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भगवतीसूत्र - श. १ उ. १ वाणत्र्यंतसदि का वर्णन
रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय रूप में विमात्रा से परिणत होता है । शेष सब पहले की तरह समझना चाहिए। यावत् वे अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते हैं ।
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विवेचन - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च का आहार षष्ठ भक्त अर्थात् दो दिन बीत जाने पर बतलाया गया है। यह आहार देवकुरु और उत्तरकुरु के युगलिक तिर्यञ्चों की अपेक्षा समझना चाहिए और ऐसी ही स्थिति (आयु) वाले भरत ऐरवत के तिर्यञ्च युगलिकों के लिए भी समझना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों का आहार अष्टन भक्त अर्थात् तीन दिन बीत जाने के बाद कहा गया है यह देवकुरु उत्तरकुरु के युगलिक मनुष्यों की अपेक्षा तथा भरत ऐरवत क्षेत्र में जब अवसर्पिणी का प्रथम आरा प्रारम्भ होता है और उत्सर्पिणी का छठा आरा समाप्ति पर होता है उस समय के मनुष्यों की अपेक्षा समझना चाहिए ।
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वाणव्यन्तरादि का वर्णन
४४ - वाणमंतराणं ठिईए णाणतं, अवसेसं जहा णागकुमाराणं । ४५ - एवं जोइसियाण वि, णवरं उस्सासो जहणणेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि मुहुत्तपुहुत्तस्स । आहारो जहणणेणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्को सेण वि दिवसपुहुत्तस्स, सेसं तव ।
४६-वेमाणियाणं ठिई भाणियव्वा ओहिया, उस्सासो जहणणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, उक्को सेणं तेत्तीसाए पक्खाणं, आहारो आभोगणिव्वत्तिओ जहणेणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं, सेसं चलियाई तहेव जाव णिज्जरेंति ।
शब्दार्थ- वाणमंतराणं-वाणव्यन्तर देवों की, ठिईए- स्थिति में, णाणत्तं --भेद है ।
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