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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ असंयत जीव की गति वाणव्यन्तर शब्द का अर्थ है वन विशेष में उत्पन्न होने वाले अर्थात् बसने वाले और वनों में क्रीड़ा करने वाले देव वाणव्यन्तर देव कहलाते हैं । यह स्थान वाणव्यन्तर देवों से और देवियों से व्याप्त होता है। वहीं जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति है और अधिक से अधिक एक पल्योपम की है । भगवान् के वचन सुनकर गौतम स्वामी ने कहा कि- "हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही है, दूसरी तरह से नहीं है ।" यह कहकर गौतम स्वामी ने भगवान् के वचनों के प्रति बहुमान प्रदर्शित किया है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और तप संयम से आत्मा को भावित कर विचरने लगे । Jain Education International १०९ यहाँ वन्दना नमस्कार करने का उल्लेख आया है। इससे यह प्रकट किया गया है। कि- प्रश्न पूछने से पहले और उत्तर सुनने के बाद वन्दना करना - विनय प्रदर्शित करना है । बिना विनय के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । अतः ज्ञान प्राप्त करने में विनय की अत्यन्त आवश्यकता है । ॥ प्रथम शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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