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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ अन्यमत और आयुष्य का बन्ध २९४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमण निग्रंथ, अन्तकर और अन्तिम शरीरी होता है ? अथवा पूर्व की अवस्था में बहुत मोह वाला होकर विहार करे और फिर संवर वाला होकर काल करे, तो क्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? २९४ उत्तर - हाँ गौतम ! कांक्षाप्रदोष नष्ट हो जाने पर यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । 1 विवेचन - शास्त्र मर्यादा से अधिक उपधि न रखना तथा उसमें भी कमी करना 'लाघव' है । आहारादि में अल्प इच्छा रखना 'अल्पेच्छा' है। अपने पास रही हुई उपधि में भी ममत्व न रखना 'अमूर्च्छा' है । आसक्ति का अभाव अर्थात् अनासक्ति को 'अमृद्धि' कहते हैं । स्नेह और राग के बन्धन को काट डालना 'अप्रतिबद्धता' है । ये पाँचों बातें श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं । इन पांचों के साथ क्रोध, मान, माया और लोभ के अभाव का अविनाभाव सम्बन्ध है । इन चारों कषायों का अभाव भी श्रमण निग्रंथों के लिए प्रशस्त है । वीतराग प्ररूपित धर्म से भिन्न दूसरे मत के आग्रह एवं आसक्ति को 'कांक्षा प्रदोष' कहते हैं । अथवा कांक्षा का अर्थ है- राग और प्रदोष का अर्थ है- प्रद्वेष । इसलिए 'कांक्षाप्रदोष' का दूसरा नाम 'कांक्षाप्रद्वेष' भी है। जिस किसी बात को पकड़ रखा है, उसके fवरुद्ध बात पर द्वेष होना 'कांक्षाप्रद्वेष' है । कांक्षाप्रद्वेष का सर्वथा विनाश होने पर जीव का मोक्ष हो जाता है । अन्य मत और आयुष्य का बन्ध २९५ प्रश्न - अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्वंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति - एवं खलु एगे जीवे एगेणं समपणं दो आउयाई पकरेइ । तं जहा : - इहभवियाज्यं च परभवियाज्यं च; जं समयं इहभवियाज्यं पकरेह, तं समयं परभवियाज्यं - पकरेह; जं समयं परभवियाउयं पकरेह; तं समयं इहभवियाउयं Jain Education International ३४१ For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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