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________________ - १२६ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिकों के समवेदना आदि हैं, क्योंकि नरक के जीव तीन प्रकार के हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि)। क्रियाएँ पाँच हैं-आरंभिया (आरम्भिकी), परिग्गहिया (पारिग्रहिकी), मायावत्तिया (मायाप्रत्यया), अपच्चक्खाणिया (अप्रत्याख्यानिकी), मिच्छादसणवत्तिया (मिथ्यादर्शनप्रत्यया)। . सम्यग्दृष्टि को चार क्रियाएँ लगती हैं। यथा-आरम्भिकी, पारिश्रहिकी, माया-. प्रत्यया और अप्रत्याख्यानिकी। मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि को उपर्युक्त पाँचों क्रियाएँ लगती हैं। इन क्रियाओं का अर्थ इस प्रकार है- आरम्भिकी-पृथ्वीकायादि छह काया रूप जीव तथा अजीव (जीव रहित शरीर, आटे आदि के बनाये हुए जीव की आकृति के पदार्थ या वस्त्रादि) के आरम्भ से लगने वाली क्रिया को 'आरम्भिकी' कहते हैं। पारिग्रहिकी-'परिग्रहो धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारः, धर्मोपकरणमूर्छा च, स . प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिको' । अर्थ-धर्मोपकरण जो धर्म की साधना के लिए रखे जाते हैं उनको छोड़कर अन्य समस्त पर-पदार्थ परिग्रह है और धर्मोपकरणों पर ममता होना भी परिग्रह है । मूर्छाममत्वभाव से लगने वाली क्रिया-'पारिग्रहिकी'-है। मायाप्रत्यया-मरलना का भाव न होना-कुटिलता का होना माया है। क्रोध, मान, माया और लोभ के निमित्त से लगने वाली क्रिया-मायाप्रत्यया क्रिया कहलाती है। . अप्रत्याख्यानिकी-अप्रत्याख्यान अर्थात् थोड़ा-सा भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यानिकी है। अथवा अव्रत से जो कर्मबन्ध होता है वह अप्रत्याख्यानिकी क्रिया है। - मिथ्यादर्शनप्रत्यया-जीव को अजीव, अजीव को जीव, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, साधु को असाधु, असाधु को साधु समझना इत्यादि विपरीत श्रद्धान से तथा तत्त्व में अश्रद्धान आदि से लगने वाली क्रिया-मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है। यद्यपि दूसरी जगह “मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगाः बन्धहेतवः" अर्थात्मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कर्मबन्ध के कारण हैं-ऐसा कहा हैं, और यहाँ आरम्भ परिग्रह आदि को कर्मबन्ध का कारण कहा है तथापि इसमें तात्त्विक विरोध नहीं है, क्योंकि आरम्भ परिग्रह योग के अन्तर्गत है, और योग आरम्भ परिग्रह रूप ही है तथा प्रमाद तो सब कारणों के साथ ही है। शेष तीन कारण मिथ्यात्व, अविरति और कषाय दोनों जगह समान हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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