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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ पृथ्वीकायिक के स्थितिस्थानादि २५१ १९२ उत्तर--हे गौतम ! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, मानोपयुक्त भी हैं, मायोपयुक्त भी है और लोभोपयुक्त भी हैं । इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानों में अभंगक है। विशेष यह है कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहना चाहिये। इसी प्रकार अप्काय के लिये भी जानना चाहिये । तेउकाय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है। वनस्पतिकायिक को पृथ्वीकायिक के समान समझना चाहिए। विवेचन-एक एक कषाय में उपयुक्त बहुत से पृथ्वीकायिक होते हैं, इसलिए स्थितिस्थान आदि दस ही द्वारों में 'अभंगक' समझना चाहिए । पृथ्वीकायिक सम्बन्धी लेण्या द्वार में तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहना चाहिए। क्योंकि जब कोई एक देव या बहुत से देव, देवलोक से चव कर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तब पृथ्वीकायिक जीवों में तेजोलेश्या होती है और उनके एकत्वादि के कारण अस्सी भंग होते हैं। . पृथ्वीकायिकों के स्थितिस्थान द्वार का कथन ऊपर किया गया है । बाकी द्वारों का वर्णन नारकियों की तरह कहना चाहिए, किन्तु शरीरादि सात द्वारों में भेद है, वह इस प्रकार है-पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तेजस् और कार्मण । पृथ्वोकायिक जीवों के शरीर संघात रूप में मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकार के पुद्गल परिणमते हैं । उनका संस्थान हुण्डक होता है। नैरयिकों में भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय ऐसे शरीर के दो भेद कहे थे, वे पृथ्वीकायिकों में नहीं कहना चाहिए । पृथ्वीकायिकों में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या, ये चार लेश्याएँ होती हैं । तीन लेश्याओं में अभंगक समझना चाहिये और तेजोलेश्या में अस्सी भंग होते हैं । पृथ्वीकायिक जीव एकान्त मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होते हैं, उनमें मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान, ये दो अज्ञान पाये जाते हैं। पृथ्वीकायिकों में सिर्फ एक काययोग होता है। उनमें मनयोग और वचन योग नहीं होता है। . . पृथ्वीकायिकों के समान अप्कायिकों का कथन कहना चाहिए । दस ही द्वारों में • वे अभंगक है, एक तेजोलेश्या में अस्सी भंग होते हैं, क्योंकि अप्काय में भी देव उत्पन्न . . तेउकाय और वायुकाय का कथन पृथ्वीकाय के समान कहना चाहिए । इनमें दस ही द्वारों में अभंगक कहना चाहिए । इनमें देव उत्पन्न नहीं होते, इसलिए तेजोलेश्या नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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