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भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर
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इसके बाद कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने पूछा कि-हे स्थविर भगवन्तों ! जैसा कि आप फरमाते हैं कि आत्मा ही सामायिक यावत् व्युत्सर्ग है, तो फिर आप क्रोधादिक का त्याग करके क्रोधादि की निन्दा किसलिये करते हैं ? क्योंकि सामायिक आदि में क्रोधादि पापों का त्याग हो जाता है, फिर उनकी निन्दा कैसे की जा सकती है ? .
स्थविर भगवन्तों ने फरमाया कि-हे कालास्यवेषिपुत्र अनगार ! हम लोग संयम के लिए पाप की निन्दा करते हैं, क्योंकि पाप की निन्दा करने से संयम होता है । इसी प्रकार गर्दा भी संयम में हेतु रूप होने से तथा कर्म बन्धन में कारण रूप न होने से गर्दा संयम है । इतना ही नहीं बल्कि मिथ्यात्व अविरति आदि को विवेक पूर्वक जान कर छोड़ने से गर्दा, राग द्वेष आदि समस्त पापों का विनाश करने वाली है । इस तरह आत्मा संयम में स्थापित होती है एवं आत्मा रूप संयम प्राप्त होता है । संयम के विषय में आत्मा पुष्ट होती है एवं आत्मरूप संयम पुष्ट होता है ।
. ३००-एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुद्धे थेरे भगवंते वंदह, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीः-एएसि णं भंते ! पयाणं पुट्विं अण्णाणयाए, असवणयाए, अबोहियाए, अणभिगमेणं, अदिट्ठाणं, अस्सुयाणं अमुयाणं, अविण्णांयाणं, अव्वोगडाणं, अव्वोच्छिण्णाणं, अणिज्जूढाणं, अणुवधारियाणं एयममु णो सद्दहिए । णो पत्तइए, णो रोइए, इयाणिं भंते ! एएसि पयाणं जाणयाए, सवणयाए, बोहीए, अभिगमेणं, दिट्ठाणं, सुयाणं, मुयाणं, विण्णायाणं, वोगडाणं, वोच्छिण्णाणं, णिज्जूढाणं, उवधारियाणं, एयमटुं सदहामि, पत्तियामि, रोएमि, एवमेयं से जहेयं तुब्भे वदह । तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासीः-सदहाहि अजो! पत्तियाहि अजो! रोएहि अजो! से जहेयं अम्हे वदामो । तए
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