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________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना ५२७ ऐसा. कहा है। ___ इस विषय में चूर्णिकार भी कहते हैं कि-सब अरूपी द्रव्यों का व्यवहार 'समुदय' शब्द से होता है अथवा सब अरूपी द्रव्यों का व्यवहार 'प्रदेश' शब्द से होता है किन्तु, 'देश' शब्द से उनका व्यवहार नहीं होता है, क्योंकि उनके देशों का अनवस्थित प्रमाण है। इसलिए उनका 'देश' शब्द से व्यपदेश करना ठीक नहीं है । इन द्रव्यों में जो 'देश' शब्द का निर्देश किया गया है वह धर्मास्तिकायादि सम्बन्धी व्यवहार के लिए तथा ऊर्ध्व लोकाकाशादि सम्बन्धी स्पर्शनादि विषयक व्यवहार के लिए किया गया है। जैसे कि-धर्मास्तिकाय अपने देश द्वारा ऊर्ध्व लोकाकाश को व्याप्त करता है। इस तरह धर्मास्तिकाय संबंधी व्यवहार है । तथा ऊर्ध्व लीकाकाश द्वारा धर्मास्तिकाय का अमुक देश स्पृष्ट है। इस तरह द्रव्य सम्बन्धी स्पर्शनादि विषयक व्यवहार होता है। इन दोनों व्यवहारों को करने के लिए अरूपी द्रव्यों में भी 'देश' शब्द का व्यवहार किया गया है। . 'अद्धासमय'-अद्धा अर्थात् काल, तद्रूप जो समय, वह 'अद्धासमय' कहलाता है। वर्तमान काल रूप 'अद्धासमय' एक ही है, क्योंकि भूतकाल और भविष्यत्काल असद् रूप है। . इस प्रकार 'लोकाकाश' सम्बन्धी छह प्रश्नों का उत्तर दिया गया है । इसके बाद अलोकाकाश के सम्बन्ध में इसी तरह छह प्रश्न किये गये हैं। यथा-'हे भगवन् ! अलोकाकाश में क्या जीव हैं ? जीव देश हैं ? जीवप्रदेश हैं ? अजीव हैं ? अजीव देश हैं ? या अजीव प्रदेश हैं ?' - इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-अलोकाकाश में जीव नहीं, जीव देश नहीं, जीव प्रदेश नहीं, अजीव नहीं, अजीव देश नहीं और अजीव प्रदेश भी नहीं, किन्तु वह अजीव द्रव्य का एक भाग रूप है, क्योंकि आकाश के दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । इसलिए अलोकाकाश, आकाश का एक भाग है। अलोकाकाश अगुरुलघु है, स्वपर्याय और परपर्याय '. रूप अगुरुलघु स्वभाव वाले अनन्तगुणों से युक्त है, क्योंकि अलोकाकाश की अपेक्षा लोका काश अनन्त. भाग रूप है । अतः अलोकाकाश अनन्तवां भाग कम सर्व आकाश रूप है। धर्मास्तिकाय प्रादि को स्पर्शना ६८ प्रश्न-धम्मत्यिकाए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते । । ...६८ उत्तर-गोयमा !. लोए, लोयमेत्ते, लोयप्पमाणे लोयफुडे, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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