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________________ भगवती सूत्र श. १-वीर स्तुति का शरणदातापना, बोधिंदातापनी और धर्मदातापना, धर्मदेशना द्वा ही होता है, अतः यह विशेषण दिया गया है कि भगवान् धर्मदेशक' है अर्थात् वे श्रुतं चारित्र रूपी धर्म का उपदेशं देने वाले हैं। भगवान् ‘धर्मनायक' हैं अत् िधर्म के नेता हैं । भगवान् ‘धर्मसारथि है अर्थात् धर्म रूप रथ के प्रवर्तक होने से सारथि के समान हैं। जिस प्रकार सारंथि रथ की और रथ में बैठने वाले की तथा रथ को खींचने वाले घोडे की रक्षा करता है, उसी प्रकार भगवान् चारित्र धर्म रूपी रथ के अंगभूत संयम, आत्मा और प्रवचन की रक्षा का उपदेश देने वाले होने से 'धर्म-सारथि' हैं। भगवान 'धर्मवर चातुरन्तंचक्रवर्ती' हैं । तीन तरफ समुद्र और चौथीं तरफं हिमवान पर्वत, ये चार भरत क्षेत्र रूपी पृथ्वी के अन्त हैं। इन चार अन्त वाली पृथ्वी का जो स्वामी होता है, वह 'चातुरन्त चक्रवर्ती' कहलाता है। वर-श्रेष्ठ चातुरन्त चक्रवर्ती, जो हो, वह 'वरचातुरन्त चक्रवर्ती है। जैसे वरचातुरन्त चक्रवर्ती अन्य राजाओं की अपेक्षा अतिशय सम्पन्न और विशेष प्रभावशाली होता है । इसी प्रकार भगवान् तथाकथित अन्य बुद्ध, कपिल आदि धर्मनेताओं की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, अतिशय सम्पन्न एवं प्रभावशाली हैं । अथवा दान, शील, तप, भाव द्वारा नरकादि चार गति का अन्त करने वाले एवं राग द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले धर्मचक्र से प्रवृत्ति करने का जिनका स्वभाव है उन्हें 'धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती' कहते हैं । अतः भगवान् ‘धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती' हैं। - उपर्युक्त सारे विशेषण निर्मल एवं श्रेष्ठ ज्ञान के होने पर ही घटित हो सकते हैं। अतः भगवान् का ज्ञान कसा निर्मल है यह बताने के लिए कहां गया है-'अप्रतिहत वर ज्ञानदर्शन धर'। भगवान् का ज्ञान भीत पर्वत आदि से व्यवहित (पीछे रहे हुए) पदार्थों को जानने .वाला, विसंवाद रहित और क्षायिक होने से श्रेष्ठ है। विशेष बोध और सामान्य बोध रूपी केवल ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले होने से भगवान् ‘अप्रतिहतवर ज्ञान दर्शन के धारक' हैं। भगवान् छद्मस्थपने में सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं। राग-द्वेष रूप आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने के कारण भगवान् 'जिन' हैं। वे छद्मस्थ जीवों को राग द्वेष जीतने का उपाय बतलाते हैं, अतः वे 'ज्ञायक हैं। वे 'बुद्ध' है अर्थात जीवादि तत्त्वों के जानने वाले हैं। वे 'बोधक' हैं अर्थात् दूसरे प्राणियों को वे जीवादि तत्त्वों का बोध कराते हैं। वे 'मुक्त' हैं अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह रूप ग्रन्थि-बन्धन से रहित हैं। वे 'मोचक' है अर्थात् दूसरे प्राणियों को परिग्रह रूप ग्रन्थिबन्धन से मुक्त कराने वाले हैं। समस्त वस्तुओं को विशेष रूप से और सामान्य रूप से जानने वाले होने से भगवान सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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