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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ४ कर्मक्षय से मोक्ष जानते हैं । छस्थ इसे नहीं जान पाते । ये दोनों प्रकार के कर्म, किस दो प्रकार से भोगे जाते है - यह बात भगवान् ने जानी है और जैसा जाना है वैसा ही दूसरों को बताया हैस्मरण किया है और देश काल आदि के भेद से विविध प्रकार से एवं विशेष रूप से भी जाना है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि स्मृति ( स्मरण) मतिज्ञान का भद है और मतिज्ञान केवली में नहीं होता, इसलिए स्मृति भी उनमें नहीं हो सकती, फिर यहाँ केवली का 'स्मरण करना' क्यों कहा है ? २१३ इसका समाधान यह है कि केवली में स्मृति का अभाव है, उन्हें किसी वस्तु का स्मरण नहीं करना पड़ता है, क्योंकि उनके लिए सब पदार्थ प्रत्यक्ष में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । फिर भी यहाँ जो 'स्मरण करना' कहा गया है। उसका कारण यह हैं कि भगवान् के ज्ञान के साथ स्मरण का अव्यभिचार के रूप में सादृश्य है । इसलिए 'सुयमेयं अरहया' इस पद से भगवान् में स्मृति का अस्तित्व नहीं समझना चाहिए । भगवान् अपने केवलज्ञान से साक्षात् देखते हैं कि यह कर्म है और यह जीव हैं ।' दोनों के स्वरूप और सम्बन्ध को भगवान् केवलज्ञान से स्पष्ट जानते हैं । भगवान् केवलज्ञाने से भूतकाल को भी देखते हैं, वर्तमान काल को भी देखते हैं और भविष्य काल को भी देखतें हैं । प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म दो प्रकार से भोगे जाते हैं- आभ्युपगमिक वेदना से और औपक्रमिक वेदना से । भगवान् प्रत्यक्ष देखते हैं कि अमुक जीव अमुक कर्म को आभ्युfor वेदना से वेदेगा और अमुक कर्म औपक्रमिक वेदना से वेदेगा | Jain Education International स्वेच्छापूर्वक, ज्ञानपूर्वक कर्मफल को भोगना 'आभ्युपगमिक वेदना' कहलाती है । जैसे- प्रव्रज्या लेकर ब्रह्मचर्य पालना, भूमि पर सोना, केशलोचं करना, परीषह सहना तथा विविध प्रकार का तप करना, इत्यादि वेदना जो ज्ञानपूर्वक स्वीकार की जाती हैं, वह 'आभ्युपगमिकी' वेदना है । केवली यह जानते हैं कि यह जीव दीक्षा लेकर अपने कर्मों का क्षय इस प्रकार करेगा। जो कर्म अपना अबाधा काल पूर्ण होने पर स्वयं ही उदय में आते हैं अथवा जिनकी उदीरणा की जाती हैं उनका फल भोगना 'औपक्रमिकी' वेदना कहलाती है । अरिहन्त भगवान् जानते हैं कि इस प्रकार जिस रूप से कर्म बांधे हैं उसी रूप से जीव उन्हें भोगेगा । 'अहाकम्म' का अर्थ है - यथाकर्म अर्थात् जिस रूप में कर्म बांधा है उसी रूप से For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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