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________________ भगवती सूत्र--श. C उ. २ अंतक्रिया सकने का अवकाश स्थान नहीं । इसलिए तिर्यञ्च योनि में शून्यकाल नहीं है । मनुष्य योनि और देवयोनि में तीनों काल है । इसलिए इनका वर्णन पूर्वोक्त नारकियों के वर्णन के समान ही समझना चाहिए । नरक की अपेक्षा सबसे कम अशून्यकाल है । अशून्यकाल उत्कृष्ट से उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त का है । मिश्रकाल, अशून्यकाल से अनन्तगुणा है। जीव नरक से निकल कर दूसरी गति में जाकर त्रस और वनस्पति में गमनागमन करके फिर नरक में आवे तबतक मिश्रकाल ही है । मिश्रकाल अनन्तगुणा है। इसका कारण यह है कि नरक का निर्लेपन काल वनस्पतिकाय की कायस्थिति के अनन्तवें भाग है । इसलिए मिश्रकाल अनन्तगुणा है । शून्यकाल, मिश्रकाल से भी अनन्तगुणा है। नरक के विवक्षित सभी जीव नरक से निकल कर दूसरी गति में चले गये हों, तो उनमें से बहुत से जीव वनस्पति में अनन्तकाल तक रह सकते हैं । Jain Education International तिर्यञ्चों की अपेक्षा सब से कम अशून्यकाल है । उनमें बारह मुहूर्त का विरह होता है, इसलिए अशून्यकाल कम है । सन्नी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय का विरह काल उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त है। तीन विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय का विरह उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है । पृथ्वीकायादि पाँच स्थावर में समय समय परस्पर एक दूसरे में असंख्य जीव उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए इनमें विरह काल नहीं है । तिर्यञ्च गति में जो बारह मुहूर्त्त का विरह बतलाया गया है वह 'तीन गतियों से आकर जीव इस गति में उत्पन्न नहीं होते हैं, इस अपेक्षा से है ।' मिश्रकाल अनन्तगुणा है । वह नरक के समान जान लेना चाहिए । मनुष्यों के और देवों के संसार संस्थान काल की अल्पबहुत्व आदि नारकियों के समान ही समझना चाहिए । १५१ करेज्जा; अंतकिरियापयं नेयव्वं । अन्तक्रिया १०७ प्रश्न - जीवे णं भंते! अंतकिरियं करेज्जा ? १०७ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए नो विशेष शब्दों के अर्थ - अंतकिरिय-अन्तक्रिया = मोक्ष प्राप्ति । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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