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भगवती सूत्र-श. १ उ. १० उपपात विरह
हेट्टिमवाससयाई मन्तिमसहस्साई उरिमे लक्ला ।
संखेज्जा विष्णेया जहासंखेगं तु तीसुपि ॥ इन गाथाओं का अर्थ ऊपर दे दिया गया है । सब में जघन्य विरह काल एक समय का होता है।
चार अनुतर विमानों में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार विमानों में पल्योपम के असंख्यातवें भाग का और सर्वार्थसिद्ध विमान में पल्योपम के संख्यातवें भाग का उत्कृष्ट विरह काल होता है और जघन्य एक समय का । जैसा कि कहा है
पलियाअसंलमागो उक्कोसो होइ विरहकालोउ।
विजयाइसु निहिगो, सम्वेसु जहणमो सममो॥ - इस गाथा का अर्थ ऊपर दे दिया गया है। इन सब में उत्पाद विरह का तरह उद्वर्तना विरह भी कहना चाहिए।
पांच स्थावरों में कभी भी विरह नहीं होता । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में अन्तर्मुहूर्त का विरह होता है । संज्ञी तियंच और संझी मनुष्य में बारह मुहूर्त का विरह होता है अर्थात् इतने समय तक कोई उपजता या निकलता नहीं है। सिद अवस्था में उत्कृष्ट छह मास का विरह होता है, अर्थात् अधिक से अधिक छह मास तक कोई जीव मुक्त नहीं होता । यह सिद्धों का उपपात विरह काल है । सिंदों में उद्वर्तन विरह काल नहीं होता है, क्योंकि सिद्ध बना हुआ कोई भी जीव, वापिस नहीं निकलता अर्थात् वापिस संसार में नहीं आता। - इस प्रकार पण्णवणा सूत्र में विरह काल का वर्णन किया गया है।
सेवं भंते ! सेवं भंते !! अर्थात् हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे.भगवन् ! यह इसी प्रकार है । अर्थात् जैसा आप फरमाते हैं, वह वैसा ही है । यथार्य एवं सत्य है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते है।
॥ प्रथम शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ।
॥ प्रथम शतक समाप्त ॥
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