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________________ • भगवती सूत्र श. १ -- गौतम स्वामी की जिज्ञासा और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया । भगवान् के न अति नजदीक न अति दूर किन्तु यथोचित स्थान पर रह कर भगवान् के सन्मुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोले । विवेचन - मूल पाठ में 'जायसड्ढे जायसंसए' आदि बारह पद हैं। जिनका अर्थ इस प्रकार है-—जायसड्ढे' अर्थात्-गौतम स्वामी को श्रद्धा - अर्थ तत्त्व जानने की इच्छा पैदा हुई । 'जायसंसए' उन्हे संशय पैदा हुआ कि भगवान् ने 'चलमाणे चलिए' अर्थात् 'चलते हुए कोचलि -चला हुआ' कहा है तो वर्तमान कालिक प्रयोग भूतकालिक कैसे कहा गया है ? इसका मैं निर्णय करूँ । इस प्रकार निर्णय करने की बुद्धि रूप संशय पैदा हुआ । जायकोऊहल्ले' उन्हें कुतूहल उत्पन्न हुआ कि भगवान् इसका समाधान किस प्रकार फरमावेंगे ? ‘उप्पप्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले' ये तीन पद पहले के तीन पदों के साथ हेतुहेतुमद्भाव–कार्यकारण भाव बतलाने के लिए दिये गये हैं। उन्हें श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ, इसी कारण से उनकी श्रद्धा, संशय और कुतूहल में प्रवृत्ति हुई । उत्पत्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । इसलिए 'उप्पण्णसड्डे' आदि तीन पद कारण 'हैं और 'जायसड्ढे' आदि ये तीन पद इनके कार्य हैं । १९ ‘संजायसड्ढे, समुप्पण्णमड्ढे' आदि छह पदों में पूर्वोक्त छह पदों की अपेक्षा 'सम्' पसर्ग अधिक लगा है । यहाँ 'सम्' उपसर्ग का अर्थ 'प्रकर्षता' है। जिसका अर्थ यह हुआ उन्हें प्रकर्ष रूप से - विशेष रूप से श्रद्धा संशय और कुतूहल पैदा हुए -- उत्पन्न हुए । किन्हीं आचार्यों ने इन बारह पदों की व्याख्या इस प्रकार की है- 'जायसड्ढे जायस जायको हल्ले' ये तीन पद अवग्रह / की अपेक्षा हैं। इसी प्रकार आगे के तीन-तीन पद ईहा, अवाय और धारणा की अपेक्षा से है । + (१) अवग्रह - विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूत सत्तामात्र गोचरदर्शनाज्जातमाद्यमवान्तर सामान्या कारविशिष्ट वस्तुग्रहणमवग्रहः ।' 'अर्थात् - विषय (पदार्थ) और विषयी (चक्षु आदि) का यथोचित देश में सम्बन्ध होने पर सत्ता मात्र को जानने वाला दर्शन उत्पन्न होता हैं। इसके अनन्तर सबसे पहले मनुष्यत्व आदि अवन्तिर सामान्य से युक्त वस्तु को जानने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है । (२) ईहा - ' अवगृहीतार्थं विशेषाकांक्षणमीहा' । अर्थ - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को 'ईहा' कहते हैं। 'यह मनुष्य है' ऐसा अवग्रह ज्ञान से जान पाया था। इससे भी अधिक 'यह दक्षिणी है या पूर्वी' इस प्रकारे विशेष को जानने की इच्छा होना ' हा ' ज्ञान कहलाता है। ईहा ज्ञान 'यह दक्षिणी होना चाहिए' यहाँ तक पहुँच जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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