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________________ ५६ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ काल चलितादि सूत्र भगवान् ने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि हे गौतम ! नारकी जीव अतीत काल में और भविष्य काल में तैजस कार्मण शरीरपने पुद्गलों को ग्रहण नहीं करते हैं, किन्तु वर्तमान काल में ग्रहण करते हैं । इसका कारण स्पष्ट है कि-अतीत काल तो नष्ट हो चुका है और भविष्य काल अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ है । अतः जो भी क्रिया की जाती है वह वर्तमान में ही की जाती है । वर्तमान काल में भी स्वाभिमुख पुद्गलों को ही ग्रहण करते है, सब को नहीं। गौतम स्वामी का दूसरा प्रश्न यह है कि नारकी जीव जिन पुद्गलों को तैजस कार्मण शरीर के रूप में ग्रहण करते हैं, उनकी जो उदीरणा होती है, वह क्या भूतकाल में गृहीत पुद्गलों की होती है या वर्तमान काल में ग्रहण किये जाने वाले और भविष्य काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-हे गौतम ! नारकी जीव अतीत काल में तेजस कार्मण शरीर रूप से ग्रहण किये हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, किन्तु वर्तमान काल में और भविष्य काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते हैं। उदीरणा भूतकाल में बँधे हुए कर्म की ही होती है। वर्तमान काल में कर्म बंध रहा है, उसकी उदीरणा नहीं हो सकती और भविष्यकालीन कर्म अब तक बंधे ही नहीं हैं । अतः उनकी भी उदोरणा नहीं हो सकती। वर्तमानकालीन पुद्गल और भविष्यकालीन पुद्गल अब तक अगृहीत हैं । अगृहीत की उदीरणा नहीं होती । उदीरणा गृहीत की होती है। जिस प्रकार उदीरणा का कथन किया गया है उसी प्रकार वेदन और निर्जरा का भी कथन कर देना चाहिए। क्योंकि अतीत काल में ग्रहण किये हुए कर्मों का ही वेदन और निर्जरा होती है । वर्तमान काल और भविष्य काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों का न वेदन होता है और न निर्जरा होती है। ___तैजस कार्मण शरीर रूप में ग्रहण, उदीरणा, वेदन और निर्जरा-ये चार सूत्र हुए। अब कर्म का अधिकार होने से कर्म सम्बन्धी आठ सूत्र कहे जाते हैं इनमें पहला प्रश्न यह है कि-नारकी जीव चलित कर्म बाँधते हैं, या अचलित कर्म बाँधते हैं ? इसका उत्तर यह है कि-नारक जीव अचलित कर्म बाँधते हैं, चलित कर्म नहीं बाँधते। जीव के प्रदेश से जो कर्म चलायमान हो गये हैं उन्हें चलित कर्म कहते हैं, उन्हें जीव नहीं बांधता, क्योंकि वे ठहरने वाले नहीं हैं । इससे विपरीत कर्म, अचलित कर्म कहलाते हैं, उन्हें जीव बांधता है । जैसा कि कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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