________________
३४०
भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त
२९२ उत्तर-हंता, गोयमा ! लाघवियं, जाव-पसत्थं ।
२९३ प्रश्न-से गूणं भंते ! अकोहत्तं, अमाणत्तं, अमायत्तं, अलोभत्तं समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ? ..
२९३ ऊत्तर-हंता, गोयमा ! अकोहत्तं, अमाणत्तं; जावपसत्यं । ___ २९४ प्रश्न-से पूर्ण भंते ! कंखपदोसे णं खीणे समणे णिग्गंथे अंतकरे भवइ ? अंतिमसरीरिए वा ? बहुमोहे वि य णं पुग्विं विहरित्ता, अह पच्छा संवुडे कालं करेइ, तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, जाव-अंत करेइ ? ___२९४ उत्तर-हंता; गोयमा ! कंखपदोसे खीणे, जाव-अंतं करेइ ।
विशेष शब्दों के अर्थ-लापवियं-लाघव, अप्पिच्छा-अल्प इच्छा, अमुच्छा-अमूर्छा, अगेही-अगृद्धि-अनासक्ति, अपडिबद्धया-अप्रतिबद्धता, अकोहत्तं-क्रोधरहितता, प्रमाणत्तंअमानत्व-मानरहितता, अमायत्तं-मायारहितता, अलोभत्तं-अलोभत्व-लोभरहितता, कंखपदोसे-कांक्षाप्रद्वेष, संवडे-संवरवाला। ___ भावार्थ-२९२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या लाघव, अल्पइच्छा, अमूर्छा, अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त है ?
२९२ उत्तर-हां, गौतम ! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं।
२९३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता और निर्लोभता, ये सब क्या श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? ___ २९३ उत्तर-हां, गौतम ! क्रोध रहितता यावत् निर्लोभता, ये सब श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org