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________________ भगवती सूत्र - शं. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! निश्चयपूर्वक ऐसी श्रद्धा करने से कि 'जिन भगवान्' की कही हुई बात सत्य और संशय रहित है । तथा यही बात हृदय में स्थिर करने से, इसी प्रकार की क्रिया करने से, किसी के पूछने पर ऐसा ही कहने से, अन्यथा न कहने से मन में भी जिन भगवान् के वचनों को सत्य समझने से और अन्यथा न समझने से, तथा जिन भगवान् के वचनानुसार प्राणातिपात, असत्य, चोरी आदि से मन को हटा लेने से, क्या ज्ञान, दर्शन, चारित्र के सेवनरूप जिन आज्ञा का आराधक होता है ? क्या वह जिन भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाला है ? भगवान् ने उत्तर दिया- हाँ, गौतम ! जो जीव ऐसा करता है वह जिन- आज्ञा का आराधक है । जीव का ज्ञान राग द्वेष आदि कषायों के कारण मिथ्या हो जाता है। जितने जितने अंश में राग द्वेष क्षीण होते जाते हैं उतने उतने अंश में ज्ञान में निर्मलता आती जाती है । जब राग द्वेष रूपी कषाय सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाते हैं तब ज्ञान में पूर्ण निर्मलता आ जाती है और ज्ञान अनन्त हो जाता है । यहाँ मनुष्य की ऐसी स्थिति है कि इसमें असत्य के लेश की भी संभावना नहीं है। अतएव जो वस्तु जैसी है, उसे जिन भगवान् वैसी ही बतलाते हैं । वास्तविकता से विपरीत बतलाने का कारण राग द्वेष और अज्ञान है और इन दोषों को जिन- भगवान् दूर कर चुके हैं। या ऐसा भी कहा जा सकता है कि जो इन दोषों को दूर कर देता है वही 'जिन' कहलाता है । इस कारण जिन भगवान् वही बात कहते है जो सत्य है । १७२ अस्तित्व और नास्तित्व १२१ प्रश्न - से णूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमह ? १२१ उत्तर - हंता, गोयमा ! जाव - परिणम | १२२ प्रश्न - जं तं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमह, नत्थित्तं नत्थिते परिणमह; तं किं पयोगसा, वीससा ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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