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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कक्षा-मोहनीय की उदीरणा 'पृथ्वीकाय के जीवों में तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा और मन नहीं है, उनमें बोलने की शक्ति भी नहीं है, फिर भी वे जीव कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं । जो जिन भगवन्तों ने अपने ज्ञान में देखा है वह सत्य और शंका रहित है। वे पृथ्वीकाय के जीव कांक्षामोहनीय कर्म को अपने आप उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से वेदते हैं । पृथ्वीकाय की तरह अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय तक ऐसा ही जानना चाहिए। तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय से वैमानिक तक समु. च्चय जीव के वर्णन की तरह समझना चाहिए। कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन श्रमण निर्ग्रन्थों के सिवाय बाकी दूसरे जीवों को हो तो हो, किन्तु उसका वेदन श्रमण निर्ग्रन्थों को कैसे हो सकता है ? क्योंकि उनकी बुद्धि जिनागमों के परिशीलन से पवित्र बनी हुई होती है । इसलिए अब गौतम स्वामी इस विषय में प्रश्न पूछते हैं कि-हे भगवन् ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षा-मोहनीय कर्म वेदते हैं। यहाँ मूल में साधु अर्थ के वाचक 'श्रमण' और 'निर्ग्रन्थ' ये दो शब्द दिये हैं। इसका प्रयोजन यह है कि-शाक्य अर्थात् बौद्ध भिक्षु आदि को भी 'श्रमण' कहते हैं । परन्तु उनका यहाँ ग्रहण नहीं है । इसलिए श्रमण के साथ 'निर्ग्रन्थ' विशेषण लगाया गया है। अर्थात् जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह से रहित हैं, ऐसे निग्रंथ श्रमणों (जनमुनियों) का यहाँ ग्रहण है । वे श्रमण निर्ग्रन्थ भी ज्ञानान्तर आदि कारणों से कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदंन करते हैं। १ज्ञानान्तर-एक ज्ञान से दूसरे ज्ञान को 'ज्ञानान्तर' कहते हैं । इनके विषय में शंका हो जाना कि ऐसा क्यों हैं ? यथा-अवधिज्ञान, परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को जानता है, इसलिए इसके असंख्यात भेद हैं । वह रूपी पदार्थों को जानता है । मनःपर्ययज्ञान, मनोद्रव्य को जानता है । मनोद्रव्य भी रूपी है। रूपी होने के कारण मनोद्रव्य भी अवधिज्ञान के द्वारा जाने जा सकते हैं। ऐसी हालत में अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान । को भिन्न मानने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार का सन्देह हो जाना शंका है। ... इसका समाधान यह है कि-यद्यपि मनोगत पदार्थ रूपी हैं और अवधिज्ञान द्वारा जाने जा सकते हैं, तथापि मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान एक नहीं हो सकते । दोनों भिन्न हैं । दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। मनःपर्ययज्ञान मन के भीतर आने वाले पदार्थ के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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