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________________ भगवती सूत्र - शं. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न है । इसलिए प्रथम समय में जो कर्मदल 'चला' है, उसकी अपेक्षा 'चला' मानना युक्ति संगत है । (२) 'जो उदीरा जा रहा है' वह 'उदीर्ण' हुआ, ऐसा कहना चाहिए । कर्म दो प्रकार से उदय में आते हैं । कोई कर्म अपने अबाधा काल की स्थिति पूर्ण होने पर स्वभावतः उदय में आता है और कोई कर्म 'उदीरणा' के द्वारा उदय में लाया जाता है । कालान्तर में उदय में आने योग्य कर्म को जीव अपने अध्यवसाय विशेष से स्थिति का परिपाक होने से पूर्व ही उदयावलिका में खींच लाता है । इस प्रकार नियत समय से पहले ही प्रयत्न विशेष से किसी कर्म को उदयावलिका में खींच लाना 'उदीरणा' है। कर्म की उदीरणा में भी असंख्यात समय लगता है, 'परन्तु जब पहले समय में उदीरणा होने लगी, तो 'उदीर्ण हुआ' कहना चाहिए। जैसे कि - 'चलमाणे चलिए' में युक्तिपूर्वक सिद्ध किया जा चुका है । (३) 'जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया'। ऐसा मानना चाहिए। कर्मों का अनुभव करने को 'वेदन' कहते हैं । वेदन दो प्रकार से होता है-अबाधा काल की स्थिति पूर्ण होने पर उदय में आये हुए कर्म को वेदना और उदीरणा द्वारा खींच कर उदय में लाये हुए कर्म को वेदना । 'वेदन' भी असंख्यात समय का होता है। प्रथम समय में वेदे जाते हुए कर्म को 'वेदा गया' कहना चाहिए और इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। युक्ति पूर्ववत् है । ( ४ ) ' जो गिरता है वह गिरा' ऐसा मानना चाहिए । आत्म- प्रदेशों के साथ सम्बद्ध हुए कर्मों को हटाना अर्थात् आत्म-प्रदेशों से पृथक् करना 'प्रहाण' कहलाता है । आत्मप्रदेशों से कर्मों को दूर करने में भी असंख्य समय लगते हैं । परन्तु पहले समय में जो कर्म हटे हैं- गिरे हैं- उनके लिए 'गिरा' यह कहना चाहिए और इसी प्रकार आगे भी जानना युक्ति पूर्ववत् है । (५) जो छेदा जा रहा है वह छिदा' ऐसा कहना चाहिए। कर्म की दीर्घकाल की स्थिति को अल्पकाल की स्थिति में कर लेना 'छेदन' कहलाता है । यद्यपि कर्म वही है। किन्तु उसकी स्थिति को कम कर लेना 'छेदन' है । यह छेदन 'अपवर्तना करण' के द्वारा होता है । इसमें भी असंख्यात समय लगते हैं किन्तु प्रथम समय में जो स्थितिछेद हो रहा 'है उसे 'छिदा' ऐसा कहना चाहिए और इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। युक्ति पूर्ववत् है । (६) 'जो भेदा जा रहा है वह भेदा गया' ऐसा कहना चाहिए। शुभ कर्म या अशुभ कर्म के तीव्र रस को अपवर्तना करण द्वारा मन्दरस करना और मन्दरस को उद्वर्तना करण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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