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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ आधाकर्म भोगने का फल यावत् त्रसकाय के जीवों को चिन्ता (परवाह) नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों को भी चिन्ता नहीं करता। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, आयु कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बांधी हुई प्रकृतियों को मजबूत बांधता है यावत् संसार में बारबार परिभ्रमण करता रहता है। विवेचन-'हाकम्भे' अर्थात् 'आधाकर्म' यह जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है। टीकाकार ने इस शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है ___ 'आधया साधुप्रणिधानेन यत् सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकम्, व्यूयते वा वस्त्रादिकम्, तद् आधाकर्म ।" अर्थात्-साधु के लिए सचित्त वस्तु को अचित्त की जाय अर्थात् सजीव वस्तु को निर्जीव बनाया जाय, अचित्त वस्तु को पकाया जाय, घर मकान आदि बंधवाये जायें, वस्त्रादि बुनवाये जायें, इसे 'बाधाकर्म' कहते हैं। . आधाकर्म दोष युक्त केवल आहार ही नहीं होता, किन्तु 'मकानादि भी होते हैं । जो मकान, साधु के लिये बनवाया जाय, वह आधाकर्म दोष-दूषित कहलाता है । इसी प्रकार वस्त्र, पात्र, पुस्तक, शास्त्र आदि के विषय में भी समझना चाहिए । ये सब मुनि के लिये अकल्पनीय हैं, अतएव ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । जो श्रमण निग्रन्थ, आधाकर्म दोष-दूषित आहारादि का सेवन करता है, वह क्या करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में चार क्रिया पद दिये गये हैं-'बंधइ, पकरइ, चिणइ, उवचिणइ' बंधई' पद प्रकृति-बन्ध की अपेक्षा से अथवा स्पृष्ट अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात शिथिल बन्ध से बन्धी हई कर्म प्रकृतियों को गाढ बन्धन वाली करता है अथवा कर्म प्रकृतियों को सृष्ट करता है । "पकरइ" पद 'स्थितिबन्ध' अथवा बद्ध अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात् अल्प काल की स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घ काल की स्थिति वाली करता है अथवा उन प्रकृतियों को 'बद्ध' अवस्था वाली करता है । 'चिणइ' पद 'अनुभाग' बन्ध की अपेक्षा से अथवा 'निधत्त' अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात् मन्द रस वाली प्रकतियों को तीव्र रस वाली करता है अथवा उन्हें 'निधत्त' अवस्था वाली करता है । 'उवचिणइ' पद प्रदेश-बन्ध की अपेक्षा अथवा निकाचित अवस्था की अपेक्षा से है अर्थात् अल्प प्रदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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