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भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा
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इस शंका का समाधान यह है कि-क्षयोपशम और उपशम का लक्षण एक नहीं है । अलग अलग है । अतएव इन दोनों से होने वाले सम्यक्त्व भी अलग अलग हैं।
- क्षयोपशम और उपशम का भेद यह है-क्षयोपशम में उदय में आये हुए कर्म का तो क्षय हो जाता है और उदय में नहीं आये हुए का विपाक से उपशम होता है, किन्तु प्रदेश से उपशम नहीं होती, अर्थात् विपाकोदय नहीं होता, किन्तु प्रदेशोदय होता है । उपशम सम्यक्त्व में विपाकानुभव और प्रदेशानुभव दोनों ही नहीं होते। जैसा कि कहा है
वेएइ संतकम्मं खओवसमिएसु णाणुभावं सो। . ..
उवसंतकसाओ पुण, वेएइ ण संतकम्मं ॥ .. अर्थात्-क्षायोपशमिक भाव में विपाकानुभव नहीं होता है, किन्तु प्रदेशानुभव होता है। उपशम भाव में विपाकानुभव और प्रदेशानुभव इन दोनों से वेदन नहीं होता।
इसके अतिरिक्त औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहुर्त मात्र की है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागर झाझेरी (कुछ अधिक) है । इस प्रकार दोनों दर्शन भिन्न भिन्न हैं।
३. चारित्रान्तर-चारित्रान्तर का स्वरूप इस प्रकार है-सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र अलग अलग हैं । इनके विषय में यह शंका होती है कि-इन दोनों का लक्षण तो एक-सा मालूम होता है, फिर इन्हें अलग अलग क्यों कहा ? सामायिक चारित्र में सर्व सावध योग का त्याग है और छेदोपस्थापनीय चारित्र में महाव्रत हैं, किन्तु महाव्रत भी सर्व सावद्य योग का त्याग ही है। फिर इन दोनों चारित्रों को अलग अलग . क्यों कहा? __ इस शंका का समाधान यह है
रिउवपकजा पुरिमेयराण समाइए वयारूहणं ।
मणयमसुढे पि जओ, सामाइए हुंति हु वयाई । ' अर्थ-प्रथम तीर्थङ्कर के साधु ऋजुजड़ होते हैं और अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्रजड़ होते हैं । इसलिए छेदोपस्थापनीय चारित्र की स्थापना की है, क्योंकि सामायिक चारित्र में थोड़ा-सा भी दोष लग जाने पर छेदादि के द्वारा उसकी शुद्धि हो जाती है । तात्पर्य यह है कि वास्तव में तो सामायिक चारित्र ही है, लेकिन समय और प्रकृति के भेद से इसमें भेद किया गया है। इन साधुओं को आश्वासन देने के लिए छेदोपस्थापनीय चारित्र बतलाया गया है। इन्हें पहले सामायिक चारित्र ही दिया जाता है और फिर सात
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