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________________ भगवती सूत्र - १.उ. चलमाणे चलिए आदि प्रश्न क्षय हो जाना 'मोक्ष' हैं। इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मों के बन्धन को काटना अनिवार्य हैं । उन कमों के क्षय के लिए 'चलमाणे चलिए' यह क्रम बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी ने यहां जो 'चलमाणे चलिए' से लगाकर 'णिज्जरिज्जमाणे णिज्जरिए' तक नौ प्रश्न किये हैं, उनमें कर्म-बन्ध के नाश का क्रम बतलाया गया है । यह क्रम 'चलमाणे' से आरम्भ होता है और 'णिज्जरिए तक रहता है । इस अन्तिम क्रम के पश्चात् कर्मबन्ध नहीं रहता । कर्मबन्ध के नाश होने में पहला क्रम 'चलमाणे चलिए' ही है। इसी कारण से यह प्रश्न सबसे पहले किया गया है । (१) कर्मों के अबाधा काल की स्थिति पूर्ण होने पर कर्म अपना फल देने के लिए उदयावलिका में आते हैं । इस प्रकार कर्म का फल देने के लिए सामने आना 'चलित' कहलाता है । २३ कर्मों का चलनकाल उदयावलिका है । उसमें असंख्यात समय होते हैं । उन असंख्यात समय की आदि भी है, मध्य भी है और अन्त भी है । कर्म पुद्गल अनन्त हैं और उनके उदयावलिका में आने का क्रम है। इस प्रकार क्रम से चलते चलते कर्म पुद्गलों को 'उदयावलिका में आने में असंख्यात समय लग जाते हैं। इसलिए पहले समय में कर्म पुगलों का जो दल चला है उसे 'चला' कहना चाहिए। Jain Education International अब प्रश्न यह है कि जो कर्मपुद्गल 'चल रहे हैं' वे वर्तमान काल में हैं, उन्हें 'चले' ऐसा भूतकाल में कैसे कहा जा सकता है ? इस शङ्का का समाधान यह है कि जैसे कपडा बुनने के लिए पहला एक तन्तु (तार) डाला गया, इससे 'कपडा बुना' ऐसा लोक व्यवहार में कहा जाता है। यह व्यवहार निराधार नहीं है, क्योंकि वस्त्र को बुनना - वस्त्र की उत्पत्ति एक क्रिया है। सो यदि पहला तार • डालने रूपी क्रिया निरर्थक मानी जायगी, तो अन्तिम तार डालने तक की क्रिया भी निर-..: बन सकेगी। किन्तु यह बात 1 र्थक हो जायगी । वैसी दशा में 'कपड़े की उत्पत्ति' ही नहीं प्रत्यक्ष से विरुद्ध है । अन्तिम तन्तु में जो शक्ति है वही शक्ति प्रथम तन्तु में भी हैं। इसलिए जैसे अन्तिम तन्तु से कपडे को 'बना हुआ' माना जाता है उसी प्रकार प्रथम तन्तु से भी कपड़े को बना हुआ मानना पडेगा, क्योंकि वह अन्तिम भी प्रथम आदि की अपेक्षा - ही है । इसलिए यदि प्रथम आदि तन्तु से कपडे को बुना हुआ नहीं माना अन्तिम तन्तु से भी कपडा बुना हुआ नहीं माना जा सकेगा । वैसी दशा में लोक महार भी बाधित हो जायगा । तो 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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