SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • १९८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३. श्रमणों के कांक्षामोहनीय है। इसलिए मध्य के 'बाईस तीर्थङ्करों ने स्त्री को परिग्रह में गिन लिया है और प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर ने मैथुन त्याग रूप महाव्रत अलग बतला दिया है । अतः तीर्थकरों की प्ररूपणा में परस्पर कुछ भी भेद नहीं है। ६ प्रावधनिकान्तर--प्रवचन का अध्ययन करने वाला एवं प्रवचन का ज्ञाता प्रावचनिक कहलाता है। तत् तत् काल की अपेक्षा बहुश्रुत (बहुत आगमों का ज्ञाता) पुरुष प्रावचनिक कहलाता है। इनके विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है कि-एक प्रावनिक इस प्रकार आचरण करता है और दूसरा प्रावनिक इस प्रकार आचरण करता है । फिर किसकी बात सत्य मानी जाय ? .. इसका समाधान यह है कि-चारित्र मोहनीय कर्म से क्षयोपशम की विचित्रता के कारण प्रावचनिकों की प्रवृत्ति में भेद हो सकता है, किन्तु वही प्रवृत्ति प्रमाणभूत है जो आगम विरुद्ध नहीं हो, किन्तु आगमानुकूल हो। ७ कल्पान्तर–कल्प के विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है जिनकल्पी मुनि नग्न रहते हैं । नग्न रहने में बड़ा कष्ट होता है । उनके कल्प में यह कष्ट सहन कर्मक्षय के लिए है । स्थविरकल्पी मुनि वस्त्र पात्र आदि रखते हैं । उन्हें जिनकल्पी की भांति कष्ट नहीं होता। फिर उनका कल्प कर्मक्षय का कारण कैसे हो सकता है ? यदि स्थविरकल्प भी कर्मक्षय का कारण है, तो फिर जिनकल्प का उपदेश क्यों दिया गया ? इस शंका का समाधान यह है कि-दोनों कल्प सर्वज्ञ भगवान् के फरमाये हुए हैं। और अवस्था भेद से दोनों कल्प कर्मक्षय के कारण हैं। कष्ट और अकष्ट विशिष्ट कर्मक्षय के लिए कोई कारण नहीं है। ८ मार्गान्तर-मार्ग के विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है-मार्ग का अर्थ है'परम्परा से चली आती हुई समाचारी' पद्धति । किसी की समाचारी दो लोगस्म रूप कायोत्सर्ग करने की है और किसी की इससे भिन्न है । तो इसमें ठीक क्या है ? इसका समाधान यह है कि जो समाचारी आचरित लक्षण युक्त हो वही ठीक है। आचरित लक्षण का आशय बतलाने के लिए कहा गया है . असठेण समाइग्णं जं कत्था केणइ असावज्ज। निवारियमणेहि, बहुमणुमयमेयमायरियं ।। अर्थ-सरल स्वभाव वाले निष्कपट पुरुष ने जिसका आचरण किया हो, शास्त्र में किसी जगह पर जिसका निषेध न किया गया हो, जो असावद्य-निष्पाप हो, तथा बहुजन द्वारा अनुमत हो उसे 'आचरित' कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy