SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र -श.. १ उ. : काक्षा-मोहनीय वेदन लिए, पहले की बात में अनुमति देने के लिए और पूर्वोक्त बात में कोई विशेष हेतु देने के लिये उस बात को दोहराया जाता है। ऐसी जगह पुनरुक्ति दोष नहीं होता हैं । शंका आदि कारणों से जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं । शंका कांक्षा शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-- __ वीतराग भगवान् ने अपने अनन्तज्ञान दर्शन में जिन तत्त्वों को जान कर निरूपण किया है उन तत्त्वों पर या उनमें से किसी भी एक पर शंका करना-कौन जाने यह ठीक है या नहीं ? इस प्रकार का सन्देह करना शङ्का है। एक देश से या सर्व देश से अन्यदर्शन को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है । फल के विषय में संशय होना विचिकित्सा है। जैसे-मैं तपस्या करता हूँ, ब्रह्मचर्य आदि पालता हूँ, किन्तु अभी तक तो कुछ फल मिला ही नहीं, कौन जाने आगे मिलेगा या नहीं। इस प्रकार फल के विषय में संशय करना विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वैधीभाव उत्पन्न हो जाना भेदसमापन्नता है । जैसे-जिनशासन यह है या वह है ? इस प्रकार जिनशासन के विषय में जिनकी बुद्धि भेद को प्राप्त हो रही है वह भेदसमापन्न कहलाता है। अथवा-अनध्यवसाय-अनिश्चित ज्ञान वाले को भेदसमापन्न कहते हैं । अथवा पहले शंका या कांक्षा उत्पन्न होने से जिसकी बुद्धि में विभ्रम-भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है उसको भेद समापन्न कहते हैं । विपरीत बुद्धि वाले को कलुषसमापन्न कहते हैं। जिन भगवान् ने जो वस्तु जैसी प्रकट की है उसे उसी रूप में निश्चय न करके विपरीत रूप से समझना कलुषसमापन्नता है। भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! जीव इन कारणों से कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। - गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या वही बात सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् के द्वारा प्ररूपित की गई है ? भगवान् ने फरमाया-हाँ, गौतम ! वही बात सत्य और निःशंक है जो जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित की गई है। . "जिन"-यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं है । 'जिन' एक पदवी है । जिन्होंने प्रकृष्ट साधना के द्वारा अनादिकालीन राग-द्वेष आदि समस्त आत्मिक विकारों पर विजय प्राप्त कर ली हो वे ही महापुरुष 'जिन' कहलाते हैं । फिर भले ही उनका नाम कुछ भी क्यों न हो । जिन्होंने राग द्वेष और अज्ञान से अपनी आत्मा को पृथक् कर लिया है, उनके वचनों में सन्देह करने की गुंजाइश ही नहीं है । 'जिन' द्वारा उपदिष्ट धर्म 'जैनधर्म' कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy