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________________ ___ ९० भगवती सूत्र-श. १ उ. १ आत्मारंभी परारंभी आदि का वर्णन षता यह है कि इन जीवों में सिद्धों को नहीं कहना चाहिए। ५२-वाणव्यन्तरों से लगा कर वैमानिक देवों तक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। ५३-लेश्या वाले जीव सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए । कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि यहाँ पर प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन लेश्या वाले सब प्रमत्त ही होते हैं। तेजो लेश्या वाले, पद्म लेश्या वाले और शुक्ल लेश्या वाले जीव सामान्य जीवों की तरह कह देना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि सिद्ध जीव नहीं कहना चाहिए। विवेचन-नरक के जीव अव्रती हैं, इसलिए वे अनारम्भी नहीं हैं । इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक सभी अनारम्भी नहीं हैं, क्योंकि वे सभी अव्रती हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय और चौइंद्रिय जीवों के लिए भी यही बात है, वे आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। ... ___तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों में कोई-कोई श्रावक तो हो सकते हैं, किन्तु वे सर्व-विरति चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकते, इसलिए वे भी अनारम्भी नहीं हैं। मनुष्य संयत और असंयत के भेद से दो प्रकार के हैं । संयत के भी प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो भेद हैं। जीव के विषय में पहले समुच्चय रूप से जो कहा गया है वही यहाँ भी समझना चाहिए। . वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में नरक जीवों के समान ही समझना चाहिए, क्योंकि अव्रत को अपेक्षा नारकी और देव समान ही हैं। - . लेश्या वाले जीवों के विषय में प्रश्न किया गया है। लेश्या का स्वरूप इस प्रकार है कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ - अर्थात्-कृष्ण आदि द्रव्यों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उसे लेश्या कहते हैं। जैसे स्फटिक के नीचे काले रंग की वस्तु रखने से स्फटिक काला दिखाई देता है वैसे ही लेश्या से आत्मा हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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