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के लिए वाहन का उपयोग करते हैं । रोग होने पर औषधी लेते हैं, खाते पीते और सोते हैं। "मुझे लघु-शंका और बड़ी-शंका की बाधा हुई है"-यह सोचकर स्थंडिल जाते हैं । विष या क्लोरोफार्म के प्रभाव से बेहोश हो जाते हैं और आग में या तेजाब में उंगली देने से डरते हैं । इस प्रकार उदयभाव का प्रभाव स्पष्ट ही उन खुद पर होता है । इस प्रत्यक्ष बात को भुलाकर एकान्तवाद को ही पकड़े रहना मिथ्यात्व है । यह बात इस सूत्र से सिद्ध हो रही है।
जीव पुद्गल सम्बन्ध
सूत्र २२६ से यह बात विशेष रूप से स्पष्ट हो गई कि जीव पुदगल से सम्बन्धित है। ये दोनों स्वतन्त्र द्रव्य होते हुए भी विभावदशा के चलते परस्पर जुड़े हुए हैं । संयोग वियोग शब्द का व्यवहार भी इसी संयोग सम्बन्ध के कारण होता है । जो लोग, जीव पुद्गल की परस्पर आबद्ध ऐसी भूतकालीन अवस्था जानते हुए और वर्तमान में आंखों से देखते हुए भी एकान्तवाद के गृहीत पक्ष के कारण नहीं मानते, वे कदाग्रही हैं । चार गति चौबीस दण्डक, जीवयोनियें, जन्म-मरण आदि विविधताएँ जीव और पुद्गल के संयोग सम्बन्ध से ही होती है । यदि यह संयोग सम्बन्ध नहीं हो, तो जीव, केवल सिद्ध रूप ही हो और पुद्गल केवल परमाणु रूप ही हो ।
इस सूत्र से एकान्तवाद का निरसन हो जाता है। ..
आधाकर्म भोगने का फल
श. १ उ. ९ सूत्र ३०३ से आधाकर्म आहार भोगने वाले साधु को आत्मधर्म से निरपेक्ष एवं षट्काय जीवों का हिंसक बताया है और सूत्र ३०५ से निर्दोष आहार भोगने वाले को आत्मधर्मी और षट्काय जीवों का रक्षक बताया है । यह विधान साधु के लिए है, किंतु आधाकर्म आहार का दाता भी पापकर्म से नहीं बचता । उसके लिए भ. श. ५. उ. ६ में लिखा है कि-श्रमणनिग्रंथों को सदोष आहार देने वाला अल्प आयु का बन्ध करता है-जिससे बालपन अथवा युवावस्था में ही मरना पड़े और निर्दोष एवं पथ्यकर आहार देनेवाला शुभ-दीर्घायु प्राप्त करता है। वह अपने कर्मों की निर्जरा करता है (श. ८ उ. ६)
यह बात हम उपासकों को विशेष रूप से समझने और ध्यान में रखने की है।
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