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________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का स्वर्ग गमन महव्वयाणि आरोवित्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हे हिं सधि विपुलं पव्वयं तं चेत्र निरवसेसं जाव - आणुपुव्वी कालगए । इमे य से आयारभंड | Jain Education International विशेष शब्दों के अर्थ – परिनिव्वाणवत्तियं परिनिर्वाण के निमित्त, पच्चीसक्कंति - नीचे उतरते हैं, पगइमद्दए – प्रकृति के भद्र, मिउमद्दवसम्पन्ने — कोमल एवं निरभिमानी, अल्लीणे - गुरु के आश्रय में रहने वाले । भावार्थ - इसके पश्चात् स्कन्दक अनगार, जिन्होंने कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप के श्रमणों के पास ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा था, वे बराबर बारह वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित (सेवित - युक्त) करके साठ भक्त अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके; समाधि को प्राप्त करके वे धर्म को प्राप्त हो गये । इसके पश्चात् उन स्थविर मुनियों ने स्कन्दक मुनि को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी ( मृत्यु सम्बन्धी ) कायोत्सर्ग किया । फिर उनके वस्त्र और पात्रों को लेकर वे विपुल पर्वत से धीरे धीरे नीचे उतरे, उतर कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजे हुए थे वहां आये । भगवान् को वन्दना नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा- हे भगवान् ! आपके शिष्य स्कन्दक अनगार जो कि प्रकृति के भद्र, विनयी, शांत, अल्प क्रोध, मान, माया, लोभवाले, कोमलता और नम्रता के गुणों से युक्त, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, भद्र और विनीत थे । वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोपण करके, साधु साध्वियों को खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर गये थे यावत् वे संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं, ये उनके उपकरण ( वस्त्र, पात्र ) हैं । विवेचन - स्कन्दक मुनि को कडाई स्थविरों ने कायोत्सर्ग किया। ४४७ - कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर उनके साथ गये हुए फिर उनके वस्त्र पात्र लेकर भगवान् के पास आकर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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