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________________ ८२ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ वाणव्यन्तरादि का वर्णन अवसेसं - बाकी सारा वर्णन, जहा णागकुमाराणं - नागकुमारों की तरह समान समझना चाहिए । एवं - इसी तरह, जोइ सियाण वि-ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । वरं - इतनी विशेषता है कि, उस्सासो-उ - उनका उच्छ्वास, जहण्णेणं - जघन्य से, मुहुत्तपुहुत्तस्स - मुहूर्त पृथक्त्व और, उक्को सेणं - उत्कृष्ट भी, मुहुत्तपुहुत्तस्स - मुहूर्त्त पृथक्त्व के बाद होता है । आहारो-उनका आहार, जहण्णेणं - जघन्य से, दिवसपुहुत्तस्स - दिवसपृथक्त्व से और, उक्को - सेणं - उत्कृष्ट, दिवसपुहुत्तस्स - दिवसपृथक्त्व के बाद होता है । सेसं तहेब - शेष सारा वर्णन पहले के समान समझना चाहिए । वैमाणियाणं- वैमानिक देवों की, ओहिया - औधिक, ठिई-स्थिति, भाणियव्वाकहनी चाहिये । उस्सासो उनका उच्छ्वास, जहणेणं-जघन्य से, मुहुत्तपुहुत्तस्स - मुहूर्त पृथक्त्व से और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, तेत्तीसाए पक्खाणं- तेतीस पक्ष के बाद होता है । आभोगणिव्वत्तिओ आहारो-उनका आभोगनिर्वर्तित आहार, जहणणेणं-जघन्य से, दिवसपुहुत्तस्सदिवस पृथक्त्व और, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, तेत्तीसाए वाससहस्साणं- तेत्तीस हजार वर्ष के बाद होता है । सेसं चलियाइयं तहेव जाव णिज्जरेंति - वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं । इत्यादि शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए । भावार्थ - ४४ - वाणव्यन्तर देवों की स्थिति में भेद है । बाकी सारा वर्णन नागकुमारों की तरह समझना चाहिए । ४५ - ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में भी इसी तरह जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनका उच्छ्वास जघन्य से मुहूर्त्त पृथक्त्व और उत्कृष्ट भी मुहूर्त्त पृथक्त्व के बाद होता है। उनका आहार जघन्य से दिवसपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी दिवस पृथक्त्व के बाद होता है । शेष सारा वर्णन पहले के समान समझना चाहिए। ४६ - वैमानिक देवों की औधिक स्थिति कह देनी चाहिए । उनका उच्छुवास जघन्य से मुहूर्त्त पृथक्त्व और उत्कृष्ट तेतीस पक्ष के पश्चात् होता है । उनका आभोग निर्वर्तित आहार जघन्य दिवस पृथक्त्व के बाद और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष के बाद होता है । वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं । इत्यादि शेष सब वर्णन पहले के समान समझना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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