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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा- मोहनीय दिन, चार मास या छह मास बाद निरतिचार अवस्था में भी छेदोंपस्थापनीय चारित्र अर्थात् महाव्रतों का आरोपण किया जाता है। महाव्रत धारण करने के बाद यदि किसी कारण से चारित्र में दोष लग भी जावे, तो इस विचार से उन्हें शान्ति होगी कि मैंने दोषों के परिमार्जन से अपने महाव्रतों की रक्षा करली है । यदि ऐसा न किया गया होता, केवल सामायिक चारित्र ही धारण कराया गया होता और महाव्रत रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र धारण न कराया जाता, तो सामायिक चारित्र में दोष लग जाने पर साधु यही सोचता कि मेरे सामायिक चारित्र में दोष लगने से मेरा चारित्र ही नष्ट हो गया है । इसलिए उन्हें आश्वासन दिया कि तुम्हारें सामायिक चारित्र में दोष लग गया है, किन्तु प्रायश्चित्तादि के द्वारा तुम्हारे महाव्रतों की शुद्धि हो गई है । इस कारण सामायिक चारित्र और छदोपस्थापनीय चारित्र को अलग अलग कहा है । ४ लिंगान्तर - कांक्षा मोहनीय के वेदन का चौथा कारण लिंगान्तर है । लिंग अर्थात् वेश के विषय में यह शंका होती है कि-बीच के बाईस तीर्थङ्करों ने अपने साधुओं के लिए जैसा मिले वैसा ही वस्त्र रखने की आज्ञा । इनके शासन में रंग और परिमाण का कोई नियम नहीं है । प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधुओं के लिए परिमाणोपेत श्वेत. वस्त्र रखने की ही आज्ञा दी है । सर्वज्ञों के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता । फिर यह दो तरह की आज्ञा क्यों दी गई ? १९७ इस शंका का समाधान यह है कि- प्रथम तीर्थङ्कर के साधु 'ऋजुजड़' और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु 'वजड' होते हैं। बीच के बाईस तीर्थङ्करों के साधु 'ऋजुप्राज्ञ' होते है। इस प्रकार स्वभाव भेद के कारण यह भिन्न भिन्न आज्ञा दी गई है। इसमें मौलिक सैद्धांतिक अन्तर कुछ भी नहीं है । सब तीर्थङ्करों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व एक ही है । ५ प्रवचनान्तर - प्रवचन के विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है-बीच के बाईस तीर्थकरों ने चार महाव्रतों का प्रतिपादन किया है और प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर ने पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया है। यह भेद क्यों है ? सर्वज्ञों के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए ? 'इस शंका का समाधान यह है कि-बीच के बाईस तीर्थङ्करों ने चार महाव्रत रूप जो धर्म कहा है, वह पांच महाव्रत रूप ही समझना चाहिए। क्योंकि चौथे ब्रह्मचर्यं महाव्रत को पांचवें परिग्रह विरमण व्रत में अन्तर्गत कर लिया है। क्योंकि -. " Jain Education International “ योषा दिति नापरिगृहीता भुज्यते अर्थात्-अपरिगृहीत स्त्री भोगी नहीं जाती है । इस अपेक्षा से स्त्री परिग्रह रूप ही For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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