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________________ २५० भगवती सूत्र - १ उ. ५ पृथ्वीकायिक के स्थितिस्थानादि ठितिट्ठाणा पण्णत्ता ? १९१ उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जा ठितिट्टाणा पण्णत्ता । तं जहाः - जहन्निया ठिई जाव - तप्पा उग्गुव कोसिया ठिई | १९२-असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि जहणियाए ठितिए वट्टमाणा पुढविक्काइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता लोभोवउत्ता ? १९२ उत्तर - गोयमा ! कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि, मायोवउत्ता वि, लोभोवउत्ता वि । एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं । नवरं तेउलेस्साए असीतिभंगा, एवं आउनकाइया वि । तेउक्काइया, वाउक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं । वणस्संहकाइया जहा पुढविक्काइया । विशेष शब्दों के अर्थ - असंखिज्जेसु - असंख्यात में 1 भावार्थ - १९१ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक एक आवास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थितिस्थान कहे गये हैं ? • १९१ उत्तर - हे गौतम ! उनके असंख्य स्थितिस्थान कहे गये हैं । यथाउनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि यावत् उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति । .१९२ प्रश्नन - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के असंख्यात लाख आवासों में से एक एक आवास में बसने वाले और जघन्य स्थिति में वर्तमान पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं ? मानोपयुक्त है ? मायोपयुक्त हैं ? या लोभोपयुक्त हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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