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________________ भगवती सूत्र-शं. १ वीर स्तुति ... हैं। भगवान् लोक प्रदीप हैं। अर्थात् तिर्यञ्च, नर और अमर रूप विशिष्ट लोक के आन्तरिक अन्धकार को दूर कर प्रकृष्ट प्रकाश के करने वाले होने से वे प्रदीप के समान हैं। भगवान् ‘लोक प्रद्योतकर' हैं अर्थात् जैसे सूर्य समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार भगवान् सकल वस्तु समूह रूप लोकालोक को केवलज्ञान रूप प्रकाश से प्रकाशित करने वाले हैं, अतएव वे 'लोकप्रद्योतकर' हैं। भगवान् - 'अभयदय' हैं, अर्थात् जो जीव भगवान् को परीषह उपसर्ग देकर, उनके प्राणों का विनाश करने में उद्यत होते हैं ऐसे जीवों को भी भगवान् अपनी तरफ से कुछ भी भय नहीं देते हैं, बल्कि. उन्हें अभयदान देते हैं, अतः भगवान् - अभयदय .(अभय दाता) हैं। अथवा अनुकम्पा को 'अभया' कहते हैं । संसार के समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करने वाले. होने से भगवान्, 'अभयदय' हैं । भगवान् चक्षुर्दय' हैं अर्थात् शुभाशुभ पदार्थों के विभाग को दिखलाने वाला श्रुतज्ञान ही वास्तविक चक्षु है । ऐसे श्रुतज्ञान रूपी चक्षु के देने वाले होने से भगवान् चक्षुर्दय (चक्षुदाता) हैं। भगवान् ‘मार्गदय' हैं । जैसे जंगल में जाते हुए. मनुष्यों का धन चोर लूट ले और उनकी आंखों पर पट्टी बांध दे, जिससे मार्ग न दिखने से वे महादुखी होते हैं। उनकी ऐसी दयनीय दशा देखकर कोई . दयालु पुरुष उनकी आंखों पर की पट्टी खोल. कर उन्हें इष्ट मार्ग.बता दे, तो वह जिस प्रकार लोक में उपकारी गिना जाता है, उसी प्रकार.रागादि.शत्रुओं.द्वारा जिनका धर्म रूपी धव लूटा गया है. और कुवासनाओं से जिनके नेत्र ढके.गये हैं, ऐसे जीवों के नेत्रों पर से कुवासना रूपी पट्टी को हटा कर एवं श्रुतज्ञान रूपी चक्षु देकर निर्वास रूप इष्ट मार्ग को बताने वाले भगवान् हैं, अतएव मोक्षमार्गदाता होने के कारण वे महान् उपकारी हैं। भगवान् शरणदय' हैं अर्थात् नाना प्रकार के दुःखों से सन्तप्त प्राणियों को निरुपदव स्थान-मोक्ष में पहुंचाने वाले होने के कारण भगवान् वास्तविक 'शरणदाता' हैं । भगवान् बोधि अर्थात् सम्यक्त्व के दाता हैं। भगवान् धर्मदाता' हैं. अर्थात् दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण कर सद्गति में पहुंचाने वाले श्रुत. चारित रूपी धर्म के दाता हैं। भगवान् कहलाता है। तीर भगवान् संज्ञी भव्य जीवों को अप्राप्त सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कराते हैं और प्राप्त सम्यग्दर्शनादि की परिपालना (रमा) कराते हैं। अतः वे योगक्षेमकारी होने से लोकनाथ' हैं। ........... चक्षुष्मन्तस्त एवेह, ये श्रुतज्ञानचक्षुषा। ---- सम्यक् सदैव पश्यन्ति, भावान् हेयेतरान् नराः। . अईही पुरुष वास्तविक या कहलाते हैं जो श्रुतमान रूपी गांव से हेय उपादेवादि महालेको मनाली प्रकार देखते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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