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________________ ५२६ भगवती सूत्र-श. २ उ. १.. जीव अजीव के भेद स्तिकाय के देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय के देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय । शंका-जब कि दूसरी जगह अरूपी अजीव के दस भेद कहे हैं, तो यहां पाँच ही भेद कहने का क्या कारण है ? समाधान यहां तीन भेद वाले आकाश को आधार रूप माना हैं, इसलिए उसके तीन भेद यहाँ नहीं गिने गये हैं । आकाश के तीन भेदों को निकाल देने पर सात भेद रहते हैं । सम्पूर्ण लोक की पृच्छा होने से यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकांय के स्कन्धरूप से पूर्ण का ग्रहण कर लिया गया है, इसलिए देश का ग्रहण नहीं किया गया हैं, अतः ये .. दो भेद निकाल देने पर बाकी पांच भेद रहते हैं। . जीव और पुद्गल बहुत हैं, इसलिए ऐसा कहना ठीक ही है-"बहुत जीव, जीवों के बहुत देश, जीवों के बहुत प्रदेश । बहुत पुद्गल, पुद्गलों के बहुत देश, पुद्गलों के बहुत प्रदेश ।" अथवा जीव में और पुद्गल में संकोच विस्तार की शक्ति है । इसलिए जिस जगह में एक जीव या पुद्गल समा सकता है, उतनी ही जगह में अनेक जीव और अनेक पुद्गल समा सकते हैं । इसलिए बहुत जीव और बहुत पुद्गल हो सकते हैं । इसलिए भी ऐसा कहना उचित है कि-बहुत जीव, जीवों के बहुत देश, जीवों के बहुत प्रदेश । बहुत पुद्गल, पुद्गलों के बहुत देश और पुद्गलों के बहुत प्रदेश। रूपी द्रव्य की अपेक्षा बहुत अजीव, अजीवों के बहुत देश और अजीवों के बहुत प्रदेश-ऐसा कहना भी सुसंगत है, क्योंकि एक ही वस्तु के अन्दर भी पृथक् पृथक् तीन वस्तुओं की विद्यमानता है । धर्मास्तिकाय आदि में तो दो वस्तुएं संभावित हैं। यथा-धर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय प्रदेश इत्यादि । जब सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को कहने की इच्छा होती है, तब 'धर्मास्तिकाय' इत्यादि रूप से निर्देश होता है और जब धर्मास्तिकाय आदि के अंशों को कहने की इच्छा होती है, तब 'धर्मास्तिकाय प्रदेश' इत्यादि रूप से कहा जाता है, क्योंकि प्रदेश अवस्थित रूप वाले हैं । धर्मास्तिकाय में उसके देशों की कल्पना करना अयुक्त है, क्योंकि उसके देश अवस्थित रूप वाले नहीं हैं। यद्यपि जीवादिदेश भी अनवस्थित रूप हैं, तथापि वे एक ही आश्रय में भिन्न-भिन्न संभवित हैं, इसलिए उनकी भिन्न-भिन्न प्ररूपणा की गई है। धर्मास्तिकायादि में इस प्रकार नहीं है, क्योंकि वह एक है और संकोचादि धर्म रहित है । इसलिए धर्मास्तिकायादि के देश का निषेध करने के लिए मूल पाठ में 'णो धम्मत्थिकायस्स देसे, णो अधम्मस्थिकायस्स देसे' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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