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भगवती सूत्र--श. १ उ. ५ लेश्या .
गये है, क्योंकि यदि तेजस और कार्मण शरीरों को वैक्रिय से अलग कर दिया जाय तो अस्सी भा प्राप्त होंगे। क्योंकि वे विग्रह गति में हो पाये जाते हैं । यहाँ पर केवल तंजस कार्मण की चर्चा नहीं है, किन्तु वैक्रिय सहित तैजस कार्मण की है। इसलिए सत्ताईस ही भंग मिलेंगे । यही बात सूचित करने के लिए तीनों शरीरों के सम्बन्ध में जानना चाहिए'ऐसा कथन किया गया है।
'वज्रऋषभनाराच' आदि छह संहननों में से नारकी जीवों के शरीर में कोई संहनन नहीं होता है। क्योंयि हड्डियों के ढांचे को 'संहनन' कहते हैं। नारकी जीवों के शरीर में हाड़, शिरा (नस), स्नायु नहीं हैं, किन्तु जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनोहर होते हैं, वे नारकी जीवों के शरीर रूप में परिणत होते हैं, उन पुद्गलों का यह स्वभाव है कि छेदने पर वे अलग हो जाते हैं और वापिस मिल जाते हैं। इस प्रकार असंहननी शरीर में रहने वाले नारकी जीवों में सत्ताईस भंग पाये जाते हैं।
एक नारकी जीव दूसरे जीव को कष्ट देने आदि के लिए जो शरीर बनाता है वह 'उत्तरवैक्रिय' कहलाता है और भवपर्यन्त रहने वाला शरीर 'भवधारणीय' कहलाता है। नारकी के दोनों प्रकार के शरीरों का संस्थान (आकार) हुण्डक ही होता है ।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि नारक जीव उत्तर वैक्रिय शरीर का संस्थान हुण्डक क्यों बनाते हैं ? सुन्दर क्यों नहीं बनाते ?
इसका समाधान यह है कि-उनमें शक्ति की मन्दता है । अतः वे सुन्दर आकार बनाना चाहते हुए भी बना नहीं सकते अर्थात् सुन्दर आकार बनाना चाहते हुए भी बेढंगा ही. बनता है । ऐसे नारकी जीवों में क्रोधी आदि के सत्ताईस भंग होते हैं ।
नरयिकों को लेश्या दृष्टि आदि
१८० प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति लेस्साओ पण्णत्ता।
१८० उत्तर-गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता । १८१ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव-काउलेस्साए
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