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________________ . ३४८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर.. आदि की निन्दा गर्दा किस लिए करते हैं ? २९८ उत्तर-हे कालास्यवेषिपुत्र ! संयम के लिए हम क्रोध आदि की । निन्दा करते हैं। २९९ प्रश्न-तो हे भगवन् ! क्या गर्दा संयम है ? या अगर्दा संयम है ? २९९ उत्तर-हे कालास्यवेषिपुत्र ! गर्दा संयम है, अगर्दा संयम नहीं है। गर्दा सब दोषों को दूर करती है । आत्मा सर्व मिथ्यात्व को जान कर गर्दा द्वारा सब दोषों का नाश करती है । इस प्रकार हमारी आत्मा संयम में पुष्ट होती है और इस प्रकार हमारी आत्मा संघम में उपस्थित होती है। विवेचन-कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन श्रुतवृद्ध स्थविरों से पूछा कि-सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग को आप जानते हैं ? और क्या इनके अर्थ को भी आप जानते हैं. ? यदि आप जानते हैं, तो इनका अर्थ कहिये। कालास्यवेषिपुत्र से स्थविरों ने कहा कि-हे. मुने ! हम इन छह पदों को और इनके अर्थ को जानते हैं । आत्मा ही सामायिक है और 'आत्मा' ही सामायिक का अर्थ है। इसी प्रकार व्युत्सर्ग पर्यन्त सभी बातों का अर्थ 'आत्मा' ही है । प्रत्याख्यान, संयम, संवर विवेक और व्युत्सर्ग भी आत्मा ही है और इनका अर्थ भी आत्मा ही है। . स्थविर भगवन्तों ने यह निश्चय नय की दृष्टि से उत्तर दिया । व्यवहार नय की अपेक्षा इनका अर्थ इस प्रकार है-शत्रु मित्र पर समभाव रखना 'सामायिक' है। नवीन कर्मों का बन्ध न करना और पुराने कर्मों की निर्जरा कर देना सामायिक का अर्थ-प्रयोजन है । पौरिसी आदि का नियम करना 'प्रत्याख्यान' है और आस्रव आने के मार्गों को रोक देना प्रत्याख्यान का प्रयोजन है । पृथ्वीकाय आदि जीवों की यतना करना, इत्यादि सतरह प्रकार का 'संयम' है और आस्रव रहित होना संयम का प्रयोजन है । पांच इन्द्रियाँ और मन को अपने वश में रखना 'संवर' है और इनकी प्रवृत्ति को रोक कर आस्रव रहित होना संवर का प्रयोजन है । विशिष्ट बोध-ज्ञान को 'विवेक' कहते हैं । विशेष बोध द्वारा हेय, ज्ञेय और उपादेय पदार्थों को जान कर हेय (छोड़ने लायक) पदार्थों को छोड़ना और उपादेय (ग्रहण करने लायक) पदार्थों का ग्रहण, करना यह विवेक का प्रयोजन है । शरीर के हलन चलन को बन्द करके उस पर से ममत्व हटा लेना 'व्युत्सर्ग' कहलाता है । इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है । सभी प्रकार के संग से रहित हो जाना इसका प्रयोजन है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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