SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ६ स्नेहकाय.. यदि पहले और चौथे पहर में सूक्ष्म स्नेहकाय नीचे तक आता होता, तो अग्नि और सिंह के उपद्रव से भी अपना बचाव नहीं करने वाले उन पडिमाधारी मुनियों के लिये सूक्ष्म स्नेहकाय की विराधना के प्रसंग पर विहार करने का विधान कैसे होता ? इससे स्पष्ट होता है कि सूर्योदय मे लेकर सूर्यास्त तक सूक्ष्म स्नेहकाय यहाँ नीचे तक नहीं पहुँचता है । अतः टीकाकार का उपर्युक्त कथन संगत नहीं है । इस प्रसंग को लेकर कई नवीन विचारक मुनियों का कहना है कि रात्रि को अछाये (बिना ढके) हुए स्थान में पूँजना नहीं चाहिये, पूँजने से उन सूक्ष्म स्नेहकाय के जीवों की विराधना होती है । किन्तु यह बात आगम विरुद्ध है, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की पहली दशा में और समवायांग बीसवें समवाय में बतलाया है कि बिना पूँजे चलना 'असमाधि स्थान' है । यदि पूंजने से जोव विराधना का कारण होता, तो यह शास्त्र विधान कैसे होता ? किसी का ऐसा कथन भी है कि 'जिस तरह 'धूंअर' (महिका) मकान के अन्दर भी आ जाती है, इसी तरह सूक्ष्म स्नेहकाय, जो कि धूअर से भी सूक्ष्म है, वह भी मकान के अन्दर आजायगी, फिर छाये हुए स्थान में और अछाये हुए स्थान में अन्तर ही क्या रहेगा ? मुनि कहीं भी सोये, वैठे, तो क्या ?' किन्तु यह कथन भी शास्त्र संगत नहीं है । क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में, रात्रि के समय छाये हुए स्थान को 'स्थल' और अछाये हुए स्थान को 'जल' कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि सूक्ष्म स्नेहकाय छाये हुए स्थान में नहीं आता है, क्योंकि उस पर वायु का असर नहीं होता है । Jain Education International २८५ यह सूक्ष्म स्नेहकाय ऊर्ध्वलोक में अर्थात् गोल वैताढ्य पर्वत आदि पर, अधोलोक मैं अर्थात् अधोलोक के ग्रामादि में और तिछेलोक में गिरता है और ज्यों ही गिरता है, त्यों ही विध्वंस हो जाता है सूख जाता है । ॥ प्रथम शतक का छठा उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy