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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-सिद्धि स्वरूप
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सअंता, खेत्तओ सिद्धी सअंता, कालओ सिद्धी अणंता, भावओ सिद्धी अणंता।
विशेष शब्दों के अर्थ-सिद्धि-सिद्धशिला, जिसके कुछ ऊपर सिद्ध भगवान् हैं वह क्षेत्र। ____ भावार्थ-हे स्कन्दक ! सिद्धि (सिद्धक्षेत्र) के विषय में तुम्हारे मन में जो विकल्प था उसका समाधान इस प्रकार है-हे स्कन्दक! मैने सिद्धि के चार भेद कहे हैं-द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, कालसिद्धि और भावसिद्धि।१ द्रव्य से सिद्धि एक है और अन्त सहित हैं। २ क्षेत्र से सिद्धि ४५ लाख योजन की लम्बी चौडी है। १,४२,३०,२४९ योजन झाझरी परिधि है, यह भी अन्त सहित है।३ काल से सिद्धि नित्य है, अन्त रहित है। भाव से सिद्धि अनन्त वर्ण पर्यायवाली है, अनन्त गन्ध, रस और.स्पर्श पर्याय वाली है। अनन्त गुरुलघु पर्याय रूप है, और अनन्त अगुरुलघु पर्याय रूप है, अन्त रहित है। द्रव्य-सिद्धि और क्षेत्र-सिद्धि अन्त वाली है तथा काल-सिद्धि और भाव-सिद्धि अन्त रहित है। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्धि अन्त सहित भी है और अन्त रहित भी है।
विवेचन-सिद्धि-वह स्थान जहाँ मुक्तात्माएँ सादि अनन्त काल परमानन्द में लीन रहती हैं । वह परमसुख का स्थान है । लोक के अग्रभाग के निकट यह स्थान है । अधोलोक के अंतिम छोर पर अशुभ पुद्गलों की अधिकता है, वहाँ से जितना ऊपर उठा जाय, उतनी ही अशुभ परिणाम में कमी होती जाती है और शुभ पुद्गलों में वृद्धि होती जाती है। भवनपति, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक देवों में क्रमशः शुभ शुभतर हैं। कल्पोत्पन्न से कल्पातीत अधिक प्रशस्त होते हैं। देवों में सबसे अधिक उत्तम सर्वार्थसिद्ध के देवों के स्थान हैं। अनुत्तर विमान, सभी देवलोकों से ऊँचे हैं । वहां का वातावरण बड़ा शांत, शुभ एवं प्रशस्त है । उससे भी ऊपर सिद्ध स्थान है। उसकी पौद्गलिक उत्तमता-वर्णादि की प्रशस्तता का तो कहना ही क्या ? इससे बढ़कर प्रशस्त स्थान अन्य कोई भी नहीं है । इसके कुछ ऊपर सिद्ध भगवान् हैं । इसका वर्णन औपपातिकसूत्र आदि से समझना चाहिए।
जे वि य ते खंदया ! जाव-किं अणते सिद्धे तं चेव, जाव
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