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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ आत्मारंभ परारंभ आदि का वर्णन ८९ से ट्ठे - हे भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गोयमा - हे गौतम ! अविरइं पडुन्च - अविरति की अपेक्षा, से तेणट्ठेणं - अविरति के कारण नैरयिक आत्मारम्भी आदि हैं, जाव णो अणारम्भा - किन्तु अनारम्भी नहीं हैं, एवं -- इस प्रकार, असुरकुमारा वि -- असुरकुमारों का जान लेना चाहिए, जाव पाँचदिय तिरिक्ख जोणिया - यावत् तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तक जान लेना चाहिए । मणुस्सा जहा जीवा - मनुष्य पूर्वोक्त सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिए, वरं - किन्तु विशेषता यह है कि, सिद्ध विरहिया भाणियव्वा -- इन जीवों में सिद्धों का नहीं कहना चाहिए वाणमंतरा जाव वेमाणिया -- वाणव्यन्तरों से लगा कर वैमानिक देवों तक, जहा णेरइया - नैरयिकों की तरह कहना चाहिए । सलेस्सा - लेश्या वाले जीव, जहा ओहिया - सामान्य जीवों की तरह कहना, चाहिए | कण्हलेसस्स, णीललेसस्स, काउलेसस्स - कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले, जहां ओहिया जीवा - सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए, नवरंकिन्तु इतना अन्तर है कि, पमत्ता अप्पमत्ता ण भाणियव्वा – यहाँ पर प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहना चाहिए, तेउलेसस्स पम्हलेसस्स सुक्कलेसस्स - तेजोलेश्या वाले, पद्यश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले जीव, जहा ओहिया जीवा - औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए, वरं - किन्तु इतनी विशेषता है कि, सिद्धा ण भाणियव्वा - सिद्ध जीव नहीं कहना चाहिए । भावार्थ-४ - ४९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं या अनारम्भी हैं ? ४९ उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं । · ५० प्रश्न - हे भगवन् ! आप इस प्रकार किस कारण से कहते हैं। ५० उत्तर - हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा ऐसा कहा जाता है कि नरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं । इस प्रकार असुरकुमार का भी जान लेना चाहिए। यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तक जान लेना चाहिए । ५१ - मनुष्य पूर्वोक्त सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिए, किन्तु विशे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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