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________________ ११२ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ स्वकृत कर्म वेदना प्रकार आयुष्य के सम्बन्ध में भी एक वचन आश्रयी और बहुवचन आश्रयी दो दण्डक-आलापक कह देने चाहिए। एक वचन से यावत् वैमानिकों तक कहना और बहुवचन से भी उसी प्रकार वैमानिकों तक चौबीस ही दण्डक में कह देना चाहिए । विवेचन - पहले उद्देशक में 'चलन' आदि का कथन किया गया है, दूसरे उद्देशक में भी उसी का कथन किया जाता है। तथा उद्देशक की संग्रहणी गाथा में कहे हुए 'दुक्ख' शब्द का विवेचन किया जाता है । गौतम स्वामी ने भगवान् से यह प्रश्न किया है कि - हे भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख भोगता है | इस प्रश्न से यह बात स्पष्ट होती है कि-जीव अपने किये हुए कर्म को ही भोगता हैं, किन्तु दूसरों के किये हुए कर्म को नहीं भोगता है । जैसा कि कहा है Jain Education International स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ अर्थात्-स्वयं आत्मा ने जो कर्म पहले उपार्जन किये हैं, उन्हीं कर्मों का शुभ या शुभ फल वह आत्मा भोगता है । यदि दूसरे के किये हुए कर्मों का फल आत्मा भोगने लगे, तो अपने किये हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे । यहाँ 'दुःख' शब्द से 'कर्म' लिया गया है। क्योंकि सांसारिक सुख या दुःख कारण रूप कर्म ही है । दुःख तो दुःख रूप है ही, किन्तु सांसारिक सुख भी दुःख रूप ही हैं । परसंयोग से कभी सुखं प्राप्त नहीं होता, दुःख ही होता है । सांसारिक सुख में निराकुलता नहीं है, व्याकुलता है, अतृप्ति है, भय है, उसका शीघ्र अंत हो जाता है, उसकी मात्रा अत्यल्प होती है, इन सब कारणों से सांसारिक सुख वास्तव में दुःख रूप है । यहाँ प्रश्नवाची कोई शब्द नहीं है तथापि काकुपाठ से प्रश्न समझना चाहिए । गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि जीव कुछ कर्म को भोगता है और कुछ को नहीं भोगता । इसका कारण यह हैं कि कर्म की दो अवस्थाएं हैंउदयावस्था और अनुदयावस्था । जो कर्म उदीरणा द्वारा या स्वाभाविक रूप से उदय में आये हैं उन्हें जीव भोगता है और जो कर्म अब तक उदय में नहीं आये हैं उन्हें नहीं भोगता है । शास्त्र में कहा है कि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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