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________________ भगवती सूत्र श. १-इन्द्रभूतिजी की महानता गौतम' गोत्र था। उस समय के मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई प्रायः सात हाथ की होती थी। अतएव उनका शरीर भी सात हाथ ऊँचा था । उनका संस्थान ‘समचतुरस्र'• था। इन्द्रभूति अनगार मजबूत एवं दृढ़ वज्रऋषभनाराच संहनन वाले थे। उनके शरीर का वर्ग कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान एवं पिघले हुए सोने की बिन्दु के समान गौर था। यह इन्द्रभूति अनगार के शरीर का वर्णन हुआ। उनके आन्तरिक आत्मगुणों का वर्गन करते हुए शास्त्रकार ने 'उग्गतवे दित्ततवे' आदि विशेषण दिये हैं । जिनका अर्थ यह है-साधारण मनुष्य जिस तप का चिन्तन करने में भी असमर्थ होता है, वैसे तप का आचरण करने में वे 'उग्र तपस्वी' थे। कर्मरूपी गहन वन को जलाकर भस्म करने में समर्थ होने के कारण जाज्वल्यमान अग्नि के समान दीप्त थे। धर्मध्यानादि युक्त तप के करने वाले होने से वे 'दीप्त तपस्वी' थे। कर्मों को सन्तप्त करने के कारण वे 'तप्त तपस्वी' थे। उनके तप में किसी भी प्रकार की सांसारिक इच्छारूपी दोष न होने से वे 'महातपस्वी' थे । अल्प शक्ति वाले पार्श्वस्थ पुरुष जिस तप का नाम सुनते ही कांप उठते हैं ऐसे भयङ्कर तप को करने के कारण वे 'ओराल' अर्थात् भीम थे, अथवा वे उदार यानी प्रधान थे। घोर परीषह एवं उपसर्ग आने पर भी वे अडोल रहते थे, इसलिए वे घोर थे । अथवा वे घोर अर्थात शरीर निरपेक्ष थे। अन्य पुरुषों द्वारा जिन गणों का आचरण होना कठिन था ऐसे मूलगुणादि युक्त होने से 'धोर गुणी' थे । घोर तपस्या करने कारण वे 'घोर तपस्वी' थे । अल्प शक्ति वाले प्राणियों के द्वारा जिसका आचरण होना कठिन है ऐसे दुश्चर ब्रह्मचर्य के पालक होने से वे 'घोर ब्रह्मचर्यवासी' थे । शरीर का संस्कार छोड़ देने के कारण एवं शरीर के प्रति सर्वथा निर्ममत्व होने के कारण शरीर को त्यक्तवत् कर रखा था, इसलिए वे 'उच्छूढशरीर-उज्झित शरीर' थे। जो तेजोलेश्या (तेजो ज्वाला) तप द्वारा •प्रश्न-समचतुरन सस्थान किसे कहते हैं? .... उत्तर-अवयव रचना रूप शरीर की आकृति को संस्थान' कहते हैं । सम अर्थात् नाभि से ऊपर और नीचे पुरुष के सम्पूर्ण लमगों सहित बराबर अवयव हों, ऐसे उत्तम संस्थान को समचतुरन सस्थान कहते हैं। अपवा शरीर-शास्त्र में कहे अनुसार चारों तरफ से जिसमें शरीर के अवयव बराबर हों, उसे समचतुरन संस्थान कहते हैं अपना पर्यशासन से बैठे हुए पुरुष के दोनों घुटनों के बीच का अन्तर, बासन और कलाट के ऊपरी भाग.का अन्तर, वाहिने कन्धे से बाएं घुटने का मन्दर और बाएं कन्धे से दाहिने का अन्तर, ये चारों अन्तर बराबर हों, उसे समचतुरन संस्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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