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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ पृथ्वीकायिक में आहागदि १३३ वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों में भी कहना चाहिए। - विवेचन-श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के सब जीव समान आहारी हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! पृथ्वीकाय के सब जीव समान आहारी नहीं है, क्योंकि पृथ्वीकाय के जीवों के.दो भेद हैं-महाशरीरी और अल्पशरीरी। महाशरीरी का आहार आदि वारबार होता है और अल्पशरीरी का कदाचित् होता है, इत्यादि समस्त वर्णन तथा कर्म, वर्ण, लेश्या आदि का वर्णन नैरयिकों के समान ही सम-. झना चाहिए। ___ शंका-पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग कहा गया है, फिर उनमें महाशरीर और अल्पशरीर कैसे हो सकता है ? समाधान-अँगुल के असंख्यातवें भाग वाले शरीर में भी तरतमता से असंख्य भेद होते. हैं । अतएव एक दूसरे की अपेक्षा से उनमें कोई महाशरीरी है और कोई अल्पशरीरी है। इस सम्बन्ध में आगम प्रमाण है। पन्नवणा सूत्र में कहा है-+पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना की अपेक्षा चउट्ठाणवडिया (चतुःस्थान पतित) है । यथा-असंख्यातभागहीन, संख्यात-भागहीन, संख्यात-गुणहीन, असंख्यात-गुणहीन, असंख्यात-भागवृद्ध, संख्यातभागवृद्ध, संख्यात-गुणवृद्ध, असंख्यात-गुणवृद्ध । इन चार स्थान वाले होते हैं । इन्हें चउट्ठाणवडिया कहते है । तात्पर्य यह है कि-यद्यपि सब पृथ्वीकायिक जीव अंगुल के असंख्यातवें भाग शरीर वाले हैं, तथापि उनकी परस्पर अवगाहना में चउट्ठाणवडिया हीनता औरच उट्ठाणवडिया वृद्धि पाई जाई जाती हैं। इस अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव अल्पशरीरी भी है और महाशरीरी भी है। . ... + 'पुढबीककाइए पुढवीक्काइयस्स ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवहिए'। + वुढ्ढी वा हाणी वा, अणंत-अस्संख-संखभागेहि । वत्थूण संख-अस्संखऽणंतगुणणेण य विहेआ॥ - जहाँ छट्ठाण वडिया (षट्म्थान पतित) शब्द आता है, वहां छह स्थान इस प्रकार हैं-वृद्धि सम्बन्धी छह स्थान-अनन्त-भाग-वृद्ध, असंख्यात-भाग-वृद्ध, संख्यात-भाग-वृद्ध, संख्यात-गुण-वृद्ध, असंख्यात . गुण-वृद्ध, अनन्त-गण-वृद्ध । हानि सम्बन्धी छह स्थान ये हैं-अनन्त-भाग-हीन, असंख्यात-भाग-हीन, संख्यात-भाग-हीन, संख्यातगुण-हीन, असंस्थात-गुण-हीन, अनन्त-गुण-हीन । इसी तरह तिहाणज्यिा , दुट्ठाणवडिया, एगट्ठाणवडिया आदि भी समझ लेना चाहिए। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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