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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ मनुष्य के स्थिति आदि . २५५ कार्मण । उन में वज्रऋषभनाराचादि छह महनन, समचतुरस्र आदि छह संस्थान और कृष्णादि छहों लेश्याएँ होती हैं । मनुष्य के स्थिति प्रादि १९५-मणुस्सा वि जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीतिभंगा तेहिं. ठाणेहिं मणुस्साणं वि असीतिभंगा भाणियव्वा । जेसु ठाणेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं । नवरं-मणुस्साणं अब्भहियं जहणियठिइए, आहारए य असीति भंगा। विशेष शब्दों के अर्थ-अमहियं-अधिक । भावार्थ-१९५-नारको जीवों में जिन जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे. गये हैं, उन उन स्थानों में मनुष्यों में भी अस्सी भंग कहना चाहिए । वारको जीवों में जिन जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं उन.उन स्थानों में मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए । विशेषता यह है कि मनुष्यों में जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग कहना चाहिए। विवेचन-पहले नारकी जीवों का दस द्वारों से वर्णन किया जा चुका है। उनमें से जिन जिन द्वारों में नारकियों के अस्सी भंग कहे हैं, उन उन द्वारों में मनुष्य के सम्बन्ध में भी अस्सी भंग ही समझना चाहिए। एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्यात समय अधिक तक की जघन्य स्थिति में, जघन्य अवगाहना में, तथा एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना से ले कर संख्यात प्रदेश अधिक तक की जघन्य अवगाहना में और मिश्रदृष्टि में जिस प्रकार नारकी जीवों के विषय में अस्सी भंग कहे हैं, उसी प्रकार इन द्वारों में मनुष्यों के विषय में भी अस्सी ही भंग समझना चाहिए, क्योंकि ऐसे मनुष्य कम होते हैं । नारकी जीव और मनुष्य सम्बन्धी प्ररूपणा में इतना अन्तर है कि-जिन स्थानों में नारकियों के सत्ताईस भंग बतलाए हैं, वहाँ मनुष्य में अभंगक समझना चाहिए । इसका कारण यह है कि नारकी जीवों में अधिकांशतः क्रोध का ही उदय होता है, इस कारण नारकियों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, किन्तु मनुष्य क्रोधादि सभी कषायों में उपयुक्त बहुत जीव पाये जाते हैं और उनके कषायोदय में कोई खास विशेषता नहीं है इसलिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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