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________________ २८४ भगवती सूत्र--श. १ उ. ६ स्नेहकाय २३० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल जलकाय को भांति परस्पर समायुक्त होकर बहुत समय तक रहता है ? २३० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि वह सूक्ष्म स्नेहकाय शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर गौतम स्वामी तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। विवेचन-गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय (अप्काय) निरन्तर पड़ता रहता है ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! सदा पड़ता रहता है और वह प्रमाणयुक्त ही पड़ता है । बादर अप्काय की तरह अपरिमित नहीं पड़ता है । जैसे बादर अप्काय कहीं पड़ता है और कहीं नहीं पड़ता हैं, कभी पड़ता है और कभी नहीं पड़ता है, यह बात सूक्ष्म स्नेहकाय के विषय में नहीं है । सूक्ष्म स्नेहकाय सदा पड़ता है और सब जगह पड़ता है । सूक्ष्म स्नेहकाय का अर्थ-यहाँ 'सूक्ष्म' का अर्थ 'सूक्ष्म नाम कर्म वाले जीव' नहीं समझना चाहिये, किन्तु यह बादर अप्काय ही है, परन्तु चर्म चक्षुओं के अगोचर होने से इन्हें 'सूक्ष्म' कहा है। ___ यह सूक्ष्म स्नेहकाय दिन में तो सूर्य के ताप से ऊपर ही नष्ट ही जाता है, किन्तु रात्रि के समय नीचे तक आता है । अतः साधारणतः मुनियों को सूर्यास्त के बाद बिना छाये हुए स्थान में नहीं रहना चाहिये । यदि लघुनीत आदि परठने के लिये जाना पड़े, तो शरीर और सिर को ढक लेना चाहिये । उघाड़े शरीर और सिर रखकर खुले में नहीं जाना चाहिये। इस विषय में टीकाकार कहते हैं कि शिशिरऋतु (शीतकाल) में दिन के पहले और चौथे पहर में तथा ग्रीष्मऋतु में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आधा आधा पहर स्नेहकाय की रक्षा के लिये लेप वाले पात्र को बाहर न रखना चाहिये। ___टीकाकार का उपरोक्त कथन शास्त्र से मेल नहीं खाता है, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में पडिमाधारी मुनि के लिये ऐसा वर्णन आया है कि-"जहाँ सूर्यास्त हो जाय, वहीं उसे ठहर जाना चाहिये और सूर्योदय होते ही विहार कर सकते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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