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________________ भगवती मूत्र - ग. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा-मोहनीय ९ मतान्तर-एक ही विषय में आचार्यों का भिन्न भिन्न मत होना ‘मतान्तर' कहलाता है । मतान्तर किस प्रकार होता है, इसके लिए एक उदाहरण दिया गया है-श्री सिद्धसेन दिवाकर और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, दोनों बड़े विद्वान आचार्य हुए हैं। इन दोनों में एक विषय पर मतभेद होगया। सिद्धसेन दिवाकर का कथन है कि-केवलजान और केबलदर्शन का उपयोग एक साथ होता है। ऐसा न माना जाय, तो केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म के क्षय की निरर्थकता हो जायगी। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का कथन है कि दोनों का उपयोग भिन्न भिन्न समय में होता है, क्योंकि जीवों का स्वभाव ही ऐसा है । जीव जब सामान्य को देखता है, तो उसे विशेष का ज्ञान नहीं होता और जब विशेष का ज्ञान होता है तब सामान्य को नहीं देखता है । जैसेकि-मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम एक साथ होने पर भी दोनों का उपयोग एक साथ नहीं होता । जब मतिज्ञान का उपयोग होता है, तब श्रुतज्ञान का नहीं और जब श्रुतज्ञान का उपयोग होता है, तब मतिज्ञान का नहीं । एक ज्ञान का उपयोग होने पर दूसरे ज्ञान का क्षयोपशम मिट जाता हो, ऐसी बात भी नहीं हैं। अतएव जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, दोनों का एक साथ क्षयोपशम होने पर भी उपयोग क्रमपूर्वक ही होता है । उसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग भी क्रमपूर्वक ही होते हैं। मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की स्थिति ६६ सागरोपम से कुछ अधिक है। यदि एक के उपयोग के समय दूसरे का उपयोग न माना जाय, तो ६६ सागरोपम से कुछ अधिक की स्थिति पूरी न होगी, अतः स्थिति में कमी माननी पड़ेगी। - इस शंका का समाधान यह है कि जो बात आगम सम्मत हो उसको मान्य करना चाहिये और दूसरी बात की उपेक्षा कर देना चाहिए। . उक्त प्रश्नोत्तर के सम्बन्ध में पनवणा सूत्र में कहा है-केवली भगवन् जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं हैं और जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं है।' इस प्रकार यह स्पष्ट है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन का एक साथ उपयोग होना शास्त्रसम्मत नहीं है । शास्त्र में दोनों का उपयोग अलग अलग समय में बतलाया गया है। अतएव जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की बात शास्त्रानुकूल है । ___कौनसी बात आगम सम्मत है और कौनसी बात आगम सम्मत नहीं है ? इसका निर्णय तो बहुश्रुतः पुरुष ही कर सकते हैं, परन्तु जो बहुश्रुत न हो वह इस बात का निर्णय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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