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________________ ३५८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ एषणीय आहार का फल । प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है । आयुकर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं भी बांधता है । असातावेदनीय कर्म को बारम्बार उपार्जन करता है। तथा अनादि अनन्त दीर्घमार्ग वाले, चतुर्गति संसार रूपी अरण्य में बारबार पर्यटन करता है। . 'आउय वज्जाओ' की टीका में कहा है: 'यस्मादेकत्रभवग्रहणे सकृदेवाऽन्तर्मुहर्तमात्रकाले एवायुषो बन्धः' अर्थात्:-एक भव में एक जीव एक ही बार आयुष्य का बन्ध करता है। 'आधाकर्म' आहारादि भोगने वाला साधु आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करता है और यहां तक कि 'निकाचित बन्ध भी कर लेता है। __ भगवान् का यह उत्तर सुनकर गौतमस्वामी ने फिर पूछा कि-हे भगवन् ! आधाकर्म आहारादि भोगने वाला मुनि ऐसा कठिन कर्म क्यों बांधता है ? __ इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! उस मुनि ने जो श्रुतधर्म और चारित्रधर्म अंगीकार किया था वह उस आत्मधर्म का उल्लंघन करता है । उसने पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के छहों काय जीवों की रक्षा के लिए संयम स्वीकार किया था, किन्तु आधाकर्म आहारादि सेवन करने वाला उन छहों काय के जीवों की अनुकम्पा नहीं करता । वह उनका विघातक होता है। इसलिए वह इस प्रकार के कर्म बांधता है । अतः मुनि को आधाकर्म आहारादि का सेवन नहीं करना चाहिए। एषणीय आहार का फल ३०५ प्रश्न-फासु-एसणिजं भंते ! भुंजमाणे किं बंधइ, जावउवचिणाइ ? ३०५ उत्तर-गोयमा ! फासु-एसणिजं णं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्तकम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ । जहा संवुडेणं, नवरं-आउयं च णं. कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ; सेसं तहेव, जाव-वीइवयइ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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