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२५६.
भगवती सूत्र-श. १ उ. ५ वाणव्यन्तरादि के स्थिति आदि ।
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मनुष्य के सम्बन्ध में अभंगक (भंगों का अभाव) बतलाया गया है।
__ मनुष्य की प्ररूपणा में इतनी बात नरयिकों से अधिक समझना चाहिए;-नारकियों के जघन्य स्थिति में सत्ताईस भंग होते हैं, किन्तु मनुष्यों की जघन्य स्थिति में अस्सी भंग होते हैं । मनुष्यों में आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, क्योंकि आहारक शरीर वाले मनुष्य कम ही होते हैं और नैरयिक जीवों में तो आहारक शरीर होता ही नहीं। ..
__ मनुष्यों के छह संस्थान, छह संहनन और छह लेश्याएं होती हैं । मनुष्यों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान, ये पांचों ज्ञान होते हैं । इनमें से चार ज्ञानों में अभंगक कहना चाहिए। केवलज्ञान में किसी भी कषाय का उदय नहीं होता है।
वाणव्यन्तरादि के स्थिति आदि
१९६-चाणमंतर-जोइस-चेमाणिया जहा भवणवासी। णवरंणाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स, जाव-अणुत्तरा।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ ।
॥ पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-वाणमंतर-वाणव्यन्तर देव, जोइस-ज्योतिषी देव, वेमाणिया-वैमानिक देव।
भावार्थ-१९६-वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन भवनपति देवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि-जिसको जो भिन्नता है वह जानना चाहिए, यावत् अनुत्तर विमान तक कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेचन-पहले भवनपति देवों का वर्णन दस द्वारों से किया गया है, उसी वर्णन के अनुसार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का वर्णन समझना चाहिए । भवन- .
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