहते हैं और उसके सहायक को 'उपकरण' कहते हैं। भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । 'लब्धि' का अर्थ है-शक्ति, जिसके द्वारा आत्मा शब्दादि का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है, उसे लब्धिइन्द्रिय कहते हैं । उपयोग का अर्थ है-ग्रहण करने का व्यापार । जब जीव, एक गति का आयुष्य समाप्त कर दुसरी गति में माता के गर्भ में उत्पन्न होता है, तब वह भावेन्द्रिय सहित (द्रव्येन्द्रिय रहित) उत्पन्न होता है। .. • शरीर के पाँच भेद हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस् और कार्मण । इनमें से औदारिक, वैक्रिय और आहारक, ये तीन गरीर 'स्थूल शरीर' हैं और तेजस्, कार्मण ये दो शरीर ‘सूक्ष्म शरीर' हैं । तेजस् और कार्मण, ये दो शरीर अनादिकालीन हैं और सभी संसारी जीवों के होते हैं । खाये हुए आहार को पचाना और शरीर में ओज उत्पन्न करने का गुण तेजस् शरीर का है । कर्मों का खजाना कार्मण शरीर कहलाता है । यही शरीर जन्म जन्मान्तर का कारण है । जब जीव गर्भ में आता है, तब तेजस और कार्मण के साथ आता है। इन दोनों शरीरों की अपेक्षा जीव शरीर सहित गर्भ में आता है और औदारिक, वैक्रिय, आहारक, इन तीन शरीरों की अपेक्षा जीव शरीर रहित गर्भ में आता है। गर्भ में पहुंचने के प्रथम समय में जीव माता के आर्तव (ऋतु सम्बन्धी रज) और पिता के वीर्य का जो सम्मिश्रण होता है उसे ग्रहण करता है । तत्पश्चात् माता द्वारा ग्रहण For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ७ गर्भगत जीव के अंगादि किये हुए रस-विकारों का एक भाग ओज के साथ ग्रहण करता है । गर्भगत जीव के मल, मूत्र, कफ, नाक का मैल, वमन, पित्त नहीं होते हैं, किन्तु वह उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय आदि रूप से परिणमाता है । वह कवलाहार नहीं करता, किन्तु सर्वात्म रूप से आहार करता है । एक 'मातृजीव-रसहरणी' नाड़ी होती है । रसहरणी का अर्थ है - नाभिका नाल । इस नाल द्वारा माता के जीव का रस ग्रहण किया जाता है । यह नाड़ी, माता के जीव के साथ प्रतिबद्ध (गाढ़ रूप से बद्ध ) होती है और पुत्र के जीव के साथ मात्र स्पृष्ट होती है । दूसरी एक नाड़ी और है जिसे 'पुत्रजीवरसहरणी' नाड़ी कहते हैं । यह पुत्र के जीव के साथ प्रतिबद्ध (गाढ़ रूप से बद्ध ) होती है और माता के जीव के साथ स्पृष्ट होती है । इस नाड़ी द्वारा पुत्र का जीव आहार का चय, उपचय करता है। इससे गर्भस्थ जीव पुष्टि प्राप्त करता है । 1 ३०२ गर्भगत जीव के अंगादि २५१ प्रश्न – कइ णं भंते ! माझ्यंगा पण्णत्ता ? २५१ उत्तर - गोयमा ! तओ माइयंगा पण्णत्ता । तं जहा:मंसे, सोणिए, मत्थुलुंगे । २५२ प्रश्न – कइ णं भंते ! पिइयंगा पण्णत्ता ? २५२ उत्तर - गोयमा ! तओ पिहयंगा पण्णत्ता । तं जहा:अट्ठि, अट्ठिमिंजा, केस-मंसु - रोम - नहे । २५३ प्रश्न - अम्मापिइए णं भंते ! सरीरए केवइयं कालं संचिgs ? २५३ उत्तर - गोयमा ! जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावने भवइ एवतियं कालं संचिट्ठह । अहे र्ण समए, समए, 1 For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भगत जीव के अंगादि ३०३ वोयसिन्जमाणे, वोयसिन्जमाणे चरमकालसमयंसि वोच्छिण्णे भवइ । विशेष.शब्दों के अर्थ-माइयंगा-माता के अंग, पिइयंगा-पिता के अंग, अव्वावण्णे -अविनाश । .. भावार्थ-२५१ प्रश्न-हे भगवन् ! माता के कितने अंग कहे गये हैं ? २५१ उत्तर-हे गौतम ! माता के तीन अंग कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-मांस, रक्त और मस्तक का भेजा (भेज्जक)। २५२ प्रश्न-हे भगवन् ! पिता के कितने अंग कहे गये हैं ? २५२ उत्तर-हे गौतम ! पिता के तीन अंग कहे गये है। वे इस प्रकार है-हड्डी, मज्जा और केश, दाढ़ी, रोम तथा नख। २५३ प्रश्न-हे भगवन् ! माता पिता के अंग सन्तान के शरीर में कितने काल तक रहते हैं ? २५३ उत्तर-हे गौतम ! सन्तान का भवधारणीय शरीर जितने समय तक रहता है उतने समय तक वे अंग रहते हैं और जब भवधारणीय शरीर समय समय पर हीन होता हुआ अन्त में नष्ट हो जाता है, तब माता पिता के अंग भी नष्ट हो जाते हैं। विवेचन-जिन अंगों में माता के आर्तव का भाग अधिक होता है, वे माता के अंग कहे जाते हैं और जिन अंगों में पिता के वीर्य का भाग अधिक होता है वे पिता के अंग कहे जाते हैं। माता के तीन अंग हैं-मांस, रक्त और मस्तुलंग। मस्तलंग का अर्थ है-मस्तक का भेजा । कुछ आचार्य 'मस्तुलुंग' का अर्थ 'चर्बी, फेफसा आदि' कहते हैं । पिता के तीन अंग है-हड्डी, हड्डी की मज्जा (हड्डी के बीच का भाग) और केश रोम नख आदि । इनके सिवाय शेष सब अंग माता और पिता दोनों के पुद्गलों से बने हुए हैं । जब तक सन्तान का भवधारणीय शरीर (जो शरीर उस भव में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त रहता है) रहता है. तब तक माता पिता के पुद्गल उस शरीर में कायम रहते हैं। समय समय पर वे पुद्र, गल हीन होते जाते हैं, जब वे समाप्त हो जाते हैं तब सन्तान का वह भवधारणीय शरीर : भी समाप्त हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भस्थ जीव की नरकादि गति गर्भस्थ जीव को नरकादि गति - २५४ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गभगए समाणे नेरइएसु उववज्जेज्जा ? २५४ उत्तर-गोयमा ! अस्थेगइए उववज्जेजा, अत्थेगइए नो उववज्जेजा। २५५ प्रश्न-से केणटेणं ? २५५ उत्तर-गोयमा ! से णं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पजत्तए वीरियलद्धीए, वेउब्वियलद्धीए पराणीयं आगयं सोच्चा, निसम्म पएसे निच्छुभह, निच्छुभित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणिता चाउरंगिणिं सेण्णं विउब्वइ, चाउरंगिणिं सेणं विउव्वित्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सदधिं संगामं संगामेइ । से णं जीवे अत्थकामए, रजकामए, भोगकामए, कामकामए; अस्थकंखिए, रजकंखिए, भोगकंखिए, कामकंखिए; अत्थपिवासए, रजपिवासए, भोगपिवासए, कामपिवासए; तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदझवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे, तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे, तब्भावणाभाविए, एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज नेरइएसु उववजह । से तेणटेणं गोयमा ! जाव-अस्थगइए उववजेजा, अस्थगइए नो उववज्जेजा। २५६ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गभगए समाणे देवलोगेसु For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भस्थ जीव की नरकादि गति ३०५ उववज्जेजा ? २५६ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेजा, अत्थेगइए नो उववज्जेजा। २५७ प्रश्न-से केणटेणं ? २५७ उत्तर-गोयमा ! से णं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पज्जत्तए तहारूवस्स समणस्स वा, माहणस्स वा अंतिए एगमपि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा, निसम्म तओ भवइ संवेगजायसड्ढे, तिव्वधम्माणुरागरत्ते, से गंजीवे धम्मकामए, पुण्णकामए सग्गकामए, मोक्खकामए; धम्मकंखिए, पुण्णकंखिए, सग्गकंखिए, मोक्खकंखिए; धम्मपिवासए पुण्णपिवासए, सग्ग-मोक्खपिवासए; तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे, तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे, तब्भावणाभाविए एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज देवलोगेसु उववजइ । से तेणटेणं गोयमा !.....। _ विशेष शब्दों के अर्थ-वीरियलद्धीए-वीर्य लब्धि के द्वारा, वेउम्वियलद्धीए-वैक्रिय लब्धि के द्वारा, पराणीयं-परानीक-शत्रु की सेना, णिच्छभइ-आत्मप्रदेशों को बाहर निकालता है, चाउरंगिणि-चतुरंगिनी सेना को, अत्यकामए-अर्थ का कामी-इच्छुक, अत्यकंखिएअर्थ का कांक्षी, अत्यपिवासिए-अर्थ पिपासित, तदज्यवसिए-उसमें अध्यवसाय रखने वाला, तत्तियज्यवसाणे-उसमें तीव्र अध्यवसान-प्रयत्न करने वाला, तबट्ठोवउत्ते-उस अर्थ में उपयुक्त-सावधानता वाला, तदप्पियकरणे-तदपितकरण अर्थात् जिसकी इन्द्रियाँ और कृत. कारित अनुमोदन उसी में लगे हुए हैं वह, अंतरंसि-बीच में,तहारूवस्स समणस्स वा माह स्स वा-तथा रूप के श्रमण माहण अर्थात् साधु के योग्य वेष और साधु के उचित गुणों को धारण करने वाले साधु का तथा माहन अर्थात् श्रावक का, संवेगजायसडे-संवेग से जिसे For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ७ गर्भस्थ जीव की नरकादि गति धर्म में श्रद्धा उत्पन्न हुई है अर्थात् धर्म श्रद्धालु तिव्वधम्माणुरागरते- तीव्र धर्मानुराग रक्त, पुण्ण- - पुण्य, सग्ग-स्वर्ग । ३०६ भावार्थ - २५४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या गर्भ में रहा हुआ जीव, नरक में उत्पन्न होता है ? २५४ उत्तर - हे गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है। २५५ प्रश्न - - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? -- २५५ उत्तर - हे गौतम! गर्भ में रहा हुआ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संब पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव, वीर्य-लब्धि द्वारा, वैक्रिय-लब्धि द्वारा, शत्रु की सेना को आई हुई सुनकर, अवधारण करके अपने आत्मप्रदेशों को गर्भ से बाहर निकालता है, बाहर निकालकर वैक्रिय समुद्घात से समवहत होकर चतुरंगिनी सेना की विक्रिया करता है । चतुरंगिनी सेना की विक्रिया करके उस सेना से शत्रु की सेना के साथ युद्ध करता है । वह अर्थ (धन) का कामी, राज्य का कामी, भोग का कामी, काम का कामी, अर्थ में लंपट, राज्य में लंपट, भोग में लंपट तथा काम में लंपट, अर्थ का प्यासा, राज्य का प्यासा, भोग का प्यासा और काम का प्यासा, उन्हीं में चित्त वाला, उन्हीं में मन वाला, उन्हीं में आत्म परिणाम वाला, उन्हीं में अध्यवसित, उन्हीं में प्रयत्न वाला, उन्हीं में सावधानता वाला, उन्हीं के लिए क्रिया करने वाला और उन्हीं के संस्कार वाला जीव, यदि उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो, तो नरक में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम! कोई जीव नरक में जाता है और कोई नहीं जाता है । २५६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या गर्भ में रहा हुआ जीव, देवलोक में जाता है ? २५६ उत्तर - हे गौतम! कोई जीव जाता है और कोई नहीं जाता है । २५७ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २५७ उत्तर - हे गौतम! गर्भ में रहा हुआ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और सब पर्याप्तियों से पर्याप्त (पूर्ण) जीव, तथारूप के श्रमण या माहन के पास एक भी For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भस्थ जीव की नरकादि गति ३०७ धार्मिक आर्य वचन सुनकर, हृदय में धारण करके तुरन्त ही संवेग से धर्म में श्रद्धालु बनकर, धर्म के तीव अनुराग में रक्त होकर, वह धर्म का कामी, पुण्य का कामी, स्वर्ग का कामी, मोक्ष का कामी, धर्म म आसक्त, पुण्य में आसक्त, स्वर्ग में आसक्त, मोक्ष में आसक्त, धर्म का प्यासा, पुण्य का प्यासा, स्वर्ग का प्यासा, मोक्ष का प्यासा, उसी में चित्त वाला, उसी में मनवाला, उसी में आत्मपरिणाम वाला, उसी में अध्यवसित, उसी में तीव्र प्रयत्न वाला, उसी में सावधानता वाला, उसी के लिए क्रिया करने वाला और उसी संस्कार वाला जीव. यदि ऐसे समय में मृत्यु को प्राप्त हो, तो देवलोक में उत्पन्न होता है । इसलिए हे गौतम ! कोई जीव देवलोक में जाता है और कोई नहीं जाता है। विवेचन-गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! गर्भ में रहा हआ कोई जीव, नरक में जाता है और कोई नहीं जाता है। इसका कारण यह है कि-कोई जीव राजवंश आदि से, गर्भ में आया हुआ है और उस समय संयोगवश उसका कोई शत्रु राजा, उसके राज्य को हड़पने के लिए सेना लेकर चढ़ आया । सेना आई हुई सुनकर अपने राज्य की रक्षा के लिए उसमें धन, राज्य और कामभोगों की इच्छा लालसा, पिपासा और तीव्रता पैदा होती है, जिससे वह वैक्रिय-लब्धि द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को गर्भ से बाहर निकालकर वैक्रिय-समुद्घात करता है । वैक्रिय-समुद्घात करके वह गर्भस्थ बालक हाथी, घोड़े, रथ और पंदल, यह चतुरंगिनी सेना बनाता है और आई हई-शत्रकी सेना से लडाई करता है। उस समय उसका चित्त धन, राज्य और कामभोगों में आसक्त रहता है और ऐती कलुषित तीव्र भावना रहती है कि-सामने वाले शत्रु राजा को मार डालूं और अपना राज्य बचा लूं । ऐसे समय में यदि उसकी मृत्यु हो जाय, तो वह मरकर नरक में चला जाता है। '' इसी प्रकार कोई गर्भस्थ जीव मरकर स्वर्ग में भी चला जाता है । इसका कारण यह है कि गर्भस्थ संज्ञी पञ्चेद्रिय, सब पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव, आगमानुसार व्रतों का पालन करने वाले श्रमण (साधु) या माहण (देशविरत-श्रमणोपासक) के पास एक भी धार्मिक आर्य वचन सुनकर उसे हृदय में धारण करता है और धर्मश्रद्धालु बन जाता है। वह धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष का इच्छुक बनकर उसी में तल्लीन बन जाता है। ऐसे समय में शुभ अध्यवसायों में यदि उसकी मृत्यु हो जाय, तो वह देवलोक में जाता है। For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ में जीव की स्थिति मूल पाठ में श्रमण माहन के लिए 'तथा रूप' यह विशेषण लगाया है । इसका मतलब यह है कि-'शास्त्रोक्त गुणसम्पन्न' । अर्थात् शास्त्र में 'श्रमण माहन' के जो गुण कहे हैं उन गुणों को तथा तदनुरूप वेश को धारण करने वाले महात्मा 'तथा रूप' के श्रमण माहन कहलाते हैं । जो समभाव में लीन रहते हैं एवं शत्रु मित्र पर समभाव रखते हैं तथा निरन्तर तप में लीन रहते हैं, उन्हें 'श्रमण' कहते हैं । ‘मा हन' अर्थात् 'मत मार' जो ऐसा उपदेश देता है अर्थात् जो स्वयं स्थूल हिंसा नहीं करता और दूसरों को भी हिंसा से निवृत्त होने का उपदेश देता है, वह 'माहन' कहलाता है । 'ब्राह्मण' को भी 'माहन' कहते हैं । अर्थात् देशतः ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ब्रह्मचारी को और देश विरत-श्रमणोपासक को भी 'माहन' कहते हैं। गर्भ में जीव की स्थिति २५८ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गभगए समाणे उत्ताणए वा, पासिल्लए वा, अंबखुजए वा; अच्छेज वा, चिटेज वा, निसीएज वा, तुयट्टेज वा, माउए सुयमाणीए सुवइ, जागरमाणीए जागरइ, सुहियाए सुहिए भवइ, दुहियाए दुहिए भवइ ? ___२५८ उत्तर-हंता गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जावदुहियाए दुहिए भवइ, अहे णं पसवणकालसमयंसि सीसेण वा, पाएहिं वा आगच्छ, सम्मं आगच्छइ, तिरियं आगच्छइ, विणिहायं आवजइ, वण्णवज्झाणि य से कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाई, निहताई, कडाई, पट्टवियाई, अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाइं, उदिनाई, नो उवसंताई भवंति, तओ भवइ दुरूवे, 'दुवन्ने दुग्गंधे, दुरसे, दुफासे, अणिटे, अकंते, अप्पिए, असुभे; अमणुण्णे, अमणामे; हीणस्सरे; For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ में जीव की स्थिति दीणस्सरे अणिठुस्सरे, अकंतस्सरे, अप्पियस्सरे, असुभस्सरे, अमणुण्णस्सरे, अमणामस्सरे; अणाएजवयणे, पञ्चायाए या वि भवइ । वण्णवज्झाणि य से कम्माइं नो बद्धाई, पसत्थं णेयव् जावआदिजवयणे पञ्चायाए या वि भवइ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ॥ सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-उत्ताणए-उत्तानक-चित लेटा हुआ, पासिल्लए-पसवाड़े से, अंबखुज्जए-आम्रकुब्ज-आम की तरह कुबड़ा, अच्छेज्ज-सामान्य अवस्था में रहा हुआ, चिठेज्ज-खड़ा हुआ, णिसीएज्ज-बैठा हुआ, तुयट्टेज्ज-सोता हुआ, पसवणकालसमयंसिप्रसव के समय, विणिहायं-विनिधात-मृत्यु, वण्णवमाणि-श्लाघा रहित-अशुभ, णिहत्ताईनिधत्त, पच्चायाए-उत्पन्न हुआ, आदिज्जवयणे-आदेय वचन वाला। 'भावार्थ-२५८ प्रश्न-हे भगवन् ! गर्भ में रहा हुआ जीव, क्या उत्तानक -चित लेटा हुआ होता है ? या करवट वाला होता है ? आम के समान कुबड़ा होता है ? खड़ा होता है ? बैठा होता है, या पड़ा हुआ-सोता हुआ होता है ? तथा जब माता सोती हुई हो वह भी सोता है ? जब माता जागती हो तो जागता है, माता के सुखी होने पर सुखी होता है और माता के दुःखी होने पर दुःखी होता है ? . २५८ उत्तर-हाँ, गौतम ! गर्भ में रहा हुआ जीव यावत् जब माता दुःखी हो, तो दुःखी होता है । यदि वह गर्भ का जीव मस्तक द्वारा या पैरों द्वारा बाहर आवे तब तो ठीक तरह आता है । यदि टेढा (आड़ा) हो कर आवे, तो मर जाता है। यदि उस जीव के कर्म अशुभ रूप में बंधे हों, स्पृष्ट हों, निधत्त हों, कृत हों, प्रस्थापित हों, अभिनिविष्ट हों, अभिसमन्वागत हों, उदीर्ण हों और उपशांत न हों, तो वह जीव कुरूप, कुवर्ण (खराब वर्णवाला), खराब गन्ध वाला For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० भगवती सूत्र-श.१ उ. ७ गर्भ के जीव की स्थिति . खराब रस वाला, खराब स्पर्श वाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम-अमनोहर, हीन स्वर वाला, दोन स्वर वाला, अनिष्ट स्वर वाला, अकान्त स्वर वाला, अप्रिय स्वर वाला, अशुभ स्वर वाला, अमनोज स्वर बाला, अमनोहर स्वर वाला, अनादेय वचन वाला होता है और यदि उस जीव के कर्म अशुभ रूप में न बंधे हुए हों, तो उसके उपर्युक्त सब बातें प्रशस्त होती हैं यावत् . वह आदेय वचन वाला होता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचम-गर्भ में रहा हुआ जीव, उत्तान आसन से भी रहता है, यानी ऊपर की तरफ मुख किये हुए चित सोता है, करवट लेकर भी सोता है, आम्रफल की तरह टेढ़ा होकर भी रहता है, खड़ा रहता है, बैठा रहता है, सोता रहता है. ये सब बातें माता पर आधार रखती है । अर्थात् माता के खड़े रहने,पर खड़ा रहता है, बैठने पर बैठता है, और सोने पर सोता है । तात्पर्य यह है कि माता की क्रिया पर बालक की क्रिया निर्भर है। किसी किसी बालक का प्रसव सिर की तरफ से होता है और किसी का पांव की तरफ से। इस तरह कोई सम होकर जन्मता है और कोई तिर्छा होकर, जब बालक तिर्छा होकर जन्मता है, तब बालक को और माता को असह्य वेदना होती है। उस समय योग्य उपाय करने पर यदि बालक सीधा हो जाय तो ठीक है, अन्यथा बालक और माता दोनों की मुत्यु हो जाने की संभावना रहती हैं । कई बार तो माता की रक्षा के लिए गर्भ के बालक को काट काट कर निकाला जाता है। जिस जीव ने पूर्वभव में शुभ कर्म उपार्जन किये हैं, वह यहां भी शुभ होता है । वह सुरूप होता है, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस और सुस्पर्श वाला होता है । इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, एवं मनोज्ञ होता है । उसका स्वर भी इष्ट कान्त आदि होता है । वह आदेय वचन वाला होता है। सभी लोग उसके वचन को मान्य करते हैं। जीव ने पूर्वभव में अशुभ कर्म उपार्जन किये हैं, वह कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, दुःरस और दुःस्पर्श वाला होता है । वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ और अमनोज्ञ होता है । वह हीनस्वर वाला, दीनस्वर वाला एवं अनादेय वचन वाला होता है। ___गौतमस्वामी बोले-हे भगवन् ! ऐसा ही है, ऐसा ही है । यह कह कर वे तप संयम में विचरने लगे। ॥ प्रथम शतक का सातवां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ बाल पंडितादि का आयुबन्ध शतक १ उद्देशक ८ बाल पंडितादि का आयुबन्ध रायगि समोर | जाव - एवं वयासी :२५९ प्रश्न - एगंतबाले णं भंते ! मणुस्से किं णेरइयाज्यं पकरेह तिरिक्खाज्यं पकरेह, मणुस्साउयं पकरेह, देवाउयं पकरेह ? णेरहयाज्यं किच्चा रइएस उववज्जइ, तिरियाज्यं किचा तिरिएसु उववज्जह, मणुस्साज्यं किच्चा मणुस्सेसु उववज्जह, देवाउयं किवा देवलोगे सु उववज्जइ ? २५९ उत्तर - गोयमा ! एगंतवाले णं मणुस्ले णेरहयाउयं पि पकरेs, तिरिया उयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पि पकरेइ, देवाउयं पि पकरेs | रइयाज्यं पि किवा णेरइएसु उववज्जइ, तिरियाज्यं पि किंवा तिरिएस ज्ववज्जइ, मणुस्साज्यं पि किया मणुस्सेसु उववज्जइ, देवाउयं पि किवा देवलोगेसु उववज्जइ । २६० प्रश्न - एगंतपंडिए णं भंते! मणुस्से किं णेरइयाज्यं पकरेह, जाव - देवाउयं किया देवलोएस उववज्जर ? २६० उत्तर - गोयमा ! एगंतपंडिए णं मणूसे आउयं सिय पकरेह, सिय णो पकरेs; जह पकरेह मो णेरइयाउयं पकरेह, णो तिरियाज्यं पकरेह, णो मणुस्साउयं पकरेह, देवाउयं पकरेs | ३११ For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ वाल पंडितादि का आयुबन्धन णो णेरइयाउयं किच्चा णेरइएसु उववजइ, णो तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववजइ, णो मणुस्साउयं किच्चा मणुस्सेसु उववजइ, देवाउयं किचा देवेसु उववजइ। २६१ प्रश्न-से केपट्टेणं जाव-देवाउयं किच्चा देवेसु उववजह ? ____ २३१ उत्तर-गोयमा ! एगंतपंडियस्स णं मणूसस्स केवलं एवं दो गईओ पण्णायंति, तं जहाः-अंतकिरिया चेव, कप्पोववत्तिया चेव । से तेणटेणं गोयमा ! जाव-देवाउयं किच्चा देवेसु उववजह । २६२ प्रश्न-बालपंडिए णं भंते ! मणुस्से किं रइयाउयं पकरेइ, जाव-देवाउयं किचा देवेसु उववंजइ ? २६२ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेइ, जाव-देवाउयं किचा देवेसु उववजइ। २६३ प्रश्न-से केणद्वेणं, जाव-देवाउयं किचा देवेसु उववजइ ? - २६३ उत्तर-गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से तहारूवस्स समणस्स वा, माहणस्स वा अंतिए एगमपि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा, णिसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ, देसं पञ्चक्खाइ, देसं णो पच्चक्खाइ। से तेणटेणं देसोवरम-देसपञ्चक्खाणेणं णो णेरइयाज्यं पकरेइ; जाव-देवाउयं किच्चा देवेसु उववजइ । से तेणटेणं जाव-देवेसु उववजह । विशेष शब्दों के अर्थ-किच्चा-करके, एगंतबाले-एकान्त बाल, एगंतपंडिए-एकान्त For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ बाल-पण्डितादि का आयुबन्ध पण्डित, अंतकिरिया - अन्तक्रिया = मोक्ष गमन की क्रिया, कप्पोववत्तिया - कल्पोपपत्तिका = वैमानिक देवों में उत्पन्न होने की क्रिया, देस उवरमइ - एक देशतः पाप से निवृत्त होता है । भावार्थ - राजगृह नगर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का समवसरण हुआ और यावत् इस प्रकार प्रश्नोंत्तर हुए ३१३ की २५९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या एकान्त- बाल ( मिथ्यादृष्टि) मनुष्य, नरक आ बाँधता है ? या तिर्यञ्च की आयु बाँधना है ? या मनुष्य की आयुबाँधता है ? या देव को आयु बाँधता है ? क्या नरक की आयु बाँध कर नारकियों में उत्पन्न होता है ? क्या तिर्यञ्चों की आयु बांधकर तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? मनुष्य की आयु बाँध कर मनुष्य में उत्पन्न होता है ? या देव की आयु बांध कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? २५९ उत्तर - हे गौतम! एकान्त- बाल मनुष्य, नरक की भी आयु बाँधता है, तिर्यञ्च की भी आयु बांधता है, मनुष्य की भी आयु बांधता है और देव की भी आयु बांधता है। नरकायु बाँध कर नैरयिकों में उत्पन्न होता है । तिर्यञ्चायु बांध कर तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है । मनुष्यायु बाँध कर मनुष्यों में उत्पन्न होता है और देवायु बाँध कर देवलोक में उत्पन्न होता हैं । . २६० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या एकांत-पण्डित मनुष्य, नरकायु बाँधता हे ? यावत् देवायु बाँधता है ? और यावत् देवायु बाँध कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? २६० उत्तर - हे गौतम ! एकान्त पण्डित मनुष्य, कदाचित् आयु बांधता है और कदाचित् आयु नहीं बांधता है । यदि आयु बांधता है तो देवायु बांधता है, किन्तु नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु नहीं बांधता है । वह नरकायु न बांधने से नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता, इसी प्रकार तिर्यञ्चायु न बांधने से तिर्यञ्चों में उत्पन्न नहीं होता और मनुष्यायु न बंधने से मनुष्यों में भी उत्पन्न नहीं होता, किन्तु देवायु बांध कर देवों में उत्पन्न होता है । २६१ प्रश्न- हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि यावत् देवायु- बांध कर For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ बाल पण्डितादि का आयुबन्ध देवों में उत्पन्न होता है ? २६१ उत्तर-हे गौतम ! एकान्त पण्डित मनुष्य की केवल दो गतियां कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-अन्तक्रिया और कल्पोपपत्तिका । इस कारण हे गौतम ! एकान्त पण्डित मनुष्य देवायु बाँध कर देवों में उत्पन्न होता है। २६२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या बाल-पण्डित मनुष्य नरकायु बाँधता है यावत् देवायु बांधता है ? और यावत् देवायु बाँध कर देवलोक में उत्पन्न होता हैं ? २६२ उत्तर-हे गौतम ! वह नरकायु नहीं बाँधता और यावत् देवायु बांध कर देवों में उत्पन्न होता है। २६३ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि-बाल-पण्डित मनुष्य यावत् देवायु बाँध कर देवों में उत्पन्न होता है ? .. २६३ उत्तर-हे गौतम ! बाल-पण्डित मनुष्य तथारूप के श्रमण या माहन के पास से एक भी धार्मिक आर्य वचन सुनकर, धारण करके एक देश से विरत होता है और एक देश से विरत नहीं होता। एक देश से प्रत्याख्यान करता है और एक देश से प्रत्याख्यान नहीं करता । इसलिए हे गौतम ! देशविरति और देशप्रत्याख्यान के कारण वह नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का बन्ध नहीं करता और यावत् देवायु बाँध कर देवों में उत्पन्न होता है। इसीलिए हे गौतम! पूर्वोक्त कथन किया गया है। विवेचनसातवें उद्देशक में गर्भ और जन्म का अधिकार कहा गया है, किन्तु गर्भ और जन्म, आयुष्य के बन्ध बिना नहीं हो सकते। इसलिए आठवें उद्देशक में आयु का विचार किया जाता है । इसके सिवाय संग्रह गाथा में आठवें उद्देशक में बाल जीवों के वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी। अतएव आयु के साथ बाल जीवों का भी वर्णन किया जाता है। संसार में तीन प्रकार के जीव होते हैं-बालं, पण्डित और बाल पण्डित । मिथ्यादृष्टि और अविरत को 'एकान्त-बाल' कहते हैं । वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जान कर तदनुसार आचरण करने वाला 'पण्डित' कहलाता है । जो वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है, किन्तु आंशिक (एक देश) आचरण करता है उसे 'बालपण्डित' कहते है। .. मूलपाठ में ‘एगंत बाले-एकान्त बाल' ऐसा कहा है । 'बाल' शब्द के साथ 'एकांत' For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ बाल पंडितादि का आयुबन्ध विशेषण लगाया है, इमसे 'मिथ्यादृष्टि' और अविरत जीव का ही ग्रहण किया गया है, 'मिश्र दृष्टि' का नहीं । गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम ! 'बाल' जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों में जाता है । ३१५ यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि 'एकान्तबाल' जीवों का एकान्तबालकपन ( मिथ्यात्व) तो सरीखा है । फिर वह चारों गति का आयुष्य बांधता है । इसका क्या कारण है ? समाधान- इस शंका का समाधान यह कि आयुष्य बन्ध के कारण अलग अलग हैं । इसलिए एकान्तबालजीव भी उन उन कारणों से अलग अलग आयुष्य बांधते हैं । जो एकान्त बाल ( मिथ्यादृष्टि ) जीव महाआरम्भ, महापरिग्रहादि वाले होते हैं तथा असत्य मार्ग का उपदेश देकर लोगों को कुमार्ग में प्रवृत्त करते हैं और उसी प्रकार के दूसरे पापमय कार्य करते हैं, वे नरक अथवा तिर्यञ्च का आयुष्य बाँधते हैं। जो एकान्त बाल जीव अल्प कषायी होते हैं, अकाम निर्जरा आदि करते हैं, वे मनुष्य अथवा देव का ही आयुष्य बाँध हैं । 'एकान्तबाल' शब्द समान होते हुए भी अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तो देवायु ही बाँधता है । एकान्त पण्डित जीव साधु ही होते हैं । उनके सम्यक्त्व सप्तक (अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शन मोहनीय त्रिक, ये सात प्रकृतियाँ) के क्षय हो जाने के पश्चात् चे आयुष्य का बन्ध नहीं करते, अपितु उसी भर्व में मोक्ष चले जाते हैं । यदि उपर्युक्त सात प्रकृतियों के क्षय होने से पहले इनके क्षायोपशम में आयुष्य बन्ध हो, तो सिर्फ एक वैमानिक देव का ही होता है । इसीलिए पण्डित पुरुष के लिए कहा गया है कि वह कदाचित् आयुष्य - का बन्ध करता है और कदाचित् नहीं करता है । वस्तु तत्त्व का यथार्थ स्वरूप समझ कर जो आंशिक रूप से पापों का प्रत्याख्यान करता है और जितने अंश में त्याग नहीं कर सका है, उसके लिए अपनी कमजोरी स्वीकार करता है, वह 'बाल - पण्डित' कहलाता है। वह देशविरत श्रमणोपासक श्रावक भी कहलाता है । वह देवायु का ही बन्ध करता है। नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य नहीं बांधता है, क्योंकि वह शुद्ध संयम के पालक श्रमण-माहन के पास धार्मिक वचन सुनकर एक देशतः आरम्भ परिग्रहादि का त्याग कर देता है । उस सम्यक्त्व और त्याग के प्रताप से वह जीव तीन गतियों से बच जाता है और सिर्फ देवगति का ही आयुष्य बांधता 1. For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया २६४ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा, दहंसि वा, उदगंसिवा, दवियंसि वा, वलयंसि वा, मंसि वा, गहणंसि वा, गहणविदुग्गंसि वा, पव्वयंसि वा, पव्वतविदुग्गंसि वा, वर्णसि वा, वणविदुग्गंसि वा मियवितीए, मियसंकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंता ‘एते.मिए' त्ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दाति, तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए पण्णते ? २६४ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे कच्छंसि वा, जावकूडपास उद्दाइ, तावं च णं से पुरिसे सिय तिकिरिए, सिय चतुकिरिए, सिय पंचकिरिए। २६५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय तिकिरिए, सिय चतुकिरिए, सिय पंचकिरिए ?' ___ २६५ उत्तर-गोयमा ! जे भविए उद्दवणयाए, णो बंधणयाए, णो मारणयाए, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए-तिहिं किरिवाहिं पुढे । जे भविए उद्दवणयाए वि, बंधणयाए वि, णो मारणयाए, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाउसियाए, पारितावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे । जे भविए उद्दवणयाए वि, बंधणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया ३१७ काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए, जाव-पाणाइवायकिरियाए -पंचहिँ किरियाहिं पुढे, से तेणटेणं जाव-पंचकिरिए । . विशेष शब्दों के अर्थ-कच्छंसि-कच्छ में नदी के पानी से घिरे हुए झाड़ियों वाले स्थान में, वहंसि-द्रह में, उदगंसि-जलाशय में, दवियंसि-पास के ढेर में, वलयंसि-वलय अर्थात् गोलाकार पानी आदि के स्थान में, मंसि-अन्धकार वाले स्थान में, गहणंसि-गहन स्थान में, गहण विदुग्गंसि-पर्वत के एक भागवर्ती वन में, पव्वयंसि-पर्वत में, पव्यय विदुगंसि-पर्वतों के समुदाय में, वर्णसि-वन में, वणविदुग्गंसि-अनेक जाति के वृक्षों के समुदाय में, मियवित्तीए-मृगों को मार कर आजीविका चलाने वाला, मियसंकप्पे-मृग मारने का संकल्प वाला, मियपणिहाणे-मृग को मारने में एकाग्र चित्त वाला, कूडपासं-कूटपाश, उद्दाइ-रचता है। भावार्थ-२६४ प्रश्न-हे भगवन् ! मृगों से आजीविका चलाने वाला, मृगों का शिकारी, और मृगों के शिकार में तल्लीन कोई पुरुष, मृग को मारने के लिए कच्छ में, द्रह में, जलाशय में, घास आदि के समूह में, वलय में, (गोलाकार अर्थात् नदी आदि के पानी से आडे टेढ़े स्थान में) अन्धकार वाले प्रदेश में, गहन स्थान में (वृक्ष, बेल, आदि के समुदाय में)पर्वत के एक भागवर्ती वन में, पर्वत में, पर्वत वाले प्रदेश में वन में, और अनेक जाति के वृक्षों वाले वन में . जाकर 'ये मृग हैं, ऐसा सोच कर किसी मृग को मारने के लिए कूटपाश रचे अर्थात् गड्ढा बनावे या जाल फैलावे, तो हे भगवन् ! वह पुरुष कितनी क्रियाओं वाला कहा गया है ? अर्थात् उसे कितनी क्रिया लगती है ? ___ २६४ उत्तर-हे गौतम ! वह पुरुष, कच्छ में यावत् जाल फैलावे तो कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है। - २६५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह पुरुष कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित पांच क्रिया वाला होता है ? For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ भगवती सूत्र--ग. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया २६५ उत्तर-हे गौतम ! जबतक वह पुरुष जाल को धारण करता है और मृगों को बांधता नहीं है तथा मृगों को मारता नहीं है, तबतक वह पुरुष-कायिकी, आधिकरणिको और प्राद्वेषिकी, इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट . है अर्थात् तीन क्रिया वाला होता है । जबतक वह जाल को धारण किये हुए है और मृगों को बांधता है, किन्तु मारता नहीं, तबतक वह पुरुष-कायिकी, . आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी और पारितापनिकी, इन चार क्रियाओं से स्पष्ट है। जब वह पुरुष जाल को धारण किये हुए है, मृगों को बांधता है और मारता है,.. तब वह-कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिको इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट है अर्थात् पांच क्रिया वाला है। इस कारण हे गौतम ! वह पुरुष कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला है। विवेचन-यहाँ क्रिया के पाँच भेद बताये हैं(१) कायिकी-काया द्वारा होने वाला सावध व्यापार-कायिकी क्रिया है। (२) आधिकरणिकी-हिंसा के साधन-शस्त्रादि जुटाना-आधिकरणिको क्रिया कहलाती है। (३) प्राद्वेषिकी-हिंसा प्रद्वेष अर्थात् किसी पर दुष्ट भाव होने से लगने वाली क्रिया-प्राद्वेषिकी क्रिया कहलाती है। . (४) पारितापनिकी-किसी जीव को पीड़ा पहुँचाना-पारितापनिकी क्रिया कहलाती है। (५) प्राणातिपातिकी-जिस जीन को मारने का संकल्प किया था उसे मार डालना-प्राणातिपातिकी क्रिया कहलाती है। गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! मृग मारकर अपनी आजीविका चलाने वाला कोई शिकारी मृग मारने के संकल्प से जंगल में गया। उसने वहाँ मृग को फंसाने के लिए जाल फैलाया। तो हे भगवन् ! उसको कितनी क्रियाएँ लगीं? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ? केवल जाल फैलाने पर उसे तीन क्रियाएँ लगी । मृग के फंसने पर चार क्रियाएँ लगी और मृग को मारडालने पर पांच क्रियाएँ लगीं। For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ मृगपातकादि को लगने वाली क्रिया ३१९ . २६६ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा, जाव-वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय, ऊसविय. अगणिकार्य णिसिरह । तावं च.पं.से भंते ! पुरिसे कतिकिरिए ? .. २६६ उत्तर-गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए। ___२६७ प्रश्न-से केणटेणं? ... २६७ उतर-गोयमा ! जे भविए उस्सवणयाए तिहिं । उस्सवगाए वि, णिसिरणयाए वि, णो दहणयाए वहिं । जे भविए उस्सवणपाए वि, णिसिरणयाए वि, दहणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव-पंचहिं फिरियाहिं पुढे । से तेणडेणं गोयमा०। . विशेष शब्दों के अर्थ-तगाई-तण, मतपिप-कढे करके, महणपाए-जलाये । ... २६६ प्रश्न- भगवन् । कच्छ में पावत् पनषिपुर्ण (भनेक जाति के गोपालपन) में कोई पुरुष पास के तिलक एक करके उनमें भाग ले तो यह पुषव कितनी किमा पाला होता है? २६ गतर- गौतम ! यह पुरुष कयाचित् तीन सिमा माला, कहाचित् पार किया पाला मीर काचित पाच किया पाला होता है। .... २६७ प्रान-भगवन् । इसका या कारण है। २६७ उत्तर--हे गौतम ! जबतक वह पुरुष तिनके इकट्ठे करता है, तब तक वह तीन क्रिया वाला होता है। जब वह तिनके इकट्ठे कर लेता है. और उनमें आग डालता है, किन्तु जलाता नहीं है, तब तक वह चार क्रिया For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया वाला होता है । और जब वह तिनके इकट्ठे करता है, आग डालता है और जलाता है, तब वह पुरुष, कायिकी आदि पांच क्रिया वाला होता है । इसलिए हे गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रियां वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पाँच क्रिया वाला होता है । विवेचन —- इसी तरह तिनके घास फूस इकट्ठे करके उनमें आग डालने वाले पुरुष के सम्बन्ध में भी क्रिया का विचार किया गया है। २६८ प्रश्न - पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा, जाव-वणविदुग्गं सि वा मियवित्तीए, मियसंकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंता 'एए मिय' ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए उसुं णिसिरह, तओ गं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? २६८ उत्तर - गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकरिए | २६९ प्रश्न - से केणट्टेणं ? २६९ उत्तर - गोयमा ! जे भविए णिसिरणयाए, नो विद्वंसणया वि, नो मारणयाए वि तिहिं । जे भविए णिसिरणयाए वि विदधंसणयाए वि, णो मारणयाए चउहिं । जे भविए णिसिरणयाए वि, विदधंसणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे जावपंचहिं किरियाहिं पुट्टे । से तेणट्टेणं गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकरिए । विशेष शब्दों के अर्थ - अण्णयरस्स – किसी एक को, उसुं - बाण को । For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया ३२१ भावार्थ-२६८ प्रश्न-हे भगवन् ! मृगों से आजीविका चलाने वाला, मगों का शिकारी और मगों के शिकार में तल्लीन कोई पुरुष, मृगों को मारने के लिए कच्छ में यावत् वनविदुर्ग में जाकर 'ये मृग हैं' ऐसा सोचकर मृग को मारने के लिए. बाण फेंकता है, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है, अर्थात् उसे कितनी क्रिया लगती है ? . २६८ उत्तर-हे गौतम ! वह पुरुष कदाचित तीन क्रिया वाला, कहाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पाँच क्रिया वाला होता है। २६९ प्रश्न--हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २६९ उत्तर-हे गौतम ! जबतक वह पुरुष बाण फेंकता है, परन्तु मग को बेधता नहीं तथा मृग को मारता नहीं हैं तबतक वह पुरुष तीन क्रिया वाला होता है । जब वह बाण फेंकता है और मृग को बेधता हैं परन्तु मृग को मारता नहीं हैं, तबतक वह चार क्रिया वाला होता हैं। जब वह बाण फेंकता है, मग को बेधता हैं, और मृग को मारता है, तब वह पुरुष. पांच क्रिया वाला होता हैं। इसलिए हे गौतम ! वह पुरुष कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है। .. २७० प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा, जाव-अण्णयरस्स मियस्स वहाए आययकण्णाययं उसु आयामेत्ता चिटेजा, अण्णे य से (अन्नयरे) पुरिसे मग्गओ आगम्म सयपाणिणा, असिणा सीसं छिंदेजा, से य उसू ताए चेव पुवायामणयाए तं मियं विधेजा, से णं भंते ! पुरिसे किं मियवेरेणं पुढे ? पुरिसवेरेणं पुढे ? , २७० उत्तर-गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवरेणं पुढे । जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढे । For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिया २७१ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव से पुरिसवेरेणं ___२७१ उत्तर-से गूंणं गोयमा ! कजमाणे कडे, संधिज्जमाणे संधित्ते, णिवत्तिजमाणे निव्वत्तिए, निसरिजमाणे णिसिटे ति वत्तव्य सिया ? "हंता, भगवं ! कन्जमाणे कडे, जाव-णिसिटे त्ति वत्तव्वं सिया" । से तेणटेणं गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवरेणं पुढे । जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढे । अंतोछण्डं मासाणं मरह । काइयाए, जाव-पंचहिं किरियाहिं पुढे । बाहिं छण्हं मासाणं मरह, काइयाए, जाव-पारियावणियाए चाहिं किरियाहिं पुढे । विशेष शब्दों के अर्थ-मायतकण्णाययं-कान तक खींच कर, पुवायामणयाएपूर्व के सींचाव से, णिसिठे-फेंकने, संधिग्ममाणे-सन्धान करता हुभा, पिवत्तिन्नमाणेनिर्वतित करता हुआ = तैयार करता मा । निसरिजमाणे-फेंका जाता हमा। भावार्थ-२७० प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष, कच्छ में पावत् किसी मग काप करने के लिए कामतकलचे किये ४ए बाण को प्रवल पूर्वकबीच करपदा हो और सरा कोई पुरुष पीछे से भाकर उसबोहर पुरुष का मस्तक अपने हाथ से तलवार बारा फोगले।बह पाण पहले केजीचाव से खल कर उस मृग को अंध वाले, तो है भगवन् । क्या यह पुरुष मृग के पर से स्पृष्ण २७. उत्तर- गौतम | जो पुरुष मृग को मारता है वह मृग के वैर से स्पृष्ट है और जो पुरुष, पुरुष को मारता है वह पुरुष के वैर से स्पष्ट है। २७१.प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि यावत् वह पुरुष, पुरुष के वैर से स्पृष्ट है ? For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिमा २७१ उत्तर - हे गौतम ! यह निश्चित है कि 'कज्जमाणे कडे' अर्थात् जो किया जा रहा है वह "किया हुआ' कहलाता है। जो साधा जा रहा है वह 'साधा हुआ' कहलाता है । जो मोड़ा जा रहा है वह 'मुड़ा हुआ' कहलाता है और जो फेंका जा रहा है वह 'फेंका हुआ' कहलाता है ? हाँ, भगवन् ! जो किया जा रहा है वह किया हुआ कहलाता है और यावत् जो फेंका जा रहा है. वह फेंका हुआ कहलाता है । इसलिए हे गौतम! इसी कारण से जो मृग को मारता है वह मृग के बेर से स्पृष्ट कहलाता है और यदि मरने वाला छह मास के भीतर मरे, तो मारने वाला कायिकी आदि यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता है और यदि मरने वाला छह मास के बाद मरे, तो मारने वाला पुरुष कायिकी यावत् पारितापनिकी, इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता हैं । ३२३ बिबेचन‍ -मृग को मारने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा कर तैयार लड़े हुए पुरुष का मस्तक किसी ने पीछे से आकर काट दिया और उस मारने वाले के धनुष से छूटे हुए बाण से मृग मर गया, तो जिसके बाण से मृग मरा वह मृग घातक है और जिसने मनुष्य को मारा है वह मनुष्य - घातक है, क्योंकि 'चलमाणे चलिए, कज्जमाने कडे यह सिद्धांत सर्वत्र लागू होता है । जिस पुरुष का बाण मृगादि को लगा है, यदि वह मृगादि छह मास के अन्दर मर जाय, तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त माना जाता है । अतः उस पुरुष को प्राणातिपातिकी तक पाँचों क्रियाएँ लगती है । यदि वह मृगादि छह मास के बाद मरता है, तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त 'नहीं माना जाता है, इसलिए उसको प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं लगती है, किन्तु पारितापनिकी तक चार क्रियाएं ही लगती है। यह व्यवहारनय से कथन किया गया है, अन्यथा उस प्रहार के निमित्त से जब कभी भी मरण हो, तो उसे पांचों क्रियाएँ लगती है । २७२ प्रश्न- पुरिसे णं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिर्भसेज्जा, सयपाणिमा वा से असिणा सीसं छिंदेजा तओ गं भते ! से पुरिसे For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ घातक को लगने वाली क्रिया कति किरिए ? २७२ उत्तर - गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेइ, सयपाणिणा वा, से असिणा सीसं छिंद, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, जाव - पाणाइवायकिरियाए - पंचहिं किरियाहिं पुट्टे । आसण्णवहरण य अणवकंखणवत्तीए पं पुरिसवेरेणं पुढे । विशेष शब्दों के अर्थ- सत्तीए - शक्ति से भाले से, सयपाणिणा- अपने हाथ से, असिणा - तलवार से । २७२ प्रश्न - हे भगवन् ! कोई पुरुष, किसी पुरुष को बरछी से मारे. अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काट डाले, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? २७२ उत्तर - हे गौतम! जब वह पुरुष, उसे बरछी द्वारा मारता है। अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काटता है, तब वह पुरुष कायिकी आधिकरणिकी यावत् प्राणातिपातिकी, इन पांचों क्रियाओं से स्पष्ट होता है और आसन्नवधक एवं दूसरे के प्राणों की परवाह न करने वाला वह पुरुष, पुरुष वैर से स्पृष्ट होता हैं । विवेचन - बरछी से मारने वाले एवं तलवार से मस्तक काटने वाले पुरुष को पांच क्रियाएँ लगती हैं और वह पुरुष वैर से स्पृष्ट होता है और वह आसन्नवधक होता है. अर्थात् उस वैर के कारण वह उसी पुरुष द्वारा अथवा दूसरे द्वारा उसी जन्म में अथवा जन्मान्तर में मारा जाता है । जैसा कि कहा है “वह-मारण-अब्भक्खाणदाण-परधण-विलोवणाइं । 'सब्वजहण्णो उदयो, दसगुणिओ एक्कसि कयाणं" ॥ For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ हार जीत का कारण ३२५ __अर्थात्-वध, मारण, अभ्याख्यान (कूडा आल देना, झूठा दोषारोपण करना) और परधन चुराना, एक बार किये हुए इन अपकृत्यों का कम से कम दस गुणा उदय होता है। हार जीत का कारण ... २७३ प्रश्न-दो भंते ! पुरिसा सरिसया, सरित्तया, सरिव्वया, सरिसभंड-मत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं सद्धि संगाम संगामेंति, तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणइ, एगे पुरिसे पराइजह से कहमेयं भंते ! एवं ? २७३ उत्तर-गोयमा ! एवं वुचइ-सवीरिए पराइणइ, अवीरिए पराइजइ । २७४ प्रश्न-से केणटेणं जाव-पराइजइ ? २७४ उत्तर-गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई णो वद्धाई, णो पुट्ठाई, जाव-णो अभिसमण्णागयाइं, णो उदिण्णाई, उपसंताई भवंति; से णं पराइणइ । जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई बद्धाई, जाव-उदिण्णाई, णो उवसंताई भवंति; से णं पुरिसे पराइजइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुबह-सविरिए पराइणइ, अविरिए पराइजह ।' - विशेष शब्दों के अर्थ-सरिसया-एक सरीखें, सरितया-एक समान त्वचा चमड़ी वाले, सरिम्बया-एक समान उम्र वाले, सरिसभंडमत्तोवगरणा-एक समान उपकरणशस्त्र वाले, अन्नमण्णेनं-एक दूसरे के साथ-परस्पर, संगाम-संग्राम, पराइमइ-जीतता है, पराइना-हारता है, सीरिए-सवीर्य, अतीरिए-अवीर्य । For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ वीर्य विचार भावार्थ -- २७३ प्रश्न - हे भगवन् ! एक सरीखे, सरीखी चमडी वाले, सरीखी उम्र वाले, सरीखे उपकरण ( शस्त्र) आदि वाले कोई दो पुरुष, आपस में एक दूसरे के साथ संग्राम करें, तो उनमें से एक पुरुष जीतता है और एक पुरुष हारता है । हे भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? ३२६ २७३ उतर- हे गौतम ! जो पुरुष सवीर्य ( वीर्य वाला) होता है वह जीतता है और जो बीर्यहीन होता है वह हारता है । २७४ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण हैं कि यावत् वीर्यहीन हारता है ? २७४ उत्तर - हे गौतम! जिसने वीर्य व्याघातक कर्म नहीं बांधे हैं, नहीं स्पर्श किये हैं यावत् नहीं प्राप्त किये हैं और उसके वे कर्म उदय में नहीं आये हैं, परन्तु उपशान्त हैं, वह पुरुष जीतता है। जिसने वीर्य व्याघातक कर्म बांधे हैं, स्पर्श किये हैं यावत् उसके वे कर्म उदय में आये हैं परन्तु उपशान्त नहीं हैं, वह पुरुष पराजित होता हैं । इसलिए हे गौतम! इस कारण ऐसा कहा हैं कि वीर्य वाला पुरुष जीतता हैं और बीर्यहीन पुरुष हारता हैं । 1 विवेचन समान त्वचा वाले समान उम्र वाले और समान शस्त्रादि वाले दो पुरुष कहें, तो उनमें से निर्जीर्य (वीर्य व्याघातक कर्म बाला) पुरुष हारता है और सवीर्य (वीर्य व्याचातक कर्म रहित) पुरुष जीतता है । वीर्य विचार २७५ प्रश्न - जीवा णं ते! किं सवीरिया, अवीरिया १. २७५ उत्तर - गोयमा ! सपीरिया वि, अवीरिया बि । २७६ प्रश्न - से केणट्टेर्ण ? २७६ उत्तर - गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा : For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ वीर्य विचार ३२७ संसारसमावण्णगा य, असंसारसमावण्णगा य; तत्थ - णं जे ते असं. सारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया । तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता । तं जहाः-सेलेसिपडिवण्णगा य, असेलेसिपडिवण्णगा य; तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं सीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया । तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते णं लडिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरियेणं सवीरिया वि, अवीरिया वि । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाः-सपीरिया वि, अवीरिया वि।' - २७७ प्रश्न-जेरहया णं भंते ! किं सवीरिया, अवीरिया ? २७७ उत्तर-गोयमा ! रहया लडिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया पि. अधीरिया वि । ... २७८ प्रश्न-से केंणडेणं ? २७८ उत्तर-गोयमा ! जेसिणं णेरड्याण अस्थि उहाणे, कम्मे, बले, पीरिए, पुरिसरकारपरक्कमे ते णं रहया लदिवीरिएण वि स्वीरिया, करणवीरिएण वि सीरिया । जेसि णं णेरइयाणं णस्थि उठाणे, जाप-परक्कमे तेज रहया लकिपीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया । से तेणट्टेणं०।। २७९-जहा रहया, एवं जाव-पबिंदियतिरिक्खजोगिया । For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ भगवती सूत्र - - श. १ उ. ८ वीयं विचार मणूसा जहा ओहिया जीवा । णवरं - सिद्धवज्जा भाणियव्वा । वाण मंतर - जोइस वेमाणिया जहा रहया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! चि जाव - विहरइ । ॥ अट्टमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ विशेष शब्दों के अर्थ-सवीरिया-सवीर्य, अवीरिया-अवीर्य, लद्विवीरिएणं-लब्धि वीर्य से, करणवीरिएणं-करण वीर्य से । भावार्थ - २७५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव, सवीर्य (वीर्य वाले) हैं ? या अवीर्य (वीर्य रहित ) हैं ? २७५ उत्तर - हे गौतम! २७६ प्रश्न - हे भगवन् ! २७६ उत्तर - हे गौतम! जीव दो प्रकार के हैं - संसारसमापन्नक (संसारी ) और असंसारसमापन्नक ( सिद्ध) । इनमें जो असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं, वे अवीर्य (वीर्य रहित ) हैं । जो जीव संसारसमापनक हैं, वे दो प्रकार के हैं - शैलेशी - प्रतिपन्न और अशैलेशी - प्रतिपन्न । इनमें जो शैलेशी प्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य है और करणवीर्य की अपेक्षा अवीर्य हैं । जो अशलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं । इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि-जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं । २७७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नारकी जीव, सवीर्य हैं या अवीर्य हैं ? २७७ उत्तर - हे गौतम! नारकी जीव, लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं और करण - वीर्य से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं । २७८ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २७८ उत्तर - हे गौतम ! जिन नारकियों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम है, वे नारकी जीव, लब्धिवीर्य और करणवीर्य से भी सवीर्य जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं । इसका क्या कारण है ? For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ वीर्य विचार ३२९ हैं और जो नारकी जीव, उत्थान कर्म बल वीर्य, पुरुषकार पराक्रम से रहित हैं वे लन्धिवीर्य से सवीर्य हैं और करणवीर्य से अवीर्य हैं । इसलिए हे गौतम ! इस कारणं से पूर्वोक्त कथन किया गया है। २७९-जिस प्रकार नारकी जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि तक के जीवों के लिए समझ लेना चाहिए । मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि सिखों को छोड़ देना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन नारकी जीवों के समान समझना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-एक प्रकार का आत्मबल 'वीर्य' कहलाता है । जब वह आत्मबल किसी प्रकार की क्रिया नहीं करता, तब वह 'लब्धिवीर्य' कहलाता है और जब वह क्रिया में संलग्न होता है तब 'करण वीर्य' कहलाता है। ... . जीवों के दो भेद हैं-सिद्ध और संसारी । सिद्ध जीव अवीर्य हैं, क्योंकि वे कृतकार्य हो चुके हैं, उन्हें कोई भी कार्य करना अवशेष नहीं रहा है। संसारी जीवों में जो शैलेशी प्रतिपन्न हैं, वे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी केवली है, उनकी स्थिति पांच ह्रस्व लघु अक्षर उच्चारण करने जितनी है, वे लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की अपेक्षा.अवीर्य हैं । अशलेशी प्रतिपन्न जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। . नारकी जीव लब्धिवीर्य और करणवीर्य दोनों की अपेक्षा सवीर्य है, किन्तु किसी में करणवीर्य कभी होता है और कभी नहीं भी होता है। . जिस प्रकार नारकी जीवों का कथन किया है उसी प्रकार मनुष्यों को छोड़ कर शेष सभी जीवों का कथन करना चाहिए । मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि सिद्ध जीवों को छोड़ देना चाहिए । क्योंकि ओधिक (सामान्य) जीवों में तो सिद्ध सम्मिलित हैं, किन्तु मनुष्य में सिद्ध सम्मिलित नहीं हैं। . ॥ प्रथम शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ जीवादि का गुरुत्व लघुत्व .. . शतक १ उद्देशक जीवादि का गुरुत्व लघुत्व २८० प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति ? २८० उत्तर-गोयमा ! पाणाइवाएणं, मुसावाएणं, अदिण्णादाणेणं, मेहुणेणं, परिग्गहेणं, कोह-माण माया-लोभ-पेज-दोस कलहअब्भक्खाण-पेसुन्न-अरतिरति-परपरिवाय-मायामोस-मिच्छादसणसल्लेणं; एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयतं हव्वमागच्छंति। २८१ प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति ? २८१ उत्तर-गोयमा ! पाणावायवेरमणेणं, 'जाव-मिच्छा. दंसमसल्लवेरमणेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छति। २८२-एवं संसारं आउलीकरेंति, एवं परित्तीकरेंति, एवं दीही। काति, एवं हस्सीकरेंति, एवं अणुपरियटुंति, एवं वीइवयंति। पसत्था चत्वारि । अप्पसत्था चचारि। विशेष शन्दों के अर्थ-गल्यत्तं-गुरुत्व-भारीपन, लहुयत्तं-लघुत्व-हलकापन. हवं-शीघ्र, आउलीकरेंति-ससार को बढ़ाते हैं, परित्तीकरेंति-संसार को परित्त = परिमित करते हैं, बोहोकरेंति-संसार को दीर्घ = लम्बे काल का करते हैं, हस्सीकरेंतिह्रस्व = अल्पकाल का करते हैं, अनुपरिषटुंति-संसार में बार-बार परिभ्रमण करते हैं, बोईवयंति-संसार को उल्लंघन कर जाते है। For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिका गरुत्व लघत्व भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ जीवादि का गुरुत्व लघुत्व ३३१ भावार्थ-२८० प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, किस प्रकार गुरुत्व-भारीपन को . प्राप्त होते है ? २८० उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपात से, मषावाद से, अवत्तावान से, मैथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, प्रेम (राग) से, द्वेष से, कलह से, अभ्याल्यान से, पैशुन्य ((चुगली) से, अरतिरति से, परपरिवाद से, मायामषावाद से और मिथ्यावर्शन शल्य से, इन अठारह पापों का सेवन करने से जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। २८१ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, किस प्रकार लघुत्व को प्राप्त होते हैं ? २८१ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपात के त्याग से यावत् मिण्यावर्शनशल्प के त्याग से जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त होते हैं। २८२-इस प्रकार जीव प्राणातिपात मावि पापों का सेवन करने से संसार को बढ़ाते हैं, लम्बे काल का करते हैं, और बारबार भव भ्रमण करते हैं तथा प्राणातिपात भावि पापों का त्याग करने से जीव संसार को घटाते हैं, अल्पकालीन करते हैं और संसार लोप जाते हैं। इनमें से चार प्रशस्त हैं और चार भप्रशस्त हैं। विवचन-आठ उद्देशक के अन्त में वीर्य का कपन किया है। वीर्य से जीव गुतल भारि को प्राप्त करते है तथा प्रथम शतक के भारम्भ में जो संग्रह गाया भाई उसमें 'गए' शान दिया है। इसलिए इस नब में उद्देशक मैं जीवों के 'गुरुत्व' भाषि का विचार किया जाता।। गुरुत्व अर्थात् भारीपन । नीच गति में जाने योग्य अशुभ कर्मों का उपार्जन करला 'गुरुत्व' है । प्राणातिपात मावि महारह पापों के सेवन से जीष गुरुत्व को प्राप्त होते है। भडारह पाप इस प्रकार !-प्राणातिपात-प्रभाषपूर्वक प्राणों का भतिपात करमा भषात मात्मा (शरीर) से उन्हें अलग कर देना 'प्राणातिपात'-(हिंसा) कहलाता है। २ मृषावादझूठ बोलना । ३ अदत्तादान-चोरी करना । ४ मैथुन-कुशील सेवन करना । ५ परिग्रह-धन धान्यादि बाह्य वस्तुओं पर मूर्छा-ममत्व रखना। ६ क्रोध-कोप। ७ मान-अहंकार । ८ माया-कपटाई, कुटिलता । ९ लोभ-लालच, तृष्पा । १० राग-माया और लोभ-जिसमें For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ आकाशादि का गुरुत्व लघुत्व अप्रकट रूप से विद्यमान हों ऐसा आसक्ति रूप जीव का परिणाम । ११ द्वेष - क्रोध और मान जिसमें अप्रकट रूप से विद्यमान हों ऐसा अप्रीति रूप जीव का परिणाम । १२ कलह . -झगड़ा, राड़ करना । १३ अभ्याख्यान झूठा दोषारोपण करना । १४ पैशुन्य - चुगली | १५ पर परिवाद - निन्दा करना । १६ अरतिरति - मोहनीय कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर जो उद्वेग होता है वह 'अरति' है और इसी के उदय से अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर चिस में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है वह 'रति' है । तथा धार्मिक कार्यों में उदासीनता 'अरति' कहलाती है । और धार्मिक कार्यों में रुचि होना 'रति' . कहलाती है । जब जीव को एक विषय में 'रति' होती है तब दूसरे विषय में स्वतः 'अरति ' हो जाती है । यही कारण है कि एक वस्तु विषयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं । इसलिए दोनों को एक पाप-स्थानक गिना है । १७ मायामृषा - माया पूर्वक झूठ बोलना । १८ मिथ्यादर्शन शल्य - श्रद्धा का विपरीत होना। इन अठारह पापों का सेवन करने से जीव कर्मों का संचय कर भारी बनता है । और इनका त्याग करने से जीव हलका होता है । 1 ३३२ इनमें चार (हलकापन, संसार को घटाना, छोटा करना और उल्लंघ जाना ) प्रशस्त है । और चार ( भारीपन, संसार को बढ़ाना, लम्बा करना और संसार परिभ्रमण करना) अप्रशस्त हैं । २८३ प्रश्न-सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगरुयलहुए ? णो गरुयल हुए. णो लहुए, २८३ उत्तर - गोयमा ! णो गरुए, अगरुपलहुए । २८४ प्रश्न - सत्तमे णं भंते! तणुवाए किं गरुए, लहुए, गरुय लहुए, अगरुयलहुए ? २८४ उत्तर—गोयमा ! णो गरुए, जो लहुए, गरुयलहुए, जो For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ आकाशादि का गुरुत्व लघुत्व अगरुयलहुए । एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी, उवासंतराई सव्वाई जहा सत्तमे उवासंतरे, जहा तणुवाए, (गरुयलहुए) एवं ओवासवाय, घणउदहि, पुढवी, दीवा य, सायरा, वासा । विशेष शब्दों के अर्थ-उवासंतरे-अवकाशान्तर, तणुवाए-तनुवात, घणवाए-घनवात, घणोबही-घनोदधि, पुढबी-पृथ्वी, दीवा-द्वीप, सायरा-सागर, वासा-वर्ष = क्षेत्र । भावार्थ-२८३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सातवां अवकाशान्तर गुरु है ? या लघु है ? या गुरुलघु है ? या अगुरुलघु है ? .. २८३ उत्तर-हे गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरुलघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है। २८४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सातवां तनुवात गुरु है ? या लघु है ? या गुरुलघु है ? अथवा अगुरुलघु है ? · . २८४ उत्तर-हे गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरुलघु है, अगुरुलघु नहीं है । इसी प्रकार सातवां धनवात, सातवां घनोदधि, और सातवीं पृथ्वी के विषय में भी कहना चाहिए । जैसा सातवें अवकाशान्तर के विषय में कहा है वैसा ही सब अवकाशान्तरों के विषय में जानना चाहिए। तनुवात के विषय में जैसा कहा है उसी प्रकार सभी घनवात, घनोदधि, पृथ्वी, . दीप, समुद्र और क्षेत्रों के विषय में भी जानना चाहिए। - विवेचन-यह लोक चौदह राजु परिमाण है। यह पुरुषाकार है । नीचे की ओर सात नरक पृथ्वियाँ हैं । पहली पृथ्वी (नरक) के नीचे घनोदधि है, उसके नीचे धनवात हैधनवात के नीचे तनुवात है और तनुवात के नीचे आकाश है । इसी क्रम से सातों नरकों के नीचे है । ये आकाश ही सात अवकाशान्तर कहलाते हैं । ये अवकाशान्तर अगुरुलघु हैं, गुरु नहीं हैं, लघु नहीं हैं और गुरुलघु भी नहीं हैं । तनुवात गुरुलघु हैं । तनुवात के समान ही धनवात, घनोदंधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर और क्षेत्र भी गुरुलघु है । तात्पर्य यह है कि अवकाशान्तर में चौथा भंग (अगुरुलघु) पाया जाता है और शेष सब में तनुवात की तरह . तीसरा भंग पाया जाता है । क्योंकि ये हलके भारी रूप दोनों अवस्था में हैं। . For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ नैरयिक का गुरुत्व लघुत्व .... व्यवहार में भारी वस्तु वह है जो पानी पर रखने से डूब जाती है, जैसे-पत्थर आदि । हलकी वह है जो ऊर्ध्वगामी हो अर्थात् ऊपर की ओर जाय, जैसे-धूमा। तिरछी जाने वाली वस्तु गुरुलघु कहलाती है, जैसे वायु । जो इधर उधर नहीं जाता है वह अगुरुलघु है, जैसे-आकाश । निश्चय नय की अपेक्षा कोई भी वस्तु एकान्त भारी या एकान्त हलकी नहीं है । जैसा कि कहा है-- पिच्छयो सम्वगुरु सब्बलहुं वा विज्जए बवं । ववहारओ उ जुज्जा वायरखधेसु ण अण्णेसु ॥१॥ अगुल्लाहू पउफासा अविषव्या य होति णायग्या। सेसाओ अकासा गुल्लाहुया णिच्छयणस्स ॥२॥ . अर्थात-निश्चय नय की अपेक्षा से कोई भी द्रव्य एकान्त भारी, या एकांत हलका नहीं है । व्यवहार नय की अपेक्षा बादर स्कन्धों में भारीपन या हलकापन होता है, अन्य किसी स्कन्ध में नहीं। जो द्रव्य चार स्पर्श वाले या अरूपी होते हैं, वे सब अगुरुलघु होते है और माठ स्पर्श वाले जितने द्रव्य है, ये सब गुरुलषु होते है। .. वास्तव में हलफापन और भारीपन, आदि सब सापेक्ष है अर्थात् एक को पूसरे की अपेक्षा रहती है । अपेक्षा से ही हलका और भारी होता है। २८५ प्रभ-णेरहया ण भैते ! किं गल्या जाप-अगल्पलहुया ? २८५ उत्तर-गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गल्पलहुपा पि, .. अगरयलहुया पि। २८६ प्रश्न-से फेणडेणं १ . २८६ उत्तर-गोयमा ! विउब्धिय-तेयाई पडुच्च णो गल्या, णो लहुया, गरुयलहुया; णो अगस्यलहुया । जीवं च, कम्मं च पडुच्च णो गरुया, णो लहुया, णो गरुयलहुया, अगरुयलहुया । से For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ नैरयिक का गुरुत्व लघुत्व तेणट्टेणं, एवं जाव-वेमाणिया । णवरं - णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं धम्मत्थिकाए, जाव - जीवत्थिकाए चउत्थपरणं । विशेष शब्दों के अर्थ – गरुयलहुया - भारी और हलका, अगरुयलहुया - न तो भारी और न हलका, चउत्थपरणं - चतुर्थपद - चौथे भेद | भावार्थ - २८५ प्रश्न – क्या नारकी जीव गुरु हैं ? या लघु हैं ? या गुरुलघु हैं ? या अगुरुलघु हैं ? २८५ उत्तर - हे गौतम! गुरु नहीं हैं, लघु नहीं हैं, किन्तु गुरुलघु हैं 'अगुरुलघु भी हैं । और ३३५ २८६ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २८६ उत्तर - हे गौतम! नारकी जीव, वैक्रिय और तेजस् शरीर की • अपेक्षा गुरु नहीं हैं, लघु नहीं हैं, अगुरुलघु भी नहीं हैं, किन्तु गुरुलघु हैं। नारकी जीव, जीव और कर्म की अपेक्षा गुरु नहीं हैं, लघु नहीं हैं, गुरुलघु नहीं हैं, किंतु अगुरुलघु हैं। इसलिए हे गौतम! पूर्वोक्त कथन किया गया है। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि शरीरों में भिन्नता है । धर्मास्तिकाय यावत् जीवास्तिकाय चौथे पद से जानना चाहिए अर्थात् इन्हें अगुरुलघु समझना चाहिए । विवेचन - अब नैरयिक जीवों का गुरुत्व लघुत्व की अपेक्षा विचार किया जाता है । इनके चार पद हैं- १ गुरुत्व ( भारीपन ) २ लघुत्व ( हलकापन ) ३ गुरुलघुत्व ( भारी और हलकापन) और ४ अगुरुलघुत्व (न भारी और न हलकापन ) नैरयिक जीवों के तीन शरीर होते हैं - वैक्रिय, तेजस् और कार्मण । इनमें से वैक्रिय और तेजस् शरीर की अपेक्षा कि जीव, गुरुलघु हैं, क्योंकि ये दोनों शरीर वैक्रिय और तेजस् वर्गणा से बने हुए हैं और ये दोनों वर्गणाएँ गुरुलघु हैं । जैसा कि कहा है गुरुलघु हैं । 'ओरालियवेड व्विय- आहारगतेय गुरुलहुबच्व' ति । अर्थात् - औदारिक वर्गणा, वैक्रिय वर्गणा, आहारक वर्गणा और तैजस वर्गणा, ये For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ भगवती सूत्र--श. १ उ. ९ पुद्गलास्तिकाय का गुरुत्व लघुत्व जीव और कार्मण शरीर की अपेक्षा नैरयिक जीव अगुरुलघु है, क्योंकि जीव अरूपी है, इसलिए अगुरुलघु है । कार्मण-शरीर कार्मण-वर्गणा का बना हुआ है और कार्मण-वर्गणा चौफरसी है, इसलिए कार्मण-शरीर भी अगुरुलघु है । जैसा कि कहा है 'कम्मगमण भासाई एयाइं अगरुलहआई' अर्थात्-कार्मण वर्गणा, मनोवर्गणा और भाषावर्गणा (शब्द) ये अगुरुलघु हैं। असुरकुमार आदि का वर्णन नैरयिक जीवों की तरह कहना चाहिए । पृथ्वीकाय अप्काय, तेउकाय और वनस्पतिकाय इनके तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तेजस् और कार्मण । वायुकाय के चार शरीर होते हैं-औदारिक, वैक्रिय, तेजस् और कार्मण । विकलेन्द्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय) के औदारिक, तेजस और कार्मण, ये तीन शरीर होते हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के औदारिक, वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीर होते हैं । इनमें वैक्रिय शरीर किसी किसी को प्राप्त हो सकता है, सबको सदा प्राप्त नहीं रहता । पञ्चेन्द्रिय मनुष्य के तीन शरीर तो होते ही हैं, वैक्रिय और आहारक शरीर भी हो सकता है। मनुष्यों को आहारक शरीर भी प्राप्त हो सकता है और लब्धि के निमित्त से वैक्रिय शरीर भी हो सकता है । देवों में नारकी जीवों के समान वैक्रिय, तेजस् और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं । इस प्रकार शरीरों में विभिन्नता होने पर भी गुरुलघु के प्रश्न में सब जीव दो ही विभागों में समा जाते हैं। क्योंकि सिर्फ गुरु या सिर्फ लघु तो कोई वस्तु है ही नहीं। कार्मण शरीर को छोड़ कर शेष चार शरीरों की अपेक्षा चौबीस दण्डकों के सभी जीव गरुलघु हैं और जीव तथा कार्मण शरीर की अपेक्षा सभी जीव अगुरुलघु हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चारों पदार्थ अगुरुलघु हैं । ये चारों अरूपी होने से इनमें गुरुता या लघुता नहीं है। जीव द्रव्य भी यद्यपि स्वरूपतः अरूपी है, किन्तु शरीर सहित जीव रूपी है और इसी कारण से उसे गुरुलघु कहा गया है । सिद्ध जीव अशरीरी होने से अरूपी हैं, अतएव अगुरुलघु है । . २८७ प्रश्न-पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगरुयलहुए ? २८७ उत्तर-गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, गरुयलहुए वि, अगरुयलहुए वि। For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ गुरुत्व लघुत्व ३३७ २८८ प्रश्न-से केणटेणं ? २८८ उत्तर-गोयमा ! गरुयलहुयदव्वाइं पडुच्च णो गरुए, णो लहुए, गरुयलटुंए, णो अगरुयलहुए। अगरुयलहुयदव्वाइं पडुच्च णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयलहुए, अगरुयलहुए । समया, कम्माणि य चउत्थपएणं । ___ विशेष शब्दों के अर्थ-पोग्गलत्यिकाए-पुद्गलास्तिकाय = वह अजीव तत्त्व, जो वर्णादि सहित है। ___ २८७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पुद्गलास्तिकाय गुरु है ?या लघु है ?या गुरुलघु है ? या अगुरुलघु है ? २८७ उत्तर-हे गौतम ! पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किंतु . गुरुलघु भी है और अगुरुलघु भी है। २८८ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? . २८८ उत्तर-हे गौतम ! गुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लघु नहीं है, अगुरुलघु नहीं है, किन्तु गुरुलघु है । अगुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरुलघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है । समयों को और कर्मों को चौथे पद से जानना चाहिए अर्थात् समय और कर्म अगुरुलघु हैं। .. विवेचन-पुद्गलास्तिकाय न तो सर्वथा गुरु (भारी)है और न सर्वथा लघु (हलका) है । यह गुरुलघु है और अगुरुलघु है। जो पुद्गल आठ स्पर्श वाले स्थूल हैं, वे गुरुलघु (भारी और हलके) है और जो चार स्पर्श वाले सूक्ष्म पुद्गल हैं वे अगुरुलघु (न तो भारी और न हलके ) हैं। • २८९ प्रश्न-कण्हलेस्सा .णं भंते ! किं गरुया, जाव-अगरुयलहुया ? .. For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ लेश्यादि का गुरुत्व लघुत्व २८९ उत्तर-गोयमा ! णो गरुया, णो लहया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि। २९० प्रश्न-से केणटेणं ? २९० उत्तर-गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च तइयपएणं, भावलेस्सं पडुच्च चउत्थपएणं, एवं जाव-सुक्कलेस्सा। विशेष शब्दों के अर्थ-ततियपएणं-तृतीय पद = तीसरे भेद। - २८९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या गुरु हैं ? या लघु है ? या गुरुलघु है ?या अगुरु लघु है ? २८९ उत्तर-हे गौतम ! कृष्णलेश्या गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरुलघु भी है और अगुरुलघु है ? २९० प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? २९. उत्तर-हे गौतम ! द्रव्य लेश्या की अपेक्षा तीसरे पद से जानना चाहिए अर्थात् द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से कृष्णलेश्या गुरुलघु है । भावलेश्या की अपेक्षा से चौथे पद से जानना चाहिए अर्थात् भावलेश्या की अपेक्षा कृष्णलेश्या अगुरुलघु है । इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक जानना चाहिए। विवेचन-“लिश्यते श्लिश्यते आत्मा कर्मणा सह अनया सा लेश्या" अर्थात् जिससे आत्मा कर्मों से लिप्त होता है उसको लेश्या कहते हैं । लेश्या के मूल भेद दो हैं-द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या गुरुलघु है और भाव लेश्या अगुरुलघु है। २९१- दिट्ठी-दंसण-णाण-ऽण्णाण-सन्नाओ चउत्थपएणं णेयवाओ । हेट्ठिल्ला चत्तारि सरीरा णेयव्वा तइएणं पएणं । कम्मया चउत्थएणं पएणं । मणजोगो, वहजोगो, चउत्थएणं पएणं, कायजोगो तहएणं पएणं । सागारोवओगो, अणागारोवओगो चउत्थपएणं । For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल भगवती सूत्र - - श. १ उ. ९ निर्ग्रन्थों के लिए प्रसस्त सव्वदव्वा सव्वपएसा, सव्वपज्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ । तीयद्धा; अणागयद्वा, सव्वद्धा चउत्थेणं पणं । विशेष शब्दों के अर्थ-तीयद्धा-अतीतकाल, अणागयद्वा - अनागतकाल, सम्बद्धा-सर्व ३३९ २९१ - दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा को चौथे पद से ( अगुरुलघु) जानना चाहिए । औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस् इन चार शरीरों को तीसरे पद से (गुरुलघु) जानना चाहिए। कार्मण शरीर अगुरुलघु है । मनयोग और ववन योग - चतुर्थपद (अगुरुलघु ) हैं । काययोग तृतीयपद ( गुरुलघु) हैं। साकारोपयोग और अनाकारोपयोग चतुर्थपद ( अगुरुलघु ) हैं । सर्व द्रव्य, सर्व प्रवेश और सर्व पर्याय, पुद्गलास्तिकाय के समान समझना चाहिए । अतीत काल, अनागत ( भविष्य ) काल और सर्वकाल चौथे पद से अर्थात् अगुरुलघु जानना चाहिए । विवेचन - तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार संज्ञा, ये सब अगुरुलघु हैं । द्रव्य, प्रदेश और पर्याय का कथन पुद्गलास्तिकाय के समान कहना चाहिए । अर्थात् उन्हें गुरुलघु और अगुरुलघु कहना चाहिए । जो द्रव्य, सूक्ष्म ( चतुःस्पर्शी ) है और जो अमूर्त हैं, वे अगुघुरुलघु हैं । जो द्रव्य बादर हैं, वे गुरुलघु हैं । प्रदेश और पर्याय तो द्रव्य के ही होते हैं । इसलिए उनका कथन द्रव्य के समान है । तात्पर्य यह है कि अमूर्त और सूक्ष्म चतुःस्पर्शी पुद्गल अगुरुलघु हैं । इनमें चौथा . भंग पाया जाता है । इनके सिवाय शेष समस्त पदार्थ गुरुलघु हैं । इनमें तीसरा भंग पाया जाता है। पहला और दूसरा भंग शून्य है अर्थात् ये दोनों भंग किसी भी पदार्थ में नहीं पाये जाते हैं । निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त २९२ प्रश्न - से णूणं भंते ! लाघवियं, अप्पिच्छा, अमुच्छा, अगेही, अपडिबद्धया समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ? For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त २९२ उत्तर-हंता, गोयमा ! लाघवियं, जाव-पसत्थं । २९३ प्रश्न-से गूणं भंते ! अकोहत्तं, अमाणत्तं, अमायत्तं, अलोभत्तं समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ? .. २९३ ऊत्तर-हंता, गोयमा ! अकोहत्तं, अमाणत्तं; जावपसत्यं । ___ २९४ प्रश्न-से पूर्ण भंते ! कंखपदोसे णं खीणे समणे णिग्गंथे अंतकरे भवइ ? अंतिमसरीरिए वा ? बहुमोहे वि य णं पुग्विं विहरित्ता, अह पच्छा संवुडे कालं करेइ, तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, जाव-अंत करेइ ? ___२९४ उत्तर-हंता; गोयमा ! कंखपदोसे खीणे, जाव-अंतं करेइ । विशेष शब्दों के अर्थ-लापवियं-लाघव, अप्पिच्छा-अल्प इच्छा, अमुच्छा-अमूर्छा, अगेही-अगृद्धि-अनासक्ति, अपडिबद्धया-अप्रतिबद्धता, अकोहत्तं-क्रोधरहितता, प्रमाणत्तंअमानत्व-मानरहितता, अमायत्तं-मायारहितता, अलोभत्तं-अलोभत्व-लोभरहितता, कंखपदोसे-कांक्षाप्रद्वेष, संवडे-संवरवाला। ___ भावार्थ-२९२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या लाघव, अल्पइच्छा, अमूर्छा, अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त है ? २९२ उत्तर-हां, गौतम ! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं। २९३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता और निर्लोभता, ये सब क्या श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? ___ २९३ उत्तर-हां, गौतम ! क्रोध रहितता यावत् निर्लोभता, ये सब श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ अन्यमत और आयुष्य का बन्ध २९४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमण निग्रंथ, अन्तकर और अन्तिम शरीरी होता है ? अथवा पूर्व की अवस्था में बहुत मोह वाला होकर विहार करे और फिर संवर वाला होकर काल करे, तो क्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? २९४ उत्तर - हाँ गौतम ! कांक्षाप्रदोष नष्ट हो जाने पर यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । 1 विवेचन - शास्त्र मर्यादा से अधिक उपधि न रखना तथा उसमें भी कमी करना 'लाघव' है । आहारादि में अल्प इच्छा रखना 'अल्पेच्छा' है। अपने पास रही हुई उपधि में भी ममत्व न रखना 'अमूर्च्छा' है । आसक्ति का अभाव अर्थात् अनासक्ति को 'अमृद्धि' कहते हैं । स्नेह और राग के बन्धन को काट डालना 'अप्रतिबद्धता' है । ये पाँचों बातें श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं । इन पांचों के साथ क्रोध, मान, माया और लोभ के अभाव का अविनाभाव सम्बन्ध है । इन चारों कषायों का अभाव भी श्रमण निग्रंथों के लिए प्रशस्त है । वीतराग प्ररूपित धर्म से भिन्न दूसरे मत के आग्रह एवं आसक्ति को 'कांक्षा प्रदोष' कहते हैं । अथवा कांक्षा का अर्थ है- राग और प्रदोष का अर्थ है- प्रद्वेष । इसलिए 'कांक्षाप्रदोष' का दूसरा नाम 'कांक्षाप्रद्वेष' भी है। जिस किसी बात को पकड़ रखा है, उसके fवरुद्ध बात पर द्वेष होना 'कांक्षाप्रद्वेष' है । कांक्षाप्रद्वेष का सर्वथा विनाश होने पर जीव का मोक्ष हो जाता है । अन्य मत और आयुष्य का बन्ध २९५ प्रश्न - अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्वंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति - एवं खलु एगे जीवे एगेणं समपणं दो आउयाई पकरेइ । तं जहा : - इहभवियाज्यं च परभवियाज्यं च; जं समयं इहभवियाज्यं पकरेह, तं समयं परभवियाज्यं - पकरेह; जं समयं परभवियाउयं पकरेह; तं समयं इहभवियाउयं ३४१ For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ अन्य मत और आयुष्य का बंध पकरेइ, इहभवियाउयस्स पकरणयाए परभवियाज्यं पकरेइ, परभविया - उयस्स पकरणयाए इहभवियाउं पकरेह; एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेइ । तं जहा : - इहभवियाज्यं च, परभवियाज्यं च । से कहमेयं भंते ! एवं ? २९५ उत्तर - गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खति, जाव - परभवियाउयं च । जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहिंसु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव - परूवेमि । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेइ, तं जहा : - इह भवि याज्यं वा परभवियाज्यं वा जं समयं इहभवियाज्यं पकरेह, णो तं समयं परभवियाउयं पकरेह: जं समयं परभवियाउयस्स पकरेह: णो तं समयं इहभवियाज्यं पकरेह; इह भवियाउयस्स पकरणयाए णो परभवियाज्यं पकरेइ, परभवियाउयस्स पकरणयाए णो इहभवियाउयं पकरेs; एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेह । तं जहाः - इहभवियाउयं वा, परभवियाज्यं वा । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव - विहरह | विशेष शब्दों के अर्थ - आहंसु – कहा है, आइक्खामि — कहता हूँ । भावार्थ - २९५ प्रश्न - हे भगवन् ! अन्य तीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार विशेष रूप से कहते हैं, इस प्रकार जतलाते हैं और इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव, एक समय में दो आयुष्य करता है। वह इस प्रकार किइस भय का आयुष्य और परभव का आयुष्य । जिस समय इस भव का आयुष्य For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावती सूत्र-श. १ उ. ९ अन्य मत और आयुष्य का बंध ३४३ करता है, उस समय परभव का आयुष्य करता है और जिस समय परभव का आयुष्य करता है उस समय इस भव का आयुष्य करता है । इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयष्य करता है और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य करता है । इस प्रकार एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता है-इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य । हे भगवन् ! क्या यह इसी प्रकार है ? २९५ उत्तर-हे गौतम ! अन्य तीथिक जो इस प्रकार कहते हैं यावत् इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य । उन्होंने जो ऐसा कहा है.वह मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि एक जीव एक समय में एक आयुष्य करता है और वह इस भव का आयुष्य करता है अथवा परभव का आयुष्य करता है। जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य नहीं करता है और जिस समय परभव का आयुष्य करता है उस समय इस भव का आयष्य नहीं करता। इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयुष्य नहीं करता और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य नहीं करता । इस प्रकार एक जीव, एक समय में एक आयुष्य करता है-इस भव का आयुष्य, अथवा परभव का आयुष्य । . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर भगवान् गौतम स्वामी यावत् विचरते है। विवेचन-कांक्षाप्रदोष वाले को वस्तु में विपरीतता मालूम होती है । वे विपरीत बात की प्ररूपणा करते हैं । इसी बात को बतलाने के लिए गौतम स्वामी ने पूछा है किहे भगवन् ! अन्ययूथिक यह बात कहते हैं. यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-एक जीव, एक समय में दो आयुष्य करता है । इस भव का आयुष्य भी करता है और परभव का आयुष्य भी करता है । जिस समय इस भव का आयुष्य बांधता है, उसी समय पर भव का आयुष्य भी बांधता है। और जिस समय परभव का आयुष्य बांधता है, उसी समय इस भव का आयुष्य भी बांधता है । परभव का आयुष्य बांधता हुआ इस भव का आयुष्य बांधता है और इस भव का आयुष्य बांधता हुआ परभव का आयुष्य भी बांधता है । हे भगवन् ! क्या अन्य For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर मतावलम्बियों का यह कथन ठीक है ? भगवान् ने फरमाया-हे गौतम ! एक समय में एक जीव के दो आयुष्य बांधने की बात गलत है, क्योंकि एक समय में एक जीव, एक ही आयुष्य का बन्ध करता है । यदि यह कहा जाय कि जैसे-जीव, सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों पर्यायों का एक साथ अनुभव करता है, उसी प्रकार एक समय में दो आयु बांधे, तो क्या बाधा है ? इसका समाधान यह है कि-जिस प्रकार सिद्धत्व और संसारित्व, ये दोनों पर्यायें परस्पर विरुद्ध हैं, जिस समय जीव, सिद्धत्व पर्याय का अनुभव करता है उसी समय वह जीव संसारित्व पर्याय का अनुभव नहीं कर सकता और जिस समय संसारित्व पर्याय का अनुभव करता है, उसी समय वह जीव, सिद्धत्व पर्याय का अनुभव नहीं कर सकता। इसी प्रकार एक जीव, एक समय में दो आयुष्य का बन्ध नहीं कर सकता।. __अन्ययूथिकों के उपर्युक्त कथन का प्राचीन टीकाकार ने तो यह अर्थ किया है किजीव, जिस समय इस भव के आयुष्य को वेदता है उसी समय परभव का आयुष्य बांधता यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पन्न होते ही जीव परभव का आयुष्य बांध लेता हो, तो दान धर्मादि सब व्यर्थ हो जायेंगे । इसलिए अन्ययूथिकों का यह कथन ठीक नहीं है, टीकाकारों ने जोअन्ययूथिकों के मत का खण्डन किया है, वह बन्ध काल को छोड़कर अन्य समय की अपेक्षा से किया है। अन्यथा आयुष्य बन्ध के समय जीव इस भव के आयुष्य को वेदता है और परमव के आयुष्य को बांधता है। गौतम स्वामी 'सेवं भंते, सेव भंते' अर्थात् 'हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वह यथार्थ है' । ऐसा कह कर अपनी आत्मा को तप संयम से भावित करते हुए विचरने लगे। स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर २९६-ते णं काले णं, ते णं समए णं पासावचिजे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं वयासीः-थेरा सामाइयं न याति; For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर थेरा सामाइयस्स अहं ण याणंति: थेरा पञ्चक्खाणं ण याणंति, थेरा पञ्चक्खाणस्स अहं ण याणंति, थेरा संजमं ण याणंति, थेरा संजमस्स अहं ण याणंति थेरा संवरं ण याणंति, थेरा संवरस्स अहं ण याणंति; थेरा विवेगं ण याणंति, थेरा विवेगस्स अट्ठ ण याणंति; थेरा विउस्सग्गंण याणंति, थेरा विउस्सग्गस्स अहं ण याणंति । तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी:जाणामो णं अजो ! सामाइयं, जाणामो णं अज्जो ! सामाइयस्स अट्टं, जाव - जाणामो णं अज्जो ! विउस्सग्गस्स अहं । विशेष शब्दों के अर्थ – पासावचिचज्जे – पाश्र्वापत्य = पार्श्वनाथ भगवान् के सन्तानिये विउस्सग्गस्स - व्युत्सर्ग= काया के प्रति अनासक्ति, याणंति - जानते । ३४५ भावार्थ - २९६ प्रश्न - उस काल उस समय में पाश्र्वापत्य अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिये - शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र नामक अनगार जहां स्थविर भगवान् थे वहां गये । वहाँ जाकर उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा कि - हे स्थविरों ! आप सामायिक को नहीं जानते हैं, सामायिक के अर्थ को नहीं जानते हैं। आप प्रत्याख्यान को नहीं जानते हैं, आप प्रत्याख्यान के अर्थ को नहीं जानते हैं । आप संयम को नहीं जानते हैं, आप संयम के अर्थ को नहीं जानते हैं । आप संवर को नहीं जानते हैं, संवर के अर्थ को नहीं जानते हैं । आप विवेक को नहीं जानते हैं, विवेक के अर्थ को नहीं जानते हैं । आप व्युत्सर्ग को नहीं जानते हैं और व्युत्सर्ग के अर्थ को नहीं जानते हैं । तब स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा • कि - हे आर्य ! हम सामायिक को जानते हैं, सामायिक के अर्थ को जानते हैं यावत् हम व्युत्सर्ग को जानते हैं और व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं । For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ विवेचन - उस काल उस समय में अर्थात् जब भगवान् पार्श्वनाथ मोक्ष प्राप्त कर चुके थे और उनके २५० वर्ष बाद जब भगवान् महावीर का शासन चल रहा था, उस समय भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र अनगार विचर रहे । उन्होंने भगवान् पार्श्वनार्थ के शासन में दीक्षा ली थी। उसी समय भगवान् महावीर के शासन के स्थविर भी विचर रहे 1 भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर होगई है । स्थविर के तीन भेद कहे गये हैं १ जाति स्थविर ( वय स्थविर ) – जिनकी उम्र साठ वर्ष की हो गई है । २ श्रुतस्थविर - स्थानांग सूत्र और समवायांग सूत्र के ज्ञाता । ३ प्रव्रज्या स्थविर (दीक्षा स्थविर - पर्याय स्थविर) जिनकी दीक्षा बीस वर्ष की कालस्य वेषि पुत्र अनगार ने स्थविर भगवंतों से प्रश्न किये । २९७ प्रश्न - तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं वयासीः - जड़ णं अज्जो ! तुम्भे जाणह सामाइयं, जाणह सामाइयस्स अहं, जाव - जाणह विउस्सग्गस्स अहं । किं भे अज्जो ! सामाइए, किं भे अजो ! सामाइयस्स अट्ठे । जाव-किं भे विउस्सग्गस्स अट्ठे ?. २९७ उत्तर—तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासीः- आया णे अजो ! सामाइए, आया णे अज्जो ! सामाइयस्सअट्ठे, जाव - विउस्सग्गस्स अट्टे । २९८ प्रश्न - तणं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते एवं वयासीः - जइ भे अज्जो ! आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे, एवं जाव-आया विउस्सग्गस्स अट्ठे, अवहट्टु कोह- माण-माया For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - - श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर ३४७ लोभे किमठ्ठे अजो ! गरहह ? २९८ उत्तर-कालासवेसियपुत्त ! संजमट्टयाए । २९९ प्रश्न - से भंते ! किं गरहा संजमे ? अगरहा संजमे ? २९९ उत्तर - कालासवेसियपुत्त ! गरहा संजमे, णो अगरहा संजमे । गरहा वि य णं सव्वं दोसं पविणेs, सव्वं बालियं परिणा । एवं खुणे आया संजमे उवहिए भवइ, एवं खु णे आया संजमे उवचिए भवइ, एवं खु णे आया संजमे उवट्टिए भवइ । विशेष शब्दों के अर्थ - अज्जो - हे आर्य, आया- आत्मा, अवहट्ठे-छोड़कर, गरहानिंदा, पविणे - नष्ट करना, बालियं-बालपन = मिथ्यात्व, अविरति, परिण्णाए - ज्ञानपूर्वक जानकर, उवट्ठिए- उपस्थित = स्थापित | २९७ प्रश्नं-तब कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा कि हे आयौं ! यदि आप सामायिक को और सामायिक के अर्थ को यावत् व्युत्सर्ग और व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं, तो बतलाइये कि सामायिक क्या है ? सामायिक का अर्थ क्या है ? यावत् व्युत्सर्ग क्या है और व्युत्सर्ग का अर्थ क्या है ?. २९७ उत्तर-तब स्थविर भगवन्तों ने कालात्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा कि - हे आर्य ! हमारी आत्मा सामायिक हैं, हमारी आत्मा सामायिक का अर्थ हैं यावत् हमारी आत्मा व्युत्सर्ग है और हमारी आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है । २९८ प्रश्न - तब कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा कि हे आर्यो ! यदि आत्मा ही सामायिक है, आत्मा ही सामाfe का अर्थ है और इसी प्रकार यावत् आत्मा ही व्युत्सर्ग है एवं आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करके क्रोध For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३४८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर.. आदि की निन्दा गर्दा किस लिए करते हैं ? २९८ उत्तर-हे कालास्यवेषिपुत्र ! संयम के लिए हम क्रोध आदि की । निन्दा करते हैं। २९९ प्रश्न-तो हे भगवन् ! क्या गर्दा संयम है ? या अगर्दा संयम है ? २९९ उत्तर-हे कालास्यवेषिपुत्र ! गर्दा संयम है, अगर्दा संयम नहीं है। गर्दा सब दोषों को दूर करती है । आत्मा सर्व मिथ्यात्व को जान कर गर्दा द्वारा सब दोषों का नाश करती है । इस प्रकार हमारी आत्मा संयम में पुष्ट होती है और इस प्रकार हमारी आत्मा संघम में उपस्थित होती है। विवेचन-कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन श्रुतवृद्ध स्थविरों से पूछा कि-सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग को आप जानते हैं ? और क्या इनके अर्थ को भी आप जानते हैं. ? यदि आप जानते हैं, तो इनका अर्थ कहिये। कालास्यवेषिपुत्र से स्थविरों ने कहा कि-हे. मुने ! हम इन छह पदों को और इनके अर्थ को जानते हैं । आत्मा ही सामायिक है और 'आत्मा' ही सामायिक का अर्थ है। इसी प्रकार व्युत्सर्ग पर्यन्त सभी बातों का अर्थ 'आत्मा' ही है । प्रत्याख्यान, संयम, संवर विवेक और व्युत्सर्ग भी आत्मा ही है और इनका अर्थ भी आत्मा ही है। . स्थविर भगवन्तों ने यह निश्चय नय की दृष्टि से उत्तर दिया । व्यवहार नय की अपेक्षा इनका अर्थ इस प्रकार है-शत्रु मित्र पर समभाव रखना 'सामायिक' है। नवीन कर्मों का बन्ध न करना और पुराने कर्मों की निर्जरा कर देना सामायिक का अर्थ-प्रयोजन है । पौरिसी आदि का नियम करना 'प्रत्याख्यान' है और आस्रव आने के मार्गों को रोक देना प्रत्याख्यान का प्रयोजन है । पृथ्वीकाय आदि जीवों की यतना करना, इत्यादि सतरह प्रकार का 'संयम' है और आस्रव रहित होना संयम का प्रयोजन है । पांच इन्द्रियाँ और मन को अपने वश में रखना 'संवर' है और इनकी प्रवृत्ति को रोक कर आस्रव रहित होना संवर का प्रयोजन है । विशिष्ट बोध-ज्ञान को 'विवेक' कहते हैं । विशेष बोध द्वारा हेय, ज्ञेय और उपादेय पदार्थों को जान कर हेय (छोड़ने लायक) पदार्थों को छोड़ना और उपादेय (ग्रहण करने लायक) पदार्थों का ग्रहण, करना यह विवेक का प्रयोजन है । शरीर के हलन चलन को बन्द करके उस पर से ममत्व हटा लेना 'व्युत्सर्ग' कहलाता है । इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है । सभी प्रकार के संग से रहित हो जाना इसका प्रयोजन है । For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर ३४९ इसके बाद कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने पूछा कि-हे स्थविर भगवन्तों ! जैसा कि आप फरमाते हैं कि आत्मा ही सामायिक यावत् व्युत्सर्ग है, तो फिर आप क्रोधादिक का त्याग करके क्रोधादि की निन्दा किसलिये करते हैं ? क्योंकि सामायिक आदि में क्रोधादि पापों का त्याग हो जाता है, फिर उनकी निन्दा कैसे की जा सकती है ? . स्थविर भगवन्तों ने फरमाया कि-हे कालास्यवेषिपुत्र अनगार ! हम लोग संयम के लिए पाप की निन्दा करते हैं, क्योंकि पाप की निन्दा करने से संयम होता है । इसी प्रकार गर्दा भी संयम में हेतु रूप होने से तथा कर्म बन्धन में कारण रूप न होने से गर्दा संयम है । इतना ही नहीं बल्कि मिथ्यात्व अविरति आदि को विवेक पूर्वक जान कर छोड़ने से गर्दा, राग द्वेष आदि समस्त पापों का विनाश करने वाली है । इस तरह आत्मा संयम में स्थापित होती है एवं आत्मा रूप संयम प्राप्त होता है । संयम के विषय में आत्मा पुष्ट होती है एवं आत्मरूप संयम पुष्ट होता है । . ३००-एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुद्धे थेरे भगवंते वंदह, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीः-एएसि णं भंते ! पयाणं पुट्विं अण्णाणयाए, असवणयाए, अबोहियाए, अणभिगमेणं, अदिट्ठाणं, अस्सुयाणं अमुयाणं, अविण्णांयाणं, अव्वोगडाणं, अव्वोच्छिण्णाणं, अणिज्जूढाणं, अणुवधारियाणं एयममु णो सद्दहिए । णो पत्तइए, णो रोइए, इयाणिं भंते ! एएसि पयाणं जाणयाए, सवणयाए, बोहीए, अभिगमेणं, दिट्ठाणं, सुयाणं, मुयाणं, विण्णायाणं, वोगडाणं, वोच्छिण्णाणं, णिज्जूढाणं, उवधारियाणं, एयमटुं सदहामि, पत्तियामि, रोएमि, एवमेयं से जहेयं तुब्भे वदह । तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासीः-सदहाहि अजो! पत्तियाहि अजो! रोएहि अजो! से जहेयं अम्हे वदामो । तए For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोतर से कालासवेसिपुते अणगारे थेरे भगवंते बंदर, नमंसह, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीः - इच्छामि णं भंते! तुब्भं अतिए चाउज्जामाओ. धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिकमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । ३५० विशेष शब्दों के अर्थ-संबुद्धे-समझे, पयार्ण-पदों को, अभिगमेणं-विस्तार पूर्वक नहीं जानने से, अविद्वाणं - नहीं देखने से, अस्सुयाणं - नहीं सुनने से, अण्णाणयाए नहीं जाननें से, अविण्णायाणं - विशेष नहीं जानने से, अव्बोगडाणं - अव्याकृत- अस्पष्ट, अवोच्छिणाअनिर्णीत होने से, अणिज्जूढाणं- उद्धृत नहीं किये हुए, उवधारियाणं - अवधारित, पत्तइएप्रीति करना, रोइए - रुचि करना, पत्तियामि - प्रीति प्रतीति करता हूं, रोए मि- रुचि करता हूं, चाउज्जामाओ- चार यामरूप, उवसंपज्जित्तार्ण प्राप्त करके, स्वीकार करके, अहासुहंयथासुख- जिसमें सुख हो वैसा, पडिबंध - व्याघात-विलंब | ३०० - स्थविर भगवन्तों का उत्तर सुन कर वे कालास्यवेषिपुत्र अनगार बोध को प्राप्त हुए और तब उन्होंने स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार किया । फिर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने इस प्रकार कहा कि-हे भगवन् ! इन पूर्वोक्त पदों को न जानने से पहले सुने हुए नं होने से, बोध न होने से, अभिगम (ज्ञान) न होने से, दृष्ट न होने से, विचार न होने से, सुने हुए न होने से, विशेष रूप से न जानने से, कहे हुए न होने से, अनिर्णीत होने से, उद्धत न होने से और ये पद धारण किये हुए न होने से, इस अर्थ में श्रद्धा नहीं थी, प्रतीति नहीं थी, रुचि नहीं थी, किन्तु हे भगवन् ! अब इनको जान लेने से, सुन लेने से, बीध होने से, अभिगम होने से, दृष्ट होने से, चिन्तित होने से, श्रुत होने से, विशेष जान लेने से, कथित होने से, निर्णीत होने से, उद्धृत होने से और इन पदों का अवधारण करने से, इस अर्थ में में श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, ofer करता हूँ । हे भगवन् ! आप जो यह कहते हैं वह यथार्थ है, वह इसी प्रकार है । तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर ३५१ न करो। कहा कि-हे आर्य ! हम जैसा कहते हैं वैसी ही श्रद्धा रखो, प्रतीति रखो, रुचि रखो। तब कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया। तत्पश्चात् वे इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! मैंने पहले चार महाव्रत वाला धर्म स्वीकार कर रखा है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत वाला धर्म स्वीकार करके विचरने की इच्छा करता हूँ। .. तब स्थविर भगवन्त बोले-हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो वैसे करो, विलम्ब न करो। .. विवेचन-स्थविर भगवन्तों के उत्तर से कालास्यवेषिपुत्र अनगार को बोध हो गया। यह विशिष्ट बोध प्राप्त होने से उन्होंने स्थविर भगवान् को भक्तिभाव पूर्वक वन्दन नमस्कार किया और निवेदन किया कि-आपने इन पदों का जो अर्थ बतलाया, वह मैंने पहले नहीं जाना था। यह अर्थ मैंने पहले नहीं सुना था। इसी प्रकार मैंने इन पदों का अर्थ आपसे व्याकरण पूर्वक, स्वपक्ष विपक्ष पूर्वक, उद्धरण पूर्वक और विशेष अर्थ पूर्वक सुना है। मैं आपके बताये अर्थों की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, आपके बताये अर्थों में मेरी रुचि हुई है । आपने कहा वह सत्य है । इसलिए अब मैं आपकी आज्ञा में विचरण करना चाहता हैं। भगवान पार्श्वनाथ के शासन में चतूर्याम (चार महाव्रत वाला) धर्म था। अर्थात् सर्वथा प्रकार से प्राणातिपात का त्याग, मृषावाद का त्याग, अदत्तादान का त्याग और बहिद्धादान का त्याग होता था। 'बहिद्धादान' में मैथुन और परिग्रह का समावेश कर लिया गया है । भगवान् महावीर के शासन में इसी चतुर्याम को पंचयाम रूप से कहा है अर्थात् मैथुन विरमणव्रत और परिग्रह विरमणव्रत, इस तरह अलग अलग कथन किया है । चतुर्याम धर्म और पंचयाम धर्म में तात्त्विक दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं है । संक्षेप और विस्तार का ही भेद · कालास्यवेषिपुत्र अनगार की बात सुन कर स्थविर भगवान् ने कहा कि-हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ, नम सह, वैदिचा, नमंसित्ता चाउज्बामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर सपडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ताणं विहरइ । तए णं से कालास: वेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता, जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे, मुंडभावे, अण्हाणयं, अदंतधुवणयं, अच्छत्तयं, अणोवाहणयं, भूमिसेजा, फलहसेजा, कट्ठसेजा, . केसलोओ, बंभचेरवासो, परघरप्पवेसो, लद्धावलद्धीः उच्चावया, गामकंटगा, बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिति । तं अटै आराहेइ, आराहित्ता, चरिमेहिं उस्सास-नीसासेहिं सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, परिनिव्वुडे, सव्वदुक्खप्पहीणे। . विशेष शब्दों के अर्थ-सामण्णपरियागं-श्रमण पयोय, साधुपना, पाउणइ-प्राप्त किया, अणोवाहणयं-उपानह = पगरखी रहित, लद्धावलद्धी-मिले या नहीं मिले, गामकंटगा-इन्द्रियों के लिए कांटे के समान बाधक, अहियासिज्जंति-सहन किया, अव्हाणयं-स्नान नहीं करना, फलहसेज्जा-पटिये पर सोना, कटुसेज्जा-लकड़ी पर सोना, उच्चावया-अनुकूल प्रतिकूल। भावार्थ-तब कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर. भगवन्तों को वन्दना को, नमस्कार किया और चार महाव्रत धर्म से प्रतिक्रमण सहित पांच महावत रूप धर्म स्वीकार कर के विचरने लगे। ___इसके बाद कालस्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया और जिस प्रयोजन के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान न करना, दतौन न करना, छत्र न रखना, जूते न पहनना, जमीन पर सोना (शयन करना) पाट पर सोना, काष्ठ पर सोना, केश लोच करना, ब्रह्मचर्य पालन करना, भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर जाना, और अलाभ सहना अर्थात् अभीष्ट भिक्षा मिल जाने पर हर्षित न होना और भिक्षा न मिलने पर खेदित न होना, इन्द्रियों के लिए कांटे के समान चुभने वाले कठोर शब्दादि को सहन करना, अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को सहन करना, इन सब बातों का उन्होंने सम्यक् रूप For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श, १ उ. ९ अप्रत्याख्यान क्रिया ३५३ से पालन किया, अभीष्ट प्रयोजन का सम्यक् रूप से आराधन किया । अन्तिम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए, परिनिवृत हुए और सब दुःखों से रहित हुए। विवेचन-तब कालास्यवेषिपूत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करके चतुर्याम के स्थान पर पंचयाम (पांच महाव्रत वाला) सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार किया। . इसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक साधुपना पाला और जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने संयम स्वीकार किया था उसको पूर्ण किया । अन्तिम श्वासोच्छ्वास द्वारा वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और सर्व दुःखों से रहित हुए। . अप्रत्याख्यान क्रिया . ३०१ प्रश्न-भंते' ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासीः-से गूणं भंते ! सेटि. यस्स य, तणुयस्स य, किवणस्स य, खत्तियस्स य समं चेव अपञ्च खाणकिरिया कजइ। ___३०१ उत्तर-हता, गोयमा ! सेट्ठियस्स य, जाव-अपचक्खाणकिरिया कजइ। ३०२ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! ..३०२ उत्तर-गोयमा ! अविरतिं पडुच्च । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुबइ-सेट्टियस्स य, तणुयस्स य, जाव-कजइ । ... विशेष शब्दों के अर्थ–सेट्ठियस्स-सेठ का; तणुयस्त-दरिद्री का, किवणस्स-कृपण =कंजूस का, सत्तियस्स-क्षत्रिय का, अपच्चक्खाण किरिया-अप्रत्याख्यान क्रिया, अविर For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ भगवती सूत्र-शे. १ उ. ९ आधाकर्म भोगने का फल अविरति को। ___ भावार्थ-३०१ प्रश्न-'भगवन् !' ऐसा कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! सेठ, दरिद्र, कृपण और क्षत्रिय (राजा) क्या इन सब के अप्रत्याख्यान क्रिया समान होती है। ३०१ उत्तर-हे गौतम ! हां, सेठ यावत् क्षत्रिय इन सब के अप्रत्याख्यान क्रिया समान होती है। . ३०२ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३०२ उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा ऐसा कहा गया है किसेठ, दरिद्र, कृपण और क्षत्रिय इन सब के अप्रत्याख्यान क्रिया समान होती है। विवेचन-एक समय गौतम स्वामी के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि एक तरफ सेठ है, दूसरी तरफ एक दरिद्र है, एक तरफ एक कृपण है, दूसरी तरफ एक राजा है, क्या इन सब को अप्रत्याख्यान की क्रिया एक सरीखी लगती है, या कुछ न्यूनाधिकता है ? इस शंका से प्रेरित होकर उन्होंने भगवान से प्रश्न किया। इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा से अप्रत्याख्यान की क्रिया इन सब को बराबर लगती है। क्योंकि जब तक इच्छा नहीं छूटी, तब तक अव्रत की क्रिया लगती ही है। . आधाकर्म भोगने का फल ३०३ प्रश्न-आहाकम्मं णं भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधइ, किं पकरेइ, किं चिणाइ, किं उवचिणाइ ? ___ ३०३ उत्तर-गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, जाव-अणुपरियट्टइ । For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ आधाकमं भोगने का फल ३०४ प्रश्न - से केणट्टेणं जाव - अणुपरियद्इ ? ३०४ - उत्तर - गोयमा ! आहाकम्मं णं भुजमाणे आयाए धर्म अइक्कमइ, आयाए धम्मं अइक्कममाणे पुढविक्काइयं णावकंखर, जाव-तसकायं णावकंखड जेसिं पि य णं जीवाणं सरीराडं आहारं आहारेइ ते वि जीवे नावकखइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइआहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओं सत्तकम्मपगडीओ, जाबअणुपरिट्टह । ३५५ विशेष शब्दों के अर्थ - आहाकम्मं - आधाकर्म दोषयुक्त, अइक्कमइ - अतिक्रमण करता है = उल्लंघन करता है, आयाए - आत्मा का, चिणाइ-चय करता हैं = बढ़ाता है, उबचिणाई - उपचय करता है = विशेष बढ़ाता है । भावार्थ - ३०३ प्रश्न - हे भगवन् ! आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? ३०३ उत्तर - हे गौतम ! आधाकर्म दोष युक्त आहारावि भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, आयु कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बंधी हुई कर्म-प्रकृतियों को दृढ़ बन्धन से बन्धी हुई करता है यावत् संसार में बारबार परिभ्रमण करता रहता है । - ३०४ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि यावत् वह संसार में बारबार परिभ्रमण करता है ? ३०४ उत्तर - हे गौतम ! आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि को भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन करता है । अपने आत्मधर्म का उल्लंघन करता हुआ पृथ्वीकाय के जीवों की अपेक्षा ( परवाह नहीं करता For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ आधाकर्म भोगने का फल यावत् त्रसकाय के जीवों को चिन्ता (परवाह) नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों को भी चिन्ता नहीं करता। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, आयु कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बांधी हुई प्रकृतियों को मजबूत बांधता है यावत् संसार में बारबार परिभ्रमण करता रहता है। विवेचन-'हाकम्भे' अर्थात् 'आधाकर्म' यह जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है। टीकाकार ने इस शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है ___ 'आधया साधुप्रणिधानेन यत् सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकम्, व्यूयते वा वस्त्रादिकम्, तद् आधाकर्म ।" अर्थात्-साधु के लिए सचित्त वस्तु को अचित्त की जाय अर्थात् सजीव वस्तु को निर्जीव बनाया जाय, अचित्त वस्तु को पकाया जाय, घर मकान आदि बंधवाये जायें, वस्त्रादि बुनवाये जायें, इसे 'बाधाकर्म' कहते हैं। . आधाकर्म दोष युक्त केवल आहार ही नहीं होता, किन्तु 'मकानादि भी होते हैं । जो मकान, साधु के लिये बनवाया जाय, वह आधाकर्म दोष-दूषित कहलाता है । इसी प्रकार वस्त्र, पात्र, पुस्तक, शास्त्र आदि के विषय में भी समझना चाहिए । ये सब मुनि के लिये अकल्पनीय हैं, अतएव ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । जो श्रमण निग्रन्थ, आधाकर्म दोष-दूषित आहारादि का सेवन करता है, वह क्या करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में चार क्रिया पद दिये गये हैं-'बंधइ, पकरइ, चिणइ, उवचिणइ' बंधई' पद प्रकृति-बन्ध की अपेक्षा से अथवा स्पृष्ट अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात शिथिल बन्ध से बन्धी हई कर्म प्रकृतियों को गाढ बन्धन वाली करता है अथवा कर्म प्रकृतियों को सृष्ट करता है । "पकरइ" पद 'स्थितिबन्ध' अथवा बद्ध अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात् अल्प काल की स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घ काल की स्थिति वाली करता है अथवा उन प्रकृतियों को 'बद्ध' अवस्था वाली करता है । 'चिणइ' पद 'अनुभाग' बन्ध की अपेक्षा से अथवा 'निधत्त' अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात् मन्द रस वाली प्रकतियों को तीव्र रस वाली करता है अथवा उन्हें 'निधत्त' अवस्था वाली करता है । 'उवचिणइ' पद प्रदेश-बन्ध की अपेक्षा अथवा निकाचित अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात् अल्प प्रदेश For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगव -श. १ उ. ९ आधाकर्म भोगने का फल . ३५७ वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है अथवा उन्हें 'निकाचित' अवस्था वाली करता है। स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित इन कर्मबन्ध की चार अवस्थाओं को समझाने के लिए सुइयों का दृष्टान्त दिया गया है । जैसे-एक पर एक सुइयां रखी हुई हो वह सुइयों का पुंज है, परन्तु वह जरा-सा धक्का लगते ही बिखर जाता है । इसी प्रकार जो कर्मबन्ध थोडा-सा प्रयत्न करने से ही निर्जीर्ण हो जाता है अर्थात जो सुइयों के ढेर के समान है, उसे 'स्पृष्ट कर्म बन्ध' कहते हैं। यदि उस सुइयों के पुञ्ज को किसी धागे से बांध दिया जाय, तो वे धक्का लगने से नहीं बिखरती, किन्तु किसी तरह की क्रिया विशेष से ही खुल सकती हैं, इसी प्रकार जो कर्म थोड़ी क्रिया विशेष से हट जाते हैं वे 'बद्ध' अवस्था वाले कहलाते हैं। .. जैसे उन सुइयों के पुञ्ज को किसी लोहे के तार से खूब कस कर बांध दिया जाय, तो वे सुइयां किसी विशिष्टतर क्रिया से ही खुल सकती हैं, इसी तरह जो कर्म विशिष्टतर क्रिया से निर्जीर्ण हो सकें, वे कर्म 'निधत्त' अवस्था वाले कहलाते हैं। : . चौथा 'निकाचित बन्ध' है । जैसे-उस सुइयों के पुञ्ज को गर्म करके धन से ठोक दिया जाय, तो वे सुइयाँ एकमेक हो जाती हैं । फिर उनका बिखरना संभव नहीं है । फिर तो सुई बनाने की क्रिया करने पर ही वे अलग हो सकती हैं। इसी तरह जो कर्म किसी भी क्रिया से न्यूनाधिक नहीं होते हैं, किन्तु जिस साता असाता आदि रूप में बांधे हैं उसी रूप में भोगने पर छूटते हैं, उनका बन्ध 'निकाचित बन्ध' कहलाता है। 'उवचिणइ' का अभिप्राय 'निकाचित' कर्म बन्ध से है, अर्थात् पहले जो सामान्य कर्म बांधे हैं, उन्हें 'निकाचित' करना उपचय' करना कहलाता है। धनियबंधनवसायो पकर जाव अणुपरियट्टह' यहां पर 'जाव' शब्द से इतने पाठ का अध्याहार करना चाहिए-~ 'हस्सकालठियामो, गेहकालव्हियाओ पकरेइ । मंदाणुभावाओ तिन्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसगामो बहुप्पएसगाओ पकरेइ, आउयं च कम्मं सिय बंधइ सिय णो बंधा, मस्सायावेयनिम्बंच कम्मं मुज्जो मुज्जो उवचिणइ, अणाइयं च गं अगवयग्गं बोहमदं चाउरतं संसारकंतारं अनुपरियट्टई' ___ अर्थः-अल्पकाल की स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकाल की स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाग वाली करता है, अल्प प्रदेश वाली । For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ एषणीय आहार का फल । प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है । आयुकर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं भी बांधता है । असातावेदनीय कर्म को बारम्बार उपार्जन करता है। तथा अनादि अनन्त दीर्घमार्ग वाले, चतुर्गति संसार रूपी अरण्य में बारबार पर्यटन करता है। . 'आउय वज्जाओ' की टीका में कहा है: 'यस्मादेकत्रभवग्रहणे सकृदेवाऽन्तर्मुहर्तमात्रकाले एवायुषो बन्धः' अर्थात्:-एक भव में एक जीव एक ही बार आयुष्य का बन्ध करता है। 'आधाकर्म' आहारादि भोगने वाला साधु आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करता है और यहां तक कि 'निकाचित बन्ध भी कर लेता है। __ भगवान् का यह उत्तर सुनकर गौतमस्वामी ने फिर पूछा कि-हे भगवन् ! आधाकर्म आहारादि भोगने वाला मुनि ऐसा कठिन कर्म क्यों बांधता है ? __ इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! उस मुनि ने जो श्रुतधर्म और चारित्रधर्म अंगीकार किया था वह उस आत्मधर्म का उल्लंघन करता है । उसने पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के छहों काय जीवों की रक्षा के लिए संयम स्वीकार किया था, किन्तु आधाकर्म आहारादि सेवन करने वाला उन छहों काय के जीवों की अनुकम्पा नहीं करता । वह उनका विघातक होता है। इसलिए वह इस प्रकार के कर्म बांधता है । अतः मुनि को आधाकर्म आहारादि का सेवन नहीं करना चाहिए। एषणीय आहार का फल ३०५ प्रश्न-फासु-एसणिजं भंते ! भुंजमाणे किं बंधइ, जावउवचिणाइ ? ३०५ उत्तर-गोयमा ! फासु-एसणिजं णं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्तकम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ । जहा संवुडेणं, नवरं-आउयं च णं. कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ; सेसं तहेव, जाव-वीइवयइ । For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ एषणीय आहार का फल ३५९ ३०६ प्रश्न-से केणटेणं जाव-वीइवयइ ? - ३०६ उत्तर-गोयमा ! फासु-एसणिजं भुंजमाणे समणे णिग्गंथे आयाए धम्मं णो अइक्कमइ, आयाए धम्मं अणइक्कममाणे पुढविकाइयं अवकंखइ, जाव-तसकायं अवकंखइ; जेसि पि य णं जीवाणं सरीराइं आहारेइ, ते वि जीवे अवकंखइ से तेणटेणं जाववीइवयइ । . विशेष शब्दोंके अर्थ-फासुएसणिज्ज-प्रासुक और एषणीय-निर्दोष, नवरं-विशेष में । भावार्थ-३०५ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, क्या बांधता है ? और यावत् किसका उपचय करता है ? ३०५ उत्तर-हे गौतम! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, आय कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की दृढ़ बन्धन से बंधी हुई प्रकतियों को ढीली करता है। उसे, संवृत अनगार के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि आयु कर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बाँधता। शेष उसी प्रकार समझना चाहिए। यावत् संसार को पार कर जाता है। ३०६ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि यावत् संसार को पार कर जाता है ? ३०६ उत्तर-हे गौतम ! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्म-धर्म का उल्लंघन नहीं करता है। अपने आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता हुआ वह श्रमण निर्ग्रन्थ, पृथ्वीकाय के जीवों का जीवन चाहता है यावत् त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके भोग में आता है, उनका भी जीवन चाहता है । इस कारण से हे गौतम! वह यावत् संसार को पार कर जाता है। For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थिर बस्विरादि . विवेचन–प्रासुक का अर्थ है-अचित्त-निर्जीव । एषणीय का अर्थ है-निर्दोष । गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! जो साधु, बयालीस दोष रहित प्रासुक एषणीय आहार करता है, उसे क्या फल होता है। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! वह कदाचित् आयु कर्म को बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता अर्थात् या तो वह उसी भव में मोक्ष चला जाता है, या कर्म शेष हों, तो सात कर्मों की गाढ़ी बंधी हुई प्रकृतियों को शिथिल करता है । क्योंकि वह अपनी ली हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण रूप से निभाता है । वह छहकाय के जीवों के जीवन को चाहता है, वह छहकाय जीवों का रक्षक है । इसलिए वह संसार सागर को पार कर जाता है। स्थिर अस्विरादि प्रकरण ३०७ प्रश्न-से पूर्ण भंते ! अथिरे पलोट्टइ, णो थिरे पलोट्टइ, अथिरे भजइ, णो थिरे भबइ, सासए बालए, बालियत्तं असासयं, सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ? ३०७ उत्तर-हता, गोयमा ! अथिरे पलोट्टइ, जाव-पंडियत्तं असासर्य। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ । ॥ नवमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के म-पलोट्टा-बदलता है, मज्जा नष्ट होता है । भावार्थ-३०७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अस्थिर पदार्थ बदलता है और स्थिर पदार्थ नहीं बदलता है ? क्या अस्थिर पदार्थ भंग होता है और स्थिर पदार्थ भंग नहीं होता है ? क्या बालक शाश्वत है और बालकपन अशाश्वत है ? क्या पण्डित शाश्वत है और पण्डितपन अशाश्वत है ? । ३०७ उत्तर-हाँ, गौतम ! अस्थिर पदार्थ बदलता है यावत् पण्डितपन अशाश्वत है। For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थिर अस्थिरादि हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-गौतम स्वामी द्वारा किये हुए 'अथिरे पलोट्टई' इस प्रश्न के दो अर्थ होते है-व्यावहारिक और पारमार्थिक (आध्यात्मिक) । व्यवहार में भी पलट जाने वाला अस्थिर कहलाता है जैसे-मिट्टी का ढेला आदि । ये अस्थिर द्रव्य बदलते हैं । अध्यात्म पक्ष में 'कर्म' अस्थिर हैं, क्योंकि वे प्रति समय जीव-प्रदेशों से चलित होते हैं-अलग होते हैं । कर्म अस्थिर होने से बन्ध, उदय और निर्जीर्ण आदि परिणामों द्वारा वे बदलते रहते हैं। . व्यवहार पक्ष में पत्थर की शिला आदि स्थिर है, इसलिए बदलती नहीं है। अध्यात्म पक्ष में जीव स्थिर है, क्योंकि कर्मों का क्षय कर देने के बाद भी जीव स्थिर रहता है और जीव का उपयोग स्वभाव कभी बदलता नहीं है। व्यवहार पक्ष में तृणादि नष्ट होने के स्वभाव वाले हैं, अतएव वे भग्न हो जाते है। अध्यात्म पक्ष में कर्म अस्थिर हैं, इसलिए वे भग्न (क्षय) हो जाते हैं । व्यवहार पक्ष में लोह की शलाका आदि भग्न नहीं होती। अध्यात्म पक्ष में जीव शाश्वत है, इसलिए वह कभी भग्न नहीं होता, नाश को प्राप्त नहीं होता। जीव का प्रकरण होने से शाश्वत अशाश्वत सम्बन्धी प्रश्न किये गये हैं-व्यवहार पक्ष में छोटे लड़के को 'बालक' कहते हैं और निश्चय नय की अपेक्षा अथवा अध्यात्म पक्ष में 'असंयत' जीव को 'बालक' कहते हैं। जीव द्रव्य रूप होने से शाश्वत है । व्यवहार नय की अपेक्षा बचपन को 'बालकत्व' कहते हैं और निश्चय नय की अपेक्षा एवं अध्यात्म पक्ष में 'असंयतपन' को 'बालकत्व' कहते हैं। यह बालकत्व' पर्याय रूप होने से अशाश्वत है। इसी तरह ‘पण्डित' सम्बन्धी सूत्र के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए । व्यवहार नय की अपेक्षा या व्यवहार पक्ष में शास्त्रों के माता जीव को 'पण्डित' कहते हैं । निश्चय नय की अपेक्षा या अध्यात्म पक्ष में संयमी बीपको 'परित कहते हैं। यह जीव द्रव्य होने से शाश्वत हैं। और 'पण्डितपन' जीव की पर्याय होने से बचाश्वत (अस्थिर) है। ' तात्पर्य यह है कि द्रव्य सबकः शाश्वत है, स्थिर है, वह सदा ज्यों का त्यों बना रहता है, किन्तु पर्याय अशाश्वत है, अस्थिर है, वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। ॥ प्रथम शतक का नववा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.१ उ. १० परमाणु के विभाग और भाषा अभाषा शतक १ उद्देशक १० परमाणु के विभाग और भाषा अभाषा ३०८-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव-एवं परूवेंति-"एवं खलु चलमाणे अचलिए, जाव-निजरिजमाणे अणिजिण्णे।” ३०९-“दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहणंति । कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहणंति ? दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहणंति।" ____३१०-“तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । कम्हा तिणि परमाणुगोग्गला एगयओ साहणंति ? तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । ते भिजमाणा दुहा वि, तिविहा वि कजंति । दुहा कजमाणा एगयओ दिवड्ढे परमाणुपोग्गले भवइ, 'एगयओ वि दिवड्ढे परामणुपोग्गले भवइ । तिहा कन्जमाणा तिण्णि परमाणुपोग्गला भवंति । एवं जाव-चत्तारि ।” ३११-"पंच परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहणित्ता दुक्खत्ताए कति । दुक्खे वि य णं से सासए सया समियं उवचिजइ य, अवचिजह य ।" For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १० परमाणु के विभाग और भाषा अभाषा ३६३ ३१२ - “ पुवि भासा भासा । भासिज्जमाणी भासा अभासा । भासासमयविक्कतं च णं भासिया भासा ।" ३१३ – “जा सा पुव्विं भासा भासा । भासिज्जमाणी भासा अभासा | भासासमयविइक्कंतं च णं भासिया भासा । सा किं भासओ भासा ? अभासओ भासा ? अभासओ णं सा भासा । णो खलु सा भासओ भासा ।” ३१४ - "पुवि किरिया दुक्खा । कज्जमाणी किरिया अदुक्खा । किरियासमयविश्चकंतं च णं कडा किरिया दुक्खा ।” ३१५ - “जा सा पुव्विं किरिया दुक्खा । कज्जमाणी किरिया अदुक्खा । किरियासमयविक्कतं च णं कडा किरिया दुक्खा । सा किं करणओ दुक्खा ? अकरणओ दुबखा ? अकरणओ णं सा दुक्खा । णो खलु सा करणओ दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया " । ३१६ - अकिच्चं दुःखं, अफुसं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं अकट्टु अकट्टु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदंति इति वत्तव्वं सिया ।" ३१७ प्रश्न - से कहमेयं भंते ! एवं ? विशेष शब्दों के अर्थ - अण्णउत्थिया - अन्यतीर्थिक, साहणंति-चिपटते हैं, सिणेहकाएस्नेहकाय = चिकनाहट, मिज्जमाना - भेद करने पर, दिवढे डेढ़, सासए - शाश्वत, सयासदा समियं - अच्छी तरह, भासिज्जमाणी-बोली जाती हुई, भासिया-बोली गई, मासासमयविक्तं - भाषा का समय बीत जाने पर, अकिवं अकृत्य, अंकज्जमाणकडं - अक्रिय For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ भगवती सूत्र-श. १ उ. १० परमाणु के विभाग और भाषा अभाषा माणकृत, एगयओ-एकओर, दुहा-दो प्रकार से, तिहा-तीन प्रकार से, तम्हा-इसलिए, करणओ-करने से। _____भावार्थ-३०८-हे भगवन् ! अन्य तीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि-जो चल रहा है वह चला नहीं कहलाता और यावत् जो निर्जरा रहा है वह निर्जीर्ण नहीं कहलाता है। . ३०९-दो परमाणु पुद्गल एक साथ नहीं चिपकते हैं। दो परमाणु पुदगल एक साथ क्यों नहीं चिपकते हैं ? इसका कारण यह है कि दो परमाणु पुद्गलों में चिकनापन नहीं है। इसलिए दो परमाणु पुद्गल. एक साथ नहीं चिपकते हैं। ३१०-तीन परमाणु पुद्गल एक दूसरे के साथ चिपकते हैं । तीन परमाणु पुद्गल आपस में क्यों चिपकते हैं ? इसका कारण यह है कि तीन परमाणु पुद्गलों में चिकनापन होता है। इसलिए तीन परमाणु पुद्गल आपस में चिपकते हैं । यदि तीन परमाणु पुद्गलों के विभाग किये जाय, तो दो भाग भी हो सकते हैं। और तीन भाग भी हो सकते हैं। यदि तीन परमाण पुद्गलों के दो भाग किये जाय, तो एक तरफ डेढ़ परमाणु होता है और दूसरी तरफ भी डेढ़ परमाणु हो जाता है । यदि तीन परमाणु पुद्गलों के तीन भाग किये जाय तो एक एक करके तीन परमाणु अलग अलग हो जाते हैं। इसी तरह यावत् चार परमाणु पुद्गलों के विषय में समझना चाहिए। . ___ ३११-पांच परमाणु पुद्गल आपस में चिपक जाते हैं और वे दुःखरूप (कर्म रूप) में परिणत होते हैं। वह दुःख (कर्म) शाश्वत है और सदा भलीभांति उपचय को प्राप्त होता है और अपचय को प्राप्त होता है। ३१२-बोलने से पहले जो भाषा (भाषा के पुद्गल)है, वह भाषा है। बोलते समय की भाषा, अभाषा है और बोलने का समय व्यतीत हो जाने के बाद की भाषा, भाषा है। ३१३-यह जो बोलने से पहले की भाषा, भाषा है और बोलते समय की भाषा, अभाषा है तथा बोलने के समय के बाद की भाषा, भाषा है, सो क्या For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १० दुःख कृत या अकृत ३६५ बोलते हुए पुरुष की भाषा है या न बोलते हुए पुरुष की भाषा है ? (उत्तर) -न बोलते हुए पुरुष की वह भाषा है, बोलते हुए पुरुष को वह भाषा नहीं है। ३१४-वह जो पूर्व की क्रिया है वह दुःख रूप है, वर्तमान में जो क्रिया की जाती है वह क्रिया दुःख रूप नहीं है और करने का समय बीत जाने के बाद को 'कृतक्रिया' दुःख रूप है। ३१५-वह जो पूर्व की क्रिया है वह दुःख का कारण है । की जाती हुई क्रिया दुःख का कारण नहीं है और करने के समय के बाद की क्रिया दुःख का कारण है, तो क्या वह करने से दुःख का कारण है ? या नहीं करने से दुःख का कारण है ? (उत्तर) 'नहीं करने से वह दुःख का कारण है, करने से दुःख का कारण नहीं है'-ऐसा कहना चाहिए। ___३१६-अकृत्य दुःख है, अस्पश्य दुःख है और अक्रियमाणकृत दुःख है। उसे न करके प्राण, भूत, जीव, सत्त्व वेदना भोगते हैं-ऐसा कहना चाहिए। ३१७-प्रश्न-गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! अन्यतीथिकों की उपरोक्त मान्यता किस प्रकार है ? विवेचन-नववें उद्देशक के अन्त में कर्मों की अस्थिरता बतलाई गई थी। कर्म परोक्ष हैं । परोक्ष वस्तु के स्वरूप के विषय में कुतीर्थिक विवाद करते हैं, उसकी असत्यता बतलाने के लिए तथा प्रथम शतक के प्रारम्भ में संग्रह गाथा में 'चलणाओ' यह पद दिया था। अतः उसका प्रतिपादन इस दसवें उद्देशक में किया जाता है। - 'चलमाणे अचलिए' से यावत् 'णिज्जरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे' तक का उत्तर तो पहले उद्देशक में ही आगया है, वह वहां से जान लेना चाहिए । इसके बाद गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं कि-दो परमाणु पुद्गल आपस में नहीं मिल सकते, क्योंकि उनमें चिकनापन नहीं है । हां, तीन परमाणु पुद्गल मिल सकते हैं, क्योंकि उनमें चिकनापन है । मिले हुए वे तीन परमाणु पुद्गल यदि अलग हों, तो उनके दो विभाग भी हो सकते हैं और तीन विभाग भी हो सकते हैं । यदि दो विभाग हों, तो डेढ़ डेढ़ परमाणु अलग अलग हो जाते हैं और यदि तीन विभाग हों, तो एक एक परमाणु अलग अलग हो जाता है । गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या अन्यतीथिक का For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ भगवती सूत्र-श. १ः१० परमाणु के विभाम : यह कथन ठीक है ? मिलना और बिखरना जिसका धर्म हो उसे 'पुद्गल' कहते हैं । पुद्गल का वह छोटे से छोटा भाग जिसका कोई भाग न हो सके, उसे 'परमाणु' कहते हैं। ३१७ उत्तर-गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइपखंति, जाव-चेदणं वेदेति वत्तव्वं सिया । जे ते एवं आहिंसु, मिच्छा ते एवं आहिंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि-एवं खलु चलमाणे चलिए, जाव-निजरिजमाणे निजिण्णे। .. ३१८-दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ? दोण्हें परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति। ते भिजमाणा दुहा कन्नति; दुहा कजमाणा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवंति। ___३१९-तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ? तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । ते भिजमाणा दुहा वि तिहा वि कजंति । दुहा कजमाणा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । तिहा कजमाणा तिण्णि परमाणुपोग्गला भवंति । एवं जावचत्तारि। For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १० परमाणु के विभाग ३२० पंच परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । एगयओ साहणित्ता खंधत्ताए कजंति । खंधे वि य णं से असासए सया समियं उवचिज्जह य अवचिज्जह य । 1 विशेष शब्दों के अर्थ - आहिंसु कहा, अस्थि - विद्यमान, हाँ, है । भावार्थ - ३१७ उत्तर - हे गौतम ! अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं यावत् वेदना वेदते हैं- ऐसा कहना चाहिए, इत्यादि बातें जो उन्होंने कही हैं वे मिथ्या है। गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि 'चलमाणे चलिए जाव णिज्जरिज्ज माणे णिज्जिणे' अर्थात् 'जो चल रहा है वह चला' कहलाता है यावत् जो निर्जर रहा है वह निर्जीर्ण कहलाता है । ३१८ - दो परमाणु पुद्गल आपस में चिपकते हैं। दो परमाणु पुद्गल आपस में चिपकते हैं इसका क्या कारण है ? इसका कारण यह है कि-दो परमाणु पुद्गलों में चिकनापन है, इसलिए दो परमाणु पुद्गल परस्पर चिपट जाते हैं । उन दो परमाणु पुद्गलों के दो भाग हो सकते हैं। यदि दो परमाणु पुद्गलों के दो भाग किये जाय, तो एक तरफ एक परमाणु और एक तरफ एक परमाणु होता है । . ३६७ ३१९ - तीन परमाणु पुद्गल परस्पर चिपट जाते हैं। तीन परमाणु पुद् गल परस्पर क्यों चिपट जाते हैं ? इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि तीन परमाणु पुद्गलों में चिकनापन है । इस कारण तीन परमाणु पुद्गल परस्पर चिपट जाते हैं । उन तीन परमाणु पुद्गलों में के दो भाग भी हो सकते हैं और तीन भाग भी हो सकते हैं । दो भाग करने पर एक तरफ एक परमाणु और एक तरफ वो प्रदेश वाला एक स्कन्ध होता है। तीन भाग करने पर एक एक करके तीन परमाणु हो जाते हैं। इसी प्रकार यावत् चार परमाणु पुद्गल के विषय में भी समझना चाहिए । परन्तु तीन परमाणु के डेढ़ डेढ़ नहीं हो सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ भगवती सूत्र - श. १ उ. १० भाषा अभाषा ३२० - पांच परमाणु पुद्गल परस्पर में चिपट जाते हैं और परस्पर चिपट कर एक स्कन्ध रूप बन जाते हैं। वह स्कन्ध अशाश्वत है और हमेशा उपचय तथा अपच पाता है अर्थात् वह बढ़ता भी है और घटता भी है । विवेचन - गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! अन्यतीर्थिकों का उपर्युक्त कथन मिथ्या है, क्योंकि एक परमाणु में भी स्नेहकाय ( चिकना - पन) होता है । तीन परमाणुओं का मिलना और बिखरना तो वे लोग भी मानते हैं। यदि परमाणुओं में स्नेहकाय न होता, तो वे कंसे जुड़ते ? और जब जुड़ते हैं, तो उनमें स्नेहकाय • मानना ही होगा। दो परमाणु पुद्गलों में यदि स्नेहकाय न हो, तो तीसरे में कहाँ से आजाता है ? उन्होंने तो डेढ़ परमाणु पुद्गल में भी स्नेहकाय माना है, फिर दो परमाणु पुद्गलों में स्नेहकाय मानने में बाधा ही क्या है ? इसके सिवाय उन्होंने तीन परमाणु पुद्गलों के दो विभाग- डेढ़ डेढ़ परमाणुओं के माने हैं, सो परमाणु आधा कैसे हो सकता है ? क्योंकि परमाणु तो उसी को कहते हैं कि जिसके फिर दो विभाग न हो सकें । परमाणु छोटा होता है, फिर भी उसमें जुड़ने की शक्ति होती है। यहां स्नेहकाय ( चिकनापन ) का प्रश्न होने . से चिकने परमाणुओं का कथन किया है, किन्तु रुक्ष परमाणु पुद्गल भी जुड़ते हैं । गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं कि पांच परमाणु आपस में जुड़कर कर्म के स्कन्ध बन जाते हैं, किन्तु वे किसी के बनाने से नहीं बनते हैं, वे स्वभाव से ही स्कन्ध बन जाते हैं, वे पाँच परमाणु मिल कर दुःखरूप में परिणत हो जाते हैं, वह दुःख भी शाश्वत है और उपचय तथा अपचय को प्राप्त होते हैं । हे भगवन् !. क्या उनका यह कहना सत्य ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! अन्यतीर्थिकों का यह कथन मिथ्या है, क्योंकि दुःख रूप में परिणत होने वाला स्कन्ध अनन्त प्रदेशी होता है । दुःख स्वतः स्वभाव से ही उत्पन्न नहीं होता, किन्तु वह उत्पन्न करने से होता है, बिना उत्पन्न किये नहीं होता है और कर्म अशाश्वत ही होते हैं । किन्तु पांच परमाणु जुड़ने से तो स्कन्ध होता है और वह भी अशाश्वत है । ३२१ - “पुव्विं भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासम पविइव कंतं च णं भासिया भासा अभासा । " ३२२ - " जा सा पुव्विं भासा अभासा । भासिज्जमाणी भासा For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावती सूत्र-श. १ उ. १० भाषा भाषा भासा, भासासमयविइक्कंतं च णं भासिया भासा अभासा; सा किं भासओ भासा ? अभासओ भासा ? भासओ णं भासा । णो . खलु सा अभासओ भासा ।" . ३२१-बोलने से पहले की भाषा, अभाषा है, बोलते समय की भाषा भाषा है और बोलने के बाद की भाषा, अभाषा है। ३२२-वह जो पहले की भाषा, अभाषा है, बोलते समय की भाषा; भाषा है, और बोलने के बाद की भाषा, अभाषा है, सो क्या बोलने वाले पुरुष की भाषा है, या अनबोलतें पुरुष की भाषा है ? (उत्तर)-वह बोलने वाले पुरुष की भाषा है, किन्तु अनबोलते पुरुष की.भाषा नहीं है। . विवेचन-अन्यतीर्थी यह भी कहते हैं कि भाषा बोलने से पहले तो भाषा है, लेकिन बोलने के समय भाषा नहीं है, और बोलने के बाद फिर भाषा है । ऐसा मानने वालों की दलील यह है कि अपने मन के भावों को व्यक्त करने के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है अर्थात् मन के भावों को समझना ही भाषा का उद्देश्य है । भाषा किसी को लक्ष्य करके ही बोली जाती है । अतएव बोलने से पहले भाषा थी, बोलने के बाद भी भाषा रही, परन्तु बोलते समय भाषा, भाषा नहीं है। बोलने से पहले वक्ता के मन में भाव थे और जबतक उसके हृदय में भाव हैं, तभी तक वह भाषा है, किन्तु जब बोलना प्रारम्भ किया, तो वह भाषा नहीं रही, क्योंकि बर्तमान काल अत्यन्त सूक्ष्म है-एक समय मात्र का है । उसमें कोई क्रिया नहीं हो सकती। एक समय में पूरे पद का उच्चारण भी नहीं हो सकता और पद . का उच्चारण हुए बिना कोई अर्थ समझ में नहीं आ सकता। इसलिए बोलते समय निर. र्थक होने के कारण भाषा, भाषा नहीं रही। हां, बोलने के पश्चात् भाषा, भाषा है, क्योंकि उससे श्रोता को अर्थ का बोध होता है । .. भगवान् फरमाते है कि-हे गौतम ! अन्यतीर्थिकों का यह मन्तव्य मिथ्या है, क्योंकि वास्तव में भाषा वही है जो बोली जा रही है । बोलने से पहले भाषा, अभाषा है, क्योंकि वह उस समय तक बोली नहीं गई है और इस कारण उसका अस्तित्व ही नहीं है और बोलने के पश्चात् शब्द और अर्थ का वियोग हो जाता है । इसलिए वह भी भाषा नहीं है केवल बोली जाती हुई भाषा ही भाषा है। . For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १० क्रिया और दुःख ३२३ - " पुव्विं किरिया अदुक्खा । जहा भासा तहा भाणि - यव्वा । किरिया वि जाव - करणओ सा दुबखा णो खलु सा अकरओ दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया । " ३७० ३२४ - " किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकर्ड दुक्खं कट्टु कट्टु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदेंति इति वत्तव्वं सिया ।” विशेष शब्दों के अर्थ – कट्टु — करके । ३२३ –करने से पहले की क्रिया दुःख का कारण नहीं है, उसे भाषा के समान ही समझना चाहिए। यावत् वह क्रिया करने से दुःख का कारण है, नहीं करने से दुःख का कारण नहीं है। ऐसा कहना चाहिए । ३२४ - कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत दुःख है, उसे कर करके प्राण, भूत, जीव, सत्त्व वेदना भोगते हैं। ऐसा कहना चाहिए । विवेचन - इसी प्रकार अन्यतीर्थिक लोग, क्रिया के विषय में भी कहते हैं । भगवान् फरमाते हैं कि - हे गौतम! अन्यतीर्थिकों का यह कथन मिथ्या है, क्योंकि करने से पहले की क्रिया और क्रिया समय व्यतिक्रान्त कृतक्रिया दुःख का कारण नहीं है, किन्तु क्रिया करने से ही दुःख का कारण है । कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत दुःख है । उसे कर करके ही प्राण, भूत, जीव सत्त्व वेदना भोगते हैं । यह अनुभवसिद्ध भी है । प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, किसे कहते हैं ? इस विषय में टीकाकार ने एक श्लोक उद्धृत किया है। प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ अर्थ- बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव 'प्राण' कहलाते हैं । वनस्पतिकाय को 'भूत' कहते हैं । पञ्चेन्द्रिय को 'जीव' कहते हैं और शेष चार स्थावरों (पृथ्वीकाय, अकाय, तेउकाय, और वायुकाय) को 'सत्त्व' कहते हैं । प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की यह व्याख्या भी की जाती है और दूसरी व्याख्या भी की जाती है कि ये चारों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं अर्थात् प्राण, भूत, जीव, सत्त्व - For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १० ऐपिथिकी और साम्परायिकी क्रिया ३७१ एक ही है । अथवा प्राण धारण करने वाला 'प्रागी' कहलाता है। जिसका नाश न कभी हुआ हो और न होगा वह 'भूत' कहलाता है। जो भूतकाल में जीता था, वर्तमान काल में जीता है और भविष्यकाल में भी जीता रहेगा वह 'जीव' कहलाता है । जो तीनों काल में चैतन्य शक्ति से युक्त बना रहता है वह 'सत्त्व' कहलाता है । प्राण, भूत आदि प्रत्येक का यह लक्षण प्रत्येक जीव में पाया जाता है, अतएव इस प्रकार प्राण, भूत आदि चारों शब्द एकार्थवाची भी हैं। ___ अन्यतीर्थी कहते हैं कि-दुःख बिना किये ही होता है । जब उनसे यह प्रश्न किया जाता है कि बिना किये दुःख कैसे होता है ? तो इसके उत्तर में वे कहते है कि-हम 'यदृच्छा' तत्त्व मानते हैं । इस यदृच्छा तत्त्व के अनुसार निष्कारण ही सब कुछ होता रहता है। क्या हो और क्या न हो, इसका कोई नियम नहीं है । इसी प्रकार कब, कैसे, कहाँ, क्या हो, इस प्रकार का भी कोई नियम नहीं है । जब, जैसे, जहाँ, जो कुछ हो गया सो । हो गया, यही 'यदृच्छावाद' का सिद्धान्त है। ___नियतिवाद और यदृच्छावाद में यह अन्तर है कि नियतिवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य का एक भविष्य निश्चित है, जो कुछ भवितव्य है वही होता है, किन्तु यदृच्छावाद के अनुसार कोई नियमितता नहीं है । अकस्मात् जब जो कुछ हो गया सो हो गया। उनके मत के अनुसार सारा जगत् अकित है। भगवान् फरमाते हैं कि-हे गौतम ! उनका यह कथन मिथ्या है, क्योंकि यदि न करने से ही कर्म सुख, दुःख रूप हों, तो इहलौकिक और पारलौकिक विविध प्रकार के अनुष्ठानों का अभाव हो जायगा । किन्तु यदृच्छावादियों ने भी कुछ पारलौकिक अनुष्ठान माना ही है । इसलिए उनका उपर्युक्त कथन अज्ञानतापूर्ण है । दो पुरुषों को एक समान सामग्री प्राप्त होने पर भी उनके सुख, दुःख में जो अन्तर देखा जाता है वह किसी विशिष्ट कारण से ही होता है। वह विशिष्ट कारण 'कर्म' है । इस प्रकार कर्म की सत्ता प्रमाण से सिद्ध है। ... ऐर्यापथिको और साम्परायिकी क्रिया एका ३२५ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, जाव"एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ । तं For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ " "भगवती सूत्र-श. १ उ. १० ऐयोपथिकी और साम्परायिकी क्रिया जहाः-इरियावहियं च, संपराइयं च । जं समयं इरियावहियं पकरेइ तं समयं संपराइयं पकरेइ, जं समयं संपराइयं पकरेइ, तं समयं इरियावहियं पकरेह-इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पकरेइ, संपराइयाए पकरणयाए इरियावहियं पकरेइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ । तं जहाः-इरियावहियं च, संपराइयं च ।” से कहमेयं भंते ! एवं ? . . ३२५ उत्तर-गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति, तं चेव जाव-जे ते एवं आहिंसु, मिच्छा ते एवं आहिंसु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि-एवं खलु एगे जीवे एगसमए एक्कं किरियं पकरेइ । परउत्थियवत्तव्यं णेयव्वं । ससमयवत्तव्वयाए यव्वं । जाव-इरियावहियं वा, संपराइयं वा।। - विशेष शम्दों के अर्थ-हरियावहियं-ऐपिथिकी क्रिया, संपराइयं-साम्परायिकी क्रिया, परउत्थियवतम्ब-परतीर्थिकों की वक्तव्यता, ससमयवतव्वयाए-स्वसमय-स्वसिद्धान्त की वक्तव्यता। भावार्थ-३२५ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते है यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-एक जीव, एक समय में दो क्रियाएं करता है । वह इस प्रकार है-ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी । जिस समय जीव, ऐर्यापथिको क्रिया करता है, उस समय साम्परायिकी क्रिया करता है और जिस समय साम्परायिकी क्रिया करता है उस समय ऐर्यापथिको क्रिया करता है । साम्परायिकी क्रिया करने से ऐपिथिकी क्रिया करता है इत्यादि । इस प्रकार एक जीव, एक समय में दो क्रियाएँ करता है, एक ऐर्यापथिकी और दूसरी साम्परायिकी । हे भगवन् ! या यह इसी प्रकार है. ? .... . . ..." For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १० ऐपिथिकी और साम्परायिकी क्रिया ३७३ - ३२५ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं यावत् उन्होंने जो ऐसा कहा है सो मिण्या कहा है । हे गौतम ! में इस प्रकार कहता हूँ कि एक जीव, एक समय में एक क्रिया करता है। यहां परतीथिकों का तथा स्वसिद्धांत का वक्तव्य कहना चाहिए यावत् ऐर्यापथिको अथवा साम्परायिकी क्रिया करता . विवेचन-गमन और आगमन के मार्ग में होने वाली क्रिया 'ऐर्यापथिकी क्रिया' कहलाती है । यह क्रिया केवल योग निमित्त से होती है । जो क्रिया कषाय से लगती है और जिसमें कषाय कारण हैं, वह "साम्परायिकी क्रिया' कहलाती है । ऐर्यापथिकी क्रिया कषाय के क्षीण होने पर या उपशान्त होने पर ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में लगती है । साम्परायिकी क्रिया से संसार परिभ्रमण करना पड़ता है । ऐपिथिकी क्रिया में सिर्फ योग का निमित्त होता है। साम्परायिकी क्रिया में भी योग का निमित्त है किन्तु उसमें कषाय की प्रधानता है । यह क्रिया दसवें गुणस्थान तक लगती है । संसार परिभ्रमण का कारण कषाय है । ठाणांग सूत्र के दूसरे ठाणे में कहा गया है कि-पच्चीस क्रियाओं में से चौवीस क्रियाएँ साम्परायिकी हैं और एक ऐपिथिकी है। . गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा कि-हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं कि एक जीव, एक समय में दो क्रियाएं करता है-ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी । क्या उनका यह कथन ठीक है ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! अन्यतीथिकों का यह कथन मिथ्या है । एक जीव, एक समय में दो क्रियाएं नहीं कर सकता, किन्तु एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है, चाहे ऐर्यापथिकी करे, चाहे साम्परायिकी करे। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि-'जो की जाय वह क्रिया कहलाती है। फिर एक साथ दो क्रियाएं क्यों नहीं की जा सकती है ? क्योंकि जिस समय में 'ईर्या' अर्थात् गमन करने की क्रिया की जाती है, उसी समय कषाय भी रहता है और कषाय की क्रिया साम्परायिकी क्रिया कहलाती है। इसलिए ऐर्यापथिकी क्रिया के साथ साम्परायिकी क्रिया भी होनी ही चाहिए । इसी प्रकार जब साम्परायिकी क्रिया होती है तब योग भी रहता है और योग की क्रिया ऐपिथिकी है। ऐसी दशा में साम्परायिकी क्रिया के साथ ऐर्यापषिकी क्रिया भी क्यों नहीं लगती ? . For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ भगवती सूत्र-श. १ उ. १० उपपात विरह इसका समाधान यह है कि केवल शब्द की व्युत्पत्ति से ही काम नहीं चलता । व्युत्पत्ति के साथ शब्द की प्रवृत्ति भी निमित्त मानी जाती है। भगवान् के कहने का आशय यह है कि जब कषाय है तब ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि ऐर्यापथिकी क्रिया कषाय न होने पर ही होती है। जब तक कषाय है तबतक साम्परायिकी क्रिया ही होती है, ऐर्यापथिकी नहीं होती। जब कषाय नहीं होता है तब साम्परायिकी क्रिया नहीं हो सकती, इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रिया नहीं कर सकता, किन्तु एक समय में एक ही क्रिया करता है। उपपात विरह ३२६ प्रश्न-निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? ___३२६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एपकं समय, उकोसेणं बारस मुहुत्ता । एवं वक्कंतीपयं भाणियव्वं निरवसेसं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ । .. .॥दसमो उद्देसो समत्तो ॥ विशेष शब्दों के अर्थ-विरहिया-विरहित, उववाएण-उपपात की अपेक्षा। भावार्थ-३२६ प्रश्न-हे भगवन् ! नरक गति, कितने समय तक उपपात से विरहित रहती है ? ३२६ उत्तर--हे गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहर्त तक नरक गति उपपात से रहित रहती है । इसी प्रकार यहाँ सारा व्युत्क्रान्ति पद कहना चाहिए। - हे भगवन् ! यह ऐसा ही है । यह ऐसा ही है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! ऐसा कितना समय व्यतीत For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-सूत्र श. १ उ. १० उपपात विरह . ३७५ होता है कि जब कोई जीव, नरक में उत्पन्न नहीं हो ? . भगवान् ने इस प्रश्न का संक्षेप में उत्तर दिया कि-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त । इस विषय का विस्तृत विवेचन प्रज्ञापना सूत्र के छठे पद में किया गया है । वही विवेचन यहां समझलेना चाहिए । उसका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च गति में, मनुष्य गति में और देव में जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त का उत्पाद विरह काल है । सात नरकों में विरह काल इस प्रकार है। चउबीसई महत्ता सत्त अहोरत्त तह य पारस। . मासो य दो य चउरो, छम्मासा विरहकालो उ ।। - अर्थात्-पहली नरक में चौबीस मुहूर्त का, दूसरी में सात अहोरात्र का, तीसरी में पन्द्रह अहोरात्र का, चौथी में एक मास का, पांचवी में दो मास का, छठी में चार मास का, और सातवीं नरक में छह मास का विरह काल होता है। इन सब में जघन्य विरह काल एक समय का होता है। ... भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा पहले दूसरे देवलोक में चौबीस मुहूर्त का विरह काल है । तीसरे देवलोक में नौ दिन और बीस मुहूर्त का, चौथे देवलोक में बारह दिन और दस मुहूर्त का, पांचवें देवलोक में साढ़े बाईस दिन का, छठे देवलोक में पैंतालीस दिन का, सातवें देवलोक में अस्सी दिन का, आठवें देवलोक में सौ दिन का, नववें और दसवें देवलोक में संख्यात महीनों का (जो एक वर्ष से अधिक न हो,), ग्यारहवें और बारहवें देवलोक में संख्यात वर्ष का (जो एक सौ वर्ष से अधिक न हो) विरहकाल होता है । अवेयक की पहली त्रिक में संख्यात सैकड़ों वर्षों का, दूसरी विक में संख्यात हजारों वर्षों का और तीसरी त्रिक में संख्यात लाखों वर्षों का विरहकाल होता है । जैसा कि गाथाजों में कहा है। ___ भवण-वण-जोई-सोहम्मीसाणे चउवीस मुहुत्ताओ । उकोसबिरहकालो पंचसु वि जहओ समो॥ णवविण वोस मुहत्ता, बारस बस व विणमुहत्तायो। बाबीसा अखं चिय, पणयाल असीइ विवससयं ॥ . संज्जा मासा आणयपाणयएसु तह आरण अच्छुए वासा। संखेज्जा विग्णेया गेवेसं अबो बोच्छं For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १० उपपात विरह हेट्टिमवाससयाई मन्तिमसहस्साई उरिमे लक्ला । संखेज्जा विष्णेया जहासंखेगं तु तीसुपि ॥ इन गाथाओं का अर्थ ऊपर दे दिया गया है । सब में जघन्य विरह काल एक समय का होता है। चार अनुतर विमानों में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार विमानों में पल्योपम के असंख्यातवें भाग का और सर्वार्थसिद्ध विमान में पल्योपम के संख्यातवें भाग का उत्कृष्ट विरह काल होता है और जघन्य एक समय का । जैसा कि कहा है पलियाअसंलमागो उक्कोसो होइ विरहकालोउ। विजयाइसु निहिगो, सम्वेसु जहणमो सममो॥ - इस गाथा का अर्थ ऊपर दे दिया गया है। इन सब में उत्पाद विरह का तरह उद्वर्तना विरह भी कहना चाहिए। पांच स्थावरों में कभी भी विरह नहीं होता । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में अन्तर्मुहूर्त का विरह होता है । संज्ञी तियंच और संझी मनुष्य में बारह मुहूर्त का विरह होता है अर्थात् इतने समय तक कोई उपजता या निकलता नहीं है। सिद अवस्था में उत्कृष्ट छह मास का विरह होता है, अर्थात् अधिक से अधिक छह मास तक कोई जीव मुक्त नहीं होता । यह सिद्धों का उपपात विरह काल है । सिंदों में उद्वर्तन विरह काल नहीं होता है, क्योंकि सिद्ध बना हुआ कोई भी जीव, वापिस नहीं निकलता अर्थात् वापिस संसार में नहीं आता। - इस प्रकार पण्णवणा सूत्र में विरह काल का वर्णन किया गया है। सेवं भंते ! सेवं भंते !! अर्थात् हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे.भगवन् ! यह इसी प्रकार है । अर्थात् जैसा आप फरमाते हैं, वह वैसा ही है । यथार्य एवं सत्य है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते है। ॥ प्रथम शतक का दसवां उद्देशक समाप्त । ॥ प्रथम शतक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ जीवों का श्वासोच्छ्वास . १ गाहाऊसास खदए विय समुग्धाय पुढविदिय अण्णउत्थि भासा य। देवा य चमरचंचा समयक्तित्तऽस्थिकाय बीयसए । २ ते णं काले णं ते णं समए णं रायगिहे णामं णयरे होत्था। वण्णओ। सामीसमोसढे। परिसा णिग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। - २ प्रभ-ते णं काले णं ते णं समए णं जेटे अंतेवासी जावपज्जुवासमाणे एवं क्यासी-जे इमे भंते ! बेइंदिया तेइंदिया चारदिया पंचिंदिया जीवा, एएसि णं आणाम वा पाणामं वा उस्सास वाणीसासं वा जाणामो पासामो। जे इमे पुढविकाया जाव For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ जीवों का श्वासोच्छ्वास वणप्फइकाइया एगिदिया जीवा एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा नीसासं वा ण याणामो ण पासामो। एए. णं भंते ! जीवा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा ? ३ उत्तर-हंता गोयमा ! एए वि णं जीवा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा । __४ प्रश्न-किण्णं भंते ! एए जीवा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा ? ४ उत्तर-गोयमा ! दव्वओ णं अणंतपएसियाई दवाई, खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाई, कालओ अण्णयरठिईयाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा। . ५ प्रश्न-जाइं भावओ वण्णमंताई आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा ताई किं एगवण्णाई आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा ? ५ उत्तर-आहारगमो णेयव्यो, जाव-पंचदिसं। ६ प्रश्न-किणं भंते ! णेरइया आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा। - ६ उतर-तं चेव जाव-णियमा छदिसिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा णीससंति वा। For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- - श. २ उ १ जीवों का श्वासोच्छ्वास' ७ - जीव - एगिंदिया वाघाया य णिव्वाघाया य भाणियव्वा । सेसा यिमा छ । विशेष शब्दों के अर्थ - - ऊसास - श्वासोच्छ्वास, खंदए - स्कन्दक, समय क्खित्त समयक्षेत्र, बीयसए - दूसरा शतक होत्था - था, समोसढे - पधारे, पज्जुवा समाणे सेवा करते हुए अणामं पाणामं - आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास, उत्सासं णिस्सास- बाह्य श्वासोच्छ्वास, याणाम- जानते हैं, पासामो-देखते हैं, वाघाय - व्याघात, णिव्वाघाया- निर्व्याघात, णियमानियम से, छद्दिस - छह दिशा । भावार्थ - १ संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है- दूसरे शतक में दस उद्देशक हैं । उनमें क्रमशः इस प्रकार विषय हैं - ( १ ) श्वासोच्छ्वास और स्कन्दक अनगार ( २ ) समुद्घात (३) पृथ्वी ( ४ ) इन्द्रियां (५) अन्यतीर्थिक (६) भाषा (७) देव (८) चमरचंचा राजधानी (९) समय क्षेत्र का स्वरूप (१०) अस्तिकाय का विवेचन । ३७९ २-उस काल उस समय में राजगृह नगर था । उसका वर्णन करना • चाहिए। वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । उनका धर्मोपदेश सुनने लिए परिषद् निकली । भगवान् ने धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनकर परिषद् वापिस लौट गई। ३ प्रश्न - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगार भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले - हे भगवन् ! ये जो बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे जो बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं उनको हम जानते और देखते हैं, किन्तु 'हे भगवन् ! पृथ्वीकाय, अध्कस्य, ते उकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास को हम नहीं जानते हैं और नहीं देखते हैं। तो क्या भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते और छोड़ते हैं ? ३ उत्तर- हाँ, गौतम ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव मी आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते और छोड़ते हैं । For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० भगवती सूत्र-श. २ उ. १ जीवों का श्वासोच्छ्वास ४ प्रश्न-हे भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, किस प्रकार के द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्त प्रदेश वाले द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्य प्रदेशों में रहे हुए द्रव्यों को, काल की अपेक्षा किसी भी स्थिति वाले द्रव्यों को और भाव की अपेक्षा-वर्ण. वाले, गन्ध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, भाव की अपेक्षा वर्ण वाले द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते है और छोड़ते हैं, तो क्या वे द्रव्य, एक वर्ण वाले हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जैसा कि-पण्णवणा सूत्र के अट्ठाईसवें आहारपद में कथन किया हैं वैसा ही यहां कहना चाहिए। यावत् वे पांच विशाओं की ओर से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। ' ६ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक किस प्रकार के पुद्गलों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! इस विषय में पहले कहा, वैसा ही समझना चाहिए यावत् वे नियमा (नियम से-निश्चित रूप से) छह विशा के पुद्गलों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। . ७-जीव सामान्य और एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में ऐसा कहना चाहिए कि यदि व्याघात न हो, तो वे सब दिशाओं से बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के लिए पुद्गलों को लेते हैं। यदि व्याघात हो, तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित चार दिशा से और कदाचित् पांच दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । बाकी सब जीव, नियमा छह दिशा से श्वासोच्छवास के पुद्गलों को लेते हैं। For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ जीवों का श्वासोच्छ्वास ३८१ विवेचन-पहले शतक का विवेचन पूरा हुआ। अब दूसरे शतक का विवेचन प्रारम्भ किया जाता है । दूसरे शतक के दस.उद्देशक हैं। उनमें से पहले उद्देशक का विवेचन प्रारंभ. किया जाता है। इसका परस्पर सम्बन्ध इस प्रकार है-प्रथम शतक के दसवें उद्देशक के अन्त में जीवों की उत्पत्ति का विरहकाल बतलाया गया था। अब दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में जीवों के श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में विचार किया गया है। ___ गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि-हे भगवन् ! पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों का चैतन्य, आगम प्रमाण से सिद्ध है, किन्तु उनमें श्वासोच्छ्वास होता है या नहीं ? क्योंकि जैसे मनुष्य पशु आदि का श्वासोच्छ्वास प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, उस तरह से पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों का श्वासोच्छ्वास प्रत्यक्ष ज्ञात नहीं होता। इस विषय में यदि कोई यह शंका करे कि-जब पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों का चैतन्य, आगम से सिद्ध है और यह बात आबालगोपाल प्रसिद्ध है कि-जो जीव होता है वह श्वासोच्छ्वास लेता ही है, तब फिर पृथ्वीकायादि स्थावर जीव श्वासोच्छ्वास लेते हैं या नहीं ? यह गौतम स्वामी का प्रश्न संगत कैसे है ? . इस शंका का समाधान यह है कि-जीव के श्वासोच्छ्वास होता है यह बात यद्यपि जगत् जाहिर है, तथापि मेंढ़क आदि कितनेक जीवित जीवों का शरीर कई बार बहुत काल पर्यन्त श्वासोच्छ्वास रहित दिखाई देता है। इसलिए पृथ्वीकायादि के जीव क्या उस प्रकार के हैं या मनुष्यादि की तरह श्वासोच्छ्वास लेने वाले हैं ? इस प्रकार की शंका होना संगत ही है तया बहुन लम्बे समय में श्वासोच्छ्वास .लेने वाले जीवों को भी किसी काल में श्वासोच्छ्वास लेना ही पड़ता है, वह अपने को प्रत्यक्ष दिखाई देता है, परन्तु पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों का श्वासोच्छ्वास हमें कभी दृष्टिगोचर नहीं होता । इसलिए पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों के श्वासोच्छ्वास है या नहीं ? यह सन्देह होना स्वाभाविक है । इसलिए गौतम स्वामी ने जो प्रश्न किया, वह सर्वथा सुसंगत है। - गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-है गौतम ! पृथ्वी कायादि स्थावर जीव भी बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते और छोड़ते हैं। पृथ्वीकायादि के जीव श्वासोच्छ्वास रूप में जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं वे किस प्रकार के होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए पन्नवणा सूत्र के अट्ठाईसवें आहार पद की साक्षी दी गई है। वहाँ बतलाया गया है कि-वे पुद्गल दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले यावत् पांच वर्ण वाले होते हैं । वे एक गुण काले यावत् अनन्त गुण काले होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ भगवती सूत्र जीव सामान्य और एकेन्द्रिय जीवों के लिए यह कथन किया गया है कि - यदि किसी प्रकार का व्याघात न हो, तो वे छहों दिशाओं से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और यदि व्याघात हो, तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पाँच दिशाओं से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय जीव, लोक के अन्त भाग में भी होते हैं, वहाँ उन्हें अलोक द्वारा व्याघात होता है। शेष जीव नैरयिक आदि सनाड़ी के अन्दर ही होते है । इसलिए वे छहों दिशाओं से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण कर सकते हैं । उनको व्याघात नहीं होता है । - शं. २ उ. १ वायुकाय का श्वासोच्छ्वास वायुकाय का श्वासोच्छ्वास ८ प्रश्न - वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा ? ८ उत्तर - हंता, गोयमा ! वाउयाए णं जाव-नीससंति वा । ९ प्रश्न - वाउयाए णं भंते! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दात्ता, उद्दाहत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पञ्चायाह ? ९ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाव - पच्चायाइ ? निक्खमइ । १० प्रश्न – से भंते ! किं पुट्ठे उद्दार, अपुट्ठे उद्दाइ ? १० उत्तर - गोयमा ! पुट्ठे उद्दाह, णो अपुट्ठे उद्दाह । ११ प्रश्न - से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ, असरीरी निक्ख मह ? ११ उत्तर - गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमह, सिय असरीरी For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ वायुकाय का श्वासोच्छ्वास १२ प्रश्न - से केणट्टेणं मंते ! एवं वुच्चइ - 'सिय ससरीरी निक्खम, सिय असरीरी निक्खमइ ?' ३८३ - १२ उत्तर - गोयमा ! वाउयायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा :- ओरालिए, वेडव्विए, तेयए, कम्मए । ओरालियवेउब्वियाई विप्पजहाय तेयय-कम्मएहिं निक्खमइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचड़ - 'सिय ससरीरी, सिय असरीरी निरखमह ।' A विशेष शब्दों के अर्थ - पुट्ठे टकराकर, उद्दाइत्ता-मरकर, पच्चायाइ - उत्पन्न होता है, क्खिमइ निकलता है, विप्पजहाय-छोड़कर । भावार्थ -- ८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ? ८ उत्तर - हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मर कर फिर वहीं (वायुकाय में ही ) उत्पन्न होता है ? ९ उत्तर - हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मर कर फिर वहीं उत्पन्न होता है । १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाय, स्वजाति के जीवों के साथ स्पृष्ट होकर मरण पाता है अथवा बिना पाता है ? For Personal & Private Use Only ० उत्तर - हे गौतम ! वायुकाय, स्वजाति के अथवा परजाति के जीवों के साथ स्पृष्ट होकर मरण को प्राप्त होता है, किन्तु बिना स्पृष्ट हुए मरण को प्राप्त नहीं होता है । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! जब वायुकाय मरता है, तो क्या शरीर सहित अथवा परजाति के स्पृष्ट हुए ही मरण Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ भगवती सूत्र-श. २ उ, १ वायुकाय का श्वासोच्छ्वास निकलता है या शरीर रहित ? __ ११ उत्तर-हे गौतम ! वह कथञ्चित् सशरीरी निकलता है और कथञ्चित् अशरीरी निकलता है। - १२ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वायुकाय का जीव जब निकलता है तब वह कथञ्चित् सशरीरी निकलता है और कथञ्चित् अशरीरी निकलता है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! वायुकाय के चार शरीर होते हैं । वे इस प्रकार हैं-औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण। इनमें से औदारिक और वैक्रिय को छोड़कर दूसरे भव में जाता है, इस अपेक्षा से वह अशरीरी जाता है, और तेजस और कार्मण शरीर को वह साथ लेकर जाता है । इस अपेक्षा से वह सशरीरी जाता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-वायुकाय मरकर दूसरे भव में कथञ्चित् (किसी अपेक्षा से) सशरीरी जाता है और कथञ्चित् अशरीरी जाता है। __ विवेचन-एकेन्द्रिय जीवों के भी श्वासोच्छ्वास होता है और वह वायुरूप होता है, तो जिस तरह से पृथ्वीकाय का श्वासोच्छ्वास पृथ्वी से भिन्न वायुरूप होता है, तो क्या इसी तरह वायुकाय का श्वासोच्छ्वास भी वायुकाय से भिन्न होता है, या वायुरूप ही होता है ? इस शंका को दूर करने के लिए गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया है कि-हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता हैं । . शंका-जैसे पृथ्वी स्वयं पृथ्वी रूप है और उसका श्वासोच्छ्वास वायुरूप है । इसी तरह अप्काय स्वयं अप्काय (पानी) रूप है और उसका श्वासोच्छ्वास वायुरूप हैं । किन्तु वायुकाय में इससे भिन्नता है कि वायुकाय स्वयं वायु रूप है तो भी उसे श्वासोच्छवास के रूप में दूसरी वायु की आवश्यकता रहती है, तो यहां यह शंका उपस्थित होती है कि फिर उस दूसरी वायु को तीसरी वायु की आवश्यकता रहेगी और तीसरी वायु को चौथी वायु की । इस तरह अनवस्था दोष आ जायगा । इसका क्या समाधान है ? For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ मृतादी अनगार ३८५ इस शंका का समाधान यह है कि जीव को श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता रहती है, निर्जीव को श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता नहीं रहती। वायकाय जीव है, इसलिए उसे श्वासोच्छवास की आवश्यकता रहती है। किन्तु जो वायु श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण होती है, वह वायु निर्जीव है। इसलिए उसको श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए अनवस्था दोष नहीं आ सकता। दूसरी बात यह है कि वायुकाय, जिस वायु को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करती है वह इसके औदारिक वैक्रिय रूप नही है, किन्तु वे श्वासोच्छ्वास के पुद्गल वायुकाय के औदारिक और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा अनन्त गण प्रदेश वाले होने से सूक्ष्म हैं। इसलिए श्वासोच्छवास रूप वाय. इस चैतन्य वायु के शरीर रूप नहीं है । तात्पर्य यह है कि श्वासोच्छ्वास रूप वायु जड है, इसलिए उसको श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता नहीं है । इसलिए अनवस्था दोष नहीं आता है। - यहाँ वायुकाय का प्रकरण चल रहा है इसलिए गौतम स्वामी ने वायुकाय की कायस्थिति के विषय में प्रश्न किया है, अन्यथा यह प्रश्न तो पृथ्वीकायादि में भी लागू पड़ता है। जैसा कि कहा है असंखोसप्पिणीओस्सप्पिणीउ, एगिवियाण पउण्हं । ...ता चेव उ अर्णता, वणस्सईए उ बोडव्या ॥ . अर्थ—पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, इन चार की कायस्थिति असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक है । और वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पर्यन्त है। - वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मर कर वायुकाय में ही उत्पन्न हो जाता है । वायुकाय, स्वकाय शस्त्र के साथ में अथवा परकाय शस्त्र के साथ स्पृष्ट होकर मरण को प्राप्त होता है, बिना स्पृष्ट हुए मरण को प्राप्त नहीं होता है । यह सूत्र सोपक्रम । आयुवाले जीवों की अपेक्षा है। वायुकाय के चार शरीर हैं, जिनमें से औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा तो वह अशरीरी होकर परलोक में जाता है और तैजस कार्मण शरीर की अपेक्षा सशरीरी परलोक में जाता है । मतादी अनगार . १३ प्रश्न-पडाई णं भंते ! नियंठे जो निरुद्धभवे, णो निरुद्ध. For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ मृतादी अनगार .. . तया? भवपवंचे, णो पहीणसंसारे, णो पहीणसंसारवेयणिज्जे, णो वोच्छिण्णसंसारे, णो वोच्छिण्णसंसारवेयणिज्जे, णो निट्ठियढे णो निट्ठियट्ठः करणिज्जे पुणरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ ? .. ___ १३ उत्तर-हंता, गोयमा ! मडाई णं नियंठे, जाव-पुणरवि इत्थत्थं हब्बामागच्छड्। १४ प्रश्न-से णं भंते ! किं ति वत्तव्वं सिया ? .. १४ उत्तर-गोयमा ! 'पाणे ति वत्तव्वं सिया, 'भूए' त्ति वत्तव्वं सिया, 'जीवें त्ति वत्तव्वं सिया, 'सत्ते' ति. वत्तव्वं सिया, 'विष्णू' त्ति वत्तव्यं सिया, 'वेए' त्ति वत्तव्वं सिया; पाणे, भूए, जीवे, सत्ते, विण्णू, वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। ___ १५ प्रश्न-से केणटेणं 'पाणे' त्ति वत्तव्वं सिया, जाव-वेए' त्ति वत्तव्वं सिया ? . १५ उत्तर-गोयमा ! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, णीससइ वा तम्हा 'पाणे त्ति वत्तव्यं सिया। जम्हा भूए, भवइ, भविस्सइ य तम्हा 'भूए' त्तिं वत्तव्यं सिया। जम्हा जीवे जीवइ, जीवत्तं, आउयं च कम्मं उवजीवइ तम्हा 'जीवे' त्ति वक्तव्वं सिया, जम्हा सत्ते सुभाऽसुभेहिं कम्मेहिं तम्हा 'सत्ते' त्ति वत्तव्वं सिया। जम्हा तित्त-कडु-कसायं-ऽबिल-महुरे रसे जाणइ तम्हा 'विष्णू' त्ति : वत्तव्वं सिया । वेदेइ य सुह-दुक्खं तम्हा वेए' त्ति वत्तव्वं सिया, For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. २ उ. १ मृतादी अनगार से तेणटेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया, जाव-वेए त्ति वत्तव्वं सिया। _ विशेष शब्दों के अर्थ-मडाई-मृतादी अर्थात् प्रासुक-भोजी, गिट्ठियढ़े-निष्ठितार्थ, इत्यत्थं-यहाँ, मनुष्यभवादि रूप, विष्णू-विज्ञ, निरुद्धभवे-भव का अवरोध करने वाला, निरुद्धभवपबंचे-भव-प्रपंच का निरोध करना, पहीणसंसारे-संसार क्षीण करना, वोच्छिण्णसंसार-संसार का छेदन करना । ___भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया है, संसार के प्रपञ्चों का निरोध नहीं किया है, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ है, जिसका संसार वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ है, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ है, जिसका संसार वेदनीय व्युच्छिन्न नहीं हुआ है, जो निष्ठितार्थ-प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ है, जिसका कार्य समाप्त नहीं हुआ है, ऐसा मतादी अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है ? .: १३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ, फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है। १४ प्रश्न-पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? १४ उत्तर-हे गौतम ! उसे कदाचित् 'प्राण' कहना चाहिए, कदाचित् 'भूत' कहना चाहिए, कदाचित् 'जीव' कहना चाहिए, कदाचित् 'सत्त्व' कहना चाहिए, कदाचित् 'विज्ञ' कहना चाहिए, कदाचित् 'वेद' कहना चाहिए और कदाचित् 'प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ और वेद' कहना चाहिए। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! उसे 'प्राण' कहना चाहिए यावत् 'वेद' कहना चाहिए, इसका क्या कारण है ? .... १५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव, बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेता है और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिए। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य काल में रहेगा, इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिए। वह जीता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है, इसलिए उसे 'जीव' कहना चाहिए । वह शुभ और अशुभ कर्मों से संबद्ध है, For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ मृतादी अनगार इसलिए उसे 'सत्त्व' कहना चाहिए । वह तिक्त (तीखा), कडुआ, कषैला, खट्टा और मीठा इन रसों को जानता है, इसलिए उसे 'विज्ञ' कहना चाहिए। वह सुख दुःख को वेदता है-अनुभव करता है, इसलिए उसे 'वेद' कहना चाहिए। इसलिए हे गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव 'प्राण यावत् वेद' कहलाता है। विवेचन-पहले के प्रकरण में यह कहा गया है कि वायुकाय बारबार वायुकाय में उत्पन्न होती है । इसी प्रकार क्या किसी मुनि की भी संसार चक्र की अपेक्षा बारबार वहीं उत्पत्ति होती है ? इस बात को बतलाते हुए कहा गया है- . ... . 'मडाई' शब्द की संस्कृत छाया 'मृतादी' होती है जिसका अर्थ है-'मृत' अर्थात् निर्जीव । 'अदी' अर्थात् 'खाने वाला' । तात्पर्य यह है कि-प्रासुक और एषणीय पदार्थ को खाने वाला निर्ग्रन्थ-साधु 'मडाई' कहलाता है । इसके विशेषण दिये गये हैं-'णो णिरुद्धभवे' अर्थात् जिसने आगामी. जन्म को रोका नहीं है-जो चरम शरीरी नहीं है । ‘णो णिरुद्धभवपवंचे' अर्थात् जिसने संसार के विस्तार को रोका नहीं है, अपितु जिसको संसार में अभी अनेक जन्म करने बाकी हैं । ‘णो पहीणसंसारे' जिसका चार गति में भ्रमण रूप संसार क्षीण नहीं हुआ है । णो पहीणसंसार वेयणिज्जे-जिसका संसार वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ है। णो वोच्छिण्ण संसारे' जिसको चार गति रूप संसार में अनेक बार परिभ्रमण करना है । ‘णो वोच्छिण्ण संसार वेयणिज्जे'-चार गतिरूप संसार में अनेक बार परिभ्रमण करने रूप कर्म क्षीण नहीं हुआ है । ‘णो णिट्ठियडे'-जिसका प्रयोजन समाप्त नहीं हुआ है अर्थात् जिसका प्रयोजन अधूरा है। ‘णो णिट्ठियट्ठकरणिज्जे' अर्थात् जिसके कार्य निष्ठितार्थ (पूरे) नहीं हुए हैं, ऐसे मुनि को पहले अनेक बार मनुष्य भव आदि प्राप्त हुए थे, परन्तु इस भव में शुद्ध चारित्र की प्राप्ति होने से मुक्त होने का अवसर है, फिर भी वह अनेक बार नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगप्ति रूप चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता है। 'इत्थत्यं' के स्थान पर 'इत्थत्तं' ऐसा पाठान्तर भी है। जिसका तात्पर्य यह है कि क्रोधादि कषाय के उदय से चारित्र से पतित हुए साधु को संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । जैसा कि कहा है जह उवसंतकसाओ लहइ अणंतं पुणो वि परिवायं । गह मे विससियन्वं, थेवे वि कसायसेसम्मि ॥ अर्थात्-जिसके क्रोधादि कषाय उपशान्त हो गये हैं, ऐसा जीव फिर भी अनन्त प्रतिपात को प्राप्त होता है । इसलिए कषाय की मात्रा थोड़ी सी भी बाकी रहे, तो मोक्षा For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ मृतादी अनगार भिलाषी प्राणी को विश्वस्त नहीं हो जाना चाहिए अर्थात् उसे प्रमादी नहीं बन जाना चाहिए। संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ मुनि का जीव, भिन्न भिन्न विवक्षा से 'प्राण' भूत जीव और संत्त्व आदि शब्दों से कहा जाता है । जब इनमें से एक एक धर्म की विवक्षा की जाती है तब एक समय में एक शब्द द्वारा कहा जाता है और जब एक साथ सब धर्मों की विवक्षा की जाती है तब एक साथ 'प्राण, भूत, जीव, सत्त्व' आदि सभी शब्दों द्वारा कहा जाता है । ३८९ १६ प्रश्न - मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, जाव-निट्टियट्टकरणिजे णो पुणरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छ्छ ? १६ उत्तर - हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव णो पुणरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छ्छ । १७ प्रश्न - से णं भंते! किं वत्तव्वं सिया ? १७ उत्तर - गोयमा ! 'सिद्धे' त्ति वत्तव्वं सिया, 'बुद्धे' त्ति वत्तव्वं सिया, 'मुत्ते' त्ति वत्तव्यं सिया, 'पारगए' त्ति वत्तव्वं सिया, 'परंपरगए' त्ति वत्तव्वं सिया; 'सिद्धे बुद्धे मुत्ते, परिनिव्वुडे, अंतकंडे, सव्वदुक्खप्पहीणे' त्ति वत्तव्वं सिया । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंद, नर्मस, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । विशेष शब्दों के अर्थ-- सिद्धे – सिद्ध, बुद्धे – सर्वज्ञ, मुत्तेमुक्त छुटा हुआ, पारगए - संसार पारंगत, परंपरगए - अनुक्रम से अर्थात् एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा इस तरह अनुक्रम से संसार के पार पहुँचे हुए। परिनिब्बुडे - संताप से रहित होकर, निर्वाण प्राप्त, अंतकडे - दुःखों का अन्त करने वाला । भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक.. . संसार के प्रपञ्च का निरोध किया है यावत् जिसका कार्य समाप्त हुआ है, ऐसा मृतादी (प्रासुक भोजी) अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त नहीं होता है ? १६ उत्तर-हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला मृतादी अनगार फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त नहीं होता है। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए। १७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्ग्रन्थ का जीव, “सिद्ध' कहलाता है, 'बुद्ध' कहलाता है, 'मुक्त' कहलाता है, 'पारगत- संसार के पार पहुंचा हुआ' कहलाता है, 'परंपरागत-अनुक्रम से संसार के पार पहुंचा हुआ' कहलाता है । वह 'सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत, सर्वदुःखप्रहीण' कहलाता है। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर भगवान् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करते हैं और वन्दना नमस्कार करके तप और संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हए विचरते हैं। • विवेचन-पूर्वोक्त विशेषणों से विपरीत विशेषणों वाला अर्थात् जिसने आगामी भव को रोक दिया है और अन्य भवों के विरतार को रोक दिया है ऐसा चरमशरीरी निर्ग्रन्थ 'सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारगत, परम्परागत, परिनिर्वृत, अन्तकृत, सर्वदुःखप्रहीण' आदि शब्दों से कहा जाता है। आर्य स्कन्दक . १८-तेणं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ; पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । ते णं काले णं ते णं For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक ३९१ समए णं कयंगला नामं नगरी होत्था । वण्णओ। तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए छत्तपलासए णामं चेइए होत्था । वण्णओ । तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव-समोसरणं । परिसा निग्गच्छइ । तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था । वण्णओ । तत्थ णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अन्तेवासी खंदए णामं कच्चायणस्सगोत्ते परिवायगे परिवसइ । रिउव्वेद-जजुब्वेद-सामवेद अहव्वणवेद, इतिहासपंचमाणं, निघंटुष्टाणं, चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं, सारए, वारए, धारए, पारए, सडंगवी, सट्ठितंतविसारए, संखाणे, सिक्खाकप्पे, वागरणे, छंदे, निरुत्ते, जोइसामयणे, अण्णेसु य बहूसु बम्हण्णएसु परिवायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठिए या वि होत्था । .' विशेष शब्दों के अर्थ-अंतेवासी-शिष्य, कच्चायणस्सगोत्ते-कात्यायन गोत्री, परिव्वायगे-परिव्राजक, परिवसइ-रहता था, निघंटु-कोश का नाम, संगोवंगाणं-अंग उपांग सहित, सरहस्साणं-रहस्य सहित, सारए-स्मरण कराने वाला, वारए-रोकने वाला, मोड़ने वाला, धारए-याद रखने वाला, पारए-पारंगत, सांगवी-छह अंगों का ज्ञाता, सद्वितंतविसारए-पष्ठितन्त्र विशारद, संखाणे-गणित शास्त्र में, सिक्खाकप्पे-शिक्षाकल्प, वागरणे -व्याकरण में, सुपरिनिट्टिए-निपुण । . भावार्थ-१८-एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने राजगह नगर के गणशील चैत्य (बगीचे) से विहार किया। वहां से विहार कर, बे जनपद में विचरने लगे। . उस काल उस समय में कृतंगला नाम की नगरी थी। उसका वर्णन For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक करना चाहिए। उस कृतंगला नगरी के बाहर उत्तर और पूर्व दिशा के बीच में अर्थात् ईशान कोण में 'छत्रपलाशक नाम का चैत्य था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहां किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । यावत् भगवान् का समवसरण हुआ। परिषद् (जनता) धर्मोपदेश सुनने के लिए गई। उस कृतंगला नगरी के पास में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उस श्रावस्ती नगरी का वर्णन करना चाहिए। उस श्रावस्ती नगरी में कात्यायन गोत्री, गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य 'स्कन्दक' नामका परिव्राजक (तापस) रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वणवेद, इन चार वेदों, पांचवां इतिहास, छठा निघण्टु नाम का कोश, इन सब का अंगोपांग सहित रहस्य का जानकार था। वह इनका 'सारक' (स्मारक) अर्थात् इनको पढ़ाने वाला था, इसलिए इनका प्रवर्तक था अथवा जो कोई वेदादि को भूल जाता था उसको वापिस याद कराता था, इसलिए वह उनका 'स्मारक' था। वह 'वारक' था अर्थात् जो कोई दूसरे लोग वेदादि का अशुद्ध उच्चारण करते थे, तो उनको रोकता था, इसलिए वह वारक' था । वह 'धारक' था अर्थात् पढ़े हुए वेदादि को नहीं भूलने वाला था अपितु उनको अच्छी तरह धारण करने वाला था। वह वेदादि का पारक'-पारंगत था। छह अंगों का ज्ञाता था । षष्ठितन्त्र (कापिलीय शास्त्र) में विशारद (पण्डित) था। वह गणित शास्त्र, शिक्षा शास्त्र, आचार शास्त्र, व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र, व्युत्पत्ति शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, इन सब शास्त्रों में तथा दूसरे बहुत से ब्राह्मण और परिव्राजक सम्बन्धी नीति शास्त्रों में और दर्शन शास्त्रों में बड़ा चतुर था। . विवेचन-पहले के प्रकरण में संयमी साधु की संसार हानि वृद्धि तथा सिद्धत्व आदि का वर्णन किया गया है । अब पूर्वोक्त बात तथा दूसरी बातों को बताने के लिये स्कन्दक मुनि के चरित्र का वर्णन किया गया है। .. स्कन्दक मुनि पहले गर्दमाल नामक परिव्राजक के शिष्य थे । वे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद, इन चार वेदों का तथा इतिहास (पुराण) और निघण्टु नामक कोश, For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक इनके ज्ञाता थे । वेद के छह अंग होते हैं, यथा-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र । जो ग्रन्थ वेदों के अर्थ को विस्तारपूर्वक बतलाते हैं, वे वेद के 'उपांग' कहलाते हैं । स्कन्दक परिव्राजक, अंग और उपांग सहित वेदों के जानकार थे। इतना ही नहीं, किंतु वे सारक, वारक, धारक और पारक थे अर्थात् सारक-शिष्यों को पढ़ाने वाला अथवा स्मारक यानी भूले हुए पाठ को याद कराने वाले । वारक अर्थात्यदि कोई शिष्य अशुद्ध पाठ बोलता हो, तो उसे रोकने वाले । धारक अर्थात् पढ़ी हुई विद्या को सम्यक् प्रकार से धारण करने वाले अथवा अपने पढ़ाये हुए शिष्यों को संयम में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति कराने वाले। पारक अर्थात् उनके शास्त्रों के पारगामी-शास्त्रों में निपुण । अक्षरों के स्वरूप को बताने वाले शास्त्र को 'शिक्षा' कहते हैं । परिव्राजकों के आचार को बतलाने वाले शास्त्र को 'कल्प' कहते हैं । शब्द शास्त्र को 'व्याकरण' कहते है । कविता के स्वरूप को बतलाने वाले पिंगल आदि ग्रन्थों को 'छन्द' कहते हैं । शब्द की व्युत्पत्ति बतलाने वाले शास्त्र को 'निरुक्त' कहते हैं और निमित्त बतलाने वाले एवं ग्रह आदि बतलाने वाले ग्रन्थ को 'ज्योतिष' कहते हैं । स्कन्दक परिव्राजक इन सब में तथा ब्राह्मण सम्बन्धी और परिव्राजक सम्बन्धी दर्शन शास्त्रों में निपुण थे। तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पिंगलए णामं नियंठे वेसालिय. सावए परिवसइ । तए णं से पिंगलए णामं नियंठे वेसालियसावए अण्णया कयाइं जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंदगं कचायणस्सगोत्तं इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा ! किं संअंते लोए, अणंते लोए ? सअंते जीवे, अणंते जीवे ? सअंता सिद्धी, अणंता सिद्धी ? सअंते सिधे अणंते सिद्धे ? केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढइ वा, हायइ वा ? एतावं ताव आयक्खाहि । वुच्चमाणे एवं। _ विशेष शब्दों के अर्थ-वेसालियसावए-वैशालिक श्रावक अर्थात् भगवान् महावीर के For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक वचनों को सुनने वाला, मागहा – हे मागध!, आयक्खाहि — कह - बतला | भावार्थ - उसी श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी के वचनों को सुनने में रसिक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ था । एक समय वह वैशालिक श्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ (साधु) कात्यायन गोत्री स्कन्दक तापस के पास आया और उसने आक्षेप पूर्वक स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार पूछा कि - हे मागध ! (मगध देश में जन्मे हुए) १ क्या लोक सान्त ( अन्त वाला ) है ? या अनन्त ( अन्त रहित ) है ? २ क्या जीव सान्त है ? या अनन्त है ? ३ क्या सिद्धि सान्त है ? या अनन्त है ? ४ क्या सिद्ध सान्त हैं ? या अनन्त ५ किस मरण से मरता हुआ जीव, संसार बढ़ाता है और किस मरण से मरता हुआ जीव संसार घटाता है ? ३९४ 1 विवेचन – उस स्कन्दक परिव्राजक के समीप भ० महावीर की वाणी सुनने के रसिक पिंगल नाम के निर्ग्रन्थ आये । पिंगल निर्ग्रन्थ के मन में निर्ग्रन्य-प्रवचन के प्रति गाढ़ श्रद्धा थी । वे सोचते थे कि निर्ग्रन्थ प्रवचन के समान अन्यतीर्थियों के प्रवचन है ही नहीं । निर्ग्रन्थ प्रवचन की अपूर्वता का परिचय देने के लिए वे परिव्राजक सम्प्रदाय के उद्भट विद्वान् स्कन्दकजी के पास आये और उपरोक्त पाँच प्रश्न पूछे। इन प्रश्नों के अन्तर में कल्याणकारी तत्त्वज्ञान समाया हुआ था । तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते. पिंगलएणं नियंठेणं, वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए, कंखिए, वितिगिच्छिए, भेदसमावण्णे, कलुससमावण्णे णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स, वेसालियसावयस्स किंचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से पिंगलए नियंठे, वेसालीसावए खंदयं कच्चायसगोतं दोच्चं पि, तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छे -मागहा ! किं सअंते लोए, जाव - केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढह वा, हायह वा ? 1 For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ १ आर्य स्कन्दक एतावं ताव आइक्खाहि । वुच्चमाणे एवं, तए णं से खंदए कच्चा - यणसगोते पिंगलएणं णियंठेणं वेसालीसावरणं दोच्चं पि तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए, कंखिए, वितिगिच्छिए, भेदसमावणे कलुससमावणे णो संचाएs पिंगलस्स णियंठस्स, वेसालियसावयस्स किंचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणीए संचिट्ठह । विशेष शब्दों के अर्थ - अक्खेवं-आक्षेप पूर्वक, भेदसमावण्णे - मतिभ्रंश हुआ, कलुससमावणे - क्लेशित हुआ, णो संचाएइ - शक्ति नहीं, पमोक्खमक्खाइ - उत्तर देकर प्रश्न से मुक्त होना, सिणिए-चुप संचिट्ठइ - रहा । 2 भावार्थ- वंशालिक श्रावक पिंगलक निर्ग्रन्थ ने ये प्रश्न स्कन्दक परिव्राजक से एक बार, दो बार, . तीन बार पूछे, किन्तु स्कन्दक परिव्राजक इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दे सका और मौन रहा। उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि इन प्रश्नों का उत्तर यह है अथवा दूसरा है ? उसके मन में कांक्षा उत्पन्न हुई कि - में इन प्रश्नों का उत्तर कैसे दूं ? मुझे इन प्रश्नों का उत्तर कैसे आवे ? उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई कि मैं जो उत्तर दूं उससे प्रश्न करने वाले को संतोष होगा या नहीं ? उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ कि अब में क्या करूँ ? उसके मन में क्लेश ( खिन्नता ) उत्पन्न हुआ कि इस विषय में में कुछ भी नहीं जानता हूँ। जब स्कन्दक परिव्राजक कुछ भी उत्तर नहीं दे सका तब पिंगलक निर्ग्रन्थ वहाँ से चला गया । विवेचन - प्रश्नों को सुनते ही स्कन्दकजी स्तम्भित रह गये । उनके सामने ये प्रश्न नये ही थे । इस विषय में उन्होंने पहले कभी निर्णय किया ही नहीं था । अतएव उनसे उत्तर नहीं दिये जा सके । वे स्वयं सन्देहशील बन गये । वे पहले निर्णय पर पहुँचना चाहते थे । बिना निर्णय किये उत्तर देने के लिए वे तैयार नहीं थे । इसलिए वे चुप रह ! गये । तणं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग, जाव - पहेसु महया जण ३९५ For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक संमद्दे इ वा, जणवूहे इ वा, परिसा निग्गच्छइ । तए णं तरस खंदयस्सकचायणस्सगोत्तस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा, निसम्म इमे एयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे कयंगलाए नयरीए बहिया छत्तपलासए चेइए संजमेणं, तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तं गच्छामि णं, समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि । सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता, नमंसित्ता, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं पज्जुवासित्ता, इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाइं वागरणाइं पुच्छित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं च करोडियं च भिसियं च केसरियं च छण्णालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हित्ता परिवायावसहाओ पडिनिक्खमइ । पडिनिक्खमिता तिदंड इंडिय-कंचणिय-करोडिय-भिसिय-केसरिय-छण्णालयअंकुसय-पवित्तय गणेत्तियहत्थगए, छत्तोवाहणसंजुत्ते, धाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ । निग्गच्छित्ता जेणेव कयंगला नयरी, जेणेव छत्तपलासए चेहए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए। For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक ३९७ सिंघाडग-सिंघाड़े के आकार वाला, जहाँ तीन मार्ग मिलते हों, जणसंमद्देजनसम्मर्द-मनुष्यों का झुण्ड, जणवूहे-जनव्यूह-मनुष्यों का व्यूह रूप में एकत्रित होना, अंतिए-समीप, सोच्चा-सुनकर, निसम्म-हृदय में धारण कर, एयाब्वे-इस प्रकार, अन्मथिए - आध्यात्मिक, चितिए-स्मरण हुआ, पत्थिए-अभिलाषा हुई, मणोगए-मन में हुआ, संकप्पे-संकल्प, समुप्पज्जित्था उत्पन्न हुआ, सेयं-श्रेय-कल्याणरूप, तिवंडंत्रिदण्ड, कुंडियं-कुण्डी, कंचणियं-काञ्चनिका-रुद्राक्ष की माला, करोडियं-करोटिका एक प्रकार का मिट्टी का बर्तन, मिसियं-भृशिका-एक प्रकार का आसन, केसरियंकेशरिका बर्तनों को पोंछने के लिए वस्त्र का टुकड़ा, छण्णालयं-षट्नालक-त्रिकाष्ठिकात्रिगड़ी, अंकुसयं-अंकुश = वृक्षों पर से पत्ते गिराने का एक प्रकार का साधन, पवितयंपवित्रक = अंगुठी, गणेत्तियं-गणेत्रिका = हाथ की कलाई पर बांधने का एक आभरण विशेष, छत्तयं-छत्र, वाहणाउ-जूते, पाउयाओ-पादुका = खड़ाऊँ, धाउरत्ताओधातुरक्त = शाटिका, पहारेत्थ गमणाए-आने का विचार किया है, हव्वं-शीघ्र। भावार्थ-उस समय श्रावस्ती नगरी में जहाँ तीन मार्ग, चार मार्ग और बहुत मार्ग मिलते हैं, वहां लोग परस्पर इस प्रकार बातें करते हैं कि श्रमण .. भगवान महावीर स्वामी कृतांगला नगरी के बाहर छत्रपलाश उद्यान में पधारे हैं। लोग, भगवान को वन्दना करने के लिए जाने लगे। बहुत-से लोगों के मुंह से भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात सुन कर कात्यायन गोत्री उस स्कन्दक तापस के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवन् महावीर स्मामी कृतांगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। इसलिए मैं उनके पास जाऊँ, उन्हें वन्दना नमस्कार करूं, सत्कार सन्मान दूं, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, और चैत्यरूप भगवान् महावीर स्वामी की पर्युपासना करूँ, यह सब करके मैं उनसे अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण, व्याकरण आदि पूर्छ ? यह मेरे लिए कल्याणकारी है । ऐसा विचार कर स्कन्दक तापस जहां परिवाजकों का मठ है वहाँ आया। वहां आकर त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माल, करोटिका (एक प्रकार का मिट्टी का बर्तन), आसन, केशरिका (बर्तनों को साफ करने के लिए कपड़ा), त्रिगडी, अंकुशक, अंगूठी, गणेत्रिका, छत्र, For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक पगरखी, पादुका (खडाऊँ), इन तापस के उपकरणों को लेकर परिव्राजकों के मठ से निकला । निकल कर त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माला, करोटिका, भृशिका ( आसन विशेष) केशरिका, त्रिगडी, अंकुश, अंगूठी और गणेत्रिका इनको हाथ मैं लेकर छत्र और पगरखी से युक्त होकर तथा गेरुए वस्त्र पहन कर श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाने के लिए कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान की तरफ रवाना हुआ । विवेचन – स्कन्दकजी के मन में उन प्रश्नों के उत्तर जानने की जिज्ञासा बस रही थी। जब उन्होंने सुना कि भ० महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के बाहर बिराज रहे हैं, तो वे बहुत प्रसन्न हुए । जनता के मुंह से भगवान् की प्रशंसा सुनकर उनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति उत्पन्न हुई। उन्हें विश्वास हो गया कि मेरी जिज्ञासा की तृप्ति भगवान् महावीर से ही होगी। वे भगवान् के समीप पहुंचने के लिए कृतसंकल्प हुए और अपने आये । वहां से अपने उपकरण लेकर भगवान् के निकट पहुंचने लिए रवाना आश्रम हुए । 'गोयमा' ! इति समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी : - दच्छिसि णं गोयमा ! पुव्वसंगइयं । कं णं भंते ! ? खदयं नाम । से काहे वा, कहं वा, केवच्चिरेण वा ? एवं खलु गोयमा ! ते णं काले णं, ते णं समए णं सावत्थी नामं नगरी होत्था । वष्णओ । तत्थ णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंद नामं कच्चायणस्सगोत्ते परिव्वायर परिवसइ । तं चेव, जाव - जेणेव ममं अंतिए, तेणेव पहारेत्थ गमणाए । से अदूरागते, बहुसंपत्ते, अद्वाणपडिवण्णे, अंतरा पहे वट्टह । अज्जेव णं दच्छिसि गोयमा ! 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह, नर्मसह, For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक ३९९ वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासीः-पहू णं भंते ! खदए कचायणस्सगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता णं, अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता, पभू । जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमढे परिकहेइ, तावं च णं से खंदए कचायणस्सगोते. तं देसं हवं आगए। . विशेष शब्दों के अर्थ-वच्छिसि-देखेगा, पुश्वसंगइयं-पूर्व का सम्बन्धी, केवच्चिरेण- . कुछ काल के बाद, अदूरागते-निकट आया, बहुसंपत्ते-अति निकट आया, अडाणपडिवण्णेमार्ग पर चलता हुआ, अंतरापहे-अन्तर पथ, वट्टइ-वर्त रहा है। भावार्थ-इधर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अणगार से इस प्रकार कहा कि-हे.गौतम ! आज तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा। तब गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! मैं आज अपने किस पूर्व साथी को देखूगा ? तब भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! तू आज अपने 'स्कन्दक परिवाजक' को देखेगा। तब गौतम स्वामी ने पूछा-हे भगवन् ! मैं उसे कब, किस तरह से और कितने समय बाद देखूगा? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नगरी थी। वहां. गर्दभाली का शिष्य कात्यायन गोत्री स्कन्दक नाम का परिव्राजक रहता था। इसका पूरा विवरण पहले के अनुसार जान लेना चाहिये । यावत् वह अपने स्थान से रवाना होकर मेरे पास आ रहा है । बहुत-सा मार्ग पार कर निकट पहुंच गया है। मार्ग में चल रहा है। हे गौतम ! तू आज ही उसे देखेगा। फिर गौतम स्वामी ने वन्दना नमस्कार करके पूछा कि-हे भगवन् ! क्या स्कन्दक आपके पास दीक्षा लेगा? भगवान् ने फरमाया कि हां, गौतम ! वह मेरे पास दीक्षा लेगा। जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी गौतम स्वामी से इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतने में कात्यायन गौत्री स्कन्दक परिव्राजक उस प्रदेश में आया। For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ स्कन्दक का श्री गौतम स्वामी द्वारा स्वागत विवेचन - भगवान् ने स्कन्दक परिव्राजक के आने की बात गौतम स्वामी से कही । गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् ने उसके आने का कारण' बताया और यह भी बताया कि स्कन्द मुण्डित होकर प्रव्रजित होगा । यह बात चल ही रही थी कि इतने स्कन्दक परिव्राजक उस स्थान के निकट पहुँच गये । ४०० तए णं भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणस्सगोतं अदूरागयं जाणित्ता खिप्पामेव अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता खिप्पामेव पच्चुवगच्छइ । जेणेव खंदए कच्चायणस्सगोत्ते तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता खंदयं कच्चायणस्सगोत्तं एवं वयासी - हे खंदया ! सागयं खंदया ! सुसागयं खेदया ! अणुरागयं खंदया ! सागयमणुरागयं खंदया ! सेणूणं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं णामं नियंठेणं वेसालियसावरणं इणमवखेवं पुच्छिए-मागहा ! किं सअंते लोए, अणंते लोए ? तं चैव जेणेव इहं, तेणेव हव्वमागए, से णूणं खंदया ! अट्टे समट्ठे ? हंता, अस्थि । तए णं से खंदए कच्चायणस्सगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी से केस णं गोयमा ! तहारूवे णाणी वा, तवस्सी वा ? जेणं तव एस अट्ठे मम ताव रहस्सकडे हव्वं अक्खाए, जओ णं तुमं जाणसि ? तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोतं एवं वयासी एवं खलु खंदया ! मम धम्मायरिए, धम्मो - वएसए, समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाण- दंसणधरे, अरहा जिणे केवली तीय-पच्चुप्पण्ण-मणागयवियाणए, सव्वष्णू, सव्वदरिसी, जेणं मम एस अट्ठे तव ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं अहं 9 For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक - भगवान् की सर्वज्ञता का परिचय ४०१ जाणामि खंदया ! तए णं से खंदर कचायणस्सगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी - गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं, धम्मोवएसयं, समणं भगवं महावीरं वंदामो, नम॑सामो, जाव - पज्जुवासामो । अहा सुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । विशेष शब्दों का अर्थ - पच्चुवगच्छह-सामने जाता है, सागयं स्वागत, सुसागयंसुस्वागत, अणुरागयं - अन्वागत, सागयमणुरागयं-स्वागत अन्वागत, तीयपच्चप्पण्णमणागयवियाणए - भूत, भविष्यत् और वर्तमान के ज्ञाता, अब्भट्ठेइ - खड़े हुए, खिप्पामेव- शीघ्र ही, णूणं-- अवश्य ही, रहस्सकडे --- छुपाई हुई, अक्खाए - कह दिया, धम्मायरिए - धर्माचार्य, धम्मोवएसए - धर्मोपदेशक. । भावार्थ - इसके बाद कात्यायनगोत्री स्कन्दक परिव्राजक को पास आया हुआ देख कर गौतम स्वामी अपने आसन से उठे और स्कन्दक परिव्राजक के सामने गये। फिर स्कन्दक परिव्राजक से कहा कि - हे स्कन्दक ! स्वागत है, सुस्वागत है, तुम्हारा आना अच्छा हुआ, तुम्हारा आना मला हुआ । फिर गौतम स्वामी ने कहा कि हे स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वंशाfor श्रावक पिंगलक निर्ग्रन्थ ने तुमसे पांच प्रश्न पूछे। तुम उनका उत्तर नहीं दे सके । तुम्हारे मन में शंका कांक्षा आदि उत्पन्न हुए। तुम उन प्रश्नों के उत्तर पूछने के लिए यहाँ भगवान् के पास आये हो । हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है ? स्कन्दक ने कहा- हां, गौतम ! यह बात सत्य है । परन्तु हे गौतम ! मुझे यह बतलाओ कि कौन ऐसा ज्ञानी या तपस्वी पुरुष है जिसने मेरे मन की गुप्त बात तुमसे कह दी ? और तुम मेरे मन की गुप्त बात जान गए । तब गौतम स्वामी ने कहा कि -- हे स्कन्दक़ ! मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक हैं, अरिहास हैं, जिन हैं, केवली है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के ज्ञाता हैं. सर्वज्ञ सर्व For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-भगवान् की सर्वज्ञता का परिचय दर्शी हैं । उन्होंने तुम्हारे मन में रही हुई गुप्त बात मुझ से कही है । इसलिए हे स्कन्दक ! में तुम्हारे मन की गुप्त बात जानता हूँ। इसके बाद कात्यायनगोत्री स्कन्दक परिव्राजक ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा कि-हे गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास चलें, उन्हें वन्दना नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना . तब गौतम स्वामी ने कहा कि-हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु इस कार्य में विलम्ब मत करो। - विवेचन-स्कन्दक परिव्राजक को आते हुए देख कर गौतम स्वामी अपने आसन से खड़े हुए और सामने गये । इसका कारण यह है कि यद्यपि उस समय स्कन्दक परिव्राजक असंयत था, तथापि भविष्यत् में वह साधु होने वाला है, इसलिए गौतम स्वामी को उसके प्रति राग भाव उत्पन्न हुआ। अतः वे अपने आसन से खड़े हुए और सामने गये । दूसरी बात यह है कि भगवान् ने स्कन्दक सम्बन्धी जो बात गौतम स्वामी से कही थी उस बात को कहने से भगवान् का ज्ञानातिशय प्रकट होगा और स्कन्दक के मन में भगवान् के प्रति बहुमान प्रकट होगा। इसलिए गौतम स्वामी अपने आसन से खड़े हुए और सामने गये तथा स्कन्दक के आगमन का स्वागत किया। . ज्ञानी अपने ज्ञान बल से और तपस्वी अपने तपोबल से अथवा तपस्वी की देव सेवा करते हैं, अतः देव की सहायता से परोक्ष बात को एवं दूसरे के मन में रही हुई गुप्त बात को जान लेते हैं। इसीलिए स्कन्दक परिव्राजक ने गौतम स्वामी से यह पूछा कि-हे गौतम ! आपके यहाँ कौन ऐसा ज्ञानी या तपस्वी है जिसने मेरे मन की गुप्त बात जानली है ? इसके उत्तर में गौतम स्वामी ने कहा कि-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । इसलिए हे स्कन्दक ! उन्होंने तुम्हारे मन की गुप्त. बात को जान ली। तए णं से भगवं गोयमे खंदएणं कचायणस्सगोत्तेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए । ते णं काले णं, तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे वियट्टभोई या वि होत्था । तए For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक - भगवान् की शारीरिक शोभा ४०३ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्टभोइस्स सरीरयं ओरालं, सिंगारं कल्लाणं सिवं धण्णं मंगल्लं अणलंकियविभूसियं लक्खणवंजण - गुणोववेयं सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणं चिट्टह । तए णं से खंदर कच्चायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्ट - भोइस्स सरीरयं ओलं जाव - अईव अईव उवसोभेमाणं पासइ, पासिता हट्ट तुटुचितमादिए दिए पीरमणे परमसोमणसिए हरि - सवसविसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह जाव - पज्जुवासइ । विशेष शब्दों के अर्थ - वियट्टभोई - व्यावृत्तभोजी = प्रतिदिन आहार करने वाले, ओरालं- उदार, सिगारं-शृंगारित हो वैसा, कल्लाणं- कल्याणरूप, श्रेयस्कर, सिवं - शिवरूप, अलं किविभूतियं बिना अलंकार के भी विभूषित, लक्खण- लक्षण, वंजण-तिल मस आदि व्यंजन, गुणोववेयं - गुणयुक्त, सिरीए -शोभारूप लक्ष्मी, अईव - अत्यन्त उवसोभेमाणंशोभायमान, हट्ट - विस्मयपूर्वक = अत्यन्त संतुष्ट, चित्तमाणंदिए - आनन्दित मनवाला, बिए - हर्षित, पोमणे - प्रीतियुक्त मनवाला, परमसोमणसिए - परम सोमनस्ययुक्त, हरिसवसविसप्पमाण हियए - हर्षातिरेक से विशाल बने हुए हृदय वाला ! भावार्थ - इसके बाद गौतम स्वामी स्कन्दक परिव्राजक के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे वहां जाने लगे। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी व्यावृत भोजी ( प्रतिदिन भोजन करने वाले ) थे । इसलिए उनका शरीर उदार (प्रधान) कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, बिना अलंकार के ही शोभित, उत्तम लक्षण व्यञ्जन और गुणों से युक्त था और अत्यन्त शोभित हो रहा था । अतः उन्हें देखकर स्कन्दक परिव्राजक को अत्यन्त हर्ष हुआ, संतोष हुआ, आनन्द हुआ । इस प्रकार संतुष्ट, आनन्दित और हर्षित होता For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-भगवान् की शारीरिक शोभा mmam हुआ स्कन्दक परिव्राजक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार वन्दना नमस्कार कर पर्युपासना करने लगा। विवेचन-भगवान् का एक विशेषण 'वियट्टभोई' दिया है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार दिया है ;___"वियट्टभोइ-व्यावृत्ते व्यावृत्ते सूर्ये भुङ्क्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी-प्रतिदिन भोजी इत्यर्थ," अर्थात् सूर्य के वापिस लौटने पर आहार लेने अर्थात् प्रतिदिन आहार करने वाले । जिस समय स्कन्दक परिव्राजक ने भगवान् को देखा, उन दिनों भगवान् उपवास आदि तपस्या नहीं करते थे, किन्तु प्रतिदिन आहार करते थे। भगवान् के शरीर के लिए उदार, कल्याण, शिव आदि विशेषण देते हुए शास्त्रकार ने 'लक्खग वंजण गुणोववेयं' विशेषण भी दिया है । जिसका अर्थ इस प्रकार किया गया है जलदोणे अद्धभार समुहाई समूसिओ उ जो णवओ। माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ अर्थ-एक द्रोण पानी निकले तो मान, आधा भार वजन हो, तो उन्मान और जो पुरुष, मुख की ऊंचाई से नव गुणा ऊंचा हो वह प्रमाण युक्त माना गया है। इस तरह लक्षण तीन प्रकार का है । जैसे जल से भरी हुई एक कुण्डी हो, उसमें समाने योग्य पुरुष को उसमें बिठावे, तो उस कुण्डी में से एक द्रोण (बत्तीस सेर) पानी बाहर निकल जाय तो वह पुरुष 'मानोपेत' कहलाता है । किसी एक पुरुष को एक बड़े तराजू पर तोला जाय और उसका वजन अर्द्धभार (चार हजार तोला) जितना हो, तो वह पुरुष उन्मानोपेत कहलाता है। जिस पुरुष की ऊंचाई अपने अंगुल से एक सौ आठ अंगुल प्रमाण हो, तो वह प्रमाणोपेत कहलाता है। इस तरह मान, उन्मान और प्रमाण, यह तीन प्रकार का लक्षण | • है । शरीर में जो तिल मस आदि होते हैं वे 'व्यंजन' कहलाते हैं । अथवा जो जन्म से ही स्वाभाविक हों वह 'लक्षण' कहलाता है और पीछे से होने वाले व्यंजन कहलाते हैं । सौभाग्य आदि 'गुण' कहलाते हैं । अथवा लक्षण और व्यंजन रूप गुणों से जो युक्त हो, उसे 'लक्षण व्यंजनगुणोपपेत' कहते हैं । उपर्युक्त सम्पूर्ण गुणों से युक्त भगवान् का शरीर था। भगवान् को देख कर . दक परिव्राजक को अत्यन्त आन्द हर्ष और संतोष हुआ। भगवान् को विधियुक्त बन्दना करके वह उनकी पर्युपासनाने लगा। For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-भगवान् का उत्तर ४०५ 'खंदया !' ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणस्सगोतं एवं वयासी-से णूणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं, वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए-मागहा ! किं सअंते लोए; अणंते लोए ? एवं तं चेव जाव-जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वं आगए । से णूणं खदया ! अयमढे समढे ? हंता, अत्थि। विशेष शब्दों के अर्थ-वयासी–बोले, लोए-लोक । भावार्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने स्कन्दक परिव्राजक से. कहा कि-हे स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगलक नाम के निर्ग्रन्थ ने तुम से पांच प्रश्न (लोक सान्त है ?या अनन्त है ? आदि) पूछे । तुम उनका उत्तर नहीं दे सके । इसलिए उन प्रश्नों का उत्तर पूछने के लिए तुम मेरे पास आये हो । हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है ? - स्कन्दक ने कहा-हाँ, भगवन् ! यह बात सत्य है। विवेचन-भगवान् ने आर्य स्कन्दक को सम्बोधकर उनके आने का कारण बतलाया। जेवि य ते खंदया ! अयमेयारूवे अज्झथिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-किं सअंते लोए, अणते लोए । तस्स वि यणं अयमद्वे-एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पण्णत्ते, तं जहाः-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। १ दव्वओ णं एगे लोए सअंते, २ खेत्तओ णं लोए असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं, असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिचखेवेणं पण्णता, अस्थि पुण से अंते।३ कालओणंलोए णकयाइ ण आसी For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-लोक स्वरूप ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भविस्सइ, भविंसु य भवइ य.. भविस्सइ य । धुवे णियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे, नत्थि पुण से अंते । ४ भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा गंधरस-फासपजवा, अणंता संठाणपजवा, अणंता गरुयलहुयपजवा अणंता अगरुयलहुयपजवा, नत्थि पुण से अंते । सेत्तं खंदया ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालओ लोए अणंते, भावओ लोए अणंते। . विशेष शब्दों के अर्थ-आयामविक्खंभेणं-लम्बाई चौड़ाई, परिक्खेवेणं-परिधि घेरा, धुवे-ध्रुव, णियए-नियत, सासए-शाश्वत, अक्खए-अक्षय, अब्बए-अव्यय, अवट्ठिए-अवस्थित, णिच्चे-नित्य । ___ भावार्थ-तब भगवान् ने फरमाया कि-हे स्कन्दक ! लोक के विषय में तुम्हारे मन में जो यह संकल्प था कि क्या लोक अन्त सहित है ? या अंत रहित है ? इस विषय में मैने चार प्रकार का लोक बतलाया है-१ द्रव्यलोक, २ क्षेत्रलोक, ३ काललोक और ४ भावलोक। १ द्रव्य से लोक एक है, अन्त सहित है। २ क्षेत्र से लोक असंख्यात कोडाकोडी योजन का लम्बा चौड़ा है। असंख्य कोडाकोडी योजन की परिधि है । अंत सहित है। ३ काल से लोक भूतकाल में था, वर्तमान काल में है और भविष्यत काल में रहेगा। ऐसा कोई काल न था, न है और न होगा, जिसमें लोकन हो । लोक था, है, और रहेगा। लोक ध्रुव है, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय अवस्थित और नित्य है, अन्त रहित है । ४ भाव से लोक अनन्त वर्ण पर्याय रूप है, अनन्त गन्ध, रस, स्पर्श पर्याय रूप है, अनन्त संस्थान पर्यव रूप है, अनन्त गुरुलघु पर्याय रूप है, अनन्त अगुरुलधु पर्याय रूप है, अन्त रहित है । इस For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-जीव स्वरूप ४०७ प्रकार हे स्कन्दक ! द्रव्य लोक अन्त सहित है, क्षेत्रलोक अन्त सहित है, काललोक अन्त रहित है और भावलोक अन्त रहित है । इस प्रकार लोक अंत सहित भी है और अंत रहित भी है। विवेचन-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन पांच काय रूप लोक है । वह द्रव्य की अपेक्षा एक है और सान्त (अन्तसहित) है । क्षेत्र की अपेक्षा इस लोक की लम्बाई (आयाम) और चौड़ाई (विष्कम्भ) एवं मोटाई और परिधि असंख्यात कोडाकोडी योजन है । काल की अपेक्षा-लोक भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा । वह अचल होने से 'ध्रुव' है, वह एक स्वरूप वाला होने से 'नियत' है. सर्वदा होने के कारण वह 'शाश्वत' है, अविनाशी होने के कारण वह 'अक्षत' है। उसके प्रदेश अव्यय होने के कारण 'अव्यय' है । वह अनन्त पर्यायों वाला होने के कारण 'अवस्थित' है । तात्पर्य यह है कि वह नित्य है । भाव से लोक अनन्त वर्ण पर्याय रूप है, अनन्त गन्ध, रस, स्पर्श पर्याय रूप है, अनन्त गुरुलघु-स्थूल स्कन्ध (आठ स्पर्शवाले शरीरादि) पर्यायरूप है और अनन्त अगुरुलघु-धर्मास्तिकायादि अरूपी तथा चौफरसी सूक्ष्म स्कन्धादि पर्यायरूप है। जे वि य ते खंदया ! जाव-सअंते जीवे अणंते जीवे तस्स वि य णं अयम?-एवं खलु जाव-१ दवओ णं एगे जीवे सअंते, २ खेत्तओ णं जीवे असंखेजपएसिए, असंखेजपएसोगाढे, अस्थि पुण से अंते, ३ कालओ णं जीवे न कयाइ न आसी, जाव-निच्चे, नथि पुण से अंते । ४ भावओ णं जीवे अणंता णाणपजवा, अणंता दसणपजवा, अणंता चारितपजवा, अणंता अगरुलहुयपजवा, नत्थि पुण से अंते, सेत्तं दव्वओ जीवे सअंते, खेत्तओ जीवे सअंते, कालओ जीवे अणंते, भावओ जीवे अणंते । . . ___ भावार्थ-हे स्कन्दक ! जीव के विषय में तुम्हारे मन में यह विकल्प हुआ For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-सिद्ध स्वरूप था कि जीव सान्त है, या अनन्त है ? हे स्कन्दक! मैने जीव के चार भेद कहे हैं -१ द्रव्य जीव, २ क्षेत्र जीव, ३ काल जीव, और ४ भाव जीव । १ द्रव्य से-जीव एक है, अन्त सहित है। २ क्षेत्र से जीव असंख्यात प्रदेश वाला है, असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहन किये है। अंत सहित है। ३ काल से-जीव नित्य है अर्थात् ऐसा कोई समय नहीं था, न है और न होगा कि जब जीव न रहा हो, यावत् जीव नित्य है, अन्त रहित है। ४ भाव से-जीव के अनन्त ज्ञान पर्याय हैं, अनन्त दर्शन पर्याय हैं, अनन्त चारित्र पर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं, अन्त रहित है । इस प्रकार द्रव्य-जीव और क्षेत्र-जीव अन्त सहित है तथा काल-जीव और भाव-जीव अन्त रहित है । इसलिए हे स्कन्दक! जीव अन्त सहित भी है और अन्त रहित भी है। विवेचन-जीव अनन्त होते हुए भी प्रत्येक जीव अपने द्रव्य की अपेक्षा सान्त, समी समान रूप से असंख्य प्रदेश वाले एवं असंख्य प्रदेशावगाढ़ हैं । इस प्रकार जीव अन्त सहित है । कालापेक्षा वह अनादि अनन्त है, सदा सर्वदा रहनेवाला है । और भाव की अपेक्षा ज्ञानादि अनन्त पर्याय युक्त है । अतएव अनन्त है । जे वि य ते खंदया ! (पुच्छा) इमेयारूवे चिंतिए जाव-किं सअंता सिद्धी, अणंता सिद्धी तस्स वि य णं अयमढे-मए खंदया ! एवं खलु चउन्विहा सिद्धी पण्णत्ता, तं जहाः-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । १ दव्वओ णं एगा सिद्धी सअंता, २ खेत्तओ णं सिद्धी पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च जोयणसयसहस्साई तीसं च जोयण. सहस्साइं दोण्णि य अउणापण्णजोयणसए किंचि विसेसाहिए परिवखेवेणं, अत्थि पुण से अंते।३ कालओ णं सिद्धी ण कयाइ ण आसी, ४ भावओ य जहा लोयस्त तहा भाणियवा । तत्थ दबओ सिद्धी For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-सिद्धि स्वरूप ४०९ सअंता, खेत्तओ सिद्धी सअंता, कालओ सिद्धी अणंता, भावओ सिद्धी अणंता। विशेष शब्दों के अर्थ-सिद्धि-सिद्धशिला, जिसके कुछ ऊपर सिद्ध भगवान् हैं वह क्षेत्र। ____ भावार्थ-हे स्कन्दक ! सिद्धि (सिद्धक्षेत्र) के विषय में तुम्हारे मन में जो विकल्प था उसका समाधान इस प्रकार है-हे स्कन्दक! मैने सिद्धि के चार भेद कहे हैं-द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, कालसिद्धि और भावसिद्धि।१ द्रव्य से सिद्धि एक है और अन्त सहित हैं। २ क्षेत्र से सिद्धि ४५ लाख योजन की लम्बी चौडी है। १,४२,३०,२४९ योजन झाझरी परिधि है, यह भी अन्त सहित है।३ काल से सिद्धि नित्य है, अन्त रहित है। भाव से सिद्धि अनन्त वर्ण पर्यायवाली है, अनन्त गन्ध, रस और.स्पर्श पर्याय वाली है। अनन्त गुरुलघु पर्याय रूप है, और अनन्त अगुरुलघु पर्याय रूप है, अन्त रहित है। द्रव्य-सिद्धि और क्षेत्र-सिद्धि अन्त वाली है तथा काल-सिद्धि और भाव-सिद्धि अन्त रहित है। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्धि अन्त सहित भी है और अन्त रहित भी है। विवेचन-सिद्धि-वह स्थान जहाँ मुक्तात्माएँ सादि अनन्त काल परमानन्द में लीन रहती हैं । वह परमसुख का स्थान है । लोक के अग्रभाग के निकट यह स्थान है । अधोलोक के अंतिम छोर पर अशुभ पुद्गलों की अधिकता है, वहाँ से जितना ऊपर उठा जाय, उतनी ही अशुभ परिणाम में कमी होती जाती है और शुभ पुद्गलों में वृद्धि होती जाती है। भवनपति, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक देवों में क्रमशः शुभ शुभतर हैं। कल्पोत्पन्न से कल्पातीत अधिक प्रशस्त होते हैं। देवों में सबसे अधिक उत्तम सर्वार्थसिद्ध के देवों के स्थान हैं। अनुत्तर विमान, सभी देवलोकों से ऊँचे हैं । वहां का वातावरण बड़ा शांत, शुभ एवं प्रशस्त है । उससे भी ऊपर सिद्ध स्थान है। उसकी पौद्गलिक उत्तमता-वर्णादि की प्रशस्तता का तो कहना ही क्या ? इससे बढ़कर प्रशस्त स्थान अन्य कोई भी नहीं है । इसके कुछ ऊपर सिद्ध भगवान् हैं । इसका वर्णन औपपातिकसूत्र आदि से समझना चाहिए। जे वि य ते खंदया ! जाव-किं अणते सिद्धे तं चेव, जाव For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-सिद्धस्वरूप.. १ दव्वओ णं एगे सिद्धे सअंते, २ खेत्तओ णं सिद्धे असंखेजपएसिए, असंखेजपएसोगाढे अस्थि पुण से अंते, ३ कालओ णं सिद्धे सादीए अपजवसिए, णत्थि पुण से अंते, ४ भावओ णं सिद्धे अणंता णाणपजवा, अणंता दंसणपजवा, अणंता अगरुयलहुयपजवा, नत्थि पुण से अंते; सेत्तं दव्वओ णं सिद्धे सअंते, खेत्तओ णं सिद्धे .सअंते, कालओ णं सिद्धे अणंते, भावओ णं सिद्धे अणंते । विशेष शब्दों के अर्थ-सिद्धे--मुक्तात्मा । भावार्थ-हे स्कन्दक ! सिद्ध विषयक शंका का समाधान इस प्रकार हैहे.स्कन्दक ! मैने सिद्ध के चार भेद कहे है-१ द्रव्यसिद्ध, २ क्षेत्रसिद्ध, ३ कालसिद्ध और ४ भावसिद्ध। १ द्रव्य से-सिद्ध एक है, अन्त सहित है। २ क्षेत्र सेसिद्ध असंख्यात प्रदेश वाले हैं, असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहन किये हैं। अंत सहित हैं। ३ काल से सिद्ध आदि सहित हैं और अंत रहित हैं। ४ भाव से सिद्ध-अनंत ज्ञान पर्याय रूप हैं, अनंत दर्शन पर्याय रूप हैं, अनंत अगुरुलघु पर्याय रूप हैं, अंत रहित हैं । अर्थात् द्रव्य से और क्षेत्र से सिद्ध अंत वाले हैं तथा काल से और भाव से सिद्ध अंत रहित हैं। इसलिए हे स्कंदक ! सिद्ध अंत सहित भी हैं और अंत रहित भी हैं। विवेचन-सिद्ध-मुक्तात्मा, परम विशुद्ध परमात्मा । ये सभी निज आत्म द्रव्य की अपेक्षा एक एवं सान्त है, किन्तु समूहापेक्षा अनन्त हैं। एक वनस्पतिकाय के अतिरिक्त शेष त्रस और स्थावर जीवों से भी अनन्तगुण । इतने सिद्ध भगवान् हैं । जे वि य ते खंदया ! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए जावसमुप्पज्जित्था-केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वढइ वा हायइ For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-बालमरण के भेद ४११ वा, तस्स वि य णं अयमद्वे-एवं खलु खंदया ! मए दुविहे मरणे पण्णते । तं जहाः-बालमरणे य, पंडियमरणे य । से किं तं बालमरणे ? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्ते । तं जहाः-बलयमरणे, वसट्टमरणे, अन्तोसल्लमरणे, तभवमरणे, गिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे, जलणप्पवेसे, विसभक्खणे, सत्थोवाडणे, वेहाणसे, गिद्धपढे। इच्चेतेणं खंदया ! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, तिरिय-मणुय-देव० अणाइयं च णं अणवदग्गं, चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ, सेत्तं मरमाणे वड्ढइ, सेत्तं बालमरणे । विशेष शब्दों के अर्थ-वड्ढइ-बढ़ता है, हायइ-घटता है, बलयमरणे-बलन्मरण, बसट्टमरणे-वशार्तमरण-तड़पते हुए मरना-विषयवश करना, अंतोसल्लमरणे-हृदय में शल्य लेकर मरना, तम्भवमरणे-मरकर उसी भव में उत्पन्न होना, गिरिपडणे-पर्वत से गिरकर मरना, तरुपडणे-वृक्ष गिरकर मरना, जलप्पवेसे-पानी में डूबकर मरना, जलणप्पवेसेअग्नि में जलकर मरना, विसभक्खणे-विष खाकर मरना, सत्योवाडणे-शस्त्राघात से मरना, वेहाणसे-फांसी पर लटक कर मरना, गिद्धपढ़े-गिद्धादि के खाने से मरना, संजोएइ-सम्बन्धजोड़ता है, अणाइय-अनादि, अणवदग्गं-अंत रहित, अणुपरियट्टइ-भ्रमण करता है। भावार्थ-हे स्कन्दक ! तुम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ था कि कौनसे मरण से मरता हुआ जीव, संसार को बढ़ाता है और कौनसे मरण से मरता हुआ जीव, संसार को घटाता है। . हे स्कन्दक! इसका उत्तर यह है कि-मरण दो प्रकार का बतलाया गया, है-१ बालमरण और २ पण्डितमरण । इनमें से बालमरण बारह प्रकार का कहा गया है-१ बलन्मरण, २ वसट्टमरण-वशात मरण, ३ अन्तःशल्य मरण, For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४१२ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-बालमरण के भेद ४ तद्भव मरण, ५ गिरि-पतन मरण, ६ तरु-पतन मरण, ७ जल-प्रवेश मरण, ८ ज्वलन प्रवेश मरण, ९ विष भक्षण मरण, १० सत्थोवाडण (शस्त्रावपाटन) मरण, ११ वेहानस मरण, १२ गिद्धपिट्ठ (गृध्रपृष्ठ) मरण । इन बारह प्रकार के मरण से मरता हुआ जीव, नरक के अनन्त भव बढ़ाता है, तियंच, मनुष्य और देव के अनन्त भव बढ़ाता है । वह नरक, तियंच, मनुष्य और देव, इन चार गति रूप अनादि अनन्त संसार रूप कान्तार (वन) में बारम्बार परिभ्रमण . करता है। अर्थात् इन बारह प्रकार के बालमरण द्वारा मरता हुआ जीव, अपने संसार भ्रमण को बढ़ाता है। विवेचन-बालमरण के बारह भेद बतलाये गये हैं । इनका अर्थ इस प्रकार है १ बलन्मरण-तीव्र भूख और प्यास से छटपटाते हुए प्राणी का मरण 'बलन्मरण' कहलाता है । अथवा संयम से भ्रष्ट प्राणी का मरण 'बलन्मरण' कहलाता है। . २ वसट्टमरण (वशार्तमरण)-इन्द्रियों के वशीभूत होकर मरने वाले प्राणी का मरण 'वसट्टमरण' कहलाता है । जैसे दीप की शिखा पर गिर कर प्राण देने वाले पतंगिये का मरण । ३ अंतोसल्लमरण (अन्तःशल्य मरण)-इसके द्रव्य और भाव से दो भेद हैं। शरीर में बाण या तोमर (एक प्रकार का शस्त्र) आदि के घुस जाने से और उसके वापिस न निकलने से जो मरण होता है, वह द्रव्य से 'अन्तःशल्य मरण' है। अतिचारों की शुद्धि किये बिना ही जो मरण होता है वह भाव से 'अन्तःशल्य मरण' है, क्योंकि अतिचार आन्तरिक शल्य है। ४ तद्भवमरण-मनुष्य के शरीर को छोड़ कर फिर मनुष्य होना और तिर्यञ्च के शरीर को छोड़ कर फिर तिर्यञ्च होना 'तद्भवमरण' है । यह मरण मनुष्य और तिर्यञ्चों में ही हो सकता है, किन्तु देव और नैरयिक जीवों में नहीं, क्योंकि मनुष्य मर कर मनुष्य और तिर्यञ्च मर कर तिर्यञ्च हो सकता है, किन्तु देव मर कर फिर दूसरे भव में देव और नैरयिक मर कर फिर दूसरे भव में नैरयिक नहीं हो सकता है। ५ गिरिपडण (गिरिपतन) मरण-पर्वत आदि से . गिर कर मरना 'गिरिपडण मरण' कहलाता है। ६ तरुपडण (तरुपतन) मरण-वृक्ष आदि से गिर कर मरना । For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. उ. १ आर्य स्कन्दक-पंडितमरण के भेद . ४१३ ७ जलप्पवेस (जल प्रवेश) मरण-जल में डूब कर मरना। ८ जलणप्पवेस (ज्वलन प्रवेश) मरण-अग्नि में गिर कर मरना । ९ विसमक्खण (विष भक्षण) मरण-जहर आदि प्राण घातक पदार्थ खाकर मरना। १० सत्थोवाडणे (शस्त्रावपाटन)-छुरी, तलवार आदि शस्त्र द्वारा होने वाला मरण। .. ११ विहाणस (वहानस) मरण-गले में फांसी लगाकर वृक्ष आदि की डाल पर लटकने से होने वाला मरण । १२ गिद्धपिठे (गृध्र पृष्ठ) मरण-हाथी, ऊँट या गधे आदि के मृतशरीर में प्रविष्ठ होने से गिद्ध आदि पक्षियों द्वारा या मांसलोलुप शृगाल आदि जंगली जानवरों द्वारा शरीर के विदारण (चीरने) से होने वाला मरण गृध्रस्पृष्ट या गृद्ध स्पृष्ट मरण कहलाता है । अथवा पीठ आदि शरीर के अवयवों का मांस गिद्ध आदि पक्षियों द्वारा खाया जाने पर होने वाला मरण 'गृध्रपृष्ठ मरण' कहलाता है। उपरोक्त दोनों व्याख्याएं क्रमशः तियंच और मनुष्य के मरण की अपेक्षा से है । उपरोक्त बारह प्रकार के बालमरणों में से किसी मरण से मरने वाले प्राणी का संसार बढ़ता है और वह बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है। से किं तं पंडियमरणे ? पंडियमरणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाःपाओवगमणे य, भत्तपञ्चक्खाणे य । से किं तं पाओवगमणे ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाः नीहारिमे य, अनिहारिमे य नियमा अप्पडिकम्मे । सेत्तं पाओवगमणे।से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे? भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाः-नीहारिमे य, अनीहारिमे य नियमा सपडिकम्मे, सेत्तं भत्तपञ्चक्खाणे । इच्चेतेणं खदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएड, जाव-चीईवयइ । सेतं मरमाणे हायइ । सेत्तं For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-पंडितमरण के भेद पंडियमरणे। इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढइ वा, हायइ वा। एत्थ णं खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीः-इच्छामिणं भंते ! तुझं अतिए केवलोपण्णत्तं धम्मं निसामित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । . विशेष शब्दों के अर्थ-पाओवगमणे-पादपोपगमन, गोहारिमे- निर्हारिम, अणीहारिमे-अनिर्हारिम, वीईवयइ–भ्रमण करता है, संबुद्ध-बोध पाये, निसामित्तएसुनना चाहता हूं, पडिबंध-विलम्ब । भावार्थ-हे स्कंदक ! पण्डितमरण के दो भेद हैं-१ पादपोपगमन और २ भक्तप्रत्याख्यान । पादपोपगमन के दो भेद है-निर्झरिम और अनिर्झरिम । यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन मरण, नियमा (नियम से-निश्चित रूप से) अप्रतिकर्म होता है। भक्तप्रत्याख्यान मरण के भी दो भेद हैं-निर्दारिम और अनि रिम । यह दोनों प्रकार के भक्तप्रत्याख्यान मरण सप्रतिकर्म होता है। हे स्कन्दक ! इन दोनों प्रकार के पण्डितमरण से मरता हुआ जीव, नरकादि के अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता है, यावत् संसार रूपी अटवी को उल्लंघन कर जाता है । इन दोनों प्रकार के पण्डितमरण से मरते हुए जीव का संसार घटता है। भगवान् के उपर्युक्त वचनों को सुन कर स्कन्दक परिव्राजक को बोध हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके कहा कि-'हे भगवन् ! मैं आपके पास केवलि प्ररूपित धर्म सुनना चाहता हूं।' भगवान् ने कहा कि-'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें सुख हो वैसा करो, किंतु धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।' For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक को बोध प्राप्ति mmmmmmmwww विवेचन-पण्डितमरण के दो भेद हैं - १ पादपोपगमन मरण और २ भक्तप्रत्याख्यान मरण । .. १ संथारा करके वृक्ष के समान जिस स्थान पर जिस रूप में एक बार लेट जाय, फिर उसी जगह उसी रूप में लेटे रहना और इस प्रकार मत्यु हो जाना 'पादपोपगमन मरण' है । इसके दो भेद हैं-निर्हारिम और अनिर्हारिम । निर्वारिम-जो सथारा ग्राम नगर आदि बस्ती में किया जाय, जिससे मत-कलेवर को ग्रामादि से बाहर ले जाकर अग्निदाहादि संस्कार करना पड़े उसे, 'निर्हारिम' कहते हैं । अनिर्हारिम-जो संथारा ग्राम नगर आदि बस्ती से बाहर जंगल आदि एकान्त स्यान में किया जाय, जिससे मृत-कलेवर को वहां से ले जाने की आवश्यकता न रहे, उसे 'अनिर्झरिम' कहते हैं । यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन मरण नियमा (नियम पूर्वक) अप्रतिकर्म (शरीर की सेवा शुश्रूषा और हलन चलने से रहित) होता है। . २ भक्तप्रत्याख्यान मरण-यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग करने के बाद जो मृत्यु होती है, उसे 'भक्तप्रत्याख्यान मरण' कहा जाता है । उसके भी निर्हारिम और अनिर्हारिम ये दो भेद हैं। यह मरण सप्रतिकर्म है। ..किसी किसी प्रति में यहाँ 'इंगितमरण' का कथन किया है। वह इंगितमरण'भक्तप्रत्याख्यान मरण का ही एक विशेष भेद है। इसीलिए उसकी यहाँ अलग व्याख्या नहीं की है। ___तए णं समणे भगवं महावीरे खदयस्स कच्चायणस्सगोत्तस्स, तीसे य. महइमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेह । धम्मकहा भाणियव्वा । तए णं से खंदए कच्चायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा, णिसम्म हट्टतुढे जाव-हियहियए उठाए उठेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता एवं वयासीः-सदहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, रोएमिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, अब्भुट्टेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं; एवमेयं भंते ! तह For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ भगजती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रभु मेयं भंते! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुम्भे वदह त्ति कट्टु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह वंदित्ता, नमसिंत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तिदंड च कुंडियं च जाव - धाउरत्ताओ य एगंते एडेह, एडित्ता जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह, करिता जाव -नमंसित्ता एवं वयासी : - - विशेष शब्दों के अर्थ - महइ महालियाए - बहुत बड़ी, परिसाए- परिषद् को, हियहियए - विकसित हृदय वाला, सहामि श्रद्धा करता हूं, पत्तियामि प्रतीति करता हूँ, रोएमरुचि करता हूँ, अब्मट्ठेमि- अभ्युद्यत होता हूँ, एवमेवं इसी प्रकार है, तहमेयं वैसा ही है, अवितहमेयं - विशेषरूप से सत्य है, असंदिद्धमेयं - सन्देह रहित है, इच्छियमेयं - इष्ट है, पडिच्छियमेयं विशेष रूप से इष्ट है, जहेयं जैसा, वदह कहा है, अवक्कमइ - जाता है, एडे छोड़ता है । से प्रार्थना - भावार्थ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कात्यायन गोत्री स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बडी परिषद् को धर्मकथा कही । (यहाँ धर्मकथा का वर्णन करना चाहिए ) । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फरमाई हुई धर्मकथा को सुनकर एवं हृदय में धारण करके स्कन्दक परिव्राजक को बड़ा हर्ष - सन्तोष हुआ एवं उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया । तदनन्तर खडे होकर और भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा कि- "हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता हूँ एवं निर्ग्रन्थ प्रवचनों को में स्वीकार करता हूँ । है भगवन् ! ये निर्ग्रन्थ प्रवचन इसी प्रकार हैं, सत्य हैं, सन्देह रहित हैं, इष्ट हैं, For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रभु से प्रार्थना ४१७, प्रतीष्ट हैं, इष्टप्रतीष्ट हैं, हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही हैं।" ऐसा कह कर स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके उत्तर-पूर्व दिशा के भाग (ईशान कोण) में जाकर त्रिदण्ड कुण्डिका यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के भण्डोपकरणों को एकान्त में छोड़ दिया। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बिराजते थे वहाँ आकर भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके इस प्रकार बोले । विवेचन-भगवान् ने स्कन्दक परिव्राजक और उस विशाल परिषद् को धर्मकथा कही । अर्थात् यह बतलाया कि जीव किस प्रकार कर्मों को बांधते हैं ? और उनसे किस प्रकार छुटकारा पाते हैं ? आर्तध्यानादि के द्वारा जीव किस प्रकार कर्मों को बांध कर संसारसागर में परिभ्रमण करते हैं और किस प्रकार वैराग्य को प्राप्त कर कर्मों के बन्धन को तोड़ कर मुक्ति प्राप्त करते हैं ? - भगवान् द्वारा फरमाई हुई धर्मकथा को सुन कर स्कन्दक परिव्राजक को निर्ग्रन्य प्रवचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि उत्पन्न हुई। उन्होंने परिव्राजक के भण्डोपकरणों को एकान्त में डाल कर भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की और निवेदन किया। ____ आलित्ते णं भंते ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य । से जहाणामए केइ गाहावई अगारंसि ज्झियायमाणंसि, जे से तत्थ भंडे भवइ, अप्पभारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमह । एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुराए हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सह । एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया. एगे भंडे इटे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेस्सासिए संमए अणुमए बहुमए भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं सुहा For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रभु से प्रार्थना माणं पिवासा, माणं चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, -माणं वाइय- पित्तिय-सेंभिय-सण्णिवाहय विविहा रोगायंका परीसहोव सग्गा फुसंतु त्ति कटु एस मे नित्थारिए समाणे परलोयरस हियाए सुहाए खमाएं नीसेसाए आणुगामियत्ताएं भविस्सह । तं इच्छा णं देवाणुप्पिया ! संयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं, सयंमेव सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयरं विणयवे. इयचरण-करण-जाया मायावत्तियं धम्ममा इक्विरं । ४१८ विशेष शब्दों के अर्थ-आलिते-सुलगा हुआ, पलिते-विशेष जलता हुआ, गाहाबई - गृहपति, अगारंसि - घर में से, ज्झियायमाणंसि - जलते हुए, मोल्ल गुरुए- बहुमूल्य, णित्थारिए - निकाला हुआ, पुराए- पहले, हिंयाए - हितकारी, सुहाए-सुखकारी, समाए - शांति करने वाला, निस्सेय साए - कल्याणकारी, आनुगामियत्ताए - साथ चलनेवाला, बेस्सासिए - विश्वास योग्य, संमए - सम्मत, खुहा क्षुधा, वाला सर्प आदि, वाइय-वात, पित्तय- पित्त, सेंभियश्लेष्म, सन्निवाइय- सन्निपात आयार गोयरं- आचार गोचर, बेणइय - विनयोत्पन्न चारित्र, जाया - मायावत्तियं - संयममात्रा और आहार की मात्रादि वृत्ति । भावार्थ- हे भगवन् ! जरा ( बुढ़ापा) और मरण रूपी अग्नि से यह लोक आदीप्त हं प्रदीप्त ( जल रहा है) । जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो, तो वह उसमें से बहुमूल्य और अल्प वजन वाले सामान को सबसे पहले बाहर निकाल कर एकान्त में जाता है और यह सोचता है कि अग्नि में से बचा कर बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, और कल्याणरूप होगा। इसी तरह हे भगवन् ! मेरी आत्मा भी एक भाण्ड (बर्तन) रूप है। यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, विश्वस्त, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों के करंडिये ( पिटारे ) के समान है, इसीलिए ठण्ड, गर्मी, भूख प्यास, चोर, सिंह, सर्प, डांस, मच्छर, For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रवज्या ४१९ वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि से होने वाले अनेक प्रकार के रोग और आतङ्क (तत्काल प्राण हरण करने वाले रोग) एवं परोषह उपसर्गों से मैं इसकी बराबर रक्षा करता हूँ। रक्षित किया हुआ यह आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप एवं परम्परा से कल्याणरूप होगा। इसलिए हे भगवन् ! मैं आपके पास प्रवज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। आप स्वयं मुझे प्रवजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएँ सिखावें, सूत्र और अर्थों को पढ़ावें । हे भगवन् ! मैं चाहता हूँ कि-आप मुझे ज्ञानादि आचार गोचर (भिक्षाटन), विनय, विनय का फल, चरण करण अर्थात् चारित्र (व्रतादि) और पिण्ड विशुद्धि संयम यात्रा और संयम यात्रा के निर्वाहार्थ आहारादि ग्रहण रूप धर्म कहें। - विवेचन-हे भगवन् ! आप स्वयं मुझे रजोहरणादि वेश देकर प्रव्रजित कीजिये, शिर का लोच करके मुण्डित कीजिये । साधु का आचार गोचर विधि, संयम और संयम यात्रा के निर्वाहार्थ आहारादि की मात्रा, और विनय आदि की शिक्षा दीजिये। " तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कचायणस्सगोत्तं सयमेव पवावेह, जाव-धम्ममाइस्खइ-एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुंजियव्वं एवं भासियब्वं, एवं उद्याए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं, अस्सिं च णं अढे णो किंचि वि पमाइयव्वं । तए णं से खंदए कचायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्मं संपडिवजह, तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, तह उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमेइ, अस्सिं च For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की साधना णं अटे णो पमायइ । - विशेष शब्दों के अर्थ-गंतव्य-जाना चाहिये, चिट्ठियव्वं-खड़े रहना चाहिये, जिसीइयव्वं-बैठना चाहिए, तुट्टियम्बं -सोना चाहिये, मुंजियवं-खाना चाहिए, भासियव्वंबोलना चाहिए, उढाए-उठना, संजमियव्वं -संयमित रहना चाहिए । संपडिवज्जइ-स्वीकार करता है, तमाणाए-तद्नुसार, पमाइयव्य-प्रमाद करना चाहिए। भावार्थ-इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्वयमेव कात्यायनगोत्री स्कन्दक परिव्राजक को प्रवजित किया यावत् स्वयमेव धर्म को शिक्षा दी कि-हे देवानुप्रिय ! इस तरह से चलना चाहिए, इस तरह से खड़ा रहना. चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए । इस तरह सावधाततापूर्वक प्राण, भूत, जीव, सत्त्व के विषय में संयम पूर्वक बर्ताव करना चाहिए । इस विषय में जरासा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। कात्यायनगोत्री स्कन्दक मुनि ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के इस धामिक उपदेश को अच्छी तरह से स्वीकार किया और भगवान की आज्ञा के अनुसार ही स्कन्दक मुनि चलना, खडे रहना, बैठना, सोना, खाना, बोलना आदि क्रिया करने लगे तथा प्राण, भूत, जीव, सत्व के प्रति क्यापूर्वक बर्ताव करने लगे और इन विषयों में जरासा भी प्रमाद नहीं करने लगे। ...विवेचन-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्कन्दक मुनि को शिक्षा दी कि-हे देवानुप्रिय ! धूसरा प्रमाण अर्थात् चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए चलना चाहिए। हे देवानुप्रिय ! जहाँ बहुत लोगों का आवागमन न हो, ऐसे स्थान पर संयम, आत्मा और प्रवचन को किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे, इस तरह से खड़ा रहना चाहिए । स्थान को अच्छी तरह पूंज कर बैठना चाहिए, सामायिकादि के उच्चारण पूर्वक शयन करना चाहिए । बयालीस दोषों से रहित आहार को धूम' 'अंगार' आदि दोषों को टाल कर खाना चाहिए । भाषासमिति पूर्वक हित और मित बोलना चाहिए । सर्वथा प्रकार से प्रमाद का त्याग करके प्राणियों की रक्षा में सावधान रहना चाहिए । इत्यादि रूप से भगवान् ने शिक्षा दी। For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की साधना तए णं से खंइए कच्चायणस्सगोते, अणगारे जाए, हरिया - समिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिव खेवणासमिए, उच्चार - पासवण - खेल-जल्ल - सिंघाणपरिट्ठावणिया समिए मणसमिए, वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तभयारी, चाई लज्जू घण्णे खतिखमे जिइंदिए सोहिए अणि - याणे अप्पुस्सुए अबहिल्ले से सुसामण्णरए दंते, इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरह । विशेष शब्दों के अर्थ-चाई - त्यागी, लज्जु - लज्जावान् = सरल, खंतिखमे-क्षमापूर्वक सहने वाले, सोहिए - शोधक, अणियाणे-निदान रहित, अप्पुस्सुए - उत्सुकता रहित, अब'हिल्ले से - अबहिर्गेश्य = मंत्र से बाहर चित नहीं रखने वाला, सुसामण्णरए - संयम में लीन, से - इन्द्रियों का दमन करने वाले, पुरओकाउं आगे करके 1 ४२१ भावार्थ- अब वे कात्यायनगोत्री स्कन्दकजी, अऩगार बन गये। वे ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानमण्डमात्र निक्षेपणासमिति और उच्चारप्रश्रवणले लजलसंधाण-परिस्थापनिका समिति, एवं मनःसमिति, वचन समिति, कायासमिति, इन आठों समितियों का सावधानतापूर्वक पालन करने लगे । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायमुप्ति से गुप्त रहने लगे अर्थात् मन, वचन, काया को वश में रखने लगे । वे सबको वश में रखने वाले, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी, लज्जावान् ( संयमवान् - सरल ) धन्य (धर्म- धनवान् ) क्षमावान्, जितेन्द्रिय, व्रतों के शोधक, किसी प्रकार का निदान ( नियाणा) न करने वाले, आकांक्षा रहित, उतावल रहित, संयम से बाहर चित्त को न रखने वाले, श्रेष्ठ साधु व्रतों में लीन और दान्त ऐसे स्कन्दक सुनि, इन निर्ग्रन्थ प्रवचनों को आगे ( सामने) रख कर विचरण करने लगे अर्थात् वे इन निर्ग्रन्थ प्रवचनों को सन्मुख रखते हुए इन्हीं के अनुसार सब क्रियाएँ करने लगे । For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आयं स्कन्दक का प्रतिमा आराधन. विवेचन-स्कन्दक मुनि भगवान् की शिक्षा के अनुसार पांच समिति, तीन गुप्ति में सावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करने लगे। वे इन्द्रियों को वश में रखने वाले, गुप्तब्रह्मचारी. अर्थात् गुप्तिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले त्यागी, लज्जावान्, (संयमवान्-सरल) धर्मस्वरूप अथवा धन्य, (धर्म रूप धनवाले) शक्ति होते हुए भी क्षमा करने वाले, इन्द्रियों के विकार से रहित अतएव जितेन्द्रिय, व्रतों का निर्दोष पालन करने वाले अथवा सौहृद अर्थात् सब प्राणियों में मित्रता की बुद्धि रखनेवाले, इहलोक और परलोक सम्बन्धी किसी प्रकार का निदान (नियाणा)न करनेवाले, धीर, संयम से बाहर चित्तवृत्ति न रखनेवाले, साधुवृत्ति में तल्लीन, दान्त अर्थात् क्रोधादिः शत्रुओं का दमन करनेवाले अथवा रागद्वेष का अन्त करने के लिए प्रवृत्ति करने वाले बने। जिस प्रकार मार्ग का अनजान पुरुष, मार्ग के जानकार पुरुष को आगे रखकर उसके पीछे पीछे चलता है, उसी प्रकार स्कन्दक मुनि, निर्ग्रन्थ प्रवचनों को आगे रखकर अर्थात् भगवान् की आज्ञा के अनुसार संयम की समस्त क्रियाएं करने लगे। तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ चयरीओ, छत्तपलासयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए. णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अतिए सामाइयमाझ्याई. एकारस अंगाई अहिजइ, अहिजित्ता जेणेव समणे.भगवं महावीरे तेणेव. उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसह; वंदित्ता नमंसित्ता, एवं वयासीः-इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहिं अन्भगुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उपसंपजित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । तए णं से खदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे हटे, जाव-नमं For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन ४२३ सित्ता मासियं भिक्खुपडिमं उपसंपजि ताणं विहरइ । तए णं से खदए अणगारे मासियं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं अहासम्मं कारण फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ पूरेह किट्टेइ अणुपालेह, आणाए आराहेइ, सम्मं काएग फासित्ता जावआराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता समणं भगवं जाव-नमंसित्ता एवं क्यासीः-इच्चमि णं भंते ! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे दोमासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध, तं चेव । एवं तेमासियं, चाउम्मासियं, पंचमासियं, छम्मासियं, सत्तमासियं, पढमं सत्तराईदियं, दोच्चं सत्तराइंदियं, तच्चं सत्तराईदियं, अहोराइंदियं, एगराइयं । तए णं से खंदए अणगारे एगराइयं मिम्खुपडिमं अहासुत्ते, जाव-आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता समणं भगवं महावीरं जाव-नमंसित्ता एवं वयासीः-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, अहासुई देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । . विशेष शब्दों के अर्थ-पडिनिक्खमइ-बाहर निकले, अग्मगुग्णाए-आज्ञा होने पर, उवसंपज्जित्ताण-स्वीकार करके, अहासुतं-सूत्र के अनुसार, अहाकप्पं-कल्प अर्थात् आचार के अनुसार, अहामग्ग-मार्ग के अनुसार, अहातच्चं-यथा तत्त्व, अहासम्म-समभाव पूर्वक, सोमेइ-सुशोभित करते हैं, तोरेइ-पार लगाते हैं, पूरेइ-पूर्ण करते हैं, किट्टेह-कीर्तन करते For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ भगवती सूत्र - श २ उ. १ आर्य स्कन्दक - गुणरत्न संवत्सर तप हैं, गुणरयणं संच्छरं तवोकम्मं गुणरत्न संवत्सर नामक तप । भावार्थ - इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से निकले और बाहर जनपद (देश) में विवरण करने लगे । इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथा रूप के. स्थविरों के पास सामायिकादि ग्यारह अंगों को सीखा, सीख कर भगवान् के पास आकर वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले कि यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं मासिकी भिक्षुप्रतिमा को धारण करना चाहता हूँ । भगवान् ने फरमाया कि- 'हे देवानुप्रिय ! जिस तरह तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो' । भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर स्कन्दक मुनि बडे हर्षित हुए यावत् भगवान् को वन्दना नमस्कार करके मासिकी भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार की । इसके पश्चात् स्कन्दक मुनि ने मासिकी भिक्षुप्रतिमा को सूत्र के अनुसार, आचार के अनुसार, मार्ग के अनुसार, यथा तत्त्व और अच्छी तरह काया से स्पर्श किया, पालन किया, शोभित किया, समाप्त किया, पूर्ण किया, कीर्तन किया, अनुपालन किया, आज्ञापूर्वक आराधन किया, यावत् काया से सम्यक प्रकार से स्पर्श करके यावत् आराधन करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले कि - 'हे भगवन्! आपकी आज्ञा हो, तो में द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करना चाहता हूँ' । भगवान् ने फरमाया कि- 'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो वैसे करो, किन्तु विलम्बं मत करो। फिर स्कन्दक मुनि ने द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार कर यावत् पूर्ण किया । इसी तरह त्रिमासिकी, चतुर्मासिकी, पंचमासिकी, छहमासिकी, सप्तमासिकी, प्रथम सात दिन रात की, द्वितीय सात दिन रात की, तृतीय सात दित रात की, अहोरात्रिकी, एक रात्रि की इस प्रकार बारह भिक्षुप्रतिमाओं का यथाविधि पालन किया । इनका यथाविधि पालन करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आकर वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले कि हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो, तो में 'गुणरत्नसंवत्सर' नामक तप करना चाहता हूँ । भगवान् ने फरमाया कि- हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसे करो, किन्तु विलम्ब मत करो । - For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन ४२५ _ विवेचन-यहां यह कहा गया है कि स्कन्दक मुनि ने ग्यारह अंग पढ़े। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि स्कन्दकजी के मुनि होने के पहले ही ग्यारह अंगों की रचना हो चुकी थी, तभी तो उन्होंने इनको पढ़ा । यहाँ यह शंका होती है कि भगवती सूत्र पांचवां अंग सूत्र है, फिर इसमें स्कन्दक मुनि का वर्णन कैसे आया ? ___ इस शंका का समाधान यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तीर्थ में नौ वाचनाएँ हुई थी, इसलिए उन वाचनाओं में स्कन्दक मुनि के तुल्य अन्य किसी का वर्णन था और जब स्कन्दक मुनि बने, तब सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी के प्रति स्कन्दक मुनि के चरित्र का वर्णन किया । इसलिए इसमें विरोध की कोई बात नहीं है। अथवा गणधर अतिशय ज्ञानी होते हैं, इसलिए भविष्यत्काल की बात का वर्णन यदि वे अपनी वाचना में करदें, तो कोई बाधा जैसी बात नही है और इस चरित्र में जो भूतकाल का निर्देश किया है, वह आगामी शिष्य समूह की अपेक्षा से है, इसलिए वह भी निर्दोष है। स्कन्दक मुनि ने भिक्षु की बारह प्रतिमा अंगीकार की । भिक्षुप्रतिमाओं का स्वरूप इस प्रकार है ___साधु के अभिग्रह विशेष को 'भिक्खुपडिमा'-भिक्षुप्रतिमा कहते हैं । वे बारह हैं । एक मास से लेकर सात मास तक सात पडिमाएं हैं। आठवीं, नववीं और दसवीं पडिमाओं में प्रत्येक सात दिनरात्रि की होती है । ग्यारहवीं एक अहोरात्रि की और बारहवीं एक रात्रि की होती है। . पडिमाधारी मुनि, अपने शारीरिक संस्कारों को तथा शरीर के ममत्व-माव को छोड़ देता है और दैन्यभाव न दिखाते हुए देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करता है । वह अज्ञात कुल से और थोड़े परिमाण में गोचरी लेता है। गृहस्थ के घर पर मनुष्य, पशु, श्रमण, ब्राह्मण, भिखारी आदि भिक्षार्थ खड़े हों, तो उसके घर नहीं जाता, क्योंकि उनके दान में अन्तराय पड़ती है। अतः उनके भिक्षादि से निवृत्त होने पर जाता है। (१) पहली पडिमाधारी साधु को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। साधु के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और पानी की जबतक धारा अखण्ड बनी रहे.उसका नाम 'दत्ति' है। धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। उनके आहार प्राप्त करने में यह नियम है कि एक व्यक्ति के भोजन में से भिक्षा लेनी चाहिए, किन्तु जहाँ दो, तीन, चार, पांच या अधिक व्यक्तियों का भोजन हो, For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २ उ. १ आयं स्कन्दक का प्रतिमा आराधन उसमें से भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार गर्भवती और छोटे बच्चे वाली स्त्री के लिए बना हुआ भोजन अथवा जो स्त्री, बच्चे को दूध पिला रही हो वह बच्चे को अलग रख कर भिक्षा दे, या गर्भवती स्त्री अपने आसन से उठ कर भिक्षा दे, तो वह भोजन, मुनि को नहीं कल्पता । उनका कल्प है कि जिस दाता के दोनों पैर देहली के भीतर हों, या बाहर हों, तो उससे भी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए, किन्तु जिसका एक पैर देहली के भीतर हो और एक पैर बाहर हो उसी से भिक्षा लेना कल्पता है । पsिमाधारी मुनि के लिए गोचरी जाने के तीन समय बतलाये गये हैं-दिन का आदिभाग, मध्य भाग और अन्तिमभाग । यदि कोई साधु, दिन के आदिभाग ( प्रथम भाग) में गोचरी जाय, तो मध्यभाग और अन्तिमभाग में न जाय। इसी तरह यदि मध्यभाग में जाय, तो प्रथमभाग और अन्तिमभाग में न जाय । यदि अन्तिम भाग में जाय, तो प्रथमभाग और मध्य भाग में नहीं जाय । अर्थात् उसे दिन के किसी एक भाग में ही गोचरी जाना चाहिए, शेष दो भागों में नहीं। तीसरे प्रहर के तीन भाग करना अर्थ भी किया जाता है । ४२६ मधारी साधु को छह प्रकार की गोचरी करनी चाहिए । यथा - १ पेटा २ अर्द्धपेटा, ३ गोमूत्रिका, ४ पतंगवीथिका ५ शंखावर्ता और ६ गतप्रत्यागता । इनका स्वरूप इस प्रकार है; - - १ पेटा - भिक्षा स्थान (ग्राम या मुहल्ले ) की कल्पना एक पेटी के समान चार . कोने वाला करके ( बीच के घरों को छोड़कर चारों कोनों के) उन घरों में भिक्षार्थ जावे । २ अर्द्धपेटा - उपरोक्त चार कोनों में से दो कोने के घरों में ही भिक्षा के लिए जावे । ३ गोमूत्रिका - जिस प्रकार चलता हुआ बैल पेशाब करता है और वह वाक ( टेढ़ा मेढ़ा ) पड़ता है, उसी प्रकार साधु भी घरों की आमने सामने की दोनों पंक्तियों में से प्रथम एक पंक्ति (लाइन) के एक घर से आहार लेवे, फिर दूसरी सामने वाली पंक्ति में के घर से आहार लेवे । इसके बाद फिर प्रथम पंक्ति के गोचरी किये हुए घर को छोड़ कर आहार लेवे । इस क्रम को 'गोमूत्रिका' कहते हैं । ४ पतंगवीथिका - पतंगे के उड़ने की तरह एक घर से आहार लेकर फिर कुछ घर छोड़ कर आहार लेना । ५ शंखावर्ता-शंख के चक्र की तरह गोलाकार घूमकर गोचरी लेना । यह गोचरी दो प्रकार की होती है - १ 'आभ्यन्तर शंखावर्ता' - बाहर से गोलाकार गोचरी करते हुए भीतर की ओर आना और २ 'बाह्य शंखावर्ता' - भीतर के मुहल्ले से प्रारंभ करके बाहर जाना । For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन ४२७ ६ गतप्रत्यागता - एक पंक्ति के अंतिम घर में भिक्षा के लिए जाकर वहाँ से वापिस लौटकर भिक्षा ग्रहण करना । जहाँ उसे कोई जानता हो वहां एक जानता हो वहाँ एक या दो रात रह सकता है, जो साधु जितने दिन रहे, उसे उतने ही दिनों के प्रतिमाधारी मुनि को चार प्रकार की भाषा बोलनी कल्पती है - रात रह सकता है और जहाँ उसे कोई नहीं किन्तु इससे अधिक नहीं । इससे अधिक छेद का या तप का प्रायश्चित्त आता है। १ याचनी - आहार आदि के लिए याचना करने की । २ पृच्छनी - मार्ग आदि पूछने के लिए । ३ अनुज्ञापनी स्थान आदि के लिए आज्ञा लेने की । ४ पुटुवागरणी ( पृष्ट व्याकरणी ) - प्रश्नों का उत्तर देने के लिए । स्वामी की आज्ञा लेकर पडिमाधारी मुनि को तीन प्रकार के स्थानों में ठहरना चाहिए। वे स्थान ये हैं १ अध आरामगृह - ऐसा स्थान. जिसके चारों ओर बाग हो । २ अधो विकट गृह - ऐसा स्थान जो चारों ओर से खुला हो, सिर्फ ऊपर से ढका हुआ हो । ३ अधोवृक्षमूलगृह - वृक्ष के नीचे बना हुआ स्थान या वृक्ष का मूल । उपरोक्त उपाश्रय में ठहर कर मुनि को तीन प्रकार के संस्तारक - आज्ञा लेकर ग्रहण करना चाहिए - १ पृथ्वी शिला, २ काष्ठ शिला और ३ उपाश्रय में पहले से बिछा हुआ संस्तारक । शुद्ध उपाश्रय देख कर मुनि के वहाँ ठहर जाने पर यदि कोई स्त्री या पुरुष वहाँ आजाय, तो उन्हें देख कर मुनि को उपाश्रय से बाहर जाना या अन्दर आना उचित नहीं, अर्थात् मुनि यदि उपाश्रय के बाहर हों, तो बाहर ही रहना चाहिये और यदि उपाश्रय के अन्दर हों, तो अन्दर ही रहना चाहिये । आये हुए उन स्त्री पुरुषों की तरफ ध्यान न देते हुए अपने स्वाध्याय ध्यान आदि में लीन रहना चाहिए। ध्यान में तल्लीन रहे हुए मुनि के उस उपाश्रय को यदि कोई व्यक्ति आग लगा कर जलावे, तो मुनि को न तो उस ओर ध्यान ही देना चाहिये और न भीतर से बाहर या बाहर से भीतर जाना चाहिये, बल्कि निर्भीकता पूर्वक अपने ध्यान में ही तल्लीन रहना चाहिए । 1 यदि कोई व्यक्ति मुनि का वध करने के लिए मारने के लिए आवे, तो मुनि उसे . एक बार या बारबार पकड़े नहीं, किन्तु वह अपनी मुनि मर्यादा में ही रहे, यही उसका For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन कल्प है । विहार करते हुए मार्ग में मुनि के पैर में यदि कंकर, पत्थर या कांटा आदि लग ॐ जाय, तो उसे नहीं निकालना चाहिए । इसी प्रकार आंखों में कोई मच्छर आदि जीव, बीज, कंकर या धूल आदि पड़ जाय, तो भी नहीं निकालना चाहिए, किन्तु किसी प्राणी की मृत्यु हो जाने का भय हो, तो उसे निकाल देना चाहिए । विहार करते हुए जहां सूर्य अस्त हो जाय वहीं ठहर जाना चाहिए, चाहे वहाँ जल हो ( जल का किनारा हो या सूखा हुआ जलाशय हो या ऊपर से अनाच्छादित हो), स्थल हो, दुर्गम स्थान हो, निम्न (नीचा) स्थान हो, पर्वत हो, विषम स्थान हो, खड्डा हो, या गुफा हो, सारी रात वहीं व्यतीत करनी चाहिए। सूर्यास्त के बाद एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना चाहिए | रात्रि समाप्त होने पर सूर्योदय के पश्चात् अपनी इच्छानुसार किसी भी दिशा की ओर ईर्यासमितिपूर्वक विहार कर दें । सचित्त पृथ्वी पर निद्रा न लेनी चाहिए । सचित पृथ्वी का स्पर्श करने से हिंसा होगी जो कि कर्मबन्ध का कारण है । यदि रात्रि में लघुनीति की शंका उत्पन्न हो जाय, तो पहले से देखी हुई भूमि में जाकर उनकी निवृत्ति करे और वापिस अपने स्थान पर आकर कायोत्सर्ग आदि क्रिया करे । किसी कारण से शरीर पर संचित रज लग जाय, तो जबतक प्रस्वेद ( पसीना ) आदि से वह ध्वस्त - अचित न हो जाय, तबतक मुनि को पानी आदि लाने के लिए गृहस्थ के घर न जाना चाहिए। इसी प्रकार प्रासुक जल से हाथ, पैर, दांत, आंख, मुख आदि नहीं धोना चाहिए, किन्तु यदि किसी अशुद्ध वस्तु से शरीर का कोई अंग लिप्त हो गया हो, तो उसको प्रासुक पानी से शुद्ध कर सकता है, अर्थात् मलादि से शरीर लिप्त हो गया हो और स्वाध्यायादि में बाधा पड़ती हो, तो प्रासुक पानी से अशुचि को दूर कर देना चाहिए । विहार करते समय मुनि के सामने यदि कोई मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, महिष (भैंसा ), सूअर, कुत्ता, सिंह आदि आजाय, तो उनसे डर कर मुनि को एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिए, किन्तु कोई हरिण आदि जीव भद्रता से सामने आते हो, तो मुनि को चार हाथ पीछे हट जाना चाहिए अर्थात् उन प्राणियों को किसी प्रकार का भय उत्पन्न न हो, इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए । पडिमाधारी मुनि, शीतकाल में किसी ठण्डे स्थान पर बैठा हो, तो शीत निवारण के लिए उसे धूप युक्त गरम स्थान पर न जाना चाहिए। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में गरम स्थान से उठ कर ठण्डे स्थान में न जाना चाहिये, किन्तु जिस समय जिस स्थान पर बैठा For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन हो, उसी स्थान पर अपनी मर्यादापूर्वक बैठे रहना चाहिए । उपरोक्त विधि से भिक्षु की पहली पडिमा यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातथ्य काया द्वारा स्पर्श करके, पालन करके, अतिचारों की शुद्धि कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर, आराधन कर के भगवान् की आज्ञानुसार पालन की जाती है। इसका समय एक महीना है । ( २ - ७) दूसरी पडिमा का समय एक मास है । इसमें उन सब नियमों का पालन किया जाता है जो पहली पडिमा में बताये गये हैं। पहली पडिमा में एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है । दूसरी पडिमा में दो दत्ति अन्न की और दो दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं पडिमाओं में क्रमशः तीन, चार, पांच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है । प्रत्येक पडिमा का समय एक एक मास है, केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही ये क्रमशः द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चातुर्मासिकी, पञ्चमासिकी, षण्मासिकी और सप्तमासिकी पडमाएँ कहलाती हैं। इन सब पडिमाओं में पहली पडिमा में बताये गये सब नियमों का पालन किया जाता है + | ४२९ (८) आठवीं पडिमा का समय सात दिन रात है । इसमें अपानक उपवास किया जाता है अर्थात् एकान्तर चौविहार उपवास करना चाहिए और ग्राम नगरादि के बाहर जाकर उत्तानासन ( आकाश की ओर मुंह करके लेटना), पाश्र्वासन ( एक पसवाड़े से लेटना) अथवा निषद्यासन (पैरों को बराबर रख कर बैठना ) से ध्यान लगा कर समय व्यतीत करना चाहिए । ध्यान करते समय देवता, मनुष्य अथवा तिर्यञ्च सम्बन्धी कोई उपसर्ग उत्पन्न हो, तो ध्यान से विचलित नही होना चाहिए, किन्तु अपने स्थान पर निश्चल रूप से बैठे रहकर ध्यान में दृढ़ रहना चाहिए। यदि मल मूत्र आदि की शंका उत्पन्न हो जाय, तो नहीं रोकना चाहिए, किन्तु पहले से देखे हुए स्थान पर जाकर उनकी निवृत्ति कर लेनी चाहिए । आहार पानी की दत्तियों के अतिरिक्त इस पडिमा में पूर्वोक्त सब नियमों का पालन करना चाहिए । इस पडिमा का नाम 'प्रथम सप्त रात्रि दिवस की भिक्खु पडिमा ' है । ९ नवमी का नाम 'द्वितीय सप्त रात्रि दिवस की पडिमा है। इसकी अवधि सात दिन रात है । इसमें ग्राम नगरादि के बाहर जाकर दण्डासन, लगुडासन और + टीकाकार इन पडिमाओं का समय भिन्न रूप से मानते है, और इनका साधना काल भी मानते है । For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन उत्कटुकासन से ध्यान करना चाहिए। शेष सब विधि आठवीं प्रतिमा के समान है । (१०) दसवीं का नाम ' तृतीय- सप्तरात्रदिवस की पडिमा है। इसका समय सात दिन रात है । इसमें ग्राम नगरादि के बाहर जाकर 'गोदोह आसन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है। आठवीं, नौवीं और दसवीं पडिमा में आहार पानी की दत्तियों के अतिरिक्त शेष पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन किया जाता है। इन तीनों पडिमाओं का समय इक्कीस दिनरात है । ४३० - ( ११ ) ग्यारहवीं पंडिमा का नाम 'अहोरात्रि' है । इसका समय एक दिनरात का है अर्थात् यह पडिमा आठ पहर की होती है। चौविहार बेला करके इस पडिमा का आराधन किया जाता है। ग्राम नगरादि के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित करके हाथों को घुटने तक लम्बा करके कायोत्सर्ग किया जाता है। पूर्वोक्त परिमाओं के शेष सभी नियमों का पालन किया जाता है । (१२) बारहवीं पडिमा का नाम 'एकरात्रिकी' है। इसका समय केवल एक रात है । इसका आराधन चौविहार तेला करके किया जाता है। इसके आराधक को ग्राम नगरादि से बाहर जाकर शरीर को थोड़ा आगे की ओर झुका कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमेष नेत्रों से निश्चलता पूर्वक सब इन्द्रियों को गुप्त रख कर, दोनों पैरों को संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी कोई उपसर्ग उत्पन्न हो, तो दृढ़ होकर समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। यदि मलमूत्रादि की शंका उत्पन्न हो जाय, तो उसे रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले से देखे हुए स्थान में उनकी निवृत्ति कर वापिस अपने स्थान पर आकर विधिपूर्वक कायोत्सर्ग में लग जाना चाहिए । इस पडिमा का सम्यक् पालन न करने से तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षमा, अमोक्ष तथा आगामी काल में दुःख के लिए होते हैं। यथा-१ देवादि द्वारा किये गये अनुकूल तथा प्रतिकूल परीषह उपसर्गादि को समभावपूर्वक सहन न करने से उन्माद की प्राप्ति हो जाती है । २ लम्बे समय तक रहने वाले रोगादि की प्राप्ति हो जाती है । और ३ वह केवल प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अर्थात् अपनी प्रतिज्ञा से विचलित हो जाने से वह श्रुत चारित्र रूप धर्म से भी पतित हो जाता है । • इस पडिमा का सम्यग् रूप से पालन करने से तीन अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है, यथा-१ अवधिज्ञान, २ मन:पर्ययज्ञान और ३ केवलज्ञान, इन तीन ज्ञानों में से एक को For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन ४३१ अवश्य प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इस पडिमा में महान् कर्म समूह का क्षय होता है। यह पडिमा हित के लिए, शुभ के लिए, क्षमा के लिए, ज्ञानादि प्राप्ति के लिए एवं मोक्ष के लिए होती है । इस पडिमा का यथासूत्र, ययाकल्प, यथातथ्य, सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों की शुद्धि कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर, आराधन करते हुए भगवान् की आज्ञा के अनुसार पालन किया जाता है । - स्कन्दक मुनि ने इन पडिमाओं का यथाविधि पालन किया। __.यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि स्कन्दक मुनि ने तो ग्यारह अंगों का ज्ञान ही पढ़ा है, किंतु भिक्षुपडिमाओं का पालन, तो विशिष्ट श्रुतवान् ही कर सकते हैं । जैसा कि कहा है गच्छे च्चिय णिम्माओ जा पुण्या बस भवे असंपुण्णा । णवमस्स तईयवत्थू होइ जहण्णओ सुयाहिगमो ॥ अर्थ-जिसने गच्छ में रह कर पडिमाओं को स्वीकार करने के लिए अच्छी तरह अभ्यास किया है, तथा जिसको दस पूर्व से कुछ कम ज्ञान है अथवा जघन्य नववें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु (अध्ययन विशेष) तक ज्ञान है, वही पडिमाओं को अंगीकार कर सकता है, तब स्कन्दक मुनि को तो एक भी पूर्व का ज्ञान नहीं था, फिर उन्होंने पडिमाएं कैसे अंगीकार की ? इस शंका का समाधान यह है कि यह नियम सूत्र-व्यवहारी पुरुषों के लिए है। स्कन्दक मुनि को पडिमा अंगीकार करने की आज्ञा देने वाले स्वयं तीर्थङ्कर भगवान् थे । इसलिए यह नियम उनके लिए लागू नहीं पड़ता। स्कन्दक मुनि ने भगवान् की आज्ञा से पडिमाएँ अंगीकार की थी। अतएव इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है । __'अहासुत्तं' आदि शब्दों का सामान्य अर्थ पहले दिया गया है । टीकाकार ने जो विशेष अर्थ दिया है वह इस प्रकार है- 'अहासुत्त' अर्थात् सामान्य सूत्र में कहे अनुसार। - + भिभुपरिमानों का यह वर्णन बमाश्रुतस्कन्ध ब. . के अनुसार दिया गया है। .. स्कन्दक मुनिराज तो फिर भी ग्यारह अंग के पाठी थे, किंतु गजसुकुमाल मुनि ने तो दीक्षा लेने , के दिन. ही भिकी बारहवीं प्रतिमा को धारण कर लिया था। उन माशा देने वाले सर्वश भगवान् . अरिष्टनेमिजी थे। सर्वज्ञ भगवान् ऐसी आज्ञा प्रदान करें, तो हो सकता है। सामान्य आचार्यादि को तो विधान का पालन करना उचित है। For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-गुणरत्न संवत्सर तप 'अहाकप्पं' पडिमा के 'कल्प के अनुसार अथवा जिस तरह से कल्प की वस्तु है उस तरह से । ' अहामग्गं' ज्ञानादि रूप मोक्ष मार्ग की मर्यादापूर्वक अथवा क्षायोपशमिक भाव के अनुसार । ' अहातच्चं' अर्थात् तत्त्व के अनुसार यानी ' मासिकी भिक्षुप्रतिमा' इत्यादि उन उन शब्दों के अनुसार। 'अहासम्म' अर्थात् समभावपूर्वक । 'काएणं फासेई' अर्थात् केवल मनोरथ मात्र से नहीं, किन्तु उचित समय में विधिपूर्वक शरीर द्वारा प्रवृत्ति करके ग्रहण करते हैं । 'पालेइ' अर्थात् बारम्बार उपयोगपूर्वक सावधानतापूर्वक पालन करते हैं। 'सोहेइ' अर्थात् पारणे के दिन गुरु महाराज आदि द्वारा दिये हुए आहार को खाकर व्रत को शोभित करते हैं अथवा व्रत में दूषण रूप कचरा न आने देने से व्रत को शोधित करते हैं । 'तीरेइ' व्रत की मर्यादा पूरी हो जाने पर भी थोड़े समय तक ठहरते हैं । 'पूरेइ' अर्थात् उस व्रत की मर्यादा पूर्ण हो जाने पर भी उस व्रत सम्बन्धी कार्यों के परिमाण को पूरा करते हैं । 'किट्टई' अर्थात् 'व्रत सम्बन्धी अमुक अमुक कार्य हैं उनको मैंने पूरा कर लिया है, इस प्रकार पारणे के दिन व्रत का कीर्तन (महिमा) करते हैं।' 'अणुपालेइ' अर्थात् व्रत पूर्ण हो जाने पर उसकी अनुमोदना-प्रशंसा करते हैं, एवं आज्ञापूर्वक व्रत की आराधना करते हैं। तए णं से खदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भगुण्णाए समाणे जाव-णमंसित्ता गुणरयणसंवच्छरतवोकम्म उव. संपजित्ता णं विहरइ । तं जहाः-पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुहुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रतिं वीरासणेणं अवाउडेण य। एवं दोच्चं मासं छटुंछटेणं अणिक्सित्तेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। एवं तच्चं मासं अट्ठमंअट्टमेणं, चउत्थं मासं दसमंदसमेणं, पंचमं मासं बारसमंबारसमेणं, छटुं मासं चउद्दसमंचउद्दसमेणं, सत्तमं मासं सोलसमंसोलसमेणं, For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन- ४३३ अट्ठमं मासं अट्ठारसमंअट्ठारसमेणं, नवमं मासं वीसहमंवीसइमेणं, दसमं मासं बावीसइमंबावीसइमेणं, एकारसमं मासं चउवीसहमं-चउवीसहमेणं, बारसमं मासं छवीसइमंव्वीसइमेणं, तेरसमं मासं अट्ठावीसइमंअट्ठावीसइमेणं, चउद्दसमं मासं तीसहमंतीसइमेणं, पण्णरसमं मासं बत्तीसहमंबत्तीसइमेणं, सोलसं मासं चोत्तीसइमंचोत्तीसइमेणं अणिरिखत्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुस्कुडुए सुंराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेणं । तए णं से खंदए अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुतं अहाकप्पं जावआराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता बहुहिं चउत्थ-टु-अट्ठम-दसम-दुवालसेहिं, मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे विहरह । विशेष शब्दों के अर्थ-अणिक्खितेणं-निरन्तर, ठगनुक्कुए-उत्कटुक आसन से बैठना, सूराभिमूहे-सूर्य के सामने मुंह करके, आयावणभूमिए-आतापन भूमि में, रतिरात को, अवाउडेग-अप्रावृत्त-वस्त्ररहित, अहासुत्तं-सूत्रानुसार, अहाकर्प-कल्पानुसार, विचित्तहि तबोकम्मेहि विविध प्रकार के तप से। भावार्थ-इसके बाद स्कन्दक अनगार भगवान् की आज्ञा लेकर यावत उन्हें वन्दना नमस्कार करके गुणरत्न संवत्सर तप करने लगे। गुणरत्नसंवत्सर तप की विधि इस प्रकार है-पहले महीने में निरन्तर उपवास करना, दिन के समय उत्कटक आसन से बैठ कर सूर्य के सामने मुख करके आतापना भूमि में सूर्य की आतापना लेना और रात्रि के समय वीरासन से बंठ कर अप्रावत For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ भगवती सूक-श. २.उ. १ आर्य स्क्वन्दक-गुणरत्न संवत्सर तप (वस्त्र रहित) होकर शीत. सहन करना । इसी तरह दूसरे मास में निरन्तर बेले बेले पारणा करना, दिन में उत्कटुक आसन से बैठ कर सूर्य के सामने मुख करके आतापना भूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अप्रावृत होकर वीरासन से बैठ कर शीत सहन करना । इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले तेले पारणा करना। इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौले चौले (चार चार उपवास से)पारणा करना । पांचवें मास में पचौले पचौले (पांच पांच उपवास से) पारना करना । छठे मास में निरन्तर छह छह उपवास करना । सातवें मास में निरन्तर सात सात उपवास करना, आठवें मास में निरन्तर आठ आठ उपवास करना । नौवें मास में निरन्तर नौ नौ उपवास करना। दसवें मास में निरन्तर दस वस उपवास करना। . ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारह ग्यारह उपवास करना । बारहवें मास में में निरन्तर बारह बारह उपवास करना । तेरहवें मास में निरन्तर तेरह तेरह . उपवास करना । चौदहवें मास में निरन्तर चौदह चौदह उपवास करना । पन्द्रहवें मास में पन्द्रह पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह सोलह उपवास करना । इन सभी में दिन में उत्कटक आसन से बैठ कर सूर्य के सामने मुंह करके आतापना भूमि में आतापना लेना, रात्रि के समय अप्रावृत (वस्त्र रहित)होकर वीरासन से बैठ कर शीत सहन करना। स्कन्दक मुनि ने उपर्युक्त विधि के अनुसार गुणरत्न संवत्सर नामक तप की सूत्रानुसार कल्पानुसार यावत् आराधना की। इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण, अर्द्धमासनमण आदि विविध प्रकार के तप , से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। . विवेचन-'गुणरयणसंवच्छर' इस शब्द की संस्कृत छाया ो तरह से बनती है;गुणरचनसंवत्सर, अथवा गुणरत्नसंवत्सर, इनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार किया गया है 'गुणानां निर्जराविशेषाणां रचनं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मितपसि तद गुण- . 'रचनं संवत्सरम् ।" 'गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः, गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तत् । गुणरत्न संवत्सरं तपः।" For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-गुणरल संवत्सर तर ४३५ । अर्थात्-जिस तप को करने में सोलह मास तक एक ही प्रकार की निर्जरा रूप गुणों की रचना-उत्पत्ति हो, वह तप गुणरयण संवच्छर'-गुणरचन संवत्सर कहलाता है। अथवा-जिस तप में गुण रूप रत्नों वाला सम्पूर्ण वर्ष बिताया जाय, वह तप 'गुणरत्न संवत्सर' तप कहलाता है । इस तप में सोलह महीने लगते हैं। जिसमें से ४०७ दिन तपस्या के और ७३ दिन पारणे के होते है । यथा पग्णरस बीस चउम्धीस चेव चउब्बीस पण्णवीसा य। . चउब्बीस एक्कवीसा, चउवीसा सत्तवीसा य ॥१॥ तीसा तेत्तीसा वि य चउव्वीस छव्वीस अट्ठवीसा य । तीसा बत्तीसा वि य सोलसमासेसु तव दिवसा ॥२॥ पन्जरस बसद्ध छ पंच चउर पंचसु य तिणि तिणि ति। पंचसु दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा ॥३॥ गणरत्न-संवत्सर तप तप दिन पारणा सर्व दिन : ३२ १६.१६२ |१५/१५/२ . . ३२ अर्थ-पहले मास २८१४१४२ .३० में पन्द्रह, दूसरे २८ मास में बीस, तीसरे २६ मास में चौबीस, १. चौथे मास में १० १० १०३ ३. चौबीस, पांचवें २५ १९९३ २८८३ . २७ मास में पच्चीस, छठे मास में चौबीस, - सातवें ..... .२५/५/ ५/५/५/५ .. मास में इक्कीस, - २४|४|४|४|४|४|४|६ ३. आठवें मास में २४|३|३|३|३|३|३|३|३|८. २०/२ | २|२|२|२||शशशश... ३० चौबीस, नववें मास १५ (१RRIRIRRRRRRRRRRR ).१५ ३. में सत्ताईस, दसवें मास में तीस, ग्यारहवें मास में तेतीस, बारहवें मास में चौबीस, तेरहवें मास में छब्बीस, For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-गुणरत्न संवत्सर तप चौदहवें मास में अट्ठाईस, पन्द्रहवें मास में तीस और सोलहवें मास में बनीस दिन तपस्या के होते हैं । ये सब मिला कर ४०७ दिन तपस्या के होते हैं। पारणे के दिन इस प्रकार है ; पहले मास में पन्द्रह, दूसरे मास में दस, तीसरे मास में आठ, चौथे मास में छह, पांचवें मास में पांच, छठे मास में चार, सातवें मास में तीन, आठवें मास में तीन, नववें मास में तीन, दसवें मास में तीन, ग्यारहवें मास में तीन, बारहवें मास में दो, तेरहवें मास में दो, चौदहवें मास में दो, पन्द्रहवें मास में दो, सोलहवें मास में दो दिन पारणे के होते हैं। ये सब मिला कर ७३ दिन पारणे के होते हैं । तपस्या के ४०७ और पारणे के ७३-ये दोनों मिला कर ४८० दिन होते हैं अर्थात् सोलह महीनों में यह तप पूर्ण होता है । इस तप में, किसी महीने में तपस्या और पारणे के दिन मिला कर तीस से अधिक हो जाते हैं और किसी मास में तीस से कम रह जाते हैं, किन्तु कम और अधिक दिनों की एक दूसरे में पूर्ति कर देने से तीस की पूर्ति हो जाती है । इस तरह से यह तप बराबर सोलह मास में पूर्ण हो जाता है। 'च उत्थभत्त' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार लिखा है ;- "चउत्थं चउत्थेणं, त्ति चतुर्थभक्तं यावद् भक्तं त्यज्यते, यत्र तच्चतुर्थम् इयं चोपवासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति ।" . . अर्थ-जिस तप में चार टंक का आहार छोड़ा जाय, उसे 'चउत्थभत्त-चतुर्थभक्त' कहते है। यह 'चतुर्थभक्त' शब्द का शब्दार्थ (व्युत्पत्त्यर्थ) है, किन्तु 'चतुर्थभक्त' यह उपवास का नाम है । उपवास को चतुर्थभक्त कहते हैं । अतः चार टंक का आहार छोड़ना, यह अर्थ नहीं लेना चाहिये । इसी प्रकार षष्ठभक्त, अष्ठभक्त, आदि शब्द-बेला, तेला आदि की संज्ञा है। ... शब्दों का व्युत्पत्त्यर्थ व्यवहार में नहीं लिया जाता है, किन्तु रूढ़ (संज्ञा) अर्थ ही ग्रहण किया जाता है, जैसे कि:-'पङ्कज' शब्द की व्युत्पत्ति है-'पङ्कात् जातः, 'पकुजः' । अर्थात् जो कीचड़ से पैदा हो । कीचड़ से बहुत सी चीजें पैदा होती है । जैसे कि:-काई (शैवाल) मेढ़क आदि । किन्तु 'पङ्कज' शब्द का रूढ़ अर्थ है-कमल । अतः व्यवहार में पङ्कज' शब्द का अर्थ 'कमल' ही लिया जाता है, काई (शैवाल) मेढ़क आदि नहीं । इसी तरह 'अमर' शब्द है, जिसकी व्युत्पत्ति है:-'न म्रियतेइ तिअमरः' अर्थात् जो मरे नहीं, उसको अमर कहते हैं । यह 'अमर' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है। किन्तु इसका रूढ़ अर्थ है:-देव' या 'अमरचन्द्र' नाम का व्यक्ति । अपनी आयु समाप्त होने पर देव भी मरता है और 'अमरचन्द्र' नाम का व्यक्ति भी मरता है । इस अपेक्षा से इन में । For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक - महान् तपस्वी 'अमर' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थं घटित ही नहीं होता हैं, किन्तु चूंकि :- अमर' शब्द इन अर्थों में रूढ़ हो गया है । इसलिए 'देव' तथा 'अमरचन्द' नाम के व्यक्ति को 'अमर' कहते । इसी प्रकार 'चउत्थभत्त' शब्द भी 'उपवास' अर्थ में रूढ़ है। अतः 'चार टंक आहार छोड़ना' यह 'चउत्थभत्त' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ व्यवहार एवं प्रवृत्ति में नहीं लिया जाता है । चार टंक आहार छोड़ना ऐसा चउत्थभत्त' शब्द व्यवहार में अर्थ लेना आगमों से विपरीत है । अत: 'चउत्थभत्त' यह उपवास की संज्ञा है: -सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक आठ पहर आहार छोड़ना 'उपवास' है । एवं षष्ठभक्त अष्ठभक्त आदि शब्द - बेला, तेला आदि की संज्ञा है । ४३७ तए णं से खंदर अणगारे तेणं उरालेणं, विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धण्णेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लक्खे निम्मंसे अट्टि चम्मावणद्धे किडिविडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था । जीवंजीवेण गच्छह, जीवंजीवेण चिट्ठह, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाह, भासं भासिस्सामीति गिलाइ । से जहानामए कटुसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्त-तिल भंडगसगडिया इ वा एरंडकट्टसगडिया इवा इंगालसगडिया ह वा उन्हे दिण्णा सुका समाणी ससदं गच्छइ, ससदं चिट्ठह, एवामेव खंद्रए वि अणगारे ससदं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठह, उवचिए तवेणं, अवचिए मंस-सोणिएणं, हुयासणे विव भासरासि - पंडिच्छण्णे तवेणं, तेएणं, तव तेयसरीए अईव अईव उवसोभेमाणे चिह्न | For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक के शरीर की कृशता . . विशेष शब्दों के अर्थ--उरालेणं--उदार, विउल--विपुल, पयत्तेणं--प्रदत्त, पग्गहिएण-प्रगृहीत-गृहण किया हुआ, सस्सिरिएणं-श्री शोभायुक्त, उदग्गेणं-उत्तरोतर, उदत्तेणं-उदात्त श्रेष्ठ, सुक्के-शुष्क, लुक्खे-रुक्ष, निम्मंसे-निर्मास,अद्विचम्मावणडे-हड्डी और चर्म से वेष्टित, किडिकिडिभूयाए-हड्डियां खड़ खड़ करने लगी, किसेकृश-दुर्बल, धमणिसंतए-जिनकी नाडियां ऊपर दिखाई देती है, कटुसगडिया-लकड़े की भरी गाड़ी, हुयासणे-हुताशन-अग्नि, भासरासिपडिच्छण्णे-राख के ढर से ढकी हुई, . तव-तेयसिरिए-तप तेज को शोभा से । । भावार्थ- इस के बाद वे स्कन्दक अनगार पूर्वोक्त प्रकार के उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, शोभायुक्त, उत्तम उदन-उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त, उदात्त-उज्ज्वल, सुन्दर, उदार और महान् प्रभाव वाले तप से शुष्क हो गये, रुक्ष हो गये, मांस रहित हो गये, उनके शरीर की हड्डियां चमडे से ढकी हुई रह गई । चलते समय हड्डियां खड़खड़ करने लगीं। वे कृश-दुबले हो गये। उनकी नाड़ियां सामने दिखाई देने लगीं। अब वे केवल अपने आत्मबल से ही गमन करते थे, खडे रहते थे, तथा वे इस : प्रकार के दुर्बल हो गये कि भाषा बोल कर, भाषा बोलते समय और भाषा बोलने के पहले, 'मैं भाषा बोलूंगा' ऐसा विचार करने मात्र से) वे ग्लानि को प्राप्त होते थे, उन्हें कष्ट होता था। जैसे सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाडी, पत्तों से भरी हई गाडी, पत्ते, तिल और सूखे सामान से भरी हुई गाडी; एरण्ड की लकड़ियों से भरी हई गाडी, कोयले से भरी हुई गाडी, ये सब गाड़ियां धूप में अच्छी तरह सुखाकर जब चलती हैं, तो खड़ खड़ आवाज़ करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खडी रहती है। इसी प्रकार जब स्कन्दक अनगार चलते, तो उनकी हड्डियां खड़ खड़ आवाज करती और खडे रहते हुए भी खड़ खड आवाज करतीं । यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गये थे, तथापि वे तप से पुष्ट थे। उनका मांस और खून क्षीण हो गये थे। राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप द्वारा, तेज द्वारा और तप तेज की शोभा द्वारा अतीव शोभित हो रहे थे। विवेचन-स्कन्दक मुनि ने जिस तप का आचरण किया था वह किसी भी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र ---श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का धर्मजागरण ४३९ की आशा रहित होने के कारण उदार-प्रधान था, बहुत दिनों तक चलने वाला होने से विपुल (विशाल-विस्तीर्ण) था । गुरु महाराज की अनुमति द्वारा आचरित होने के कारण तथा प्रमाद को छोड़ कर प्रयत्न पूर्वक आचरित होने के कारण वह 'प्रदत्त' था, वह तप बहुमानपूर्वक आचरित होने से 'प्रगृहीत' था। तथा वह वल्याणरूप, शिव, धन्य और मंगलरूप था एवं सश्रीक, उदग्र उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त, उदात्त, उत्तम, उदार और महानुभाव (महाप्रभाव वाला) था। इस प्रकार के प्रधान तप से स्कन्दक अनगार का शरीर शुष्क, रुक्ष और निर्मास हो गया। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से वेष्ठित रह गई। . इसलिए चलते समय सूखी एरण्ड की लकड़ियों से तथा ढाक आदि के पत्तों से एवं तिल की सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ियों से जैसे खड़ खड़ की आवाज होती है, उसी तरह स्कन्दक मनि के चलते समय उनकी हड़ियों की खड खड आवाज होती थी। भाषा बोलने के पहले, बोलते समय और बोलने के बाद भी उन्हें ग्लानि-खंद होता था। जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि बाहर से तेज रहित दिखाई देती है, किन्तु अन्दर से तो वह जलती ही रहती हैं, उसी प्रकार स्कन्दक मुनि का शरीर मांस और रुधिर रहित हो गया था । अतः बाहर से तो निस्तेज मालूम होता था, किन्तु अन्दर तो पवित्र तप द्वारा जाज्वल्यमान था । अतएव वे तप तेज की शोभा से अतीव शोभित हो रहे थे। ___ ते णं काले णं ते णं समए णंरायगिहे नयरे समोसरणं । जावपरिसा पडिगया। तए णं तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयासवे अन्झथिए चिंतिए जाव-समुप्पजित्था-एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेण ओरालेणं जाव—किसे धमणिसंतए जाए, जीवंजीवेण गच्छामि, जीवंजीवेण चिट्ठामि, जाव-गिलामि, जाव-एवामेव अहं पि ससदं गच्छामि, ससई चिट्ठामि, तं अस्थि ता मे उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकारपरकमे तं जाव-ता मे अलि उटाणे, For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ४४० भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का धर्म जागरण कम्मे बले वीरिए पुरिसकारपरकमे, जाव-य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रत्तासोयप्पकासे किंसुयसुयमुहगुंजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता, नमंसित्ता जाव-पज्जुवासित्ता, समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महब्वयाणि आरोवेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, तहारूवेहिं थेरेहि कडाईहिं सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहित्ता मेहघणसंनिगास, देवसन्निवातं पुढवीसिलापट्टयं पडिलेहित्ता, दम्भसंथारगं संथरित्ता, दब्भसंथारोवगयस्स, संलेहणाझूसणाझसियस्स, भत्तपाणपडियाइक्खियस्स, पाओवगयस्स, कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव-जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव जावपज्जुवासइ। ... . .... विशेष शब्दों के अर्थ-फुल्लप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि-कोमल कमलों के विकसित हो जाने पर, अहापंडुरे पभाए-निर्मल प्रभात हो जाने पर, रत्तासोयप्पकासे-लालरंग के अशोक के समान, किसुय-केसूडे के फूल के समान, सुयमुह-तोते की चोंच, गुंजनरागसरिसे-चिरमी के अर्ध-लालभाग जैसा, कमलागरसंडबोहए-कमलवनों को विकसित करने वाले, उढियम्मि सूरे-उदय हुआ सूर्य,सहस्सरस्सिम्मि-हजार किरणों वाले, विणयरे-दिनकर, For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का जागरण कडाई-कृतादि अर्थात् सेवा करने में समर्थ, कृतयोगी, मेहघणसन्निगासं गहरे = घने मेघ जैसी काली, देवसन्निवातं - देवों के आने के स्थान जैमी, संलेहणा - संलेखना = कषायादि नष्ट करना, सणासियस्स - कर्मों को क्षय करने के लिए क्षीण किया । भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर में पधारे, समवसरण की रचना हुई यावत् जनता भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर वापिस चली गई । इसके पश्चात् किसी एक दिन रात्रि के पिछले पहर में धर्म जागरणा जागते हुए स्कन्दक अनगार के मन में ऐसा विचार -अध्यवसाय पैदा हुआ कि - में पूर्वोक्त प्रकार के उदार तप द्वारा शुष्क, रूक्ष एवं कृश हो गया हूँ। मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया है, केवल में आत्म बल से चलता हूँ और खड़ा रहता हूँ। बोलने के बाद, बोलते हुए और बोलने के पूर्व भी मुझे ग्लानि - खेद होता है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह ही चलते और खडे रहते हुए मेरी हड्डियों से खड़ खड़ आवाज होती है। अतः जबतक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम है और जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, गन्धहस्ती की तरह विचरते हैं, तबतक मेरे लिए यह श्रेय - कल्याणकारी है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कमलों को विकसित करने वाले, रक्त अशोक के समान प्रकाश युक्त केसूड़ा के फूल, तोते की चोंच, चिरमी के अर्द्ध भाग जैसा लाल, कमलों के वनों को विकसित करने वाले, हजार किरणों को धारण करने वाले, तेज से जाज्वयमान ऐसे सूर्य के उदय हो जाने पर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाकर उनको वन्दना नमस्कार करके पर्युपासना करूंगा और भगवान् की आज्ञा लेकर स्वयमेव पांच महाव्रतों को आरोपण करके, साधु-साध्वियों को खमा कर तथारूप के कडाई ( कृतादि - कृतयोगी अर्थात् सेवा करने में समर्थ) स्थविरों के साथ विपुलगिरि ( विपुल पर्वत) पर धीरे धीरे चढ़ कर मेघसमूह के समान वर्ण वाली (काली) देवों के उतरने के स्थान रूप पृथ्वी- शिलापट्ट की प्रतिलेखना करके उस पर डाभ का संथारा बिछा कर, अपनी आत्मा को संलेखना शोसणा से युक्त करके, आहार पानी का सर्वथा त्याग करके, पादपोपगमन (कटी ४४ १ For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-भगवान् की आज्ञा . हुई वृक्ष की डाली के समान स्थिर रहना) संथारा करके, मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए स्थिर रहना मेरे लिए श्रेष्ठ है । इस प्रकार विचार करके प्रातःकाल होने पर यावत् सूर्योदय होने पर स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी · की सेवा में आकर उन्हें । वन्दना नमस्कार करके यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन-रात्रि के पिछले भाग में धर्म-जागरण करते हुए स्कन्दक मुनि को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि यद्यपि इस उदार तप के द्वारा मेरा शरीर कृश हो गया है, तथापि . . जबतक मेरे शरीर में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम है और जब तक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक, जिन (तीर्थङ्कर) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, गन्धहस्ती की तरह इस भूतल पर विचर रहे हैं, तब तक उनकी मौजूदगी में मुझे अनशन करना श्रेयस्कर है। स्कन्दक मुनि ने भगवान् की मौजूदगी में ही अनशन करने का जो विचार किया, इसमें दो कारण हैं। वे इस प्रकार हैं-- भगवान् की मौजूदगी में उनकी साक्षी से जो अनशन किया जायगा उसका महान् फल होगा । अथवा भगवान् का निर्वाण हो जाने पर मुझे शोकजन्य दुःख न हो, इसलिए भगवान् के निर्वाण पधारने के पहले ही उनकी मौजूदगी में उनके पास जाकर उनकी अनुमति से अनशन कर लूं । इसलिए प्रातःकाल सूर्योदय हो जाने पर मैं भगवान् की सेवा में जाकर उन्हें वन्दना नमस्कार कर उनकी आज्ञा प्राप्त करके कडाई (कृतयोगी, प्रतिलेखन आदि क्रिया करने में कुशल, धर्मप्रिय एवं धर्म में दृढ़) स्थविरों के साथ धीरे धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ कर पृथ्वी शिलापट्ट, जो कि वर्षा ऋतु के मेघों के समान काली है, जो अत्यन्त सुन्दर होने के कारण जिस पर देक क्रीड़ा . करने के लिए आते हैं उस पर आहार पानी का त्याग करके संलेखना करके पादपोपगमन संथारा करूंगा । यह मेरे लिए श्रेयस्कर है । ऐसा विचार स्कन्दक मुनि ने किया । ____खंदया! इसमणे भगवं महावीरे खंदयं अमगार एवं क्यासीःसे पूर्ण तव खंदया ! पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव-जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजित्या-एवं खलु आई For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की अंतिम आराधना । ४४३ इमेणं एयारवेणं तवेणं ओरालेणं, विउलेणं तं चेव जाव-कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेसि, संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जाव-जलंते जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए। से णूणं खंदया ! अढे समढे ? हंता अस्थि । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं । . विशेष शब्दों के अर्थ-पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-रात्रि के अन्तिम प्रहर में, संपेहेसि-विचार किया, कल्लं-कल, पाउप्पभायाए–प्रातःकाल । ... . . भावार्थ-इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्कन्दक मुनि से इस प्रकार कहा कि-हे स्कन्दक ! रात्रि के पिछले पहर में धर्म जागरणा करते हुए तुम्हें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि इस उदार तप से मेरा शरीर अब कृश हो गया है यावत् अब मैं संलेखना संथारा करके मृत्यु की वांछा न करते हुए स्थिर रहूँ। ऐसा विचार कर प्रातःकाल सूर्योदय होने पर तुम मेरे पास आये हो । हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है। - स्कन्दक मुनि ने कहा कि-हे भगवन् ! आप फरमाते हैं वह बात सत्य है। तब भगवान ने फरमाया कि-हे देवानुप्रिय ! जिस तरह तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो। विवेचन-भगवान् ने तपस्वीराज श्रीस्कन्दकजी के मनोगतभावों को प्रकट करके उन्हें अंतिम साधना करने की अनुमति प्रदान करदी। . .. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्टतुटु० जाव-हयहियए उट्ठाए उठेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणप्पयाहिणं करेइ, जाव-नमंसित्ता.. सयमेव पंच महत्वयाइं आरहेइ, आरुहित्ता समणा य, समणीओ For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की अंतिम आराधना य खामेइं । तहारूवेहिं थेरेहिं कडाईहिं सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहेइ २ मेहघणसनिगासं देवसन्निवायं पुढविसिलावट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहिता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासीः-नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव-संपत्ताणं । नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव-संपाविउकामस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमंसइ, वंदिता नमंसित्ता एवं वयासीः-पुवि पि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए, जाव-मिच्छादसणसल्ले पञ्चक्खाए जावजीवाए । इयाणि पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए, जाव-मिच्छादंसणसल्लं पञ्चक्खामि । एवं सव्वं असणपाण-खाइम-साइमेणं चउव्विहं पि आहारं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए; जं पि य इमं सरीरं इ8, कंतं पियं जाव-फुसन्तु त्ति कटु एवं पि णं चरिमेहिं उस्सासनीसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु संलेहणा असणाझुसिए, भत्त-पाणपडियाइक्खिए, पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ। विशेष शब्दों के अर्थ-दुरुहेइ-चढ़े, पडिलेहेइ-प्रतिलेखना की, उच्चारपासवणभूमि For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आय स्कन्दक की अंतिम आराधना ४४५ बड़ीनीत लघुनीत करने की भूमि, पुरत्याभिमुहे-पूर्व की तरफ मुख करके, संपलियंकणिसण्णे --पर्यक आसन से बैठ कर, करयलसंपरिग्गहियं-- दोनों हाथ जोड़ कर, बसनहंदसों नख सहित, सिरसावत्तं-मस्तक पर से आवर्तन देकर, इयाणि-इस समय, अणवकंखमाने-वांछा न करते हुए। भावार्थ- भगवान् की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर स्कन्दक मुनि को बड़ा हर्ष एवं संतोष हुआ। फिर खडे होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा और वन्दना नमस्कार करके स्वयमेव- पांच महाव्रतों का आरोपण किया। फिर साधु-साध्वियों को खमा कर तथारूप के योग्य कडाई स्थविरों के साथ धीरे धीरे विपुल पर्वत पर चढ़े। फिर मेघ के समूह सरीखे प्रकाश वाली (काली) और देवों के आगमन के स्थानरूप पृथ्वीशिलापट्ट की प्रतिलेखना करके एवं उच्चार-पासवण भूमि (बडोनीत लघुनीत की भूमि) की प्रतिलेखना करके पृथ्वीशिलापट्ट पर डाम का संथारा बिछा कर, पूर्वदिशा की ओर मुख करके, पर्यकासन में बैठ कर, दसों नख सहित दोनों हाथों को शिर पर रख कर (दोनों हाथ जोड़ कर) इस प्रकार बोले-अरिहन्त भगवान् यावत् जो मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें नमस्कार हो, तथा अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो। वहां रहे हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी को यहां रहा हुआ में वन्दना करता हूं। वहां रहे हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी यहां पर रहे हुए मुझे देखें। ऐसा कह कर भगवान् को वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले-मैंने पहले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात का त्याग किया था यावत् मिथ्यावर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग किया था। इस समय भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व.. प्रागातिपात से लेकर मिन्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग करता हूं और यावज्जीवन के लिए अशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता तथा यह मेरा शरीर जो कि मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का स्वर्ग गमन \ है, जिसकी मैंने बाधा-पीड़ा, रोग परीषह उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर को भी चरम (अन्तिम) श्वासोच्छ्वास के साथ वोसिराता(त्यागता)हूँ। ऐसे कह कर संलेखना संथारा करके, भक्त पान का सर्वथा त्याग करके, पादपोपगमन संथारा करके, काल (मृत्यु) को आकांक्षा न करते हुए स्थिर रहूँ। विवेचन: भगवान् की अनुमति लेकर स्कन्दक मुनि विपुल पर्वत पर गये । वहाँ जाकर पृथ्वीशिलापट्ट पर विधिपूर्वक संलेखना करके पादपोपगमन (कटी हुई वृक्ष की डाली की तरह स्थिर रहने रूप) संथारा कर लिया। . तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजित्ता, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगए । तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसग्ग्गं करेंति, करित्ता पत्त-चीवराणि गिण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ सणियं सणियं पच्चोसकंति, पच्चोसकित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २, समणं भगवं महावीर बंदंति नमसंति, वंदित्तानमंसित्ता एवं वयासीः-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभदए पगइविणीए पगइउवसंते पगईपयणुकोह माण-माया-लोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भइए विणीए । से णं देवाणुप्पिएहिं अन्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का स्वर्ग गमन महव्वयाणि आरोवित्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हे हिं सधि विपुलं पव्वयं तं चेत्र निरवसेसं जाव - आणुपुव्वी कालगए । इमे य से आयारभंड | विशेष शब्दों के अर्थ – परिनिव्वाणवत्तियं परिनिर्वाण के निमित्त, पच्चीसक्कंति - नीचे उतरते हैं, पगइमद्दए – प्रकृति के भद्र, मिउमद्दवसम्पन्ने — कोमल एवं निरभिमानी, अल्लीणे - गुरु के आश्रय में रहने वाले । भावार्थ - इसके पश्चात् स्कन्दक अनगार, जिन्होंने कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप के श्रमणों के पास ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा था, वे बराबर बारह वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित (सेवित - युक्त) करके साठ भक्त अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके; समाधि को प्राप्त करके वे धर्म को प्राप्त हो गये । इसके पश्चात् उन स्थविर मुनियों ने स्कन्दक मुनि को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी ( मृत्यु सम्बन्धी ) कायोत्सर्ग किया । फिर उनके वस्त्र और पात्रों को लेकर वे विपुल पर्वत से धीरे धीरे नीचे उतरे, उतर कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजे हुए थे वहां आये । भगवान् को वन्दना नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा- हे भगवान् ! आपके शिष्य स्कन्दक अनगार जो कि प्रकृति के भद्र, विनयी, शांत, अल्प क्रोध, मान, माया, लोभवाले, कोमलता और नम्रता के गुणों से युक्त, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, भद्र और विनीत थे । वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोपण करके, साधु साध्वियों को खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर गये थे यावत् वे संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं, ये उनके उपकरण ( वस्त्र, पात्र ) हैं । विवेचन - स्कन्दक मुनि को कडाई स्थविरों ने कायोत्सर्ग किया। ४४७ - कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर उनके साथ गये हुए फिर उनके वस्त्र पात्र लेकर भगवान् के पास आकर For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की गति mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सारा वृत्तान्त निवेदन कर दिया। भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीः-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खदए णाम अणगारे कालमासे कालं किचा कहिं गए कहिं उपवण्णे? 'गोयमाई' ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी खंदए णामं अणगारे पगइभद्दए, जाव-से णं मए अन्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाई आरु. हेत्ता, तं चेव सव्वं अविसेसिय नेयवं, जाव-आलोइयपडिपकते, समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे तत्य णं अत्यंगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता, तस्स णं खंदयस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । से गं भंते ! स्वंदए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवरखएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गच्छिहिइ कहिं उववजिहिइ ? ति । गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिह मुचिहिइ परिणिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिह ॥ खंदओ सम्मत्तो॥ ॥ बिइयसयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो॥ • विशेष शब्दों के अर्थ-अपएकप्पे-अच्चुतकल्प नामक १२ वा देवलोक, निस्थिति, अगंतरं-अनन्तर चयं-मरना। For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र --श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की गति भावार्थ - इसके बाद गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! आपके शिष्य स्कन्दक अनगार काल के अवसर पर काल करके कहाँ गये और कहां उत्पन्न हुए हैं ? गौतमादि को सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीरस्वामी ने फरमाया कि - हे गौतम! मेरा शिष्य स्कन्दक अनगार, मेरी अनुमति लेकर, स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोपण करके यावत् संलेखना संथारा करके, समाधि को प्राप्त होकर काल के समय में काल करके अच्युतकल्प में देव रूप से उत्पन्न हुआ है। वहाँ कितनेक देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की है । तद्नुसार स्कन्दक देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है । ४४९ इसके बाद गौतमस्वामी ने पूछा- हे भगवन् ! वहाँ की आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर स्कन्दक देव कहाँ जायेंगे और कहाँ उत्पन्न होंगे ? भगवान् ने फरमाया - हे गौतम ! स्कन्दक देव वहाँ की आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त करेंगे और सभी दुःखों का अन्त करेंगे । विवेचन - गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् ने फरमाया कि - स्कन्दक अनगार यथासमयय काल करकें बारहवें देवलोक में गये हैं । वहाँ उनकी बाईस सागरोपम की स्थिति है । वहाँ की स्थिति पूर्ण होने पर वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर संयम अंगीकार करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे । यहाँ मूल में 'कहि गए, कहि उववण्णे' शब्द हैं । 'कहि गए' का अर्थ है - कहाँ गये ? अर्थात् किस गति में गये ? 'कहि उबवण्णे' का अर्थ है - कहाँ उत्पन्न हुए ? अर्थात् किस. देवलोक में उत्पन्न हुए । 'आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं' का अर्थ इस प्रकार है- 'आउक्खएणं' अर्थात् आयुष्य कर्म के दलिकों की निर्जरा होने से । 'भवक्खएणं' देव भव के कारणभूत गत्यादि कर्मों की निर्जरा होने से । 'ठिइक्खएणं' अर्थात् आयुष्य कर्म की स्थिति भोग लेने से । स्कन्दक अनगार ने ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा। बारह भिक्खुपडिमा और गुणरत्नसंवत्सर तप किया। बारह वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया । विपुलगिरि पर संथारा For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० भगवती सूत्र-श. २ उ. २ समुद्घात वर्णन किया । साठ भक्त अनशन का छेदन किया अर्थात् एक दिन के दो टंक के हिसाब से साठ भक्त का यानी एक मास का संथारा किया। यथासमय काल करके बारहवें देवलोक में बाईस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए। वहाँ की स्थिति पूर्ण करके (वहां से चव कर) महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और संयम अंगीकार करके, समस्त कर्मों का क्षय करके, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। ॥ दूसरे शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ ... शतक २ उद्देशक २ समुद्घात वर्णन १९ प्रश्न-कइ णं भंते ! समुग्धाया पण्णता ? , १९ उत्तर-गोयमा ! सत्त समुग्घाया पण्णता, तं जहाः-वेदणासमुग्घाए एवं समुग्धायपदं, - छाउमत्थियसमुग्घायवजं भाणियव्वं जाव-वेमाणियाणं, कसायसमुग्धाया अप्पाबहुयं । २० प्रश्न-अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलिसमुग्याए जाव-सासयमणागयधं चिटुंति ? २० उत्तर-समुग्घायपदं यवं ? ॥बिइयसए बिइओ उद्देसो सम्मत्तो॥ .. विशेष शब्दों के अर्थ-समुग्घाया-समुद्घात, अप्पाबयं-अल्पबहुत, भावियप्पणो-भावितात्मा, गेयव्वं-जानना चाहिए। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! समुद्घात कितनी कही गई हैं ? For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. २ समुद्घात वर्णन उत्तर- १९ हे गौतम ! समुद्घात सात कही गई हैं। यथा-वेदना समुद्धात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तेजस् समुद्घात, आहारक समुद्घात, केवली समुद्घात । यहाँ पर प्रज्ञापना सूत्र का छत्तीसवाँ समुद्घात पद कहना चाहिए, किन्तु उसमें आया हुआ छद्मस्थ समुद्घात का वर्णन यहाँ नहीं कहना चाहिए। इस तरह वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए । कषाय समुद्घात और अल्पबहुत्व कहना चाहिए । प्रश्न- २० हे. भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार के केवली समुद्घात यावत् शाश्वत अनागतकाल पर्यन्त रहती है ? २० उत्तर - हे गौतम! यहाँ पर भी ऊपर कहे अनुसार समुद्घात पद जान लेना चाहिए । विवेचन - प्रथम उद्देशक में 'मरण' का कथन किया गया है । मरण दो प्रकार से होता है— मारणान्तिक समुद्घात पूर्वक और मारणान्तिक समुद्घात बिना । इसलिए इस दूसरे उद्देशक में 'समुद्घात' का वर्णन किया जाता है । ४५१ समुद्घात - वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीय आदि कर्म-प्रदेशों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर प्रबलता पूर्वक उनकी निर्जरा करना 'समुद्घात' कहलाता है। इसके सात भेद हैं । यथा; - - १ वेदना समुद्घात - वेदना के कारण से होने वाले समुद्घात को वेदना समुद्घात कहते हैं । यह असाता वेदनीय कर्मों के आश्रित होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से पीड़ित जीव, अनन्तानन्त कर्म स्कन्धों से व्याप्त अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उनसे मुख उदर आदि छिद्रों को और कान स्कन्धादि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और विस्तार में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है । उस अन्तर्मुहूर्त में प्रभूत असातावेदनीय कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है । २ कषाय समुद्घात - क्रोधादि कषाय के कारण से होने वाले समुद्घात को कषाय समुद्घात कहते हैं । यह समुद्घात मोहनीय के आश्रित है अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से व्याकुल जीव, अपने आत्म प्रदेशों को बाहर निकाल कर और उनसे मुख उदर (पेट) आदि के छिद्रों को एवं कान और स्कन्ध आदि के अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और चौड़ाई में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और प्रभूत कषाय पुद्गलों For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. २ समुद्घात की निर्जरा करता है। ३ मारणान्तिक समुद्घात-मरणकाल में होने वाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं । यह अन्तर्मुहूर्त शेष आयुकर्म के आश्रित है अर्थात् कोई जीव आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर उनसे मुख उदर आदि के छिद्रों को और कान एवं स्कन्ध आदि के अन्तरालों को पूर्ण करके विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीर परिमाण तथा लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अंगुल के असंख्यात भाग परिमाण और अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्येय योजन क्षेत्र को व्याप्त करता है और प्रभूत आयु कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। . ___४ वैक्रिय समुद्घात-वैक्रिय के आरम्भ करने पर जो समुद्घात होता है उसे वैक्रिय . समुद्घात कहते हैं । यह वैक्रिय शरीर नामकर्म के आश्रित होता है अर्थात् व क्रय-लब्धि वाला जीव, वैक्रिय करते समय अपने प्रदेशों को अपने शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण दण्ड निकालता है, और पूर्वबद्ध वैक्रिय शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। - ५ तेजस् समुद्घात-यह तेजोलेश्या निकालने के समय में रहने वाले तेजस् शरीर नामकर्म के आश्रित है । अर्थात् तेजोलेश्या की स्वाभाविक लब्धि वाला कोई साधु आदि सात आठ कदम पीछे हट कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण जीव प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है और प्रभूत तेजस् शरीर नाम कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। . ६ आहारक समुद्घात-आहारक शरीर का आरम्भ करने पर होने वाला समुद्घात, आहारक समुद्घात कहलाता है । वह आहारक नामकर्म को विषय करता है अर्थात् आहारक शरीर की लब्धि वाला आहारक शरीर की इच्छा करता हुआ विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण अपने प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर पूर्वबद्ध आहारक नामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जरा करता है। . ७ केवलिसमुद्घात-अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली भगवान् के समुद्घात को केवलिसमुद्घात कहते हैं। वह वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को विषय करता है। अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले कोई केवली (केवलज्ञानी) भगवान् कर्मों को सम करने के लिए अर्थात् वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति को आयुकर्म For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. २ समुद्घात ४५३ की स्थिति के बराबर करने के लिए समुद्घात करते हैं । केवलिसमुद्घात में आठ समय लगते हैं । प्रथम समय में केवली आत्मप्रदेशों के दण्ड की रचना करता है । वह मोटाई में स्वशरीर परिमाण और लम्बाई में ऊपर और नीचे से लोकान्तपर्यन्त विस्तृत होता है । दूसरे समय में केवली उसी दण्ड को पूर्व और पश्चिम अथवा उत्तर और दक्षिण में फैलाता है। जिससे उस दण्ड का लोक पर्यन्त फैला हुआ कपाट बनता है। तीसरे समय में दक्षिण और उत्तर, अथवा पूर्व और पश्चिम दिशा में लोकान्त पर्यन्त आत्म प्रदेशों को फैला कर उसी कपाट को मथानी रूप बना देता है । ऐसा करने से लोक का अधिकांश भाग आत्मप्रदेशों से व्याप्त हो जाता है, किन्तु मथानी की तरह अन्तराल प्रदेश खाली रहते हैं। चौथे समय में मथानी के अन्तरालों को पूर्ण करता हुआ समस्त लोकाकाश को आत्मप्रदेशों से व्याप्त कर देता है, क्योंकि लोकाकाश और जीव के प्रदेश बराबर हैं। पांचवें, छठे, सातवें और आठवें समय में विपरीत क्रम से आत्मप्रदेशों का संकोच करता है । इस प्रकार नववें समय में सब आत्म-प्रदेश पुनः शरीरस्थ हो जाते हैं। __चार स्थावर, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के प्रथम के तीन समुद्घात होते हैं । वायुकाय और नारकी जीवों के चार समुद्घात होते हैं । देव और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में पांच समुद्घात होते हैं और मनुष्यों में सातों समुद्घात होते हैं । छद्मस्थ मनुष्यों में पहले के छह समुद्घात होते हैं और केवलज्ञानी में एक केवलिसमुद्घात होता ... ॥ दूसरे शतक का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ भगवती सूत्र-श. २ उ. ३ पृथ्वियाँ शतक २ उद्देशक ३ पृथ्वियाँ २१ प्रश्न-कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? २१ उत्तर-जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो णेयवो पुढवी ओगाहित्ता निरया संठाणमेव बाहल्लं, जाव २२ प्रश्न-किं सव्व पाणा उववण्णपुव्वा ? २२ उत्तर-हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो । पुढवी उद्देसो। ॥बिइएसए तइओ उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-णेयव्यो-जानना चाहिए, संठाण-संस्थान, बाहल्लं-मोटाई, उववण्णपुव्वा-पहले उत्पन्न हुए, असई-अनेक बार, अदुवा-अथवा, अर्णतक्खुतो-अनन्तबार । २१ भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! पश्वियां कितनी कही गई हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! जीवाभिगम सूत्र में जो नरयिकों का दूसरा उद्देशक कहा है, उसमें पृथ्वियों सम्बन्धी जो वर्णन आया है, वह यहाँ जान लेना चाहिए। वहां संस्थान, मोटाई आदि का जो वर्णन है, वह सारा यहां कहना चाहिये । यावत् २२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब जीव उत्पन्नपूर्व हैं अर्थात् सब जीव पहले नरकों में उत्पन्न हुए हैं ? । - २२ उत्तर-हाँ, गौतम! सब जीव रत्नप्रभा आदि नरकों में अनेक बार अथवा अनन्तबार पहले उत्पन्न हो चुके हैं। यहाँ जीवाभिगम सूत्र का पृथ्वी उद्देशक कहना चाहिए। विवेचन-दूसरे उद्देशक में 'समुद्घात' का वर्णन करते हुए मारणान्तिक समुद्घात For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ३ पृथ्वियाँ का वर्णन किया गया था। मारणान्तिक समुद्घात द्वारा समवहत कोई जीव, पृथ्बियों (नरकों) में भी उत्पन्न होते हैं, इसलिए इस उद्देशक में पृथ्वियों (नरकों) का वर्णन किया गया है। पथ्वियों के वर्णन के लिए जीवाभिगम सूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे नैरयिक उद्देशक की भलामण दी गई है । वहाँ की संग्रह गाथा यह है पुढवी ओगाहित्ता णिरया, संठाणमेव बाहल्लं । विक्खंभपरिक्खेवो, वण्णो गंधो य फासो य॥ ____ अर्थ-पृथ्वियाँ सात है । यथा-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा (महातमःप्रभा)। 'ओगाहित्ता' का अर्थ है-कितनी दूर जाने पर नरकावास हैं ? रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। उसमें से एक हजार योजन ऊपर छोड़ कर और एक हजार योजन नीचे छोड़ कर बीच के एक लाख अठहत्तर हजार योजन में तीस लाख नरकावास हैं । इसी तरह शर्कराप्रभा आदि में उनके अनुसार समझना चाहिए । शर्कराप्रभा की मोटाई (बाहल्य) एक लाख बत्तीस हजार योजन, वालुकाप्रभा की मोटाई एक लाख अट्ठाईस हजार योजन, पङ्कप्रभा की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन, धूमप्रभा की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन, तमःप्रभा की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन और तमस्तमःप्रभा की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन है। _ 'संठाणं' अर्थात् नरकों का संस्थान । आवलिका प्रविष्ट नरकों का संस्थान गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण होता है । शेष नरकों का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। - 'बाहल्लं' का अर्थ है-बाहल्य । सातों पृथ्वियों में प्रत्येक नरकावास (पाथड़ा) का बाहल्य अर्थात् मोटाई तीन हजार योजन है । नीचे का एक हजार योजन निबिड अर्थात् ठोस है । बीच का एक हजार योजन शुषिर (पोला-खाली) है । ऊपर का एक हजार योजन संकुचित है। _ विक्खंभ-परिक्खेवो' विष्कम्भ और परिक्षेप, ये दोनों कहना चाहिए । नरकावासों में कुछ नरकावास संख्येय विस्तृत है और कुछ असंख्येय विस्तृत हैं। जिनका परिमाण संख्यात योजन है वे संख्येय विस्तृत हैं और जिनका परिमाण असंख्यात योजन है वे असंख्येय विस्तृत हैं । असंख्येय विस्तृतों की लम्बाई चौड़ाई और परिक्षेप (परिधि) असंख्यात हजार योजन है । संख्येय विस्तृतों की लम्बाई चौड़ाई और परिधि संख्यात हजार For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ३ पृथ्वियाँ योजन की है। सातवीं नरक में अप्रतिष्ठान नामक नरकेन्द्रक एक लाख योजन विस्तृत बाकी चार नरकावास असंख्येय योजन विस्तृत हैं । अप्रतिष्ठान नामक संख्येय विस्तृत नरकावास का आयाम विष्कम्भ अर्थात् लम्बाई चौड़ाई एक लाख योजन है । तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल उसकी परिधि है । परिधि का यह परिमाण जम्बूद्वीप की परिधि की तरह गणित के हिसाब से निकलता है । बाकी चारों का आयाम विष्कम्भ ( लम्बाई चौड़ाई) असंख्यात योजन है । ४५६ " वर्ण-नरकावास भयङ्कर रूप वाले होते हैं । अत्यन्त काले काली प्रभा वाले तथा देखने वाले के भय के कारण उत्कट रोमाञ्च वाले होते हैं । प्रत्येक नरकावास का रूप भय उत्पन्न करता है । गन्ध-सांप, गाय, घोड़ा, भैंस आदि के सड़े हुए मृतकलेवर से भी कई गुनी दुर्गन्ध नरकावासों से निकलती है । उनमें कोई भी वस्तु रमणीय और प्रिय नहीं होती । स्पर्श - खड्ग की धार, क्षुरधार, कदम्बचीरिका (एक तरह का घास जो डाभ से भी बहुत तीखा होता है) शक्ति, सूइयों का समूह, बिच्छू का डंक, कपिकच्छू ( खुजली पैदा करने वाली बेल), अंगार, ज्वाला, छाणों की आग आदि से भी अधिक कष्ट देने वाला नरकों का स्पर्श होता है । प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अर्थात् पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस काय, इन सभी कायों के जीव, जो व्यवहार राशि में आ चुके हैं: नरक में पांचस्थावर एवं नैरयिक रूप में अनेकबार एवं अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं । ॥ दूसरे शतक का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. २ उ. ४ इन्द्रियाँ ४५७ शतक २ उद्देशक ४ . इन्द्रियाँ २३ प्रश्न-कइ णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? २३ उत्तर-गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहाः-पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयव्वो, संठाणं बाहलं पोहत्तं, जाव-अलोगो, इंदियउद्देसो। ॥बिइयसए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-पढमिल्लो-प्रथम, पोहत्तं -पृथुत्व-चौड़ाई। भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? . उत्तर-२३ हे गौतम ! इन्द्रियाँ पांच कही गई हैं। यहां पर प्रज्ञापना सूत्र का इन्द्रिय सम्बन्धी पन्द्रहवें पद का प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। उसमें इन्द्रियों का संस्थान, बाहल्य (मोटाई), चौड़ाई यावत् अलोक तक का विवेचन , वाला सम्पूर्ण इन्द्रिय उद्देशक कहना चाहिए। विवेचन-तीसरे उद्देशक में नरयिकों का वर्णन किया गया है । नैरयिकों के पांच इन्द्रियाँ होती हैं । इसलिए इस उद्देशक में इन्द्रियों का वर्णन किया जाता है । इन्द्रियों का वर्णन करने के लिए यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रिय पद के प्रथम उद्देशक की भलामणदी गई है। वहाँ द्वार गाथा यह है-- संठाणं बाहल्लं पोहत्तं कइपएस ओगाढे। अप्पाबहु पुढ-पविट्ठ विसय अणंगार आहारे ।। अर्थ-इन्द्रियों का संस्थान कैसा है ? श्रोतेन्द्रिय का संस्थान कदम्ब के फूल के आकार है । चक्षु इन्द्रिय का संस्थान मसूर की दाल अथवा चन्द्रमा के आकार है । घ्राणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक फूल के समान है । रसनेन्द्रिय का संस्थान उस्तरे (क्षुरप्र) के आकार है । स्पर्शनेन्द्रिय का संस्थान नाना प्रकार का है। बाहल्लं-(बाहल्य)-पांचों इन्द्रियों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग है । For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सुत्र - श. २ उ. ४ इन्द्रियां पोहत्तं (विस्तार - लम्बाई) श्रोतेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, और घ्राणेन्द्रिय की लम्बाई अंगुल के असंख्यातवें भाग है । रसनेन्द्रिय की अपने अंगुल से पृथक्त्व ( दो से नव) अंगुल तक और स्पर्शनेन्द्रिय की लम्बाई अपने अपने शरीर परिमाण है। पांचों इन्द्रियाँ अनन्त प्रदेशों से बनी हुई हैं और असंख्यात प्रदेशावगाढ हैं । चक्षुइन्द्रिय की अवगाहना सब से अल्प है । उससे संख्यातगुणी श्रोत्रेन्द्रिय की अवगाहना है । उससे संख्यातगुणी अवगाहना घ्राणेन्द्रिय की है । उससे असंख्यातगुणी अवगाहना रसनेन्द्रिय की है उससे संख्यातगुणी अवगाहना स्पर्शनेन्द्रिय की हैं । चक्षुइन्द्रिय को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियां स्पृष्ट और प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं अर्थात् चक्षुइन्द्रिय अप्राप्यकारी है और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। विषय - चारों इन्द्रियों का विषय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग है और चक्षुइन्द्रिय का विषय जघन्य अंगुल से संख्यातवें भाग हैं । उत्कृष्ट विषय ग्रहण इस प्रकार हैंश्रोत्रेन्द्रिय का बारह योजन, चक्षुइन्द्रिय का साधिक एक लाख योजन, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय नव नव योजन है । अर्थात् इतनी दूरी पर रहे हुए अपने अपने विषय को ये इन्द्रियाँ ग्रहण कर लेती हैं । इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रिय पद में बहुत विस्तार के साथ: वर्णन किया गया है । वह सब वहाँ से जानलेना चाहिए, यावत् अलोक तक का वर्णन जान लेना चाहिए । ॥ दूसरे शतक का चौथा उद्देशक समाप्त ॥ ४५८ 70 For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ ५ परिचारणा शतक २ उद्देशक ५ परिचारणा २४ प्रश्न - अण्णउत्थिया णं भंते! एवं आइक्वंति भासंति पण्णवेंति परूवेंति, तं जहा - एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवभूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ णो अण्णे देवे, णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेहः णो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय, अभिजुंजिय परियारेs, अप्पणामेव अप्पाणं विउब्विय विउब्विय परियारे । एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदं वेदेह, तं जहा - इत्थिवेदं पुरिसवेदं च एवं परउत्थियवत्तव्वया नेयव्वा, जाव - इत्थिवेदं च पुरिसवेदं च से कहमेयं भंते! एवं ? २४ उत्तर - गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवं आइस्खंति जाव - इत्थिवेदं च पुरिसवेदं च । जे ते एवं आहिंसु मिच्छं ते एवं आहिंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि भासामि पण्णवेमि परूवेमि एवं खलु नियंठे कालगए समाणे अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ता ववत्तारो भवंति, महढिएस जाव महाणुभागेसु, दूरगतीसु चिरद्वितीए से णं तत्थ देवे भवइ महड्दिए, जाव- दस दिसाओ उज्जो वेमाणे पभासेमाणे जाव पडिरूवे । से णं तत्थ अण्णे देवे, अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय, अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणिचियाओ ४५९ For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ परिचारणा देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ; नो अप्पणामेव अप्पाणं विउब्विय विउब्विय परियारेइ, एगे विश्य णं जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेएइ, तं जहाः- इत्थिवेयं वा पुरिसवेयं वा, जं समयं इत्थवेयं वेएइ णो तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, जं समयं पुरिसवेयं वेएइ णो तं समयं इत्थिवेयं वेएइ, इत्थिवेयस्स उदपणं नो पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स उदरणं नो इत्थिवेयं वेएइ, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेएइ, तं जहाः - इत्थीवेयं वा पुरिसवेयं वा । इत्थि, इत्थवेएणं उदिष्णेणं पुरिसं पत्थे, पुरिसो, पुरिसवेएणं उद इत्थ पत्थे, दो वि ते अण्णमण्णं पत्येति, तं जहा:इत्थी वा पुरिसं, पुरिसे वा इत्थि । विशेष शब्दों के अर्थ - नियंठे - निग्रंथ, परियारेइ-परिचारणा करता है-विषय सेवन करता है, अप्पणिच्चियाओ - अपनी खुद की । अभिजुंजिय- वश करके, दूरगतिसु-दूरजाने की शक्ति, उदिष्णेणं - उदय होने पर, पत्येइ - प्रार्थना करता है - चाहता है । भावार्थ - २४ प्रश्न - हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते है, प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ ( मुनि) मर कर देव होता है । वह देब दूसरे देवों के साथ और दूसरे देवों की देवियों के साथ परिचारणा ( विषयसेवन ) नहीं करता । इसी प्रकार वह अपनी देवियों को भी वश करके उनके साथ भी परिवारणा नहीं करता है, किन्तु वह देव, वैक्रिय से अपने ही दो रूप बनाता है, जिसमें एक रूप देव का बनाता है और एक रूप देवी का बनाता है । इस प्रकार दो रूप बना कर वह देव, उस वैक्रिय-कृत (कृत्रिम) देवी के साथ परिचारणा करता है । इस प्रकार एक जीव, एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दो वेदों का अनुभव करता है। हे भगवन् !. For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ परिचारणा ४६१ www awww wwwwwwwwwwwwwww क्या यह अन्यतीथिकों का कथन सत्य है । २४ उत्तर--हे गौतम ! अन्यतीथिकों का उपर्युक्त कथन (कि एक ही जीव, एक समय में दो वेदों का अनुभव करता है) मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बतलाता हूँ, प्ररूपणा करता हूँ कि कोई एक निर्ग्रन्थ जो मर कर किसी देवलोक में जो कि महा ऋद्धि युक्त यावत् महाप्रभाव युक्त, दूर जाने की शक्ति युक्त, और लम्बी आयुष्य युक्त होते हैं, उनमें से किसी एक देवलोक में महा ऋद्धि युक्त, दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला, अति रूप सम्पन्न, देव होता है । वह देव, दूसरे देवों के साथ में और दूसरे देवों की देवियों के साथ में, उनको अपने वश में करके परिचारणा (विषय सेवन) करता है और इसी प्रकार अपनी देवियों को भी वश में करके उनके साथ परिचारणा करता है। परन्तु स्वयं दो रूप बना कर परिचारणा नहीं करता है, क्योंकि एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद का ही अनुभव करता है। जिस समय स्त्रीवेद को वेवता (अनुभव करता) है, उस समय पुरुषवेद को नहीं वेदता है और जिस समय पुरुषवेद को वेदता है, उस समय स्त्रीवेद को नहीं वेदता है। क्योंकि स्त्रीवेद के उदय से पुरुषवेद को नहीं वेदता और पुरुषवेद के उदय से स्त्रीवेद को नहीं वेदता है । इसलिए एक जीव, एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन दोनों वेदों में से किसी एक ही वेद को वेदता है। जब स्त्रीवेद का उदय होता है तब स्त्री, पुरुष की इच्छा करती है और जब पुरुषवेद का उदय होता है, तब पुरुष, स्त्री की इच्छा करता है अर्थात् अपने अपने वेद के उदय से पुरुष और स्त्री परस्पर एक दूसरे की इच्छा करता है। स्त्री, पुरुष की इच्छा करती है और पुरुष, स्त्री को इच्छा करता है। विवेचन-चौथे उद्देशक में इन्द्रियों का कथन किया गया है । इन्द्रियों के होने पर परिचारणा (विषय सेवन) हो सकती है। इसलिए इस उद्देशक में परिचारणा का वर्णन किया गया है। पहले अन्यतीथिकों की मान्यता का वर्णन किया गया है। अन्यतीथिकों की मान्यता है कि-जो निग्रन्थ आदि मर कर देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है वह For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गर्भ विचार वैक्रिय करके दो रूप बनाता है-एक देवी का और एक देव का । फिर वे दोनों रूप परस्पर परिचारणा करते हैं । इस प्रकार एक जीव, एक ही समय में दो वेद का अनुभव करता है। ___ भगवान् फरमाते है कि अन्यतीथिकों की उपर्युक्त मान्यता मिथ्या है, क्योंकि एक जीव एक समय में एक ही वेद का अनुभव कर सकता है, दो वेद का अनुभव नहीं कर सकता है । पुरुषवेद और स्त्रीवेद, ये दोनों एक ही समय में उदय में नहीं आ सकते है। क्योंकि ये दोनों वेद परस्पर विरुद्ध हैं । जो दो वस्तुएँ परस्पर निरपेक्ष, विरुद्ध होती हैं, वे एक ही समय में एक स्थान पर नहीं रह सकती हैं, जैसे-अन्धेरा और प्रकाश । इसी तरह स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। अतः ये दोनों एक समय में, एक साथ नहीं वेदे जाते हैं। ___ गर्भ विचार २५ प्रश्न-उदगगम्भे णं भंते ! उदगगन्भे त्ति कालओ केव- . चिरं होइ ? . २५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा। २६ प्रश्न-तिरिक्खजोणियगब्भे णं भंते ! तिरिक्खजोणियगब्भे त्ति कालओ केवच्चिर होइ ? २६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराई। २७ प्रश्न-मणुस्सीगन्भे णं भंते ! मणुस्सीगन्भे ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? २७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं बारस संवच्छराई। . २८ प्रश्न कायभवत्थे णं भंते ! कायभवत्थे ति कालओ केव For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ गर्भ विचार च्चिरं होइ ? २८ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउव्वीसं संवच्छराई । ४६३ २९ प्रश्न - मणुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते ! जोणियन्भूए केवतियं कालं संचिट्ठइ ? २९ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उनकोसेणं बारस मुहुत्ता । विशेष शब्दों के अर्थ - उदगगब्भे-पानी का गर्भ, केवच्चिरं - कितने समय तक, संवच्छराई - वर्ष, काय प्रवत्थे - काय भवस्थ-उसी माता के गर्भ में ही रहना, जोणियम्भूएयोनिभूत । भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! उदकगर्भ ( पानी का गर्भ ) कितने समय तक उदकगर्भरूप में रहता है ? २५ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक उदकगर्भ, उदकगर्भरूप में रहता है । २६ प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यग्योनि- गर्भ कितने समय तक 'तिर्यग्योनिगर्भ रूप में रहता है ? २६ उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आठ वर्ष तक तिर्यग्योनि- गर्भ, तिर्यग्योनिगर्भरूप में रहता है । २७ प्रश्न - हे भगवन् ! मानुषी - गर्भ, कितने समय तक मानुषी - गर्भरूप में रहता है ? २७ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक मानुषीगर्भ, मानुषीगर्भरूप में रहता है । २८ प्रश्न - हे भगवन ! कायभवस्थ, कितने समय तक कायभवस्थ रूप में रहता है ? For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गर्भ विचार २८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक कायमवस्थ, कायमवस्थ रूप में रहता हैं। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! मानुषी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चनी सम्बन्धी योनिगत बीज (वीर्य) कितने समय तक योनिभूत रूप में रहता है ? २९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक 'योनिभूत' रूप में रहता है। विवेचन-पहले परिचारणा का वर्णन किया गया है । परिचारणा से गर्भाधान होता है, इसलिए अब गर्भ के सम्बन्ध में कहा जाता है । कालान्तर में पानी बरसने के कारण रूप पुद्गल परिणाम को 'उदक गर्भ' कहते हैं। उनकी स्थिति (अवस्थाम) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक होती है अर्थात् वह जघन्य एक समय बाद बरस जाता है और उत्कृष्ट छह महीने बाद बरसता है-मार्गशीर्ष और पौष से लेकर वैशाख तक के महीनों में दिखाई देने वाला सन्ध्या का रंग और मेघ का उत्पाद आदि 'उदक-गर्भ' के निशान (चिन्ह) हैं । जैसा कि कहा पौषे समार्गशीर्षे, सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । नात्यर्थ मार्गशिरे शीतं पौषेऽतिहिमपातः॥ अर्थ-मार्गशीर्ष (अगहन ) और पौष महीने में सन्ध्या का रंग हो और कुण्डाला युक्त मेघ हो, और इस महीने में ठण्ड न पड़े और पौष महीने में बर्फ बहुत पड़े, ये सब उदकगर्भ के निशान हैं। कायभवस्थ-उसी माता के उदर में रहना 'काय' कहा गया है। उसमें उत्पन्न होना 'काय भव' कहलाता है। उसी में जो फिर जन्म ले उसको 'काय भवस्थ' कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि-उसी माता के पेट में रह कर फिर से उसी में उत्पन्न होना 'कायभवस्थ' कहलाता है । जैसे कि-कोई जीव, माता के उदर में गर्भ रूप से आया । फिर वह जीव, उसी माता के उदर में बारह वर्ष तक रह कर वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जाय, फिर उसी माता के शरीर में नये शुक्रशोणित से उत्पन्न होकर फिर बारह वर्ष तक रहे । इस तरह एक जीव उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक 'काय भवस्थ' रूप में रह सकता है। गर्भज जीव शुक्र शोणित से ही पैदा होते है। इसलिए 'काय भवस्थ' जीव भी शुक्र शोणित से ही पैदा होता है । शुक्र शोणित से पैदा होने वाला अपने पूर्व मृत शरीर में For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गर्भ विचार-पिता, पुत्र ४६५ पैदा नहीं हो सकता । वह तो नया शुक शोणित ग्रहण करके नये शरीर का ही निर्माण करता है । अतः 'कायभवस्थ' का अर्थ 'उसी माता का गर्भ' करना संगत लगता है। - मनुष्य और तिर्यञ्च का वीर्य बारह मुहूर्त तक योनिभूत गिना जाता है अर्थात् मानुषी या पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चणी की योनि में गया हुआ वीर्य बारह मुहूर्त तक सचित्त रहता है । उस वीर्य में बारह मुहूर्त तक सन्तानोत्पादक शक्ति रहती हैं । ३० प्रश्न-एगजीवे णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तताए हव्वमागच्छइ ? ___३० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं इक्कस्स वा दोण्हं वा तिण्हं वा उक्कोसेणं सयपुहुत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ । ३१ प्रश्न-एगजीवस्स णं भंते ! एगजीवभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ? ३१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हन्वमागच्छंति । ..३२ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जाव-हव्वमागच्छंति ? ३२ उत्तर-गोयमा ! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुष्पजइ । ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, संचिणित्ता तत्थ णं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति, से तेणटेणं जावहव्वमागच्छंति। - ३३ प्रश्न-मेहुणेणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कजइ ? .. For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ पितापुत्र ३३ उत्तर - गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणरणं समविधं तेज्जा, एरिस एणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरह । ४६६ विशेष शब्दों के अर्थ – सयपुहुत्तस्स - शतपृथक्त्व - दो सौ से लेकर नौ सौ तक, सयसहस्सपुहुत्तं - शतसहस्रपृथक्त्व = दो लाख से लेकर नौ लाख तक, कम्मकडाए— कामोतेजित, मेहुणवत्तिए - मैथुनवृत्तिक, संजोए - संयोग, संचिर्णति-संबंध करते हैं, रूयणालयं - रूई की नलिका, बूरणालियं - बूर - एक प्रकार की वनस्पति की नलिका, तसेणंगर्म, कणणं - सलाई, समविद्धंसेज्जा - विध्वंस हो जाता है । ३० प्रश्न - हे भगवन् ! एक जीव, एक भव में कितने जीवों का पुत्र हो सकता है ? ३० उत्तर - हे गौतम ! एक जीव, एक भव में जघन्य एक जीव का, या दो जीव का, अथवा तीन जीव का और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व ( दो सौ से लेकर नौ सौ तक) जीवों का पुत्र हो सकता है । ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! एक भव में एक जीव के कितने पुत्र हो सकते हैं ? ३१ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्ट लक्ष पृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक ) पुत्र हो सकते हैं । ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३२ उत्तर - हे गौतम ! स्त्री और पुरुष की कर्मकृत ( कामोत्तेजित ) योनि में 'मैथुनवृत्तिक' नाम का संयोग उत्पन्न होता है। जिससे पुरुष का वीर्य और स्त्री का रक्त, इन दोनों का सम्बन्ध होता है । उसमें जघन्य एक, या दो या तीन और उत्कृष्ट लक्ष पृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव, पुत्र रूप में उत्पन्न होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ मैथुन में जीव हिंसा ४६७ ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! मैथुन सेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? __३३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष, तपी हुई सलाई डाल कर, रुई को नली या बूर नामक वनस्पति को नली को जला डालता है, उस तरह का असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, यह. इसी प्रकार है, ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-गाय आदि की योनि में गया हुआ-शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ तक.) बैलों का वीर्य, वहीं वीर्य गिना जाता है। उस वीर्य के समुदाय में उत्पन्न हुआ एक जीव, उन सब का (जिनका कि वीर्य योनि में गया है) पुत्र कहलाता है । इस प्रकार एक जीव, एक ही भव में उत्कृष्ट नौ सौ जीवों का पुत्र हो सकता है अर्थात् एक ही भव में एक जीव के उत्कृष्ट नौ सौ पिता हो सकते हैं। : मत्स्य आदि जब मैथुन सेवन करते हैं, तब उनके एक बार के संयोग में शतसहस्रपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्र रूप से उत्पन्न होते है और जन्म लेते हैं। इस प्रकार एक ही भव में एक जीव के उत्कृष्ट शतसहस्रपृथक्त्व पुत्र हो सकते हैं। मनुष्यस्त्री की योनि में यद्यपि बहुत जीव उत्पन्न होते हैं, तथापि जितने उत्पन्न होते हैं वे सब के सब निष्पन्न नहीं होते हैं अर्थात् जन्म नहीं लेते हैं । कर्मकृत योनि में अर्थात् नामकर्म से बनी हुई योनि में अथवा जिसमें कामोत्तेजक क्रिया हुई है, उस. योनि में मैथुनवृत्तिक (मैथुन की वृत्ति वाला) अथवा मैथुनप्रत्ययिक (मैथुन का हेतु रूप) संयोग (सम्बन्ध) होता है, तब स्त्री की योनि में पुरुष का वीर्य और स्त्री का रुधिर, इन दोनों का सम्मिश्रण होता है और उसी में जीव की उत्पत्ति होती है। मैथुन में किस प्रकार का असंयम होता है ? इस बात को बतलाते हुए कहा गयां है कि-जैसे किसी बांस आदि की नली में रूई या बूर (रूई से भी अधिक कोमल एक प्रकार की वनस्पति) भरा हुआ हो, उसमें कोई पुरुष, तपी हुई लोह की सलाई डाले, तो उस नली में रही हुई रूई या बूर, जल कर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार मैथुन सेवन करते हुए पुरुष के मेहन (लिंग-पुरुष चिन्ह) द्वारा स्त्री की योनि में रहे हुए जीवों का नाश हो जाता है । वे जीव पञ्चेन्द्रिय होते हैं । उनका विनाश हो जाता है। मैथुन सेवन करने से इस प्रकार का असंयम होता है। For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों का वर्णन तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोत्तर ३४ - तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेहयाओ पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । ते णं काले णं, ते णं समए णं, तुंगिया नामं नगरी होत्या, वण्णओ । तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेहए होत्था, वण्णओ । तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति, अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवण-सयणाऽसण- जाण - वाहणाइण्णा, बहुधण- बहुजायरूवरयया, आयोग-पयोगसंपउत्ता, विच्छड्डियविपुलभत्तपाणा, बहुदासी दास-गो-महिस- गवेलयप्पभूया, बहुजणस्स अपरिभूया । ४६८ विशेष शब्दों के अर्थ - अड्डा - आढय-बहुत धनयुक्त, दित्ता - देदीप्यमान, वित्थिष्णविस्तीर्ण, आइण्णा-आकीर्ण युक्त, बहुजायरूवरयया - बहुतसा सोना चांदी, आयोगपयोगसंपउत्ता - आयोग प्रयोग सम्प्रयुक्त अर्थात् ब्याज आदि का व्यवसाय करके दुगुना तिगुना धनोपार्जन करने तथा अन्य कला हुनर में कुशल, विच्छड्डियविपुल- बहुत छोड़ा हुआ, गवेल - भेड़ बकरी, प्पभूया - बहुत, अपरिभूया - जिसे कोई नहीं डिगा सके । भावार्थ - ३४ इसके बाद किसी एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशीलक बगीचे से निकल कर बाहर जनपद में विचरने लगे । उस काल उस समय में तुंगिया ( तुंगिका) * नाम की नगरी थी । * बनारस (काशी) से ८० कोस दूर पाटलीपुर (पटना) शहर है। वहां से दस कोस दूर लुंगिया नाम की नगरी है : (श्री समेतशिखर रास ) । For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों का वर्णन ४६९ उसका वर्णन करना चाहिए । तुंगिया नगरी के बाहर उत्तर और पूर्व दिशा में अर्थात् ईशानकोण में पुष्पवती नाम का बगीचा था। उसका वर्णन करना चाहिए। उस तुंगिया नगरी में बहुत-से श्रमणोपासक (श्रावक) रहते थे। वे श्रमणोपासक आढय (विशाल सम्पत्ति वाले) और दीप्त (देदीप्यमान)थे । उनके रहने के घर विशाल और बहुत ऊंचे थे। उनके पास शयन (पथरणा) आसन, गाडी, बैल आदि बहुत थे। उनके पास धन, सोना चांदी आदि बहुत था। वे आयोग प्रयोग द्वारा अर्थात् ब्याज आदि के व्यवसाय द्वारा दुगुना तिगुना धनोपार्जन करने की कला में तथा अन्य कलाओं में कुशल थे। उनके घर अनेक जन भोजन करते थे, इसलिए उनके घर बहुत खानपान तैयार होता था। उनके घर अनेक दास दासी तथा गाय, भैंस, भेड़, बकरियां आदि थे। वे बहुत जन के भी अपरिभूत थे अर्थात् कोई भी उनका पराभव नहीं कर सकता था। विवेचन-तिर्यञ्च और मनुष्य की उत्पत्ति के. सम्बन्ध में पहले विचार किया गया था। अब देवोत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार किया जा रहा है । जिसमें पहले तुंगिया नगरी के श्रावकों का वर्णन चलता है । तुंगिया नगरी के श्रावकों के लिए मूलपाठ में जो विशेषण दिये गये हैं, उनका विस्तृत अर्थ इस प्रकार है 'अड्ढे'-आढय अर्थात् धन धान्य आदि से परिपूर्ण । 'दित्ते'-दीप्त अर्थात् प्रख्यात अथवा दृप्त अर्थात् गर्वित । . . 'वित्थिण्ण विपुलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णा'-जिनके विशाल और ऊंचे घर हैं, वे घर, शयन (बिस्तर गादी आदि) आसन, यान-गाड़ी आदि, वाहन-बैल, घोडे. आदि से भरे हुए थे (अथवा जिनके घर विशाल और ऊंचे थे तथा जिनके शयन, आसन, यान और वाहन सुन्दर थे।) - 'बहुधण बहुजायस्वरयया'-अर्थात् जिनके पास बहुत धन, बहुत सोना और चांदी थी। .... आओगपओगसंपउत्ता' आयोग प्रयोग संप्रयुक्त अर्थात् दुगुना तिगुना करने के उद्देश्य से रुपया देना 'आयोग' कहलाता है और किसी प्रकार की कला-हुनर 'प्रयोग' कहलाता है। इन दोनों प्रकार के व्यवसाय में वे चतुर थे। - 'विच्छड्डियविपुलभत्तपाणा'-अर्थात् उनके घर बहुत से मनुष्य भोजन करते थे, For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ ५ तुंगिका के श्रावकों का वर्णन इसलिए झूठन बहुत पड़ता था । अथवा उनके घर विविध प्रकार का और बहुत अशन पान तैयार होता था । ४७० 'बहुदासीदास गो-महिस-गवेलयप्पभूया' अर्थात् उनके यहां बहुत से दास दासी रहते थे तथा बहुतसी गायें, भैसें भेड़ और बकरियाँ आदि पालतू जानवर थे । 'बहुजणस्स अपरिभूया' - बहुजन मिलकर भी उनका पराभव नहीं कर सकते थे 1 अभिगयजीवा ऽजीवा, उवलद्वपुण्ण- पावा आसव-संवर निज्जरकिरिया ऽहिकरण-बंध मोक्खकुसला, असहेज्जदेवाऽसुरनाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरुस - गरुल- गंधव्व-महोरगाई एहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिकमणिजा, णिग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया निव्वितिमिच्छा, लट्टा गहियट्टा पुच्छि या अभिगड्डा विणिच्छियट्ठा, अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ता, 'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे, अयं परमट्ठे, सेसे अणट्टे' ऊसियफलिहा,. अवंगुयदुवारा, चियत्तंते उरघरप्पवेसा, बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमणपञ्चक्खाण-पोसहोववासेहिं, चाउदस- ट्ठमुद्दिट्ठ- पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासु- एसंणिजेणं असणपाण- खाइम साइमेणं वत्थ-पडिग्गह- कंबल-पायपुंछणेणं पीढ-फलगसेजा-संथारएणं ओसह-भेसज्जेणं पडिला भेमाणा अहापडिग्गहिएहिं कम्मे अप्पा भावेमाणा विहरंति । · - विशेष शब्दों के अर्थ- अभिगयजीवाजीथा – जिन्होंने जीव अजीव को समझ लिया, For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों का वर्णन ४७१ उवलद्धपुण्णपावा-पुण्य और पाप के स्वरूप को प्राप्त कर लिया, आसव-कर्म आने का मार्ग, संवर-कर्म रोकना, निज्जर-कर्म झाड़ना, किरिया-जो की जाती है, अहिकरण-अधिकरण = क्रिया का साधन, बंध-कर्म का आत्मा के साथ बँधना, मोक्ख-मोक्ष = कर्मों से मुक्त होना, कुसला-निपुण, असहेज्जदेव-देवों को भी सहायता नहीं चाहने वाले, अणतिक्कमणिज्जा -उल्लंघन न करने वाले, निस्संकिया-शंका रहित, निक्कंखिया-पर दर्शन की इच्छा रहित, निवितिगिच्छा-फल की शंका से रहित, लट्ठा-लब्धार्थ = तत्त्वार्थ को प्राप्त करने वाले, गहियट्ठा-प्रहितार्थ = सूत्रार्य को ग्रहण किये हुए, पुच्छियट्ठा-पृष्टार्थ = प्रश्न पूछकर सूत्रार्थ प्राप्त किये हुए, अभिगयट्ठा-विशेष प्रकार से अर्थ ग्रहण किये हुए, विणिच्छियट्ठा-रहस्य प्राप्त करके अर्थ का निश्चय किया, अद्विमिजपेमाणुरागरता-उनकी हड्डियाँ और मज्जा धर्म प्रेम से रंगी हुई, ऊसियफलिहा-जिनके किंवाड़ के पीछे की आगल ऊंची की हुई है, अवंगुयदुवारा-जिनके दरवाजे पर किंवाड़ नहीं लगे हुए हैं, चियत्तंतेउरघरप्पवेसा-अन्तःपुर और परघर में प्रवेश करने से जिनके प्रति लोगों को अप्रीति उत्पन्न नहीं होती, वेरमण -निवृत्त होना, पच्चक्खाण-त्याग की प्रतिज्ञा, फासु-निर्जीव, एसणिज्ज-निर्दोष, चाउद्दसद्वमुट्ठिपुण्णमासिणीसु-चवदस, अष्टमी, उद्दिट्ट अर्थात् अमावस्या और पूर्णमासी के दिनों में, अहापडिग्गहिएहि-यथाप्रतिगृहीत = ग्रहण किये अनुसार । भावार्थ-वे जीव और अजीव के स्वरूप को भली प्रकार से जानते थे । पुण्य पाप के विषय में उनका पूरा ध्यान था। आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में वे कुशल थे अर्थात् इनमें कौन हेय है और कौन उपादेय है, इस बात को वे भली प्रकार जानते थे। वे किसी भी कार्य में दूसरों की सहायता की आशा नहीं रखते थे। वे निर्ग्रन्थ प्रवचनों में ऐसे दृढ़ थे कि देव, असुर, नाग, ज्योतिष्क, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड (सुवर्णकुमार), गन्धर्व, महोरग आदि कोई भी देव, दानव उन्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन से डिगाने में समर्थ नहीं थे। उन्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचनों में किसी भी प्रकार की शंका, कांक्षा, विचिकित्सा नहीं थी। उन्होंने निर्ग्रन्थ प्रवचनों का अर्थ भली प्रकार जाना था । शास्त्रों के अर्थ को भली प्रकार ग्रहण किया था। शास्त्रों के अर्थों में जहाँ सन्देह था उनको पूछ कर अच्छी तरह निर्णय किया था। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों को और उनके रहस्यों को निर्णयपूर्वक जाना था। निम्रन्य. For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२. भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों का वर्णन प्रवचनों पर उनका प्रेम हाडोहाड ( हड्डी और हड्डी की मज्जा में ) व्याप्त हो गया था। इसीलिए वे कहते थे कि-हे आयुष्यमन् बन्धुओं ! "यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ है । यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ है।" वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला (आगल-भोगल) हमेशा ऊंची रहती थी। उनके दरवाजे हर एक याचक के लिए सदा खुले रहते थे। वे शीलवत (ब्रह्मचर्यव्रत) में ऐसे दृढ़ थे कि वे पर घर में प्रवेश करते और यहाँ तक कि राजा के अन्तःपुर में भी चले जाते, तो भी किसी को अप्रीति एवं अविश्वास उत्पन्न नहीं होता था। वे शीलवत, गुणवत, विरमण व्रत और प्रत्याख्यानों का पालन करते थे। चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा, इस प्रकार एक मास में वे छह पौषधोपवास करते थे। वे श्रमण निग्रन्थों को उनके कल्पानुसार प्रासुक एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज, आदि का दान देते थे। यथा प्रतिगृहीत-अपनी शक्ति अनुसार ग्रहण किये हुए तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। विवेचन-'अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, आसव-संवर-णिज्जर-किरियाअहिकरण-बंध-मोक्ख-कुसला' अर्थात् वे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, कायिकी आदि क्रिया, अधिकरण अर्थात् गाड़ी यन्त्र आदि, शस्त्र, बन्ध और मोक्ष, इनके स्वरूप को भली प्रकार जानते थे तथा इनमें से कौन हेय (छोड़ने योग्य) और कौन उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है ? इस बात को वे भली प्रकार जानते थे । . 'असहेज्ज देवा' इत्यादि, अर्थात् वे स्वयं बलवान् होने से दूसरों की सहायता नहीं लेते थे । 'स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यम्' अर्थात् स्वयं का किया हुआ कर्म स्वयं को ही भोगना पड़ता है-ऐसी दृढ़ मनोवृत्ति रख कर दुःख के प्रसंग पर भी वे देवादि की सहायता नहीं लेते थे अथवा वे अपनी प्रतिज्ञा पर ऐसे दृढ़ थे कि देवादि भी उनको अपनी प्रतिज्ञा से चलित नहीं कर सकते थे । अथवा पाखण्डी लोग उन्हें समकित से चलित करने के लिए उन पर आक्रमण करते थे, किन्तु वे निर्ग्रन्थ प्रवचनों में अत्यन्त चुस्त होने के कारण वे पाखण्डियों को परास्त करने में स्वयं समर्थ थे। इस विषय में वे किसी की सहायता नहीं लेते थे । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव भी उनको निम्रन्थ प्रवचनों For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ पापित्य स्थविर भगवान् ४७३ से चलित करने में समर्थ नहीं थे। निर्ग्रन्थ प्रवचनों का अर्थ सुनने के कारण वे 'लब्धार्थ' थे । अर्थ का निर्णय करने से वे 'गृहीतार्थ' थे । सन्देह वाले स्थलों को पूछ कर निर्णय कर लेने के कारण वे 'पृष्टार्थ' थे। पूछे हुए अर्थों को सम्यक् प्रकार से धारण करने से वे 'अभिगृहीतार्थ' थे। शास्त्रों के रहस्यों को जानकर वे 'विनिश्चितार्थ' थे । ऐसा होने से उनकी हड्डी और मज्जा सर्वज्ञ के विश्वास रूपी कसुंबा रग से रंगी हुई थीं। इसीलिए वे कहते थे कि- "हे आयुष्मन् जीवों ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है, यही परमार्थ है । इसके सिवाय शेष सब (धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, भाई बन्धु और कुप्रावचन) अनर्थ हैं ।" जिनधर्म की प्राप्ति से उनका मन परितुष्ट था, अतएव उनका मन स्फटिक रत्न के समान उन्नत था। अथवा 'उसियफलिहा' का अर्थ अन्य आचार्य इस प्रकार करते हैं कि-वे अत्यन्त उदार थे, इसलिए सभी याचकों के लिए उनके द्वार खुले रहते थे। किंवाड़. के पीछे की अर्गला सदा ऊपर की तरफ उठी हुई रहती थी, कभी दरवाजा बन्द नहीं रहता था। जिनके घर के दरवाजे किंवाड़ों से बन्द नहीं किये जाते थे। उन्हें सर्वोत्तम जिनधर्म की प्राप्ति हुई थी, इसलिए वे पाखण्डियों से कभी भी घबराते नहीं थे । वे ब्रह्मचर्य व्रत में इतने दृढ़ थे कि वे किसी के घर में जाते या यहां तक कि राजा के अन्तःपुर में भी चले जाते तो भी अप्रीति उत्पन्न नहीं होती थी। किसी को अविश्वास उत्पन्न नहीं होता था। अथवा जिन्होंने पर घर में और राजा के अन्तःपुर में जाने का त्याग कर दिया था। वे श्रावक के बारह व्रतों का भली प्रकार पालन करते थे। एक महीने में छह पौषधोपवास करते थे। श्रमण निर्ग्रन्थों को उनके कल्पानुसार प्रासुक एषणीय अशन पान आदि बहराते थे । वे जो व्रत नियम और तप स्वीकार करते थे उनमें किसी प्रकार की कमी न करते हुए पूर्ण रूप से पालन करते थे। ते णं काले णं ते णं समए णं पासावचिजा थेरा भगवंतो जाइ. सम्पन्ना कुलसम्पन्ना बलसम्पन्ना रूवसम्पन्ना विणयसम्पन्ना णाणसम्पन्ना दंसणसम्पन्ना चरित्तसम्पन्ना लजासम्पन्ना लाघवसम्पन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोहा जिय For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ४७४ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ पावपित्य स्थविरों की आत्मऋद्धि निदा जिइंदिया जियपरीसहा जीवियासा-मरणभयविप्पमुक्का, जावकुत्तियावणभूया, बहुस्सुया बहुपरिवारा, पंचहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडा अहाणुपुट्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइजमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नगरी जेणेव पुप्फवईए चेइए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति । विशेष शब्दों के अर्थ-पासावच्चिज्जा--पाश्र्वापत्य = भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिये, ओयंसी-ओजस्वी, वच्चंसी-वर्चस्वी = प्रतापी, जसंसी-यशस्वी, जिअजीत लिया, दूइज्जमाणा-जाते हुए, उग्गहं उग्गिहित्ता-अवग्रह ग्रहण करके । । भावार्थ-उस काल उस समय में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवान् अनुक्रम से विचरते हुए प्रामानुग्राम जाते हुए पांच सौ साधुओं के साथ तुंगिया नगरी के बाहर ईशान कोण में स्थित पुष्पवती उद्यान में पधारे और यथाप्रतिरूप अवग्रह को लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते. हए विचरने लगे। वे स्थविर भगवन्त जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, नम्रतायुक्त, ओजस्वी, तेजस्वी, प्रतापी और यशस्वी थे। उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रा, इन्द्रियाँ और परीषहों को जीत लिया था। वे जीवन की. आशा और मरण के भय से रहित थे यावत वे कुत्रिकापणभत थे अर्थात् जैसे-कुत्रिकापण में जो चाहिए वह वस्तु मिल सकती है, उसी प्रकार उनसे भी जैसा चाहिए वैसा बोध मिल सकता एवं उनमें सब गुण मिल सकते थे । वे बहुश्रुत और बहु परिवार वाले थे। विवेचन-यहाँ 'स्थविर' शब्द से श्रुतवृद्ध-ज्ञानवृद्ध का ग्रहण किया गया है । 'रूपसम्पन्न' का मतलब है-उत्तम साधुवेष से युक्त अथवा शरीर की सुन्दरता से युक्त । लज्जा For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ स्थविरों के पधारने के समाचार सम्पन्न का अर्थ हैं - लज्जायुक्त अथवा संयम युक्त । लाघवसम्पन्न अर्थात् द्रव्य से थोड़ी उपधि रखने वाले और भाव से अभिमान का त्याग करने वाले । ओजस्वी - दृढमनोवृत्ति वाले । तेजस्वी-तेज वाले-शरीर की प्रभा वाले । वर्चस्वी - विशिष्ट प्रभाव से युक्त अथवा जीवन वचस्वी - प्रभाव युक्त वचन वाले प्रभावशाली वक्ता । यशस्वी - ख्याति वाले । की आशा से रहित और मरण के भय से रहित थे । वे तपस्वी थे, गुणवन्त - संयम सम्बन्धी गुणयुक् । वे पिण्डविशुद्धि आदि चरणसत्तरि और श्रमण धर्म आदि करणसत्तरि गुणों से युक्त थे । वे इन्द्रियों का निग्रह करने वाले और दृढ़ मनोवृत्ति वाले थे । वे मार्दव - मृदुता ( कोमलता) और आर्जव - ऋजुता ( सरलता ) से युक्त थे । वे उदय में आई हुई कषाय को निष्फल बनाने वाले थे और नवीन कषाय का उदय ही नहीं होने देते थे । वे क्षमा और त्याग के गुणों से युक्त थे । वे अपनी तप संयमादि क्रिया के फल का निदान नहीं करने वाले थे । वे धीर और साधुवृत्ति में लीन थे । उनके प्रश्नोत्तर साधु मर्यादा के अनुसार निर्दूषण होते थे । वे कुत्रिकापणभूत थे । स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताल लोक, इन तीनों लोकों में होने वाली वस्तु जिस दूकान में मिले उसे कुत्रिकापण कहते हैं। इसी प्रकार वे स्थविर भी सर्व गुण सम्पन्न थे, सब प्रकार का बोध देने में समर्थ थे, इसीलिए उनको कुत्रिकापण की उपमा दी गई है । इत्यादि अनेक गुणों से युक्त स्थविर भगवन्त वहाँ पधारें । ४७५ तणं तुंगिया ए नयरीए सिंघाडग- तिअ - चउक्क चच्चर महापह-पहेसु, जाव - एगदिसाभिमुहा णिज्जायंति । तए णं ते समणोवासया इमी से कहाए लट्टा समाणा हट्ट-तुट्टा, जाव सहावेंति, सदावित्ता एवं वयासी:- एवं खलु देवाणुप्पिया ! पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जाइसम्पण्णा, जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । * कुत्रिकापण - कु - पृथ्वी । त्रिक-तीन आपण-दुकान । अर्थात् तीन लोक की वस्तुएं जिस दुकान में मिले, उसे 'कुत्रिकापण' कहते हैं। यह दुकान देव। धिष्ठित होती है । For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ भगवती सूत्र - श. २ उ ५ स्थविर वन्दना की तैयारी विशेष शब्दों के अर्थ - णिज्जायंति-निकलते हैं, लट्ठा - अर्थ प्राप्त कर, सहावेंति बुलाते हैं । उन स्थविर भगवन्तों के पधारने की बात तुंगिया नगरी के शृंगाटक ( सिंघाडे के आकार त्रिकोण) मार्ग में, तीन मार्ग मिलते हैं ऐसे रास्तों में, चार मार्ग मिलते हैं ऐसे रास्तों में और बहुत मार्ग मिलते हैं ऐसे रास्तों में सब जगह फैल गई । जनता उनको वन्दन करने के लिए जाने लगी । जब यह बात तुंगिया नगरी में रहने वाले उन श्रावकों को मालूम हुई, तो वे बडे प्रसन्न हुए, हर्षित हुए और परस्पर एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहने लगे कि हे देवानुप्रियो ! भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त जो कि जातिसम्पन्न आदि विशेषण विशिष्ट हैं, वे यहाँ पधारे हैं और संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । विवेचन स्थविर भगवंतों के पधारने की बात तुंगिया नगरी में फैल गई । जनता के मुंह से स्थविर भगवंतों के पधारने की बात सुनकर श्रावकगण बड़े प्रसन्न हुए और परस्पर मिल कर हर्ष व्यक्त करते हुए यों कहने लगे । तं महाफलं खलु देवाप्पिया ! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नाम - गोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसणपडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए, जाव- गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवापिया ! थेरे भगवंते वंदामो नम॑सामो जाव पज्जुवासामो, एयं णे इहभवे वा परभवे वा जाव आणुगामियत्ताए भविस्सह, इति कट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठे पडिसुर्णेति । जेणेव सयाई सयाइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता व्हाया कयबलि कम्मा, कयको उय-मंगल-पायच्छित्ता, सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ स्थविर वन्दना की तवारी ४७७ परिहिया, अप्प-महग्याभरणालंकियसरीरा सएहितो सएहिंतो गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायति । विशेष शब्दों के अर्थ-सवणयाए-सुनने से, किमंग-कहना ही क्या अथवा क्या कहना, अभिगमण-सामने जाना, पज्जुवासणया-पर्युपासना = सेवा, गहणयाए-ग्रहण करने से, आणुगामियत्ताए-अनुगामी रूप से अर्थात् परम्परा कल्याण रूप से, उवागच्छंति-निकट आते हैं, कयबलिकम्मा-तिलक छापा आदि कार्य किया, पवरपरिहिया-अच्छी तरह से पहिने । __भावार्थ-हे देवानुप्रियो ! तथारूप के स्थविर भगवन्तों के नाम गोत्र को सुनने से भी महाफल होता है, तो उनके सामने जाना, वन्दना करना, नमस्कार करना, कुशल समाचार पूछना और उनकी सेवा करना यावत् उनसे प्रश्न . पूछकर अर्थों को ग्रहण करना, इत्यादि बातों के फल का तो कहना ही क्या ? इन बातों से कल्याण हो, इसमें कहना ही क्या ? इसलिए हे देवानुप्रियो ! हम सब स्थविर भगवन्तों के पास चलें और उन्हें वन्दना नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। यह कार्य अपने लिए इस भव में और परभव में हितरूप होगा यावत् परम्परा से कल्याणरूप होगा। इस प्रकार बातचीत करके वे श्रमणोपासक अपने अपने घर गये। घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म किया अर्थात् स्नान से सम्बन्धित तिलक. छापा आदि कार्य किया। फिर मंगल और कौतुक रूप प्रायश्चित्त किया। फिर सभा आदि में जाने योग्य मंगल रूप शुद्ध वस्त्रों को सुन्दर ढंग से पहना। फिर अपने अपने घर से निकल कर वे सब एक जगह इकट्ठे हुए। विवेचन-मूलपाठ में कयबलिकम्मा' शब्द दिया है । जिसका अर्थ यह है कि-जहाँ स्नान का पूरे रूप. से वर्णन आता है वहाँ 'कयबलिकम्मा' शब्द नहीं आता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि स्नान के विस्तृत वर्णन का अध्याहार करने के लिए 'कयबलिकम्मा' शब्द आता है । ज्ञातासूत्र के दूसरे अध्ययन में भद्रा सार्थवाही के स्नान प्रसंग पर तथा ज्ञाता सूत्र के आठवें अध्ययन में भगवती मल्लिकुमारी तथा सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के स्नान प्रसंग पर 'कयबलिकम्मा' शब्द आया है। इससे यह स्पष्ट है कि स्नान के विस्तृत अर्थ का अध्याहार करने के लिए ही 'कयबलिकम्मा' शब्द आता है, किन्तु इसका अर्थ For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ स्थविर वन्दन गृहदेवता का पूजन करना-यह अर्थ सर्वथा असंगत और आगम विरुद्ध है। 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता' शब्द का अर्थ इस प्रकार है-दुःस्वप्नादि के दुष्फल के निवारणार्थ जिन्होंने कौतुक और मंगल किये थे वे ही प्रायश्चित्त रूप थे। दूसरे आचार्यों का मत है कि. 'पायच्छित' का अर्थ है-'पादच्छुप्त' अर्थात् नेत्रों के रोग निवारण के लिए उन्होंने पैरों पर अमुक प्रकार के तेल का विलेपन किया था और उन्होंने मष तिलक रूप कौतुक तथा सरसों दही चावल दूर्वांकुर (दूब नामक घास) रूप मंगल किया था । मभा में जाने योग्य उत्तम वस्त्रों को उत्तम रीति से पहना था। मेलायित्ता पायविहारचारेणं तुंगियाए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव पुष्फवईए चेहए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति, तं जहाः-सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दव्याणं अविउसरणयाए, एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं, चक्खुप्फासं अंजलिप्पग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणेणं जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति। तए णं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे महइमहालियाए चाउज्जामं धम्म परिकहति । जहा केसिसामिस्स, जाव समणोवासियत्ताए आणाए आराहए भांति जाव-धम्मो कहिओ। _ विशेष शब्दों के अर्थ-निग्गच्छंति-चलते हैं, अभिगमेणं-समीप आते हैं, विउसरणयाए-त्यागकर दूर करके, एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं-एक शाटिक अर्थात् एक वस्त्र का उत्तरासंग किया, चक्खुप्फासं-दृष्टि में आने पर, अंजलिप्पग्गहेणं-हाथ जोड़ कर । For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ श्रावकों के प्रश्न ४७९ भावार्थ-फिर एक जगह एकत्रित होकर पैदल चलते हुए वे तुंगिया नगरी के बीचोबीच होकर पुष्पवती उद्यान में आये। स्थविर भगवंतों को देखते ही उन्होंने पाँच प्रकार के अभिगम किये। वे इस प्रकार हैं-१ सचित्त द्रव्य जैसे फूल, ताम्बूल आदि का त्याग करना। २ अचित्त द्रव्य-जैसे वस्त्र आदि को मर्यादित (संकुचित) करना। ३ एक पट के (बिना सीये हुए) दुपट्टे का उत्तरासंग करना । ४ मुनिराज के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर लगाना । ५ मन को एकाग्र करना । ___ इस प्रकार पाँच अभिगम करके वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों के पास जाकर तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् मन वचन काया रूप तीन प्रकार को पर्युपासना (सेवा) से पर्युपासना करने लगे। इसके बाद उन स्थविर भगवंतों ने उन श्रमणोपासकों को तथा उस बडी परिषद् को केशीश्रमण की तरह चार महाव्रत वाले धर्म का उपदेश दिया। यावत् उन श्रमणोपासकों ने अपनी श्रमणोपासकता द्वारा उन स्थविर भगवंतों की आज्ञा का आराधन किया यावत् धर्मकथा पूर्ण हुई। विवेचन-वे श्रमणोपासक किसी सवारी में बैठ कर नहीं, किन्तु पैदल चल कर उन स्थविर भगवन्तों की सेवा में पहुचे । स्थविर भगवन्तों को देखते ही पांच प्रकार के अभिगम किये । वहाँ पहुंच कर मन, वचन और काया रूप तीन प्रकार की पर्युपासना से वे उनकी पर्युपासना. करने लगे। उन स्थविर भगवन्तों ने उस महती परिषद् को और श्रमणोपासकों को धर्मोपदेश दिया। तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट-तुटु० जाव हयहियया तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति जाव-तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति, पज्जुवासित्ता एवं वयासी- ३५ प्रश्न-संजमे णं भंते ! किंफले ? तवे णं भंते ! किंफले ? For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोत्तर ३५ उत्तर-तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासीः संजमे णं अज्जो ! अणण्हयफले, तवे वोदाणफले । तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी:-जइ णं भंते ! संजमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले ३६ प्रश्न-किंपत्तियं णं भंते ! देवा देवलोएसु उववज्जति ? - ३६ उत्तर-तत्थ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासीः-पुव्वतवेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति । तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासीः-पुव्वसंजमेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववति । तत्थ णं आणंदरविखए नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी:-कम्मियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववति । तत्थ णं कासवे नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासीःसंगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववति । पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अनो! देवा देवलोएसु उववजंति । सच्चे णं एस अटे, णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए । विशेष शब्दों के अर्थ-अणण्हयफले-अनाव होने रूप फल, वोदाणफले-व्यवदान अर्थात् कर्मों को काटना या कर्म रूपी कीचड़ से मलीन आत्मा को शुद्ध करना, जइ-यदि, किंपत्तियं-किंप्रत्यय = किस कारण से, कम्मियाए-कर्मों से अर्थात् बाकी रहे हुए कर्मों के कारण, संगियाए-संगपन अर्थात् सराग संयम से, आयभाववत्तव्वयाए-आत्मभाववक्तव्य अर्थात् अपने अभिमान से। भावार्थ-स्थविर भगवन्तों के पास धर्मोपदेश सुनकर एवं हृदय में धारण करके वे श्रमणोपासक बडे हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसित हृदय वाले For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोत्तर ४८१ हुए। इसके बाद उन श्रमणोपासकों ने स्थविर भगवन्तों को तीन बार प्रदक्षिणा करके मन, वचन और काया रूप तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछा-- ___३५ प्रश्न-हे भगवन् ! संयम का क्या फल है ? तप का क्या फल है ? ३५ उत्तर-उन स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार उत्तर दिया कि-हे आर्यों ! संयम का फल अनाश्रय (आश्रव रहित-संवर) है और तप 'का फल व्यवदान (कर्मों को काटना एवं कर्म रूपी कीचड़ से मलीन आत्मा को शुद्ध करना) है। _३६ प्रश्न-स्थविर भगवन्तों के उत्तर को सुन कर श्रमणोपासकों ने इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! यदि संयम का फल अनाश्रवपन है और तप . का फल व्यवदान है, तो देव, देवलोक में किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? . ३६ उत्तर-श्रमणोपासकों के प्रश्न को सुन कर उन स्थविर भगवन्तों में से कालिकयुत्र नामक स्थविर ने इस प्रकार उत्तर दिया-हे आर्यों ! पूर्व तप के कारण देवता, देवलोक में उत्पन्न होते हैं। उनमें से मेहिल (मेधिल) नामक स्थविर ने इस प्रकार कहा कि-हे आर्यो ! पूर्व संयम के कारण देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं। .. उनमें से आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने इस प्रकार कहा कि-हे आर्यो ! कमिता के कारण अर्थात् पूर्वकर्मों के कारण देवता, देवलोक में उत्पन्न होते हैं। . उनमें से काश्यप नामक स्थविर ने इस प्रकार कहा कि-हे. आर्यों ! संगोपन के कारण अर्थात् द्रव्यादि में रागभाव के कारण देवता, देवलोक में उत्पन्न होते हैं। . इस प्रकार हे आर्यो ! पूर्व तप से, संयम से, कर्मों से और सराग संयम से देवता, देवलोक में उत्पन्न होते हैं। हे आर्यों ! यह बात सत्य है, इसलिए कही है, किन्तु अपने अभिमान.के कारण हमने यह बात नहीं कही है। . विवेचन--श्रमणोपासकों के प्रश्न के उत्तर में स्थविर भगवन्तों ने संयम का फल For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोत्तर अनाश्रव बतलाया है । अनाश्रव का अर्थ है - नवीन आने वाले कर्मों को रोक देना । संयम का फल 'व्यवदान' है । 'व्यवदान' शब्द में 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं और 'दान'' शब्द 'दाप् लवने' और 'दैप् शोधने' इन दोनों धातुओं से बनता है । जिसका अर्थ है-कर्मों को काटना एवं पूर्वकृत कर्म रूपी कचरे को साफ करना, या कर्म रूपी कीचड़ से मलीन आत्मा को शुद्ध करना । किस कारण से देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में 'पूर्वतन' और 'पूर्व संयम' कहा गया है । जिसका अर्थ है - वीतराग दशा से पूर्व पहले किया गया तप ( सराग तप) और संयम ( सराग संयम ) । राग का अंश कर्म बन्ध का कारण होता है । इसलिए सराग दशा में सेवित तप और आचरित संयम, ये दोनों देव होने में कारण होते हैं। तीसरा कारण है-कर्मिता या कर्मिका । कर्मिता का अर्थ है - कर्मपना और कर्मिका का अर्थ है-कर्म विकार अर्थात् शेष रहे हुए कर्मों का अंश । इससे भी देवपन की प्राप्ति. होती है । चौथा कारण है - संगिता । इसका अर्थ है - द्रव्यादि में राग भाव | यह कर्मबन्ध का कारण होने से देवपन का कारण होता है । जैसा कि कहा है ४८२ - पुव्वतव संजमा होंति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रांगो संगो वृत्तो, संगा कम्मं भवो तेणं ॥ अर्थ- सरागी जीव के तप और संयम 'पूर्व तप' और 'पूर्व संयम' कहलाते हैं और वीतरागी जीव के तप संयम 'पश्चिम तप' और 'पश्चिम संयम' कहलाते हैं । राग से संग होता है संग से कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्ध से संसार परिभ्रमण होता है । स्थविर भगवन्तों ने जो उत्तर दिया। उसके विषय में उन्होंने कहा कि यह बात सत्य है, क्योंकि यह बात वस्तु स्वरूप को लक्ष्य में रख कर कही गई है, किन्तु यह बात हम अपना बड़प्पन बतलाने के लिए अभिमानवश नहीं कहते हैं । · तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरिया समाणा हट्ट तुट्टा थेरे भगवंते वंदति नर्मसंति, वंदित्ता नमसित्ता परिणाई पुच्छंति, पसिणा पुच्छित्ता अट्ठाई उवादियंति, उवादिएत्ता उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठित्ता थेरे भगवंते तिक्खुत्तो For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोतर ४८३ . वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुष्फवतियाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तए णं ते थेरा अण्णया कयाई तुंगियाओ नयरीओ पुष्फवतियाओ चेइयाओ पडिनिग्गच्छंति, बहिया जणवयविहार विहरति । ____ विशेष शब्दों के अर्थ-वागरणाई-स्पष्टीकरण करने योग्य, पसिणाइं--प्रश्न. उवादियंति-ग्रहण करते हैं, अंतियाओ-समीप से, बहिया-बाहर । ... भावार्थ-स्थविर भगवन्तों के द्वारा दिये हुए उत्तरों को सुनकर वे श्रमणोपासक बड़े हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए। फिर स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करके और दूसरे प्रश्न पूछे एवं उनके अर्थों को ग्रहण किया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा करके उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार किया। फिर स्थविर भगवन्तों के पास से एवं उस पुष्पवती उद्यान से निकल कर अपने अपने स्थान पर गये। इधर वे स्थविर भगवन्त भी किसी एक दिन उस तुंगिया नगरी के पुष्पवती उद्यान से निकलकर बाहर जनपद में विचरने लगे। - विवेचन-यह वर्णन तुंगिया के श्रावकों की धर्मरुचि एवं तत्त्वरुचि को स्पष्ट करता है। वे सम्पत्तिशाली होते हुए भी धर्मप्रेम उनके रगरग में भरा हुआ था । उन्होंने स्थविर भगवंत का उपदेश सुनकर उसे हृदयंगम करने के लिए प्रश्न पूछे और निःशंक बने । .. वे भौतिक सम्पत्ति में दूसरे मनुष्यों से अजेय थे, तो धर्म के विषय में मनुष्यों से ही नहीं, देवों से भी अजेय थे। उनकी आत्मा पर भौतिक सम्पत्ति का प्रभाव उतना नहीं था, जितना धार्मिक श्रद्धा का था । पूर्व के सूत्र पाठ से उनके गृहस्थ जीवन की भव्यता एवं धार्मिक श्रमणोपासकपन की विशेषता का स्पष्ट बोध होता है। ते णं काले णं ते णं समए णं रायगिहे नामं नगरे । जाव For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ ५ तुंगिका - गौतमस्वामी को शंका 1 परिसा पडिगया । ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे, जाव — संखित्तविउलतेयलेस्से छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव — विहरइ । तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियायह, तझ्याए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिले हेइ, पडिलेहित्ता भायणाईं वत्थाइं पडिले हेइ, पडिलेहित्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाहं उग्गहेड उग्गहित्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसह, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासीः - इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुष्णाए छटुक्खमणपारणगंसि रायगिहे नगरे उच्चनीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महा: वीरस्स अंतियाओ गुणसिलाओ चेहयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओरियं सोहमाणे सोहमाणे जेणेव रायगिहे णगरे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छता रायगि नगरे उब-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अss | ४८४ For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ ५ तुंगिका - गौतम स्वामी को शंका ४८५ विशेष शब्दों के अर्थ - संखित्त विउलते उलेस्से - विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके रखा है, अतुरियं - शारीरिक त्वरता = शीघ्रता रहित, अचवलं - मानसिक चपलता रहित, असंभंते – असम्भ्रान्त = आकुलता और उत्सुकता रहित, मुहपोत्तियं - मुखवस्त्रिका = आठ परत वाला कपड़ा, जो डोरे से मुख पर बांधा जाता है, जुगंतर - युगान्तर = धूसरा परिमाण, भिक्खायरियं - भिक्षाचर्या के लिए, अडइ - फिरते हैं । भावार्थ -- उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था । वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । परिषद् वन्दना करने के लिए गई और यावत् धर्मोपदेश सुन कर वापिस लौट गई । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखने वाले थे । वे निरन्तर छुट्टछट्ट का तप करते हुए अर्थात् निरन्तर बेले बेले की तपस्या करते हुए संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । इसके बाद बेले के पारणे के दिन इन्द्रभूति अनगार ने अर्थात् भगवान् गौतम स्वामी ने पहली पौरिसी में स्वाध्याय किया, दूसरी पौरिसी में ध्यान ध्याया, तीसरी पौरिसी में शारीरिक शीघ्रता रहित, मानसिक चपलता रहित, आकुलता और उत्सुकता रहित होकर मुखवस्त्रिका की पडिलेहना की, फिर पात्रों की और वस्त्रों की पडिलेहना की। फिर पात्रों का परिमार्जन किया, परिमार्जन करके पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बिराजे हुए थे वहाँ आये । वहाँ आकर भगवान् को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया कि — हे भगवन् ! आज मेरे बेले के पारणे का दिन है सो आपकी आज्ञा होने पर में राजगृह नगर में ऊंच नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिये जाना चाहता हूँ ? श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा कि - हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो उस प्रकार करो, विलम्ब न करो । For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ ५ तुंगिका - गौतमस्वामी को शंका भगवान् की आज्ञा हो जाने पर गौतम स्वामी भगवान् के पास से गुणशीलक चैत्य से निकले, निकल कर शारीरिक त्वरता ( शीघ्रता ) और मानसिक चपलता रहित एवं आकुलता व उत्सुकता रहित गौतम स्वामी युग ( धूसरा ) प्रमाण भूमि को देखते हुए ईर्यासमितिपूर्वक राजगृह नगर में आये, वहाँ ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिए फिरने लगे । ४८६ विवेचन - मूलपाठ में 'भायणाई' शब्द दिया है और टीकाकार ने इसकी संस्कृत छाया 'भाजनानि' दिया है । इस प्रकार यह शब्द बहुवचनान्त हैं । इसलिये इससे तीन पात्र सिद्ध होते हैं - अर्थात् स्थविरकल्पी मुनियों को आहार पानी के लिये तीन पात्र रखना कल्पता है । ग्रन्थकार और कोई टीकाकार स्थविरकल्पी मुनियों को सिर्फ एक ही पात्र रखने का कल्प बताते हैं, और मात्रक रूप पात्र भी रखने का विधान आचार्यों ने पीछे से किया है ऐसा कहते हैं, किन्तु उनका यह कथन शास्त्र के इस मूलपाठ से विरुद्ध है । इसी प्रकरण में आगे 'भत्तपाणं पडिदंसेइ' पाठ है, जिसका अर्थ है कि - गौतम स्वामी जो आहार पानी लाये वह उन्होंने भगवान् को दिखलाया 1 यदि एक ही पात्र में आहार पानी होता, तो आहार से संसृष्ट ( खरड़ा हुआ) पात्र और हाथ आदि किससे साफ करते ? इससे भी स्पष्ट है कि पात्र एक नहीं था, किन्तु अधिक ( तीन ) थे । इसलिये एकान्त रूप से एक पात्र रखने का कल्प बताना शास्त्र विरुद्ध है । दशवेकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन के सकाय की यतना में मूलपाठ में 'उडगंसि' शब्द आया है जिसका अर्थ है - मात्रकरूप पात्र । अत: मात्रकरूप पात्र रखने का विधान शास्त्र में स्पष्ट है । अत: मात्रकरूप पात्र रखने का विधान आचार्यों ने पीछे से किया यह कथन भी शास्त्र विरुद्ध है । तए णं से भगवं गोयमे रायगिहे नगरे जाव अडमाणे बहुजणसद्द निसा मेह - एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए नयरीए बहिया पुप्फवईए चेहए पासावचिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासए हिं इमाई एयारूवाइं वागरणाई पुच्छिया : - " संजमे णं भंते ! किंफले For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका - गौतम स्वामी को शंका तवे णं किंफले ? तर णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासीः- संजमे णं अजो ! अणण्यफले, तवे वोदाणफले, तं चैव जाव पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएस उववज्जंति, सच्चे णं एसमट्ठे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए” से कहमेयं मन्ने एवं । तए णं समणे भगवं गोयमे इमीसे कहाए लट्ठे समाणे जायसड्ढे जाव - समुप्पन्नकोउहल्ले अहापज्जत्तं समुदाणं गेह, गण्हित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिनिवखमइ, अतुरियं, जाव - सोहेमाणे जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २ समणस्स भगवओ महावीररस अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कम एसण- मणेसणं आलोएइ, २ भत्तपाणं पडिदंसेइ, २ समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी : - एवं खलु भंते ! अहं तु भेहिं अभगुण्णाए समाणे रायगिहे नयरे उच्चनीय-मज्झि माणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसद्दं णिसामेमि, “एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए नयरीए बहिया पुप्फवईए चेइए पासावचिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूवाइं वागरणाई पुच्छिया : -संजमे णं भंते! किंफले, तवे किंफले ? तं चैव जाव - सच्चे णं एसमट्टे, णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए ।” ४८७ विशेष शब्दों के अर्थ – निसामेइ - सुनकर, जायसड्ढे - - -- श्रद्धा उत्पन्न हुई - जिज्ञासा उत्पन्न हुई, एसणमणेसणं- यतनापूर्वक की हुई गोचरी में लगे दोष का, पडिदंसे-दिखाया For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका - गौतमस्वामी को शंका आलोएइ - आलोचना की । भावार्थ - राजगृह नगर में भिक्षा के लिए फिरते हुए गौतम स्वामी ने बहुत से मनुष्यों के मुख से इस प्रकार सुना - "हे देवानुप्रियों ! तुंगिया नगरी के बाहर पुष्पवती नामक उद्यान में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त पधारे हुए हैं। उनसे तुंगिया नगरी के श्रावकों ने इस प्रकार प्रश्न पूछा कि हे भगवन् ! संयम का क्या फल है और तप का क्या फल है ? तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार उत्तर दिया कि - हे देवानुप्रियों ! संयम का फल अनाश्रवपन है और तप का फल व्यवदान ( कर्मों का विनाश ) है । ( सारा वर्णन पहले की तरह कहना चाहिए ) । यावत् पूर्वतप, पूर्वसंयम, कर्मिपन और संगीपन से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । यह बात सत्य है, इसलिए कही है, किन्तु हमने अपने अभिमान के वश नहीं कही हैं ।" यह बात कैसे मानी जा सकती है ? इस तरह लोगों के मुख से गौतम स्वामी ने सुना । यह बात सुनकर गौतम स्वामी के मन में श्रद्धा - जिज्ञासा उत्पन्न हुई यावत् उस बात के प्रति उन्हें कुतूहल उत्पन्न हुआ । " इसके बाद गौतमस्वामी भिक्षा की विधि के अनुसार मिक्षा लेकर राजगृह नगर से बाहर निकले । ईर्यासमितिपूर्वक चलते हुए गौतमस्वामी गुणशीलक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित हुए । उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, मिक्षा लेने में लगे हुए दोषों का आलोचन किया। फिर लाया हुआ आहार पानी श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को दिखलाया । तत्पश्चात् गौतमस्वामी ने भगवान् से इस प्रकार निवेदन किया कि हे भगवन् ! में आपकी आज्ञा लेकर राजगृह नगर में ऊंच, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिए फिर रहा था । उस समय बहुत से मनुष्यों के मुख से इस प्रकार सुना कि - हे araप्रय ! तुंगिया नगरी के बाहर पुष्पवती उद्यान में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त पधारे हुए हैं। उनसे वहाँ के श्रावकों ने इस For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ तुंगिका-गीतमस्वामी के प्रश्नोनर ४८९ प्रकार प्रश्न पूछा कि-हे भगवन् ! संयम का क्या फल है और तप का क्या फल है ? (यहाँ सारा वर्णन पहले की तरह कहना चाहिए) यावत् यह बात सत्य है इसलिए कही है, किन्तु हमने अपने अभिमान के वश नहीं कही है । इत्यादि। विवेचन-राजगृह नगर में भिक्षा के लिये गये हुए गौतम स्वामी ने बहुत से लोगों के मुख से तुंगिका के श्रावकों के साथ पापित्य स्थविरों के हुए प्रश्नोत्तर की चर्चा सुनी। इससे उनके मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उन्होंने इस विषय में भगवान् से निवेदन किया । तं पभू णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरेत्तए ? उदाहु अप्पभू ? समिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अस्समिया ? आउजिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु अणाउजिया ? पलिउजिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु अपलिउजिया ? पुव्वतवेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववति । पुवसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चे णं एसमटे, णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए । पभू णं गोयमा ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए, णो चेव णं अप्पभू । तह चेव णेयव्वं अविसेसियं जाव-पभूसमियं आजिय-पलिउजिया, For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका-गौतमस्वामी के प्रश्नोत्तर जाव-सच्चे णं एसमटे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए, अहं पि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि भासेमि पनवेमि परूवेमि-पुव्वतवेणं देवा देवलोएसु उववजंति, पुव्वसंजमेणं देवा देवलोएसु उववजंति, कम्मियाए देवा देवलोएसु उववजंति, संगियाए देवा देवलोएसु उववजंति, पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अनो! देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चे णं एसमटे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए। विशेष शब्दों के अर्थ-पभू-समर्थ, समिया-सम्यक्त्व विषयक कथन करने में समर्थ या अभ्यास वाले, उदाहु-अथवा, आउज्जिया-आयोगिक = उपयोग वाले, पलिउज्जियापरियोगिक = सर्व प्रकार के ज्ञान युक्त, अप्पभू-असमर्थ । भावार्थ-गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से पूछा किहे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में समर्थ हैं, या असमर्थ हैं ? हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में अभ्यासी (अभ्यास वाले) हैं, या अनभ्यासी हैं ? हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में उपयोग वाले हैं, या उपयोग वाले नहीं हैं ? हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में विशेषज्ञानी हैं, या सामान्यज्ञानी हैं ? कि पूर्व तप, पूर्वसंयम, कमिपन और संगीपन, इन कारणों से देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं। ... श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-हे गौतम ! वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में समर्थ है, किन्तु असमर्थ नहीं, अभ्यासी हैं अनभ्यासी नहीं, उपयोग वाले हैं, अनुपयोग वाले नहीं, विशेषज्ञानी हैं, सामान्य ज्ञानी नहीं। यह बात सच्ची है, इसलिए उन स्थविरों ने कही हैं, अपने For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ श्रमण सेवा का फल अभिमान के वश नहीं कही है। हे गौतम ! मैं भी इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बतलाता हूँ, प्ररूपणा करता हूँ कि-पूर्व तप, पूर्व संयम, कर्मिपन और संगीपन, इन कारणों से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए उन स्थविर भगवन्तों ने यथार्थ कहा है । यह बात सत्य है, इसलिए उन्होंने कही है, किन्तु अपने अभिमान के कारण नहीं कही हैं। विवेचन-उन स्थविर भगवन्तों ने श्रमणोपासकों को जो उत्तर दिया उसकी पुष्टि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कर दी । भगवान् ने फरमाया कि उन स्थविर भगवन्तों ने जो उत्तर उन श्रमणोपासकों को दिया वह यथार्थ है, सत्य है । सत्य होने के कारण ही उन स्थविरों ने ऐसा कहा है, किन्तु अपनी बड़ाई एवं अभिमान के कारण नहीं कहा है । . ३७ प्रश्न-तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा ? ३७ उत्तर-गोयमा ! सवणफला । ३८ प्रश्न-से णं भंते ! सवणे किंफले ? . . ३८ उत्तर-णाणफले। ३९ प्रश्न-से णं भंते ! णाणे किंफले ? ३९ उत्तर-विण्णाणफले। ४० प्रश्न-से णं भंते ! विण्णाणे किंफले ? ४० उत्तर-पञ्चक्खाणफले। ४१ प्रश्न-से णं भंते ! पचक्खाणे किंफले ? ४१ उत्तर-संजमफले। For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ श्रमण सेवा का फल ४२ प्रश्न-से णं भंते ! संजमे किंफले ? ४२ उत्तर-अणण्हयफले। ४३ प्रश्न-एवं अणण्हये ? ४३ उत्तर-तवफले ? ४४ प्रश्न-तवे ? ४४ उत्तर-वोदाणफले। ४५ प्रश्न-से णं भंते ! वोदाणे किंफले ? ४५ उत्तर-(वोदाणे) अकिरियाफले । . ४६ प्रश्न-से णं भंते ! अकिरिया किंफला ? ४६ उत्तर-सिद्धिपजवसाणफला पण्णत्ता गोयमा ! गहाः-सवणे णाणे य विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे । अणण्हये तवे चेव, बोदाणे अकिरिया सिद्धी । विशेष शब्दों के अर्थ-तहारूवं-यथारूप = जैसा रूप अर्थात् वेश है, उसी के अनुकूल गुणों वाले, पज्जुवासमाणस्स-सेवा करने वाला, सिद्धिपज्जवसाणफला-जिसका अन्तिम फल सिद्धि = मोक्ष है। ___ भावार्थ-३७ प्रश्न-गौतमस्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! तथारूप के श्रमण या माहण की पर्युपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना (सेवा) का क्या फल मिलता है ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! तथारूप के श्रमण या माहण की पर्युपासना करने वाले को उसकी पर्युपासना का फल श्रवण है अर्थात् उसको सत्शास्त्र सुनने रूप फल मिलता हैं। For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ श्रमण सेवा का फल ४९३ ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रवण का क्या फल है ? ___३८ उत्तर-हे गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है अर्थात् सुनने से ज्ञान होता है। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान का क्या फल है ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है अर्थात् साधारण ज्ञान होने पर विशेषज्ञान होता है। ४० प्रश्न-हे भगवन् ! विज्ञान का क्या फल है ? ४० उत्तर-हे गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है अर्थात् विशेष ज्ञान होने पर हेय पदार्थों का प्रत्याख्यान होता है। __ ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्याख्यान का क्या फल है ? ४१ उत्तर हे गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है अर्थात् प्रत्याख्यान होने पर सर्वसावद्य त्याग रूप संयम प्राप्त होता है। ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! संयम का क्या फल है ? ४२ उत्तर-हे गौतम ! संयम का फल अनाश्रवपन है अर्थात् संयम प्राप्त होने पर फिर नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है। ४३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनाश्रवपन का क्या फल है ? ४३ उत्तर-हे गौतम अनाश्रवपन का फल तप है। ४४ प्रश्न-हे भगवत् ! तप का क्या फल है ? -- ४४ उत्तर-हे गौतम ! तप का फल व्यवदान है अर्थात् कर्मों को काटना है.एवं कर्म मैल को साफ करना है। ४५ प्रश्न-हे भगवन् ! व्यवदान का क्या फल है ? ४५ उत्तर-हे गौतम ! व्यवदान का फल अक्रियपन (निष्क्रियपन) है। ४६ प्रश्न-हे भगवन् ! अक्रियपन (निष्क्रियपन) का क्या फल है? ४६ उत्तर-हे गौतम ! अक्रियपन का फल सिद्धि है अर्थात अक्रियपन प्राप्त होने पर अन्त में सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त होती है। .. For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ श्रमण सेवा का फल गाथा का अर्थ-१ पर्युपासना (सेवा)का फल श्रवण, २ श्रवण का फल ज्ञान, ३ ज्ञान का फल विज्ञान, ४ विज्ञान का फल प्रत्याख्यान, ५ प्रत्याख्यान का फल संयम, ६ संयम का फल अनाश्रवपन, ७ अनाश्रवपन का फल तप, ८ तप का फल व्यवदान, ९ व्यवदान का फल अक्रियपन, १० अक्रियपन का फल सिद्धि (मोक्ष)। विवेचन-पहले प्रकरण में साधु सेवा का वर्णन आया हैं। इसलिए अब साधु सेवा का फल बतलाया जाता है। .. 'तथारूप' का अर्थ है-जैसा वेश है वैसे गुणों वाला अर्थात् जिसके साधु का वेश है उसमें साधुता के गुण हों वह 'तथारूप' का श्रमण है। . .... 'श्रमण' का अर्थ है-साधु, तपस्वी। 'श्रमण' शब्द 'श्रमु खेदे तपसि च' इस धातु से बना है। जिसका अर्थ है-जो जगत् के जीवों के खेद को जानता है, समस्त संसार के प्राणियों को आत्म-तुल्य समझता है और जो तपस्या करता है वह 'श्रमण' है । उपलक्षण से उत्तर गुण धारण करने वाले को भी यहाँ श्रमण कहा है। ____ 'माहन' का अर्थ है-स्वयं हनन निवृत्तत्वात् परं प्रति ‘मा हन, मा हन वदति इत्येवंशील:' अर्थात् जो स्वयं किसी भी जीव को नहीं मारता और 'मत मारो, मत मारो' एसा जो दूसरो को उपदेश देता है, उसे 'माहन' कहते हैं । उपलक्षण से मूल गुणों वाले को माहन कहा गया है । अथवा 'श्रमण' का अर्थ है-साधु, और 'माहन' का अर्थ है-श्रावक । तात्पर्य यह है कि शुद्ध चारित्र पालन करने वाले श्रमण माहनों की पर्युपासना (सेवा, भक्ति तथा सत्संग) करने से उत्तरोत्तर दस फलों की प्राप्ति होती है । जो इस गाथा ' में बतलाया गया है सवणे जाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धि ॥ अर्थ-१ सवणे (श्रवण)-शुद्ध चारित्र का पालन करने वाले श्रमण माहनों की पर्युपासना करने से श्रवण की प्राप्ति होती है अर्थात् साधु महात्मा धर्मकथा फरमाते हैं और शास्त्रों की स्वाध्याय किया करते हैं, इसलिए उनकी सेवा करने से शास्त्रों के श्रवण की प्राप्ति होती है। २ णाणे (ज्ञान)-शास्त्रों के सुनने से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है। For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गर्म पानी का कुण्ड . ४९५ ____३ विण्णाणे-श्रुतज्ञान से विज्ञान की प्राप्ति होती है अर्थात् हेय (त्यागने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थों का ज्ञान होता है। ४ पच्चक्खाणे (प्रत्याख्यान)-हेय और उपादेय का ज्ञान हो जाने पर पच्चक्खाण की प्राप्ति होती है अर्थात् जिसे विशेषज्ञान हो जाता है वह पाप का प्रत्याख्यान कर देता है। ५ संजमे (संयम)-प्रत्याख्यान से संयम की प्राप्ति होती है। ६ अणण्हए (अनाश्रव)-संयम से अनाश्रव (संवर) की प्राप्ति होती है अर्थात् संयम वाला जीव नवीन कर्मों के आगमन को रोकता है। ७ तवे (तप)-अनाश्रव के बाद अनशन आदि बारह प्रकार के तप की ओर प्रवृत्ति होती है। ८ वोदाणे (व्यवदान)-तप से पूर्वकृत कर्मों का नाश होता है । आत्मा में रहे हुए पूर्वकृत कर्मरूपी कचरे की शुद्धि हो जाती है । ९ अकिरिय (अक्रिय)-इसके बाद आत्मा अक्रिय हो जाता है और मन, वचन और कायारूप योगों का निरोध हो जाता है । १. सिद्धि-योगों का निरोध कर लेने पर जीव की सिद्धि (मोक्ष) हो जाती है। . मिद्धि गति को प्राप्त करना ही जीव का अन्तिम प्रयोजन है। राजगृह का गर्म पानी का कुंड ४७ प्रश्न-अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खति भासंति पन्नति, परूवेति-एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे एत्थ णं महं एगे हरए अघे (अप्पे) पण्णत्ते, अणेगाई जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, नाणादुमसंडमंडिउद्देसे, सस्सिरीए जाव-पडिरूवे । तत्थ णं बहवे उराला बलाहया संसेयंति संमुच्छति वासंति, तव्वहरिते य णं सया समियं उसिणे उसिणे आउकाए For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गरम पानी का कुण्ड अभिनिस्सवइ । से कहमेयं भंते ! एवं ? ___४७ उत्तर-गोयमा ! ज णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति । जाव जे ते एवं परूवेंति मिच्छं ते एवमाइक्खंति, जाव-सव्वं नेयव्वं । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि भासेमि पन्नवेमि परूवेमि-एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महातवोवतीरप्पभवे नामं पासवणे पण्णत्ते, पंच धणुसयाई आयामविक्खंभेणं णाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासादीए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे, तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य, पोग्गला य उदगत्ताए वकमंति, विउक्कमंति, चयंति, उववति । तव्वइरिते वि य णं सया समियं उसिणे उसिणे आउयाए अभिनिस्सवइ, एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवे पासवणे, एस णं गोयमा महातवोवतीरप्पभवस्स पासवणस्स अट्टे पण्णत्ते। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ । ॥ पंचमो उद्देसो सम्मतो॥ विशेष शमों के अर्थ-हरए-हद-बह, बलाहया-बलाहक-मेघ, संसेयंति-संस्वेदित होते हैं उत्पन्न होने लगते हैं, तब्बइरिते-कुण्ड भर जाने पर अतिरिक्त, उसिणे-गरम, पास For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गरम पानी का कुण्ड + + + वणे-प्रश्रवण = झरना, उसिणजोणिया-उष्णयोनिक, वक्कमंति-उत्पन्न होते हैं, विउक्कमंति-विनष्ट होते हैं, चयंति-चवते हैं, उववज्जति-उत्पन्न होते हैं, तव्वइरिते-तद्व्यतिरिक्त = तदुपरान्त । भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि-राजगह नगर के बाहर वैभार पर्वत के नीचे एक बडा पानी का ह्रद-कुण्ड है। उसकी लम्बाई चौडाई अनेक योजन है, उसका अगला भाग अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है, सुन्दर है यावत् प्रतिरूप है अर्थात् दर्शकों की आँखों को सन्तुष्ट करने वाला है। उस द्रह में अनेक उदार मेघ संस्वेदित हैं-उत्पन्न होते हैं, सम्मच्छित होते हैं-उसमें गिरते हैं और बरसते हैं । तदुपरान्त अर्थात् कुण्ड भर जाने पर उसमें से सदा परिमित गरम जल झरता रहता है । हे भगवन् ! क्या यह बात ठीक है अर्थात् क्या अन्यतीथिकों का यह कथन सत्य है ? . ४७ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं वह मिथ्या है । हे गौतम ! में इस तरह से कहता हूँ, भाषण करता हूं, बतलाता हूँ, प्ररूपणा करता हूँ कि-राजगृह नगर के बाहर वैभार पर्वत के पास 'महातपोपतीरप्रभव' नाम का एक प्रश्रवण-झरना है । उसको लम्बाई चौडाई पांच सौ धनुष है, उसका अगला भाग अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित हैं, वह सश्रीक-शोभायुक्त है, वह प्रासादीय-प्रसन्नता पैदा करने वाला है, दर्शनीय-देखने योग्य है, अभिरूप-रमणीय है, प्रतिरूप-प्रत्येक . दर्शक की आंखों को संतोष देने वाला है। उस झरने में अनेक उष्ण योनि वाले जीव और पुद्गल, अप्काय रूप से उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, चवते हैं, उपचय को प्राप्त होते हैं । तदुपरान्त उस झरने में से हमेशा परिमित गरम पानी सरता रहता है । हे गौतम ! वह 'महातपोपतोरप्रभव' नाम का झरना है और यह 'महातपोपतीर' नामक मरने का अर्थ है । ____'सेवं भंते !. सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह बात इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह बात इसी प्रकार है'-ऐसा कह कर गौतमस्वामी श्रमण भगवान् For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गरम पानी का कुण्ड को वन्दना नमस्कार करते हैं। विवेचन - पहले प्रकरण में साधु सेवा का फल बतलाया गया है, किन्तु वह फल जैसे तैसे हर किसी नामधारी साधुओं की सेवा से प्राप्त नहीं होता है, अपितु तथारूप अर्थात् शुद्ध चारित्र का पालन करने वाले उत्तम साधुओं की सेवा से ही वह फल प्राप्त होता है, क्योंकि वे सत्यवादी होते हैं, बाकी नामधारी साधु असत्यवादी होते हैं । इस प्रकरण में कितनेक असत्यवादी अन्यतीथिक साधुओं का वर्णन किया गया है। __ अन्यतीर्थिकों का कथन है कि-राजगृह नगर के बाहर वैभार पर्वत के नीचे अनेक योजन की लम्बाई चौड़ाई वाला एक द्रह-कुण्ड है । उसमें अनेक मेघ संस्वेदित होते हैं अर्थात् गिरने की तैयारी में होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं अर्थात् गिरते हैं। वह कुण्ड उदार-बहुत विस्तार वाला है। तदुपरान्त अर्थात् उसके भर जाने पर उसमें से गरम गरम पानी सदा झरता रहता है। इस बात की सत्यता पूछने पर गौतम स्वामी को श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया कि-हे गौतम ! अन्यतीथिकों का उपर्युक्त कथन असत्य है, क्योंकि वे विभंगज्ञानी होने से उनका वचन सर्वज्ञ के वचन से प्रायः विपरीत होता है । अतः इन कारणों से उनका उपर्युक्त कथन असत्य है । उस झरने का नाम 'महातपोपतीर प्रभव' है अर्थात् महान् आतप-उष्णता वाले प्रदेश के पास जिसका प्रभव-उत्पत्ति हो, वह 'महातपोपतीर प्रभव' कहलाता है । वह वैभार पर्वत के नीचे नहीं है, किन्तु पास में है। उसमें उष्णयोनिक जीव और पुद्गल उत्पन्न होते और नष्ट होते रहते हैं । उस झरने की लम्बाई चौड़ाई पांच सौ धनुष है। उसमें से सदा परिमित गरम पानी झरता रहता है। यह 'महातपोपतीर प्रभव' झरना है और यह 'मातपोपतीरप्रभव' झरने का अर्थ है। - भगवान् के वचनों को स्वीकार करते हुए गौतम स्वामी ने कहा-हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वह यथार्थ हैं । ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने भगवान् को वन्दना नमस्कार किया और फिर वे तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। ॥ दूसरे शतक का पांचवां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २ उ. ६ भाषा विषयक मान्यता ४९९ शतक २ उद्देशक ६ भाषा विषयक मान्यता ४८ प्रश्न-से णूणं भंते ! मण्णामि इति ओहारिणी भासा ? ४८ उत्तर-एवं भासापदं भाणियव्वं । ॥ छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो॥ _ विशेष शब्दों के अर्थ-मण्णामि-मानता हूँ, ओहारिणी-अवधारिणी भाषा, माणियवं-कहना चाहिए। भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भाषा अवधारिणी है ? ऐसा मैं मान लूं? . . . ४८ उत्तर-हे गौतम ! उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापना सूत्र का . ग्यारहवें भाषापद का सारा वर्णन करना चाहिए। विवेचन-पांचवें उद्देशक के अन्त में यह बतलाया गया है कि-अन्यतीर्थिक मिथ्याभाषी हैं । मिथ्याभाषिपन और सत्यभाषिपन, भाषा के बिना नहीं हो सकता है। इसलिए इस छठे उद्देशक में भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार किया गया है। गौतम स्वामी ने . प्रश्न पूछा कि-हे भगवन् ! क्या मैं इस प्रकार मान लूं कि भाषा अवधारिणी है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! भाषा के सम्बन्ध में प्रज्ञापना सूत्र का ग्यारहवाँ भाषापद पूरा कहना चाहिए। प्रज्ञापना सूत्र के ग्यारहवें भाषापद में अनेक द्वारों से 'भाषा' का वर्णन किया गया है । भाषा के चार भेद हैं-सत्य भाषा, असत्य भाषा, सत्यमृषा भाषा-मिश्र भाषा, असल्य अमृषा भाषा-व्यवहार भाषा। भाषा का आदि कारण (मूल कारण)जीव है । भाषा की उत्पत्ति शरीर से (औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर से) होती है । भाषा का संस्थान वज्र के आकार है। भाषा के पुद्गल लोक के अन्त तक जाते हैं । अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध पुद्गल भाषापने गृहीत होते हैं । असंख्यात आकाश प्रदेशों को अवगाहित पुद्गल भाषापने गृहीत. होते हैं । एक समय, दो समय यावत् दस समय, संख्यात और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल भाषापने गृहीत होते हैं । वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले पुद्गल For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ७ देवों के प्रकार भाषापने गृहीत होते हैं । नियमा छह दिशा के पुद्गल गृहीत होते हैं, वे निरन्तर भी गृहीत होते हैं और सान्तर भी गृहीत होते है । भाषा की स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । भाषा का अन्तर (व्यवधान) जघन्य अन्तर्मुहूत्तं है, उत्कृष्ट अनन्त काल का है । काय योग से भाषा के पुद्गल गृहीत होते हैं और वचन योग से छोड़े जाते हैं । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम भाव से एवं मोहनीय कर्म के उदय से वचन योग से असत्य भाषा और मिश्र भाषा बोली जाती है । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से वचन के योग से सत्य भाषा और व्यवहार भाषा बोली जाती है । सत्य भाषा बोलने वाले सब से थोड़े हैं । मिश्र भाषा बोलने वाले उनसे असंख्यात गुणा हैं । असत्य भाषा बोलने वाले उनसे असंख्यात गुणा हैं, व्यवहार भाषा बोलने वाले उनसे असंख्यात गुणा है और अभाषक उनसे अनन्तगुणा है, क्योंकि अभाषक जीवों में निम्न लिखित जीवों का समावेश होता है-अपर्याप्त जीव, सिद्ध भगवान्, शंलेशी-प्रतिपन्न जीव और एकेन्द्रिय जीव-ये सब अभाषक हैं। सेवं भंते ! सेवं भंते !! ॥ दूसरे शतक का छठा उद्देशक समाप्त ॥ शतक २ उद्देशक ७ देवों के प्रकार . ४९ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ? ४९ उत्तर-गोयमा ! चरविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवहवाणमंतर-जोइस-चेमाणिया। ५० प्रश्न-कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा पण्णता? ५० उत्तर-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जहाः* भाषा के स्वरूप का विस्तृत विवेचन जानने के लिए जिज्ञासुओं को प्रज्ञापना सूत्र का ग्यारहवा 'भाषा पद' देखना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २ उ. ७ देवों के प्रकार ५०१ ठाणपदे देवाणं वतव्वया सा भाणियबा, णवरं-भवणा पण्णत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे एवं सव्वं भाणियव्वं, जाव सिद्धगंडिया सम्मत्ता, कप्पाण पइट्टाणं बाहुल्लुचत्तं एव संठाणं, जीवाभिगमे जाव-वेमाणिउद्देसो भाणियव्वो सब्यो। ॥ सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-ठाणा-स्थान, वत्तव्वया-वक्तव्यता, णवरं-किन्तु इतनी विशेषता, उववाएण-उत्पत्ति की अपेक्षा, लोयस्स-लोक के, कप्पाण-कल्पों का देवलोकों का पइट्ठाणं-प्रतिष्ठान, बाहुलुच्चत्तं-बाहल्य-मोटाई और ऊँचाई, संठाणं-संस्थान-आकार। भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? . ४९ उत्तर-हे गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा-१ भवनपति २ वाणव्यन्तर ३ ज्योतिषी और ४ वैमानिक ।। ..... ५० प्रश्न-हे भगवन् ! भवनवासी देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? ५० उत्तर-हे गौतम ! भवनवासी देवों के स्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे हैं । इत्यादि सारा वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थानपद में कहे अनुसार जान लेना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि-भवनवासियों के भवन कहने चाहिए। उनका उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। यह सारा वर्णन सिद्धगण्डिका पर्यन्त पूरा कहना चाहिए। कल्पों का प्रतिष्ठान, मोटाई, ऊँचाई और संस्थान आदि सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र के वैमानिक उद्देशक की तरह कहना चाहिए। विवेचन-पहले के प्रकरण में भाषा के विषय में कहा गया है । भाषा की विशद्धि से देवत्व प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए इस सातवें उद्देशक में देवों का वर्णन किया गया है। देवों के विषय में पूछने पर भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद' में जो वक्तव्यता कही हैं वह यहाँ कहनी चाहिए । देव चार प्रकार के For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ भगवती सूत्र - श. २ उ. ७ देवलोक का वर्णन हैं- भवनपति वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। उसमें से एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचें छोड़ कर बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं । भवनवासियों का उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है और वे लोक के असंख्यातवें भाग में ही रहते हैं । मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा भी भवनवासी लोक के असंख्येय भाग में ही रहते हैं । वे अपने स्थान की अपेक्षा भी लोक के असंख्येय भाग में ही रहते हैं, क्योंकि उनके सात करोड़ बहत्तर लाख भवन लोक के असंख्येय भाग में ही हैं। इसी तरह असुरकुमार आदि के विषय में तथा यथोचित रूप से वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक, सभी देवों के स्थानों का कथन करना चाहिए यावत् सिद्ध भगवान् के स्थानों का वर्णन करने वाले 'सिद्धगंडिका' नामक प्रकरण तक कहना चाहिए । इस सम्बन्ध में 'जीवाभिगम' सूत्र के वैमानिक उद्देशक में वर्णित सारा वर्णन यहां कहना चाहिए । यथा - हे भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमान की पृथ्वी किस के आधार पर रही हुई है ? हे गौतम ! वह घनोदधि के आधार पर रही हुई है । जैसा कि कहा है घणउदहिपट्टाणा सुरभवणा हुति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपट्टाणा तदुभयसुपइट्ठिया तिसु य । तेन परं उवरिमगा आगासंतरपइट्टिया सव्वे ॥ अर्थात् - पहला व दूसरा देवलोक घनोदधि के आधार पर रहा हुआ है। तीसरा, चौथा और पाँचवाँ देवलोक घनवायु के आधार पर रहा हुआ है। छठा, सातवाँ और आठवाँ देवलोक घनोदधि और धनवायु के आधार पर रहा हुआ है। इसके बाद ऊपर के सब विमान आकाश के आधार पर रहे हुए हैं । बाल्य अर्थात् मोटाई और उच्चत्व अर्थात् ऊंचाई इस प्रकार है सत्तावीससयाइं आइम कप्पेसु पुढविवाहल्लं । एक्किक्कहाणि सेसे तु वुगे य दुगे चउक्के य । पंचसय उच्चत्तेर्ण आइमकप्पेसु होंति उ विमाणा । एक्किक्कबुडि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य ॥ अर्थ- सौधर्म और ईशान कल्प में विमानों की मोटाई सत्ताईस सौ योजन और For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र --श. २ उ. ८ चमरचंचा राजधानी ५०३ ऊंचाई पांच सौ योजन की है अर्थात् विमान पांच मी योजन ऊंचे हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में मोटाई छब्बीस सौ योजन और ऊंचाई सात सौ योजन की है । ब्रह्मलोक और लान्तक में मोटाई पच्चीस सौ योजन और ऊंचाई सात सौ योजन की है । महाशुक्र और सहस्रार कल्प में मोटाई चौबीस सौ योजन और ऊंचाई आठ सौ योजन है । आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में मोटाई तेईस सौ योजन और ऊँचाई नौ सौ योजन की है। नवग्रेवेयक के विमानों की मोटाई बाईम सौ योजन और ऊंचाई एक . हजार योजन की है। पांच अनुत्तर के विमानों की मोटाई इक्कीस सौ योजन और ऊंचाई ग्यारह सौ योजन की है। संस्थान-सौधर्मादि कल्पों में विमान दो तरह के हैं--आवलिकाप्रविष्ट और आबलिका बाह्य । आवलिकाप्रविष्ट (पक्तिबद्ध) तीन संस्थानों वाले हैं-वृत्त (गोल), यंस (त्रिकोण) और चतुरस्र (चार कोण वाले) । आवलिका बाह्य अनेक संस्थानों वाले हैं। विमानों का प्रमाण, रंग, कान्ति गन्ध आदि का वर्णन जीवाभिगमसूत्र से जान लेना चाहिये। ... ॥ दूसरे शतक का सातवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक २ उद्देशक ८ चमरचंचा राजधानी _ ५१ प्रश्न कहिं णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सभा सुहम्मा पण्णता ? . .. ५१ उत्तर-गोयमा ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेजे दीव-समुद्दे वीइवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसयसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिन्दस्स असुरकुमार For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ८ चमरचंचा राजधानी रण्णो तिगिच्छकूडे नाम उप्पायपव्वर पण्णत्ते, सत्तरसएकवीसे जोयणसए उड्ढे उच्चत्तेणं, चत्तारितीसे जोयणसए कोसं च उव्वेहेणं, गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पमाणेणं नेयव्वं, नवरं-उवरिल्लं पमाणं मझे भाणियव्वं जाव (मूले दलबावीते जोयणसए विक्खंभेणं, मझे चत्तारि चउवीसे जोयणसए विक्खंभेणं उवरि सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, मूले तिण्णि जोयणसहस्साई, दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य इगयाले जोयणसए किंचि विसेसूणे परिवखेवेणं, उवरि दोण्णि य जोयणसहस्साई, दोण्णि य छलसीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं) मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, मज्झे वरवइरविग्गहिए, महामउंदसंठाणसंठिए, सव्वरयणानए अच्छे जाव-पडिरूवे, से णं एगाए परमवरवेइयाए, एगेणं वणसंडेण य सवओ समंता संपरिक्खित्ते । पउमवरवेइयाए, वणसंडस्स य वण्णओ। विशेष शब्दों के अर्थ-रण्णो-राजा, वोइवत्ता-उल्लंघन करके, ओगाहिता-अवगाहन, करके, विक्खंभेणं-विष्कम्भ, परिक्खेवेणं-परिक्षेप = घेरा, उड्ढं उच्चत्तेणं-ऊपर की तरफ की ऊंचाई, विसेसूणे-विशेष कम, विसेसाहिए-विशेषाधिक, वित्थडे-विस्तृत, संखितेसंक्षिप्त, उप्पि विसाले-ऊपर से विशाल, वरवइरविग्गहिए-उत्तम वज्र जैसे आकारवाला, महामउंदसंठाणसंठिए-बड़े मुकुन्द (एक प्रकार का वादिन्त्र) की तरह। . . भावार्थ-५१ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर को सुधर्मा-सभा कहाँ पर है ? For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ८ चमरचंचा राजधानी ५०५ ५१ उत्तर-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में रहे हुए मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में तिर्छ असंख्यात द्वीप और समुद्रों को उल्लंघन करने के बाद अरुणवर नाम का द्वीप आता है। उस द्वीप की वेदिका के बाहरी किनारे से आगे बढ़ने पर अरुणोदय नाम का समुद्र आता है । इस अरुणोदय समुद्र में बयालीस हजार योजन जाने के बाद उस जगह असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर का तिगिच्छ कूट नामक उत्पात पर्वत आता है। उसकी ऊंचाई १७२१ योजन है, उसका उद्वेध (जमीन में गहराई) ४३० योजन और एक कोस है। इस पर्वत का नाप गोस्तुम नाम के आवास पर्वत के नाप की तरह जानना चाहिए । विशेषता यह है कि गोस्तुभ पर्वतं के ऊपर के भाग का जो नाप है वह नाप यहाँ बीच के भाग का समझना चाहिए। अर्थात् तिगिच्छक कट पर्वत का विष्कम्भ मल में १०२२ योजन है। बीच का विष्कम्भ ४२४ योजन है और ऊपर का विष्कम्भ ७२३ योजन है। उसका परिक्षेप मूल में ३२३२ योजन से कुछ विशेषोन है। बीच का परिक्षेप १३४१ योजन से कुछ विशेषोन है। ऊपर का परिक्षेप २२८६ योजन तथा कुछ विशेषाधिक है । वह मूल में विस्तृत है, बीच में संकड़ा है और ऊपर फिर विस्तृत है। उसके बीच का भाग उत्तम वन जैसा है, बड़े मुकुन्द के आकार जैसा है। वह पर्वत सम्पूर्ण रत्नमय है, सुन्दर है यावत् प्रतिरूप है। वह पर्वत पद्मवर वेविका से और एक वनखण्ड से चारों तरफ से घिरा हुआ है। (यहाँ वेदिका और वनखण्ड का वर्णन करना चाहिए)। । विवेचन-पहले उद्देशक में देवों के स्थानों के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है । इस उद्देशक में चमरचञ्चा नामक देवस्थान (राजधानी) का वर्णन किया गया है। - सब द्वीपों के बीच में स्थित जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण की तरह तिर्छा असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करने के बाद अरुणवर नामक द्वीप आता है। उसकी वेदिका के बाहरी भाग से आगे जाने पर अरुणोदय समुद्र आता है । उस अरुणोदय समुद्र में बयालीस हजार योजन जाने पर असुरेन्द्र असुरराज चमर का तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत आता है। For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. २ उ.८ चमरचेचा राजधानी "तिर्यगलोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वतः" . तिर्छालोक में जाने के लिए जिस पर्वत पर आकर चमर उत्पतन करना है-उड़ता है उसको उत्पात पर्वत कहते हैं। लवण समुद्र के बीच में पूर्व दिशा में 'गोस्तुभ' नाम का पर्वत नागराज का आवास पर्वत है । उसके आदि भाग का विष्कम्भ १०२२ योजन, मध्य का ७२३ और अन्तिम ४२४ योजन. है, किन्तु इस उत्पात पर्वत के आदि भाग का विष्कम्भ १०२२ योजन, बीच भाग का ४२४ और अन्तिम भाग का विष्कम्भ ७२३ योजन है । इसके मूल का परिक्षेप ३२३२ योजन से कुछ कम है। मध्य भाग का परिक्षेप १३४१योजन से कछ कम है, और ऊपर के भाग का परिक्षेप २२८६ योजन से.किञ्चित् विशेषाधिक है । यह पर्वत बीच में पतला है। इसका आकार उत्तम वज़ के आकार समान है। अथवा मुकुन्द' नाम के बाजे के समान है । आकाश स्फटिक के समान निर्मल है । यहां मूलपाठ में 'यावत्' शब्द दिया है जिससे इतने विशेषण और लेने चाहिए-'सण्हे लण्हे घट्टे मढे णिरए णिम्मले णिपके णिक्कंकडच्छाए सप्पभे समिरिईए सउज्जोए पासाईए।' इनका अर्थ इस प्रकार है-'सण्हेश्लक्षणः' चिकने पुद्गलों से बना हुआ होने के कारण चिकना है। 'लण्हे-मसृण'-मुंहाला । 'घठे-घृष्ट'-शाण पर चढ़ा कर घिस कर तैयार किये हुए हीरे आदि के समान । 'मठेमृष्ट' सुकुमाल शाण पर चढ़ाये हुए जवाहरात के समान चिकना और साफ । 'णिरए' नीरज-रज रहित । 'णिम्मले' निर्मल। 'णिप्पंके' निष्पङ्क-कीचड़ रहित । 'णिक्कंकडच्छाए' निरावरण दीप्ति-शुद्ध कान्ति वाला । 'सप्पमें सत्प्रभाव-अच्छी प्रभा वाला। 'समिरिईए' सकिरण-किरणों वाला । 'उज्जोए' सउद्योत-समीप के पदार्थों को प्रकाशित करने वाला। 'पासाईए' प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला । ऐसा वह उत्पात पर्वत है। वह पावरवेदिका से वेष्टित है। उस वेदिका की ऊंचाई आधा योजन है। उसका विष्कम्भ पांच सौ धनुष है। वह सर्वरत्नमयी है। उसका परिक्षेप तिगिच्छकूट के ऊपर के भाग का जितना परिक्षेप है, उतना है। इस प्रकार संक्षेप में उस उत्तम पद्मवरवेदिका का वर्णन है। . तस्स णं तिगिच्छकुडस्स उप्पायपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णओ। तस्स णं बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एगे पासायवडिंसए For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २ उ. चमरवंचा राजधानी पण्णत्ते । अढाइज्जाई जोगणसयाई उडूढं उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयणसयाई विक्खभेणं । पासायवण्णओ । उल्लोयभूमिवण्णओ । अट्टजोयणाई मणिपेढिया, चमरस्स सीहासणं सपरिवारं भाणियध्वं । तस्स णं तिगिच्छकूडस्स दाहिणेणं छक्कोडिसए पणवन्नं च कोडीओ पणतसंच सयसहस्साईं पण्णासं च सहस्साइं अरुणोदय समुद्दे तिरियं वीवत्ता अहे रयणप्पभाए पुढवीए चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचा नामं रायहाणी पण्णत्ता । विशेष शब्दों के अर्थ – पासायवडसए - प्रासादावतंसक = महल | भावार्थ-: -उस तिगिच्छकूट नामक उत्पातपर्वत का ऊपरी भाग ऊबड़ खाबड़ रहित बिल्कुल सम है। वह बड़ा ही मनोहर है। ( उसका वर्णन भी यहां कहना चाहिए ) | उसके बहुसम रमणीय ऊपरी भाग के ठीक बीचोबीच एक बड़ा प्रासादावतंसक (महल) है । उस प्रासादावतंसक की ऊंचाई २५० योजन है । उसका विष्कम्भ १२५ योजन | ( यहाँ उस प्रासादावतंसक - महल का वर्णन कहना चाहिए ) तथा उस महल के ऊपर के भाग का वर्णन करना चाहिए ) । आठ योजन की मणिपीठिका है । (यहाँ चमर के सिंहासन का परिवार सहित वर्णन कहना चाहिए ) । ५०७ तिगच्छकूट के दक्षिण की तरफ अरुणोदय समुद्र में छह सौ करोड़ पचपन करोड़ पैंतीस लाख और पचास हजार योजन तिच्र्च्छा जाने के बाद नीचे रत्नप्रभा का चालीस हजार योजन भाग अवगाहन करने के पश्चात् इस जगह असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर की चमरचंचा नाम की राजधानी आती है ।. विवेचन --- वह वनखण्ड से घिरा हुआ है। उस वनखण्ड का चक्रवाल विष्कम्भ For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ भगवती सूत्र-श. २ 3. ८ चमरचंचा राजधानी देशोन दो योजन है। उसका परिक्षेप पावरवेदिका के परिक्षेप जितना है । वह काला है और काली कान्ति वाला है। उस पर्वत का ऊपर का भाग बहुसम रमणीय है। वह भूमिभाग मुरजमुख के समान है, मृदंग पुष्कर के समान है सरोवर के तल के समान है । आदर्शमण्डल, हाथ का तला (हथेली) और चन्द्रमण्डल के समान है। उस उत्पात पर्वत के ऊपर बीचोबीच एक प्रासादावतंसक है । वह अत्यन्त सुन्दर और कान्ति से सफेद और प्रभासित है । वह मणि, सुवर्ण और रत्नों की कारीगरी से विचित्र है। उसका ऊपरी भाग भी अत्यन्त सुन्दर है । उस पर हाथी, घोड़ा, बैल आदि के अनेक चित्र हैं। प्रासादावतंसक के बीच में चमरेन्द्र का सिंहासन है। उस मिहामन के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तर पूर्व में चमरेंद्र के चौसठ हजार सामानिक देवों के चौसठ हजार भद्रासन हैं । इसी प्रकार पूर्व में परिवार सहित पांच पटरानियों के पांच भद्रासन सपरिवार हैं । दक्षिण पूर्व में आभ्यन्तर परिषद् के चौबीस हजार देवों के चौबीस हजार भद्रासन हैं। इसी प्रकार दक्षिण में मध्यम परिषद् के अट्ठाईस हजार देवों के अट्ठाईस हजार भद्रासन हैं। दक्षिण पश्चिम में बाह्यपरिषद् के बत्तीस हजार देवों के बत्तीस हजार भद्रासन हैं। पश्चिम में सात सेनाधिपतियों के सात भद्रासन हैं और चारों दिशाओं में आत्मरक्षक देवों के चौसठ हजार, चौसठ हजार भद्रासन हैं । इस प्रकार उस सिंहासन का वर्णन है । एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं जंबूदीवप्पमाणा । पागारो दिवड्ढं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले पन्नासं जोयणाई विखंभेणं, उवरिं अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं । कविसीसगा अद्धजोयणा आयामेणं कोसं विक्खंभेणं देसूणं अद्धजोयणं उड्ढं उच्चतेणं । एगमेगाए बाहाए पंच पंच दारसया अड्ढाइन्जाइं जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अधं विक्खंभेणं, उवारियले णं सोलसजोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, पन्नास जोयणसहस्साई पंच य For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-श. २ उ. ८ चमरचंचा राजधानी सत्ताणउ य जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं सवप्पमाणं वेमाणियप्पमाणस्स अधं नेयव्वं । सभा सुहम्मा, उत्तरपुरस्थिमेणं जिणघरं, ततोववायसभा, हरओ, अभिसेय, अलंकारो जहा विजयस्स। उववाओ संकप्पो अभिसेय विभूसणा य ववसाओ। अवणिय सिद्धायण गमो वि य चमर परिवार इडूढत्तं ॥ ॥ अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-पागारो-प्राकार = किला, कविसीसगा-कंगुरे, हरओ-ह्रद, अभिसेय-अभिषेक करने का स्थान । भावार्थ-उस राजधानी का आयाम और विष्कम्भ (लम्बाई और चौडाई) एक लाख योजन है । वह राजधाती जम्बूद्वीप जितनी है । उसका किला १५० योजन ऊंचा है। उस किले के मूल का विष्कम्म पचास योजन है। उसके ऊपर के भाग का विष्कम्भ साढे तेरह योजन है । उसके कपिशीर्षक (कंगरों) की लंबाई आधा योजन हैं और विष्कम्भ एक कोस है । कपिशीर्षक (कंगुरों) को ऊंचाई आधे योजन से कुछ कम है । उसके एक एक बाहु में पांच सौ पांच सौ दरवाजे हैं। उनकी ऊंचाई २५० योजन है। विष्कम्भ ऊंचाई से आधा है अर्थात् १२५ योजन है । उवरियल (घर के पीठबन्ध जैसा भाग) का आयाम और विष्कम्भ (लम्बाई और चौडाई) सोलह हजार योजन है । उसका परिक्षेप (घेरा) ५०५९७ योजन से कुछ विशेषोन है । यहाँ सर्व प्रमाण वैमानिक के प्रमाण से आधा समझना चाहिए । सुधर्मा सभा, उत्तर पूर्व में जिनगृह, उसके बाद उपपात समा, हैद, अभिषेक और अलङ्कार, यह सारा वर्णन विजय की तरह कहना For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० चाहिए । भगवती सूत्र - श. २ उ. ८ चमरवंचा राजधानी गाथा का अर्थ इस प्रकार है उपपात, संकल्प, अभिषेक, विभूषणा, व्यवसाय, अर्चनिका और सिद्धायतन सम्बन्धी गम तथा चमर का परिवार और उसकी ऋद्धिसम्पन्नता । विवेचन - चमरेन्द्र को चमरचञ्चा राजधानी में जो किला, महल और सभा आदि हैं उनकी ऊंचाई आदि का परिमाण सौधर्म देवलोक के किला, महल और सभा आदि के परिमाण से आधा परिमाण है । वह इस प्रकार है; सौधर्म देवलोक में रहने वाले देवों के विमानों के आसपास रहे हुए किले की योजन ऊंचा है। मूल महल के परिवार योजन है । उन चार महलों में से प्रत्येक ऊंचाई तीन सौ योजन है। मूल महल पांच सौ रूप दूसरे चार महल हैं. उनकी ऊंचाई ढाई सौ महल के आसपास दूसरे चार चार महल और हैं, उनकी ऊंचाई सवा सौ योजन है । उन चार महलों में से प्रत्येक महल के आसपास फिर चार चार महल हैं, उनकी उंचाई ६२ ।। योजन है । इसी प्रकार उन चार महलों में से प्रत्येक महल के आसपास फिर चार चार महल हैं, उनकी ऊंचाई ३१ योजन है । यहाँ चमरचञ्चा राजधानी में किले की ऊंचाई १५० योजन है । मूल महल की ऊंचाई २५० योजन है और क्रमशः उनके आसपास रहे हुए महलों की ऊंचाई क्रमश: आधी आधी होती गई है । इस प्रकार अन्तिम महल की ऊंचाई पन्द्रह योजन और एक योजन का पाँच अष्टांश है । चार परिपाटियों में कुल ३४१ प्रासाद हैं । इन प्रासादों से उत्तरपूर्वईशान कोण में सुधर्मा सभा, सिद्धायतन, उपपात सभा, ह्रद, अभिषेक सभा, अलङ्कार सभा और व्यवसाय सभा है। इन सब का परिमाण सौधर्म देवलोक के देवों की सभा आदि के परिमाण से आधा है । अतः इनकी ऊंचाई ३६ योजन है, लम्बाई पचास योजन है और चौड़ाई पचीस योजन हैं । वाभिगम सूत्र में विजयदेव की सभा आदि का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ चमरेन्द्र के लिए उपपोत सभा पर्यन्त वर्णन कहना चाहिए । उपपात सभा में तत्काल उत्पन्न हुए इन्द्र को ऐसा विचार होता है कि मुझे क्या कार्य करना है । मेरा क्या जीताचार है ? फिर सामानिक देवों द्वारा बड़ी ऋद्धि से अभिषेक सभा में उसका अभिषेक किया जाता है । अलङ्कार सभा में वस्त्राभूषणों से अलङ्कार किया जाता है । व्यवसाय सभा में पुस्तक का वाचन किया जाता हैं। सिद्धायतन में मूर्ति का पूजन किया जाता है। For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. ९ समय क्षेत्र फिर सामानि देव आदि परिवार सहित चमरेन्द्र सुधर्मा सभा में आते हैं । उनका सामानिक परिवार आदि सारा वर्णन कहना चाहिए । || दूसरे शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक २ उद्देशक ₹ समय क्षेत्र ५२ प्रश्न - किमिदं भंते ! समयखेत्ते त्ति पवुच्चइ ? ५२ उत्तर - गोयमा ! अड्ढाइज्जा दीवा दो य समुद्दा एस णं एवइए समयखे तेत्ति. पवुच्चर, तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव - समुद्दाणं सव्वभंतरे, एवं जीवाभिगमवत्तब्वया नेयव्वा, जावअभिंतरं पुक्खरधं जोइसविहूणं । ॥ नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५११ विशेष शब्दों के अर्थ – समयखेत्ते – समय क्षेत्र = मनुष्य क्षेत्र, पबुच्चइ–कह लाता है, पुक्खर - पुष्करार्द्ध, एवइए - इतना, सव्वमंतरे - सर्वाभ्यन्तर । 'भावार्थ - ५२ प्रश्न - हे भगवन् ! समय क्षेत्र किसको कहते हैं ? ५२ उत्तर - हे गौतम! अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र, यह समयक्षेत्र कहलाता है। इनमें जो यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप है, यह सब द्वीप समुद्रों के बीचोबीच है । इस प्रकार जीवाभिग्रम सूत्र में कहा हुआ सारा वर्णन यहाँ कहना चाहिए यावत् आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध तक कहना चाहिए, किन्तु उसमें से ज्योति - षियों का वर्णन यहाँ नहीं कहना चाहिए । विवेचन - आठवें उद्देशक में चमरचञ्चा राजधानी का वर्णन किया गया है । वह क्षेत्र सम्बन्धी वर्णन है । इसलिए क्षेत्र का अधिकार होने से इस नौवें उद्देशक में समयक्षेत्र सम्बन्धी वर्णन किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ . भगवती सूत्र-श. २ उ. १० पंचास्तिकाय वर्णन समय अर्थात् काल से उपलक्षित क्षेत्र 'समय-क्षेत्र' कहलाता है । सूर्य की गति से प्रकट होने वाला दिवस मासादि रूप काल, मनुष्य क्षेत्र में ही हैं, इसके आगे नहीं है। क्योंकि इससे आगे के सूर्य, चर (गति वाले) नहीं हैं, किन्तु अचर (स्थिर) हैं। इस विषय में जीवाभिगम सूत्र में जो वर्णन दिया है, वह यहां भी कहना चाहिए, किन्तु वहाँ जो ज्योतिषी देवों का वर्णन दिया गया है, वह यहाँ नहीं कहना चाहिए । यावत् मनुष्यलोक किसे कहते हैं ? इस विषय में एक संग्रह गाथा दी गई है। वह इस प्रकार है; अरिहंत समय-बायर-विज्जू-थणिया बलाहगा अगणी। आगर-णिहि-गई-उवराग-णिग्गमे बुट्टिवयर्ण-च ।।... अर्थ-मानुषोत्तर पर्वत तक मनुष्यलोक कहलाता है । जहां तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका और मनुष्य हैं, वहाँ तक 'मनुष्यलोक' कहलाता है। जहाँ तक समय, आवलिका आदि काल है, स्थूल बिजली है, मेघ का स्थूल गड़गड़ाहट है, स्थूल मेघ बरसते हैं, स्थूल अग्निकाय है, आगर, निधि, नदी, उपराग (चन्द्र सूर्य का ग्रहण) है, चन्द्र, सूर्य, तारा का अतिगमन (उत्तरायण), निर्गमन (दक्षिणायन), दिन रात्रि का बढ़ना और घटना, इत्यादि हैं, वहाँ तक समय क्षेत्र-मनुष्यक्षेत्र है । ॥ दूसरे शतक का नौवाँ उद्देशक समाप्त ॥ शतक २ उद्देशक १० पंचास्तिकाय वर्णन ५३ प्रश्न-कइ णं भंते ! अथिकाया पण्णत्ता ? ५३ उत्तर-गोयमा ! पंच अत्विकाया पण्णता, तं जहाःधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। ५४ प्रश्न-धम्मत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कति For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १. पंचास्तिकाय वर्णन ५१३ रसे, कतिकासे ? - ५४ उत्तर-गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, अरूवी अजीवे, सासए, अवढिए लोगदव्वे । ५५-से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाः-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ। दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दब्बे, खेतओ णं लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसि न कयाइ नत्थि जाव-णिच्चे, भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, गुणओ. गमणगुणे । अहम्मत्थिकाए वि एवं चेव, नवरंगुणओं ठाणगुणे । आगासत्थिकाए वि एवं चेव, नवरं-खेत्तओ णं आगासत्थिकाए लोयालोयप्पमाणमेत्ते, अणंते चेव जाव-गुमओ अवगाहणागुणे। विशेष शब्दों के अर्थ-समासओ-संक्षेप से, अबगाहणागुणे-अवगाहन गुण वाला। • भावार्थ-५३ प्रश्न-हे भगवन् ! अस्तिकाय कितने कहे गये हैं ? . ५३ उत्तर-हे गौतम ! अस्तिकाय पाँच कहे गये हैं, यथा--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । ५४ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने . रस और कितने स्पर्श है ? .... ५४ उत्तर-हे गौतम! धर्मास्तिकाय में वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श नहीं है अर्थात् धर्मास्तिकाय अरूपी है, अजीव है, शाश्वत है। यह अवस्थित लोक द्रव्य है। ५५-संक्षेप से धर्मास्तिकाय पांच प्रकार का कहा गया है-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण से। द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है। For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० जीवास्तिकाय का वर्णन क्षेत्र की अपेक्षा धर्मास्तिकाय लोक प्रमाण है । काल की अपेक्षा धर्मास्तिकाय कभी नहीं था-ऐसा नहीं, कभी नहीं है-ऐसा नहीं, कभी नहीं रहेगा-ऐसा भी नहीं, किन्तु वह था, है और रहेगा, यावत् वह नित्य है । भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं । गुण की अपेक्षा गति गुण वाला है। जिस तरह धर्मास्तिकाय का कथन किया है उसी तरह अधर्मास्तिकाय के विषय में भी कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि अधर्मास्तिकाय गुण की अपेक्षा स्थिति गुण वाला है। आकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि आकाशास्तिकाय क्षेत्र की अपेक्षा लोकालोक प्रमाण (अनन्त) है और गुण की अपेक्षा अवगाहना गुण वाला है। ५६ प्रश्न-जीवत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे ? ५६ उत्तर-गोयमा ! अवण्णे, जाव-अरूवी, जीवे सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते तं जहाः-दव्वओ, जाव-गुणओ। दबओ णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं, खेतओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसी, जाव-निच्चे, भावओ पुण अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, गुणओ उवओगगुणे । . विशेष शब्दों के अर्थ-कति-कितने, समासओ-संक्षेप से, अवदिए-अवस्थित। भावार्थ-५६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! जीवास्तिकाय में वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श नहीं है। वह अरूपी है, जीव है, शाश्वत है और अवस्थित लोकान्य है । संक्षेप में For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-- श. २ उ. १० पुद्गलास्तिकाय का वर्णन जीवास्तिकाय के पांच भेद कहे गये हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा । द्रव्य की अपेक्षा जीवास्तिकाय अनन्त जीव द्रव्यरूप है। क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण है । काल को अपेक्षा वह कभी नहीं था-ऐसा नहीं, यावत् वह नित्य है । । भाव की अपेक्षा जीवास्तिकाकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं और स्पर्श नहीं है। गुण की अपेक्षा उपयोग गुण वाला है। ५७ प्रश्न-पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! कतिवणे, कतिगंध-रसफासे ? ५७ उत्तर-गोयमा ! पंचवण्णे, पंचरसे, दुगंधे, अट्ठफासे, रूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए, लोगदब्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते तं जहाः-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ । दवओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाई, खेत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसी जाव-णिच्चे, भावओ वण्णमंते गंध-रस-फासमंते । गुणओ गहणगुणे। - विशेष शब्दों के अर्थ-गहणगुणे- ग्रहण गुण । भावार्थ-५७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? . ५७ उत्तर-हे गौतम ! पुद्गलास्तिकाय में पांच वर्ण है, पांच रस हैं, दो गन्ध हैं, आठ स्पर्श हैं। वह रूपी है, अजीव है, शाश्वत हैं और अवस्थित लोक द्रव्य है । संक्षेप में उसके पांच भेद कहे गये हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा । द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्यरूप है। क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण है । काल की अपेक्षा वह कभी नहीं था-ऐसा नहीं यावत् नित्य है । भाव की अपेक्षा वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला है । गुण For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ . भगवती सूत्र-श. २ उ. १० धर्मास्तिकाय विषयक प्रश्नोत्तर की अपेक्षा ग्रहण गुणवाला है। ५८ प्रश्न-एगे भंते ! धम्मत्थिकायपदेसे धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ? ५८ उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समढे । एवं दोणि वि तिष्णि वि चत्तारि वि पंच छ सत्त अट्ट नव दस संखेजा। । ५९ प्रश्न-असंखेना भंते ! धम्मत्थिकायपएसा ‘धम्मत्थिकाए' त्ति वत्तवं सिया ? ५९ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समझे। ६० प्रश्न-एगपएसूणे वि य णं भंते ! धम्मत्थिकाए धम्मस्थिकाए ति वत्तव्वं सिया ? ६० उत्तर-णो इणटे समढे। ६१ प्रश्न-से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ एगे धम्मत्थिकायपएसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया, जाव एगपएसूणे वि य णं धम्मत्यिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ? . ६१ उत्तर-से पूर्ण गोयमा ! खंडे चक्के ? सकले चक्के ? भगवं ! नो खडे चक्के, सकले चक्के, एवं छत्ते, चम्मे, दंडे, दूसे, आउहे, मोयए: से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, एगे धम्मत्थिकायपएसे णो धम्मत्थिकाए त्ति. वत्तव्वं सिया, जाव-एगपएसूणे वि य For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० धर्मास्तिकाय विषयक प्रश्नोत्तर ५१७ णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया। ... ६२ प्रश्न-से किं खाइए णं भंते ! धम्मस्थिकाए ति वत्तव्यं सिया ? ६२ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा धम्मस्थिकाए पएसा, ते सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एगगहणगहिया एस गं गोयमा ! धम्मत्थिकाए ति वत्तव्वं सिया, एवं अहम्मस्थिकाए वि, आगासस्थिकाए वि, जीवत्थिकाय-पोग्गलथिकाए वि एवं चेव, नवरं-तिण्णं पि पदेसा अणंता भाणियव्वा, सेसं तं चेव । विशेष शब्दों के अर्थ-दूसे-दूष्य-वस्त्र, आउहे-आयुध = शस्त्र, मोयएमोदक-लड्डू, कसिणा-सब-सम्पूर्ण, पडिपुण्णा-सम्पूर्ण, निरवसेसा-निरवशेष, एगगहण- . गहिया-एक के ग्रहण करने पर सब का ग्रहण होना। ___भावार्थ-५८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय कहलाता है ? - ५८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय नहीं कहलाता है । इसी तरह से दो प्रदेश, तीन प्रदेश चार प्रदेश, पांच प्रदेश, छह प्रदेश, सात प्रदेश, आठ प्रदेश, नौ प्रदेश, बस प्रदेश और संख्यात प्रदेश भी धर्मास्तिकाय नहीं कहलाते हैं। ५९ प्रश्न हे भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रवेश, धर्मास्तिकाय कहलाते हैं ? .... ५९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रवेश, धर्मास्तिकाय नहीं कहलाते हैं। ६० प्रश्न- हे भगवन् ! एक प्रदेश से कम धर्मास्तिकाय को क्या धर्मास्तिकाय कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ भगवती सूत्र-श. २ उ. १. धर्मास्तिकाय विषयक प्रश्नोत्तर ६० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् एक प्रदेशोन धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कहते हैं। ६१ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् जहाँ तक एक भी प्रदेश कम हो वहां तक धर्मास्तिकाय नहीं कहना चाहिए ? ६१ उत्तर-हे गौतम ! यह बतलाओ कि चक्र का खण्ड (भाग-टुकड़ा) 'चक्र' कहलाता है, या सम्पूर्ण चक्र, चक्र कहलाता है ? हे भगवन् ! चक्र का खण्ड, चक्र नहीं कहलाता है, किन्तु सम्पूर्ण चक्र, चक्र कहलाता है। इसी प्रकार छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, शस्त्र और मोदक के विषय में भी जानना चाहिए अर्थात् ये सब छत्रादि सम्पूर्ण हों, तो छत्रादि कहलाते हैं, किन्तु इनका खण्ड छत्रादि नहीं कहलाते हैं, इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश यावत् जबतक एक प्रदेश भी कम हो तबतक उसे धर्मास्तिकाय नहीं कहते हैं।' ६२ प्रश्न-तो फिर हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय किसे कहते हैं ? ६२ उत्तर-हे गौतम ! धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, वे सब कृत्स्न (पूरे), प्रतिपूर्ण, निरवशेष (जिन में से एक भी बाकी नहीं बचा हो), एकग्रहण-गृहीत अर्थात् एक शब्द से कहने योग्य हों तब उन असंख्यात प्रदेशों को 'धर्मास्तिकाय' कहते हैं। इसी तरह अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवा. स्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन तीन द्रव्यों के अनन्त प्रदेश कहने चाहिए । बाकी सारा वर्णन पहले की तरह समझना चाहिये। विवेचन-नौवें उद्देशक में क्षेत्र के विषय में कथन किया गया है । वह क्षेत्र अस्तिकाय के एक देश रूप है, इसलिए दसवें उद्देशक में 'अस्तिकाय' का वर्णन किया गया है। अस्तिकाय-'अस्ति' का अर्थ है 'प्रदेश' और 'काय' का अर्थ है-'समूह' । अर्थात् अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह। अथवा 'अस्ति' यह तीन काल को सूचित करने For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. उ. १० धर्मास्तिकाय विषयक प्रश्नोत्तर वाला अव्यय ( निपात) है । इसलिए 'अस्तिकाय' का यह अर्थ हुआ कि जो प्रदेशों का समूह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्यत्काल में रहेगा, उसे 'अस्तिकाय ' कहते हैं । ५१९ अस्तिकाय पांच हैं- १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ जीवास्तिकाय और ५ पुद्गलास्तिकाय । यहां पर यह शंका हो सकती है कि इन पाँच अस्तिकायों का यही क्रम क्यों रखा गया है ? इसका समाधान इस प्रकार है- 'धर्मास्तिकाय' के प्रारम्भ में 'धर्म' शब्द आया है । 'धर्म' शब्द मंगल सूचक है, इसलिए सब तत्त्वों में पहले 'धर्मास्तिकाय' कहा गया है । 'धर्मास्तिकाय' का विपरीत 'अधर्मास्तिकाय' है । इसलिए 'धर्मास्तिकाय' के बाद 'अधर्मास्तिकाय' कहा गया है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, इन दोनों के लिए 'आकाशास्तिकाय' आधार रूप है, इसलिए इन दोनों के बाद 'आकाशास्तिकाय' कहा गया है । आकाश, अनन्त और अमूर्त है तथा जीव भी अनन्त और अमूर्त है । इस प्रकार इन दोनों तत्त्वों की समानता होने से आकाशास्तिकाय के बाद चौथा तत्त्व 'जीवास्तिकाय' कहा गया है। जीव तत्त्व के उपयोग में 'पुद्गल तत्त्व' आता है । इसलिए 'जीवास्तिकाय' के बाद 'पुद्गलास्तिकाय' कहा गया है । धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य वर्णादि रहित हैं, इसीलिए वे अरूपी, अमूर्त हैं । किंतु वे निःस्वभाव नहीं हैं । धर्मास्तिकायादि द्रव्यतः शाश्वत हैं, प्रदेशों की अपेक्षा अवस्थित हैं । धर्मास्तिकाय आदि प्रत्येक 'लोक- द्रव्य' हैं अर्थात् पञ्चास्तिकाय रूप लोक के अंशरूप द्रव्य हैं । गुण ( कार्य ) की अपेक्षा धर्मास्तिकाय गति ( गमन) गुण वाला है । तात्पर्य यह है कि जैसे पानी, मछली को चलने में सहायता देता है, उसी प्रकार गति क्रिया में परिणत हुए जीव और पुद्गलों को धर्मास्तिकाय सहायता देता है । अधर्मास्तिकाय स्थिति गुण वाला है अर्थात् स्थिति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है । जैसे-विश्राम चाहने वाले थके हुए पथिक के ठहरने में छायादार वृक्ष सहायक होता है । आकाशास्तिकाय अवगाहन गुण वाला है अर्थात् जीवादि द्रव्यों को रहने के लिए अवकाश देता है । जैसे - बदरीफलों (बेर) को रखने के लिए कुण्डा आधारभूत है, इसी तरह आकाश तत्त्व, जीवादि को अवकाश देता है । इसलिए वह अवगाहना गुण वाला है । जीव तत्त्व, उपयोग गुण वाला है । पुद्गलास्तिकाय, ग्रहणगुण वाला है, क्योंकि । For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० भगवती सूत्र-श. २ उ. १० जीव का स्वरूप औदारिकादि अनेक पुद्गलों के साथ जीव का सम्बन्ध होता है, अथवा प्राणधारी जीव, औदारिक आदि अनेक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण किया करता है। जैसे-चक्र का खण्ड (चक्र का एक भाग) चक्र नहीं कहलाता है। किन्तु वह चक्रखण्ड कहलाता है । सम्पूर्ण चक्र को ही-'चक्र' कहते हैं। इसी तरह से जबतक एक प्रदेश की भी कमी हो वहाँ तक उसे धर्मास्तिकाय नहीं कहते है परन्तु जब सभी पूरे प्रदेश हों, तभी उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं जब वस्तु पूरी हो तभी वह वस्तु कहलाती है, किन्तु अधूरी वस्तु, वस्तु नहीं कहलाती है। यह निश्चय नय का मत है । व्यवहार नय की दृष्टि से तो थोड़ी सी अधूरी वस्तु को भी पूरी वस्तु कहा जा सकता है । व्यवहार नय घड़े के टुकड़े को भी घड़ा कहता है । जिस कुत्ते के कान कट गये हों अर्थात् जो कुत्ता बुच्चा हो उसको 'कुत्ता' ही कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का एक भाग विकृत हो गया हो, वह वस्तु, अन्य वस्तु नहीं हो जाती, किन्तुं वह वही मूलवस्तु कहलाती है, क्योंकि उसमें उत्पन्न विकार मूल वस्तु की पहचान में बाधक नहीं होता है । इस प्रकार व्यवहार नय का मन्तव्य है । धर्मास्तिकाय के प्रदेश सब हों, कृत्स्न (पूरे के पूरे) हों, प्रतिपूर्ण हों अर्थात् अपने अपने स्वभाव में प्रतिपूर्ण हो, निरवशेष हो अर्थात् प्रदेशान्तर से भी अपने स्वभाव से कम-न हों और धर्मास्तिकायरूप एक शब्द से कहे जा सकते हों उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं । इसी तरह अधर्मास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिए । धर्मास्तिकाय के प्रदेश . असंख्यात हैं और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश भी असंख्यात हैं । आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन तीनों के प्रदेश अनन्त अनन्त हैं । धर्मास्तिकाय की तरह इन तीनों के भी अपने अपने अनन्त प्रदेशों के समह को क्रमशः आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय कहते हैं। जीव का स्वरूप ६३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीतिवत्तव्वं सिया ? For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० जीव का स्वरूप ५२१ . . ६३ उत्तर-हंता गोयमा ! जीवे णं जाव उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया। ६४ प्रश्न-से केणटेणं जाव-वत्तव्वं सिया ? ६४ उत्तर-गोयमा ! जीवे णं अणंताणं आभिणिबोहियणाणपजवाणं एवं सुयणाणपजवाणं ओहिणाणपजवाणं मणपजवणाणपजवाणं केवलणाणपजवाणं मइअण्णाणपजवाणं सुयअण्णाणपजवाणं विभंगण्णाणपजवाणं चक्खुदंसणपजवाणं अचक्खुदंसणपजवाणं ओहिदंसणपजवाणं केवलदसणपजवाणं उवओगं गच्छइ, उवओगलक्खणे णं जीवे, से एएणटेणं एवं वुच्चइ गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे, जाव वत्तव्वं सिया। विशेष शब्दों के अर्थ-उवदंसेति-दिखलाता है, आयभावेणं-आत्मभाव से। भावार्थ-६३ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम वाला जीव, आत्मभाव से जीवत्व को दिखलाता है, क्या ऐसा कहना चाहिए ? ६३ उत्तर-हाँ, गौतम ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम वाला जीव, आत्मभाव से जीवत्व को दिखलाता है , प्रकाशित करता है, ऐसा कहना चाहिए। ६४ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है। - ६४ उत्तर-हे गौतम ! जीव, आमिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्याय, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्याय, अवधिज्ञान के अनन्त पर्याय, मनःपर्यय ज्ञान के अनन्त पर्याय, केवलज्ञान के अनन्त पर्याय, मतिअज्ञान के अनन्त पर्याय, श्रुतअज्ञान के अनंत पर्याय, विभंगज्ञान (अवधिअज्ञान) के अनंत पर्याय, चक्षुदर्शन के अनंत पर्याय For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० आकाश के भेद अचक्षुदर्शन के अनन्त पर्याय, अवधिदर्शन के अनन्त पर्याय और केवलदर्शन के अनन्त पर्याय, इन सब के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का उपयोग लक्षण है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम वाला जीव, आत्मभाव से जीवत्व को दिखलाता है-प्रकाशित करता है। . विवेचन-'जीवास्तिकाय उपयोग गुण वाला है।' यह बात पहले के प्रकरण में कही गई है । अब जीवास्तिकाय का एक देशरूप एक जीव उत्थानादि वाला है, यह बात बतलाई गई है। यहाँ मूलपाठ में 'सउट्ठाणे, सकम्मे' इत्यादि जीव के विशेषण दिये गये हैं, इससे मुक्त (सिद्ध) जीव का यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि मुक्त जीव में उत्थानादि नहीं होते हैं । यहाँ संसारी जीव का ग्रहण किया गया है। ... _'आत्मभाव' का अर्थ है-उत्थान (उठना),शयन, गमन, भोजन आदि रूप आत्मपरिणाम । इस प्रकार के आत्मपरिणाम द्वारा जीव, जीवत्व (चैतन्य) को दिखलाता है, क्योंकि जब विशिष्ट चेतना शक्ति होती है तभी विशिष्ट उत्थानादि होते हैं। बुद्धिकृत विभाग को पर्यव (पर्यय-पर्याय) कहते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान के ऐसे - पर्यव अनन्त हैं । इसलिए उत्थानादि भाव में वर्तता हुआ आत्मा, आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) सम्बन्धी अनन्त पर्यवों के उपयोग को आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यव रूप एक प्रकार के चैतन्य को प्राप्त करता है। शंका-उत्थानादि आत्मभाव में वर्तता हुआ जीव, आभिनिबोधिक ज्ञान के उपयोग को प्राप्त करता है, तो क्या उसने अपने चैतन्य को प्रकाशित किया-ऐसा कहना चाहिए? समाधान-इसके लिए मूलपाठ में ही कहा है-'उवओगलक्खणे जीवे' अर्थात् जीव का उपयोग लक्षण है। इसीलिए उत्थानादिरूप आत्मभाव द्वारा उपयोगरूप जीवत्व को दिखलाता है । ऐसा कहना चाहिए। आकाश के भेद ६५ प्रश्न कइविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? ६५ उत्तर-गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहाः-लोया For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० आकाश के भेद ५२३ गासे य अलोयागासे य। ____६६ प्रश्न-लोयागासे णं भंते ! किं जीवा, जीवदेसा, जीवप्पएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवप्पएसा ? ६६ उत्तर-गोयमा ! जीवा वि जीवदेसा वि जीवप्पएसा वि, अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवप्पएसा वि । जे जीवा ते नियमा एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचिंदिया आणदिया, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा, जाव-अणिदियदेसा, जे जीवप्पएसा ते नियमा एगिंदियपएसा, जाव-अणिंदियपएसा, जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहाः-रूवी य अरूवी य, जे रूवी ते चरविहा पण्णत्ता, तं जहाः-खंधा, खंधदेसा, खंधपएसा, परमाणुपोग्गला । जे अरूवी ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाःधम्मत्थिकाए णो धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसा, अधम्मंत्थिकाए णो अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए। ६७ प्रश्न-अलोयागासे णं भंते ! किं जीवा, पुच्छा तह चेव ? ____६७ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, जाव-णो अजीवप्पएसा, एगे अजीवदव्वदेसे, अगरुयलहुए, अणंतेहिं अगरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे। विशेष शब्दों के अर्थ-लोयागासे-लोकाकाश, अलोयागासे-अलोकाकाश, अखासमए For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ भगवती सूत्र - श. २ उ. १० आकाश के भेद काल, पुच्छा-पूछना = प्रश्न, तह चेव-वैसे ही, संजुत्ते- संयुक्त । भावार्थ - ६५ प्रश्न - हे भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? ६५ उत्तर - हे गौतम ! आकाश के दो भेद हैं । यथा - लोकाकाश और अलोकाकाश । ६६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं ? अजीव के प्रदेश हैं ? ६६ उत्तर - हे गौतम! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भीं हैं, जीव के प्रदेश भी हैं । अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं, अजीव के प्रदेश भी हैं । जो जीव हैं, वे नियमा ( निश्चित रूप से) एकेन्द्रिय हैं, बेइन्द्रिय हैं, तेइन्द्रिय हैं, चौइन्द्रिय हैं, पञ्चेन्द्रिय हैं और अनिन्द्रिय हैं । जो जीव के देश हैं, वे नियमा एकेन्द्रिय के देश हैं यावत् अनिन्द्रिय के देश । जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं यावत् अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं । जो अजीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-रूपी और अरूपी । जो रूपी हैं, उसके चार भेद कहे गये हैं । यथा - स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु- पुद्गल । जो अरुपी हैं, उसके पाँच भेद कहे गये हैं। यथा-धर्मास्तिकाय है, धर्मास्तिकाय का देश नहीं, धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । अधर्मास्तिकाय है, अधर्मास्तिकाय का देश नहीं, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय है । क्या अलोकाकाश में जीव हैं ? इत्यादि पहले ६७ प्रश्न - हे भगवन् ! की तरह प्रश्न ? ६७ उत्तर - हे गौतम ! अलोकाकाश में जीव नहीं हैं यावत् अजीव के प्रवेश भी नहीं हैं। वह एक अजीव द्रव्य देश है, अगुरुलघु है, तथा अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त है और अनन्त भाग कम सर्व आकाश रूप है । विवेचन - पहले के प्रकरण में जीव के सम्बन्ध में वर्णन किया गया था । जीव का आधार आकाश है । इसलिए अब आकाश के सम्बन्ध में वर्णन किया जाता 1 आकाश के दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । जिस क्षेत्र में धर्मास्तिकाय For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० आकाश के भेद ५२५ आदि द्रव्य हैं, वह क्षेत्र लोकाकाश कहलाता है और जिस क्षेत्र में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य नहीं है, वह क्षेत्र अलोकाकाश कहलाता है । लोकाकाश रूप अधिकरण में सब जीव, जीवों के देश अर्थात् बुद्धिकल्पित जीव के दो तीन आदि विभाग और जीव के प्रदेश अर्थात् जीवदेश के बुद्धिकल्पित ऐसे सूक्ष्म विभाग जिनके फिर दो विभाग न हो सकें वे विभाग, तथा अजीव, अजीवों के देश और अजीवों के प्रदेश रहते हैं। शंका-'लोकाकाश में जीव और अजीव रहते हैं'-ऐसा कहने से ही जीव के देश और प्रदेश तथा अजीव के देश और प्रदेश, लोकाकाश में रहते हैं-यह बात जानी जा सकती है, क्योंकि जीव के देश और प्रदेश, जीव से भिन्न नहीं हैं, तथा अजीव के देश और प्रदेश, अजीव से भिन्न नहीं हैं, अपितु जोव, जीव के देश और प्रदेश, ये सब एक ही हैं। इसी तरह अजीव, अजीव के देश और प्रदेश ये सब एक ही हैं, तो फिर यहाँ जीव के देश और प्रदेश तथा अजीव के देश और प्रदेश अलग क्यों कहे ? इसका क्या कारण है ? . . समाधान-यद्यपि जीव कहने से ही जीव के देश और प्रदेशों का ग्रहण हो जाता हैं। इसी तरह अजीव कहने से ही अजीव के देश और प्रदेशों का ग्रहण हो जाता है, तथापि यहां जीव के देश और प्रदेशों का अलग कथन किया गया है, इसका कारण है और वह यह है कि कितनेक मतावलम्बियों की यह मान्यता है कि-जीवादि पदार्थ अवयव रहित है । उनकी इस मान्यता का खण्डन करने के लिए तथा 'जीवादि पदार्थ सावयव हैं'-इस बात को सूचित करने के लिए 'जीव के देश, जीव के प्रदेश' इत्यादि पृथक् रूप से कथन किया गया है। - अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी । पुद्गल रूपी-मूर्त है और धर्मास्तिकायादि अरूपी-अमूर्त हैं । रूपी के चार भेद हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल। परमाणुओं के समूह को 'स्कन्ध' कहते हैं । स्कन्ध के दो तीन आदि भागों को 'स्कन्धदेश' कहते हैं । स्कन्धदेश के ऐसे सूक्ष्म अंश जिनके फिर विभाग न हो सके उनको 'स्कन्ध प्रदेश' कहते हैं। जो स्कन्धभाव को प्राप्त नहीं हैं, ऐसे सूक्ष्म अंशों को 'परमाणु' कहते हैं। लोकाकाश में रूपी द्रव्य की अपेक्षा से अजीव, अजीवदेश और अजीवप्रदेश भी हैं, यह बात अर्थतः समझी जा सकती है, क्योंकि अजीव का ग्रहण करने से अणु और स्कन्ध का ग्रहण भी हो जाता है। दूसरी जगह अरूपी अजीव के दस भेद कहे गये हैं। जैसे कि-धर्मास्तिकाय, धर्मा For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १.. जीव अजीव के भेद स्तिकाय के देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय के देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय । शंका-जब कि दूसरी जगह अरूपी अजीव के दस भेद कहे हैं, तो यहां पाँच ही भेद कहने का क्या कारण है ? समाधान यहां तीन भेद वाले आकाश को आधार रूप माना हैं, इसलिए उसके तीन भेद यहाँ नहीं गिने गये हैं । आकाश के तीन भेदों को निकाल देने पर सात भेद रहते हैं । सम्पूर्ण लोक की पृच्छा होने से यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकांय के स्कन्धरूप से पूर्ण का ग्रहण कर लिया गया है, इसलिए देश का ग्रहण नहीं किया गया हैं, अतः ये .. दो भेद निकाल देने पर बाकी पांच भेद रहते हैं। . जीव और पुद्गल बहुत हैं, इसलिए ऐसा कहना ठीक ही है-"बहुत जीव, जीवों के बहुत देश, जीवों के बहुत प्रदेश । बहुत पुद्गल, पुद्गलों के बहुत देश, पुद्गलों के बहुत प्रदेश ।" अथवा जीव में और पुद्गल में संकोच विस्तार की शक्ति है । इसलिए जिस जगह में एक जीव या पुद्गल समा सकता है, उतनी ही जगह में अनेक जीव और अनेक पुद्गल समा सकते हैं । इसलिए बहुत जीव और बहुत पुद्गल हो सकते हैं । इसलिए भी ऐसा कहना उचित है कि-बहुत जीव, जीवों के बहुत देश, जीवों के बहुत प्रदेश । बहुत पुद्गल, पुद्गलों के बहुत देश और पुद्गलों के बहुत प्रदेश। रूपी द्रव्य की अपेक्षा बहुत अजीव, अजीवों के बहुत देश और अजीवों के बहुत प्रदेश-ऐसा कहना भी सुसंगत है, क्योंकि एक ही वस्तु के अन्दर भी पृथक् पृथक् तीन वस्तुओं की विद्यमानता है । धर्मास्तिकाय आदि में तो दो वस्तुएं संभावित हैं। यथा-धर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय प्रदेश इत्यादि । जब सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को कहने की इच्छा होती है, तब 'धर्मास्तिकाय' इत्यादि रूप से निर्देश होता है और जब धर्मास्तिकाय आदि के अंशों को कहने की इच्छा होती है, तब 'धर्मास्तिकाय प्रदेश' इत्यादि रूप से कहा जाता है, क्योंकि प्रदेश अवस्थित रूप वाले हैं । धर्मास्तिकाय में उसके देशों की कल्पना करना अयुक्त है, क्योंकि उसके देश अवस्थित रूप वाले नहीं हैं। यद्यपि जीवादिदेश भी अनवस्थित रूप हैं, तथापि वे एक ही आश्रय में भिन्न-भिन्न संभवित हैं, इसलिए उनकी भिन्न-भिन्न प्ररूपणा की गई है। धर्मास्तिकायादि में इस प्रकार नहीं है, क्योंकि वह एक है और संकोचादि धर्म रहित है । इसलिए धर्मास्तिकायादि के देश का निषेध करने के लिए मूल पाठ में 'णो धम्मत्थिकायस्स देसे, णो अधम्मस्थिकायस्स देसे' For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना ५२७ ऐसा. कहा है। ___ इस विषय में चूर्णिकार भी कहते हैं कि-सब अरूपी द्रव्यों का व्यवहार 'समुदय' शब्द से होता है अथवा सब अरूपी द्रव्यों का व्यवहार 'प्रदेश' शब्द से होता है किन्तु, 'देश' शब्द से उनका व्यवहार नहीं होता है, क्योंकि उनके देशों का अनवस्थित प्रमाण है। इसलिए उनका 'देश' शब्द से व्यपदेश करना ठीक नहीं है । इन द्रव्यों में जो 'देश' शब्द का निर्देश किया गया है वह धर्मास्तिकायादि सम्बन्धी व्यवहार के लिए तथा ऊर्ध्व लोकाकाशादि सम्बन्धी स्पर्शनादि विषयक व्यवहार के लिए किया गया है। जैसे कि-धर्मास्तिकाय अपने देश द्वारा ऊर्ध्व लोकाकाश को व्याप्त करता है। इस तरह धर्मास्तिकाय संबंधी व्यवहार है । तथा ऊर्ध्व लीकाकाश द्वारा धर्मास्तिकाय का अमुक देश स्पृष्ट है। इस तरह द्रव्य सम्बन्धी स्पर्शनादि विषयक व्यवहार होता है। इन दोनों व्यवहारों को करने के लिए अरूपी द्रव्यों में भी 'देश' शब्द का व्यवहार किया गया है। . 'अद्धासमय'-अद्धा अर्थात् काल, तद्रूप जो समय, वह 'अद्धासमय' कहलाता है। वर्तमान काल रूप 'अद्धासमय' एक ही है, क्योंकि भूतकाल और भविष्यत्काल असद् रूप है। . इस प्रकार 'लोकाकाश' सम्बन्धी छह प्रश्नों का उत्तर दिया गया है । इसके बाद अलोकाकाश के सम्बन्ध में इसी तरह छह प्रश्न किये गये हैं। यथा-'हे भगवन् ! अलोकाकाश में क्या जीव हैं ? जीव देश हैं ? जीवप्रदेश हैं ? अजीव हैं ? अजीव देश हैं ? या अजीव प्रदेश हैं ?' - इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-अलोकाकाश में जीव नहीं, जीव देश नहीं, जीव प्रदेश नहीं, अजीव नहीं, अजीव देश नहीं और अजीव प्रदेश भी नहीं, किन्तु वह अजीव द्रव्य का एक भाग रूप है, क्योंकि आकाश के दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । इसलिए अलोकाकाश, आकाश का एक भाग है। अलोकाकाश अगुरुलघु है, स्वपर्याय और परपर्याय '. रूप अगुरुलघु स्वभाव वाले अनन्तगुणों से युक्त है, क्योंकि अलोकाकाश की अपेक्षा लोका काश अनन्त. भाग रूप है । अतः अलोकाकाश अनन्तवां भाग कम सर्व आकाश रूप है। धर्मास्तिकाय प्रादि को स्पर्शना ६८ प्रश्न-धम्मत्यिकाए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते । । ...६८ उत्तर-गोयमा !. लोए, लोयमेत्ते, लोयप्पमाणे लोयफुडे, For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र - श. २ उ १० धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना लोयं चैव फुसित्ता णं चिट्ठह, एवं अहम्मत्थिकाए, लोयागासे, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थकाए पंच वि एक्काभिलावा । ५२८ ६९ प्रश्न- अहोलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसइ ? ६९ उत्तर - गोयमा ! साइरेगं अधं फुसइ । ७० प्रश्न - तिरियलोए णं भंते ! पुच्छा ! ७० उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जइभागं फुसइ । ७१ प्रश्न - उड्ढलोए णं भंते ! पुच्छा ? ७१ उत्तर - गोयमा ! देसूणं अदुधं फुसइ । विशेष शब्दों के अर्थ - महालए - बड़ा, फुडे — स्पर्श किया हुआ, साइरेगं - कुछ अधिक, वेसूण- कुछ कम, फुलइ – स्पर्श करता है । भावार्थ - ६८ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? ६८ उत्तर - हे गौतम! धर्मास्तिकाय लोक रूप है, लोक मात्र है, लोक प्रमाण है, लोक स्पृष्ट है और लोक को स्पर्श करके रहा हुआ है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी जानना चाहिए। इन पाँचों के विषय में एक समान अभिलाप (पाठ) है । ६९ प्रश्न - हे भगवन् ! अधोलोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को स्पर्श करता है ? ६९ उत्तर - हे गौतम! अधोलोक, धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है । ७० प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यग्लोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को स्पर्श करता है ? .७० उत्तर - हे गौतम! तिर्यग्लोक, धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना ५२९ - स्पर्श करता है। - ७१ प्रश्न-हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को स्पर्श करता है ? ७१ उत्तर-हे गौतम ! ऊर्ध्वलोक, धर्मास्तिकाय के देशोन अर्ध भाग को स्पर्श करता है। विवेचन-धर्मास्तिकाय के परिमाण का निरूपण करते हुए कहा गया है किधर्मास्तिकाय, लोक जितना बड़ा है अर्थात् लोकपरिमाण है। लोक के जितने प्रदेश हैं उतने ही धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । वे सब प्रदेश लोकाकाश के साथ स्पृष्ट हैं, तथा धर्मास्तिकायादि अपने समस्त प्रदेशों द्वारा लोक को स्पर्श करके रहे. हुए हैं। धर्मास्तिकाय, सम्पूर्ण लोकव्यापी है और अधोलोक का परिमाण सात रज्जु से कुछ अधिक है । इसलिए अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है तिर्यग्लोक का परिमाण अठारह सौ योजन है और धर्मास्तिकाय का परिमाण असंख्यात योजन का है । इसलिए तिर्यग् लोक, धर्मास्तिकाय के असंख्यात भाग को स्पर्श करता है । ऊर्ध्वलोक, देशोन सात · रज्जु परिमाण है और धर्मास्तिकाय चौदह रज्जु परिमाण है। इसलिए ऊर्ध्वलोक, धर्मास्तिकाय के देशोन आधे भाग को स्पर्श करता है। . ७२ प्रश्न-इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेजइभाई फुसइ, असंखेजहभागं फुसइ, संखेजे भागे फुसइ, असंखेजे भागे फुसइ, सव्वं फुसइ ? ___७२ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजइभागं फुसइ, असंखेजहभागं फुसइ, णो संखेने, णो असंखेजे, णो सव्वं फुसइ । ... ७३ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही धम्मथिकायस्स पुच्छा-किं संखेजइभागं फुसइ ? । ७३ उत्तर-जहा रयणप्पभा तहा घणोदही, घणवाय-तणु For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० . भगवती सूत्र-श. २ उ. १० धर्मास्तिकायादि का स्पर्श वाया वि। ___७४ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेजइभागं फुसइ, णो असंखेजहभागं फुसइ, जाव-सव्वं फुसइ ? ____७४ उत्तर-गोयमा ! संखेजहभागं फुसइ, णो असंखेजहभागं फुसइ, णो संखेजे, णो असंखेने, णो सव्वं फुसइ । उवासंतराईसव्वाइं । जहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया, एवं जावअहेसत्तमाए, जंबूदीवाइया दीवा, लवणसमुद्दाइया समुद्दा, एवं सोहम्मे कप्पे जाव ईसीपब्भारा पुढवी एए सव्वे वि असंखेजइभागं फुसइ, सेसा पडिसेहियव्वा, एवं अधम्मस्थिकाए, एवं लोयागासे वि । गाहा पुढवोदही घण-तणू कप्पा गेवेजणुत्तरा सिद्धी । संखेजहभागं अंतरेसु सेसा असंखेजा ॥ ॥ बिहयसए दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ॥ बिइयं सयं सम्मत्तं ॥ For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १० धर्मास्तिकायादि का स्पर्श विशेष शब्दों के अर्थ - घणोदही- घनोदधि, उवासंतरे - अवकाशान्तर, पडिसेहियव्यानिषेध करना चाहिए । भावार्थ - ७२ प्रश्न - हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यात भाग को स्पर्श करती है, या असंख्यात भाग को स्पर्श करती है, या संख्यात भागों को स्पर्श करती हैं, या असंख्यात भागों को स्पर्श करती. हे, या सम्पूर्ण को स्पर्श करती है ? ५३१ ७२ उत्तर - हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श नहीं करती है, किन्तु असंख्येय भाग को स्पर्श करती है । संख्येय भागों को, असंख्य भागों को और सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करती है । ७३ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का घनोदधि, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को स्पर्श करता है ? क्या संख्येय भाग को स्पर्श करता है ? इत्यादि प्रश्न ? ७३ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के लिए कहा है, उसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के धनोदधि के विषय में भी कहना चाहिए और उसी तरह धनवात और तनुवात के विषय में भी कहना चाहिए । ७४ प्रश्न- हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का अवकाशान्तर क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, या असंख्येय भाग को स्पर्श करता है, यावत् सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ? श ७४ उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का अवकाशान्तर, स्ति काय के संख्य भाग को स्पर्श करता है, किन्तु असंख्येय भाग को, संख्येय भागों को, असंख्येय भागों को और सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करता है इसी तरह सब अवकाशान्तरों के विषय में कहना चाहिए। जिस तरह रनप्रभा के विषय में कहा, उसी तरह सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। बूद्वीपादि द्वीप और लवणसमुद्रादिक समुद्र, सौधर्मकल्प यावत् ईषत्प्राग्भ रापृथ्वी, ये सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं। बाकी भागों की पर्शना For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २ उ १० धर्मास्तिकायादि का स्पर्श का निषेध करना चाहिए। जिस तरह धर्मास्तिकाय की स्पर्शना कही, उसी तरह अधर्मास्तिकाय और लोकाकाशास्तिकाय की स्पर्शना का भी कहना चाहिए। ५३२ गाथा का अर्थ इस प्रकार है- पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, कल्प, ग्रैवेयक, अनुत्तर और सिद्धि तथा सात अवकाशान्तर, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं । विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी, उसका घनोदधि, घनवात और तनुवात और अवकाशान्तर । इस तरह रत्नप्रभा के पाँच सूत्र होते हैं । इस प्रकार प्रत्येक पृथ्वी के पाँच पाँच सूत्र कहने से, सात पृथ्वियों के पैंतीस सूत्र होते हैं, बारह देवलोकों के बारह सूत्र, नवग्रैवेयक की तीन त्रिक के तीन सूत्र, पाँच अनुत्तर विमानों का एक सूत्र और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का एक सूत्र, ये सब मिल कर ५२ सूत्र होते हैं । इन सभी सूत्रों में 'क्या धर्मास्तिकाय के । संख्येय भाग को स्पर्श करता है - इस प्रकार अभिलाप कहना चाहिए । इस प्रश्न का उत्तर यह हैं कि-अवकाशान्तर, संख्येय भाग को स्पर्श करते हैं और शेष सब असंख्य भाग को स्पर्श करते हैं । अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के विषय में भी इसी तरह सूत्र कहने चाहिए । । दूसरे शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ॥ ॥ द्वितीय शतक समाप्त ॥ ॥ प्रथम भाग For Personal & Private Use Only सम्पूर्ण ॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावयण णिग्गंथ सच्च TV न जो उवाम MALE शायरं वंदे EDIO मिज्जइ१ संघ गणा ना अ.भा.सधर्म / म जैन संस्कृति स्कृति रक्षक संघ संस्कृति संस्कृति रक्षा संस्कृति रक्षक अखि -संस्कृति रक्षक संघ संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल नरक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती सास्कृति रक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधा लमजैन संस्कृति रक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृायर भारतीय सुधर्म जैनं संस्कृति रक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि नसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अरि त संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अरिस नसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि न संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ असि नसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ असि न संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ असि न संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ असि जसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ असि नसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अरि जसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अरि न संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीयसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अरि न संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षकांक अरि तांस्कति सक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अरि