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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभी परारंभी आदि का वर्णन ९१ लेश्या वाले जीवों के निरूपण में संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक ऐसे दो भेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि लेश्या वाले जीव संसार समापन्नक ही होते हैं, असंसार समापन्नक नहीं । कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में औधिक (सामान्य जीव) के समान समझना चाहिए। किन्तु इनमें प्रमादी, अप्रमादी के भेद नहीं है, क्योंकि इन लेश्या वाले अप्रमत्त संयत नहीं होते हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्या के प्रश्नोत्तर वैसे ही समझना चाहिए जैसे समुच्चय जीव के विषय में है । इन लेश्याओं में संयत, असंयत, प्रसादी और अप्रमादी के भेद भी हैं। प्रमादी में भी तेजोलेश्या, पद्यलेश्या और शुक्ल लेश्या होती है * उसमें शुभयोग और अशुभ योग भी होता है । यदि वह उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है, तो अनारम्भी है और यदि ऐसा नहीं करता है, तो अनारम्भी नहीं है। तेजोलेश्या आदि में समुच्चय जीव की अपेक्षा इतनी विशेषता है कि इनमें असंसारसमापन्नक (सिद्ध) नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध अलेश्य हैं। * टीकाकार कृष्णादि तीन भाव लेश्याओं में संयम नहीं मानते हैं, किन्तु यह बात संगत नहीं होती है, क्योंकि जीव को चारित्र आते ही सातवां गुणस्थान ही आता है। फिर जीव सातवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान में आ सकते हैं । किन्तु नीचे के गुणस्थानों में नहीं। मातवें गणस्थान में तो तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याए ही होती हैं और छठे गुणस्थान में छहों ही हैं । यदि उनमें भाव कृष्णादि लेश्याएं मानी जाय तब तो उनमें द्रव्य कृष्णादि लेश्याएं मानी जा सकती है। और यदि भाव कृष्णादि तीन तीन लेश्याएं न मानी जाय तो द्रव्य तीन लेश्याएं केसे आवेगी? क्योंकि उन भाव लेश्याओं के बिना वे द्रव्य लेश्याएं प्राप्त नहीं हो सकती । हाँ, यह हो सकता है कि भाव लेश्या हट जाने के बाद भी द्रव्य लेश्या कुछ समय तक रह सकती है, किन्तु भाव लेश्या के बिना द्रव्य लेश्या नहीं आ सकती। भाव लेश्या तो उन उन द्रव्य लेश्याओं के बिना भी आ सकती है। चारित्र (छठे गणस्थान) में छह लेश्याएं शास्त्र में बताई है। जबकि जीव सातवें गुणस्थान से ही छठे में आते हैं और सातवें में तीन ही लेश्याएं हैं, तो फिर छठे में तीन तो भाव लेश्या और कृष्णादि तीन द्रव्य लेश्या, ये छह मानें तो तीन भाव लेश्याओं का मानना तो ठीक हो जायगा, क्योंकि वे तो सातवें में थी ही, किन्तु कृष्णादि तीन द्रव्य लेश्या कहाँ से आई ? क्योंकि भाव लेश्या के बिना द्रव्य लेश्या आ नहीं सकती, यह ऊपर बताया जा चुका है। अतः कृष्णादि तीम भाव लेश्याओं के मानने पर ही कृष्णादि तीन द्रव्य लेश्याओं का मानना युक्ति संगत हो सकेगा । कृष्णादि अशुभ लेश्याओं के भी असंख्य दर्जे हैं। उनमें से नीचे के ज्यादा खराब अशुभ दर्जी को छोड़कर ऊपर के कम अशुभ दर्जे वाले परिणाम थोड़ी देर के लिये किसी किसी के हो जाते हैं । हाँ, यह बात अवश्य है कि कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं में चारित्र की प्राप्ति नही होती, परन्तु चारित्र प्राप्त हो जाने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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