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________________ • भगवती सूत्र - श. १ उ. २ अमंत्री जीवों का आयुष्य अपेक्षा मनुष्य असंज्ञी आयुष्य असंख्यातगुणा है, उससे तिर्यञ्च असंज्ञी आयुष्य - असंख्यातगुणा है और उससे नरक असंज्ञी आयुष्य असंख्यातगुणा है । हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हें वह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । विवेचन-असंज्ञी जीव की उत्पत्ति देवों में होती है, यह बात पहले कही गई है । वह उत्पत्ति आयुष्य से ही होती है । इसलिए यहाँ असंज्ञी जीवों के आयुष्य. का कथन किया गया है । वर्तमान में जो जीव असंज्ञी है, वह परभक का जो आयुष्य बाँधता है उसे 'असंज्ञी का आयुष्य' कहते है | असंज्ञी जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य झौर देव चारों गतियों का आयुor बाँध सकता है । इसलिए असंजी आयुष्य के चार भेद हैं। यह चार प्रकार का आयुष्य असंज्ञी जीव उपार्जन करता है । १६१ असंज्ञी जीव नरक में जघन्य दस हजार वर्ष का आयुष्य उपार्जन करता है। यह आयुष्य रत्नप्रभा नरक के पहले पाथड़े की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के पहले पाथड़े में जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट ९० नब्बे हजार वर्ष की स्थिति होती है । असंज्ञी जीव की नरक की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है । यह स्थिति रत्नप्रभा के चौथे पाथड़े की अपेक्षा समझनी चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के दूसरे पाथड़े में जघन्य दम लाख वर्ष की + और उत्कृष्ट ९० नब्बे लाख वर्ष की स्थिति होती है । तीसरे पाथड़ में जघन्य ९० नब्बे लाख वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की है । चौथे पाथड़े में जघन्य पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट सागरोपम के दसवें भाग की स्थिति होती है । इस प्रकार इस चौथे पाथड़े में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति, मध्यम स्थिति बनती है । असंज्ञी जीव की तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी उत्कृष्ट आयु जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग कही है, वह युगलिक तिर्यञ्च और युगलिक मनुष्य की समझनी चाहिए । + पहले पाथड़े की उत्कृष्ट स्थिति नब्बे हजार वर्ष की होती है स्थिति दस लाख वर्ष की होती है। इसका यह फलितार्थ निकलता है कि नैरमिक नहीं होते हैं अर्थात् नब्बे हजार वर्ष एक समय अधिक से की स्थिति किसी भी नैरयिक की नहीं होती है, क्योंकि वस्तु स्वभाव ही ऐसा है । Jain Education International और दूसरे पाथड़े की जघन्य इसके बीच की स्थिति वाले For Personal & Private Use Only लेकर एक समय कम दस लाख वर्ष '. www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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