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भगवती सूत्र--श. १ उ. ४ कर्मक्षय से मोक्ष
जाता है और कुछ नहीं भी वेदा जाता है । यह अरिहन्त भगवान् द्वारा ज्ञात है स्मृत है और विज्ञात है कि-यह जीव इस कर्म को आभ्युपगमिक (स्वेच्छा से स्वीकृत) वेदना से वेदेगा और यह जीव इस कर्म को औपक्रमिक (अनिच्छापूर्वक) वेदना से वेदेगा । बांधे हुए कर्म के अनुसार, निकरणों के अनुसार, जैसा जैसा भगवान् ने देखा है वैसे वैसे वह विपरिणाम पायेगा। इसलिए हे गौतम ! इस कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि किये हुए कर्मों को भोगे बिना नारकी, तियंच, मनुष्य या देव किसी का भी मोक्ष नहीं है।
विवेचन-अब सामान्य कर्म के सम्बन्ध में विचार किया जाता है । नरकादि चारों गतियों के जीवों ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हे भोगे विना मोक्ष नहीं हो सकता।।
यहाँ 'पापकर्म' शब्द से शुभ और अशुभ सभी कर्मों का ग्रहण किया गया है, क्योंकि सभी कर्म मोक्ष प्राप्ति में व्याघात रूप होने से 'पाप' रूप ही हैं। ___मूल पाठ में जो यह कहा है कि-'मए दुविहे कम्मे पण्णत्ते' अर्थात् मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं । 'मैंने' शब्द के प्रयोग का अभिप्राय यह है कि-केवली किसी की कही हुई बात सुन कर नहीं कहते हैं, किन्तु स्वयं जान कर एवं देखकरं प्ररूपणा करते हैं । अर्थात् सर्वज्ञ की वाणी स्वतन्त्र होती है।
जीव के प्रदेशों में ओतप्रोत हुए कर्मपुद्गलों को प्रदेश कर्म कहते हैं, अर्थात् जो पुद्गल आत्मा के साथ दूध पानी की तरह एकमेक हो गये हैं, उन्हें 'प्रदेश कम' कहते हैं । उन प्रदेशों का अनुभव में आने वाला रस 'अनुभाग' कर्म कहलाता है।
प्रदेश कर्म निश्चय ही भोगे जाते हैं । विपाक अर्थात्-अनुभव न होने पर भी प्रदेश कर्म का भोग होता ही है । आत्मप्रदेश उन कर्म प्रदेशों को अवश्य गिराता हैअलग करता है। ... अनुभाग कर्म कोई वेदा जाता है और कोई नहीं वेदा जाता है। यथा-जब आत्मा मिथ्यात्व का क्षयोपशम करता है, तब प्रदेश से तो वेदता है, किन्तु अनुभाग से नहीं वेदता है। यही बात अन्य कर्मों के विषय में भी समझनी चाहिए । चारों गति के जीव किये हुए कर्म को अवश्य भोगते हैं, परन्तु किसी कर्म को विपाक से भोगते हैं और किसी को प्रदेश से भोगते हैं।
प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म का वेदन जिस प्रकार होता है, उसे अरिहन्त भगवान्
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