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________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन ४२५ _ विवेचन-यहां यह कहा गया है कि स्कन्दक मुनि ने ग्यारह अंग पढ़े। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि स्कन्दकजी के मुनि होने के पहले ही ग्यारह अंगों की रचना हो चुकी थी, तभी तो उन्होंने इनको पढ़ा । यहाँ यह शंका होती है कि भगवती सूत्र पांचवां अंग सूत्र है, फिर इसमें स्कन्दक मुनि का वर्णन कैसे आया ? ___ इस शंका का समाधान यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तीर्थ में नौ वाचनाएँ हुई थी, इसलिए उन वाचनाओं में स्कन्दक मुनि के तुल्य अन्य किसी का वर्णन था और जब स्कन्दक मुनि बने, तब सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी के प्रति स्कन्दक मुनि के चरित्र का वर्णन किया । इसलिए इसमें विरोध की कोई बात नहीं है। अथवा गणधर अतिशय ज्ञानी होते हैं, इसलिए भविष्यत्काल की बात का वर्णन यदि वे अपनी वाचना में करदें, तो कोई बाधा जैसी बात नही है और इस चरित्र में जो भूतकाल का निर्देश किया है, वह आगामी शिष्य समूह की अपेक्षा से है, इसलिए वह भी निर्दोष है। स्कन्दक मुनि ने भिक्षु की बारह प्रतिमा अंगीकार की । भिक्षुप्रतिमाओं का स्वरूप इस प्रकार है ___साधु के अभिग्रह विशेष को 'भिक्खुपडिमा'-भिक्षुप्रतिमा कहते हैं । वे बारह हैं । एक मास से लेकर सात मास तक सात पडिमाएं हैं। आठवीं, नववीं और दसवीं पडिमाओं में प्रत्येक सात दिनरात्रि की होती है । ग्यारहवीं एक अहोरात्रि की और बारहवीं एक रात्रि की होती है। . पडिमाधारी मुनि, अपने शारीरिक संस्कारों को तथा शरीर के ममत्व-माव को छोड़ देता है और दैन्यभाव न दिखाते हुए देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करता है । वह अज्ञात कुल से और थोड़े परिमाण में गोचरी लेता है। गृहस्थ के घर पर मनुष्य, पशु, श्रमण, ब्राह्मण, भिखारी आदि भिक्षार्थ खड़े हों, तो उसके घर नहीं जाता, क्योंकि उनके दान में अन्तराय पड़ती है। अतः उनके भिक्षादि से निवृत्त होने पर जाता है। (१) पहली पडिमाधारी साधु को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। साधु के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और पानी की जबतक धारा अखण्ड बनी रहे.उसका नाम 'दत्ति' है। धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। उनके आहार प्राप्त करने में यह नियम है कि एक व्यक्ति के भोजन में से भिक्षा लेनी चाहिए, किन्तु जहाँ दो, तीन, चार, पांच या अधिक व्यक्तियों का भोजन हो, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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